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चुनिंदा लघुकथाएँ - 6

लाजपत राय गर्ग

की

चुनिंदा लघुकथाएँ

(6)

जब तक तन में प्राण हैं....

शाम गहराने लगी थी और मौसम भी गड़बड़ाने लगा था। कबूतर अभी तक वापस नहीं आया था। कबूतरी को उसकी कुशलता की चिंता होने लगी। पल-पल गुज़रने के साथ कबूतरी की बेचैनी बढ़ रही थी, इन्तज़ार असह्य होती जा रही थी। पन्द्रह-बीस मिनटों के बाद दूर से आते कबूतर को देख उसके मन को राहत मिली। आलने में कबूतर के प्रवेश करते ही कबूतरी ने पूछा - ‘आज इतनी देर कहाँ लगा दी, मेरी तो जान ही निकलने को हो रही थी।’

‘तू तो बेवजह घबरा जाती है। कभी-कभार दूर निकल जाने पर लौटने में देरी हो भी जाती है। तुझे कितनी देर हुई आये हुए?’

‘एक घंटा हो गया तुम्हारी इन्तज़ार करते। पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। हम हमेशा आगे-पीछे ही घर पहुँचते हैं। इसलिये अकेले में घबराहट तो होनी ही थी। ऊपर से यह मौसम!’

‘चल, अब चिंता छोड़ और यह बता, आज दिन कैसे गुज़रा?’

‘दिन रोज जैसा ही बीता, कुछ विशेष नहीं था। किन्तु घर आने के बाद मालकिन और उसके पति की बातचीत सुनकर मैं बेचैन हो उठी हूँ।’

‘ऐसा क्या हुआ?’

‘मुझे घर आये हुए कुछ मिनट ही हुए थे कि मालिक भी आ गया। आते ही उसने मालकिन को पुकारा और पूछा - ‘पम्मी, तुम्हारी रिपोर्ट आ गई?’ मालकिन ने कहा - ‘हाँ, रिपोर्ट आ गई है। मुझ में कोई कमी नहीं है।’

‘कमी नहीं है तो इतने सालों में तुम बच्चा क्यों नहीं दे पाई मुझे?’

‘जरूरी तो नहीं कि औरत में कमी के कारण ही बच्चा न हो। तुम अपनी जाँच क्यों नहीं करवा लेते?’

‘मैं......मैं क्यों जाँच करवाऊँ? मेरे में क्या कमी है? मैंने तुझे खुश करने में कभी कमी छोड़ी है जो तू मुझे जाँच के लिये कह रही है। देख, बहुत इन्तज़ार कर ली मैंने। अब और नहीं। मैं वकील के पास गया था। तलाक के कागज तैयार करवा लिये हैं मैंने। इनपर साईन कर दे, वरना....’

‘वरना क्या?’

‘वरना मुझे कोई और सख्त कदम उठाना पड़ेगा। मैं और इन्तज़ार नहीं कर सकता। मुझे बच्चा चाहिये अपना वंश चलाने के लिये।’

‘मैं कौन-सा बच्चा नहीं चाहती? मैं भी माँ बनना चाहती हूँ। मैं भी चाहती हूँ कि नन्हा-सा बालक मेरी गोद में किलकारियाँ मारे। इसीलिये कहती हूँ कि तुम भी एकबार अपनी जाँच करवा लेते।’

‘जाँच....जाँच....जाँच। मेरे कान पक गये यह सुनते-सुनते। तुझे कई बार कह चुका हूँ कि मुझमें कोई कमी नहीं है, और न मैं जाँच करवाऊँगा। बिना हील-हुज्जत के तलाक के कागज साईन कर दे.....’

मालिक की इतनी तल्ख बातों के बाद मालकिन रोने लग गई। आगे उनमें क्या बातें हुईं, मैं सुन नहीं पायी। मैं तब से ही उद्विग्न हूँ।......एक बात बताओ, हमारा भी कोई बच्चा नहीं है। क्या तुम्हारे मन में भी कभी मुझे छोड़ने का विचार आया है?’

‘यह ठीक है कि बच्चा न होने की कसक तो है, किन्तु हमें मनुष्य की तरह वंश चलाने की फिक्र नहीं है। हम वर्तमान में जीते हैं, भविष्य की आशा नहीं करते। और जहाँ तक तुमसे सम्बन्ध की बात है तो समझ लो कि जब तक तन में प्राण हैं, तुम्हें छोड़ने की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता।’

*****

प्रश्न आस्था का

सरदार हरदयाल सिंह ने अपने बेटे प्रीतम के विवाह के अवसर पर घर में ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब’ का अखंड पाठ करवाना था। बेटी और दामाद के कहने पर उसे लेडीज़ संगीत का कार्यक्रम भी रखना पड़ा। तय हुआ कि अखंड पाठ नीचे ड्राईंग रूम में होगा और लेडिज़ संगीत दूसरी छत पर।

लेडिज़ संगीत के पश्चात् डिनर का प्रोग्राम था। गाने-बजाने के उपरान्त जब डिनर आरम्भ हुआ तो हरदयाल के करीबी दोस्त निहाल सिंह ने उसे सम्बोध्ति करते हुए पूछा - ‘ओए हरदयालिया, तू प्रीतम के विवाह में मेहमानों को घास-फूस ही खिलायेंगा, मीट-शीट तो दिखाई नहीं दिया?’

हरदयाल को बेशक मीट से परहेज़ नहीं था, फिर भी उसने शाकाहारी भोजन का ही प्रबन्ध किया था। उसने उत्तर दिया - ‘जब तक घर में बाबा जी का प्रकाश (श्री गुरु ग्रंथ साहिब की उपस्थिति) है, तब तक नो मीट-शीट।’

*****

नीयत

गिरीश एक दिन नगर के सिविल लॉ के प्रसिद्ध वकील श्री टण्डन जी के पास गया और उनसे पूछा - ‘सर, मैं आपसे एक राय लेने आया हूँ। क्या मेरी विधवा बहिन की जायदाद मेरी हो सकती है?’

‘तुम्हारी बहिन के बाल-बच्चे?’

‘कोई नहीं, वह निःसन्तान है। सर, यदि मैं थोड़े विस्तार से सारा घटनाक्रम आपके सामने रखूँ तो आपको कोई एतराज़ तो नहीं?’

‘नहीं, बल्कि मेरे लिये राय देने में सहूलियत रहेगी।’

‘सर, मेरी बहिन के दूसरे पति का कुछ दिन पूर्व ही हार्ट अटैक से देहान्त हुआ है। मेरे बहनोई भूपेन्द्र जी ने अपनी पत्नी की मृत्यु के पश्चात् दो साल पहले ही मेरी बहिन से इसलिये विवाह किया था कि उन्हें अपने जीवन के सूनेपन को भरने के लिये एक साथी की तलाश थी। मेरी बहिन भी अपना पति रोड एक्सीडेंट में खो चुकी थी। सोशल मीडिया बना माध्यम। बातचीत हुई। फिर मुलाकात। अन्ततः दोनों ने विवाह का निर्णय लिया। विवाह-पूर्व उनके दोनों बेटों ने खूब विरोध किया। भूपेन्द्र जी अचल सम्पत्ति में से बेटों को उनका हिस्सा देकर विरोध शान्त करने में सफल हो गये। जायदाद के बंटवारे के बाद भी भूपेन्द्र जी के पास एक कनाल की कोठी रह गई। भूपेन्द्र जी के साथ रहते हुए लगभग आठ-दस महीने में ही अपने व्यवहार से मेरी बहिन, परिणिता ने न केवल भूपेन्द्र जी का प्यार पाया बल्कि उन्हें अपनी वफादारी के प्रति भी आश्वस्त कर दिया। भूपेन्द्र जी ने इसी को ध्यान में रखते हुए अपने हिस्से की जायदाद की वसीयत परिणिता के नाम कर दी।’

‘तुम्हारी बहिन की उम्र क्या होगी?’

‘अभी वह पचास-एक साल की है।’

‘पहले पति से उसके नाम कोई जायदाद?’

‘कोई नहीं सर।’

‘देखो मिस्टर गिरीश, तुम्हारी बहिन के जीते-जी तो किसी कानून के तहत उसकी जायदाद तुम्हें नहीं मिल सकती। उसके बाद भी तुम उसकी जायदाद पा सकोगे, मुझे शक है।’

गिरीश उन व्यक्तियों में से नहीं था, जो एक झटके में ही हार मान लेते हैं। उसने तरह-तरह की बातें करके तथा मोटी फीस का लालच देकर पूछा - ‘वकील साहब, आखिर कोई तो रास्ता होगा?’

उसकी बेबकूफियों से तंग आकर तथा उससे पीछा छुड़ाने की गर्ज़़ से वकील साहब ने कहा - ‘हाँ, एक है।’

उसने झट से पूछा - ‘वो क्या?’

‘यदि तुम सिद्ध कर दो कि तुम परिणिता के पति हो तो जायदाद पर तुम्हारा हक हो सकता है।’

यह सुनते ही उसके मुँह से निकला - ‘क्या वाकई ही ऐसा हो सकता है?’

*****

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