लाजपत राय गर्ग
की
चुनिंदा लघुकथाएँ
(1)
माँ, माँ होती है
आज राकेश जल्दी तैयार होकर वृद्धाश्रम पहुँचा। आज उसकी माँ का 80वाँ जन्मदिन है। उसने माँ के चरर्णस्पर्श किये, उनका मुँह मीठा करवाया। आशीर्वाद लिया। पूछा - ‘माँ, कोई तकलीफ तो नहीं?’
‘बेटे, वैसे तो सब ठीक ही है, किन्तु कई बार दो-दो घंटे बिजली चली जाती है तो बुजुर्गों को इस गर्मी में बहुत तकलीफ होती है। अगर इन्वर्टर या जनरेटर लग जाये तो सभी बुजुर्ग तुम्हें आशीष देंगे।’
‘माँ, कल ही इन्वर्टर और जनरेटर लग जायेंगे। और कोई तकलीफ?’
‘कई बार बाहर के लोग बिना पूर्व सूचना के भोजन दे जाते हैं। वह हमें शाम को या दूसरे दिन दिया जाता है। गर्मी की वजह से बासी भोजन कई बार नुकसान कर जाता है। अगर फ्रिज हो तो बचा हुआ भोजन दूसरे दिन भी खाने लायक रह सकता है।’
‘एक बड़ा फ्रिज भी कल ही आ जायेगा। और कुछ?’
‘बस, इतना होने से यहाँ का जीवन आरामदायक हो जायेगा।’
‘माँ, तुम पिछले पन्द्रह सालों से यहाँ रह रही हो, आज तक तुमने कभी इस तरह की तकलीफ का जिक्र क्यों नहीं किया?’
‘बेटे, मैं अस्सी साल की हो गई हूँ। पता नहीं कब प्राण-पखेरू उड़ जायें, तुम भी साठ साल के होने वाले हो। मैं ये सब सुविधाएँ इसलिये चाहती हूँ, क्योंकि और दो-चार साल में तुम्हें भी यहाँ आना पड़ेगा। तुम सुविधाओं के अभ्यस्त हो। मैं चाहती हूँ कि मेरे बेटे को यहाँ आने पर किसी तरह की तकलीफ न उठानी पड़े।
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दूसरा पिता
अविनाश शाम को कार्यालय से घर पहुँचा तो उसकी इकलौती बेटी मालती ने प्रश्नात्मक स्वर में कहा - ‘पापा, कृष्ण जी की दो माताएँ थीं?’
‘हाँ बेटे, देवकी और यशोदा। एक ने जन्म दिया, दूसरी ने लालन-पालन किया।’
‘पापा, यदि मैं किसी अन्य व्यक्ति को ‘पापा’ मानूँ तो आपको बुरा तो नहीं लगेगा?’
‘लेकिन क्यों और किसे?’
‘यदि आपने आराम या कोई और काम न करना हो तो मेरे साथ चलो, आपके प्रश्न का उत्तर स्वयं ही मिल जायेगा।’
अविनाश मालती से बेहद प्यार करता था, उसकी खुशी के लिये कुछ भी करने के लिये सदैव तत्पर रहता था। अतः उसने कहा - ‘चलो, कहाँ चलना है?’
‘कार में चलना पड़ेगा, जीरकपुर से थोड़ा आगे अम्बाला रोड पर।’
अविनाश ने कार निकाली और बिना प्रश्न किये मालती के साथ कार अम्बाला रोड की ओर बढ़ा दी। तीन-चार किलोमीटर चलने के बाद मालती ने एक ढाबे के सामने कार रुकवाई। सामने ‘मितर प्यारेयाँ दा ढाबा’ था। अविनाश ने कार रोकी और मालती के साथ उतर पड़ा। मालती अविनाश का हाथ पकड़कर ढाबे के अन्दर ले गई। गद्दी पर बैठे ढाबे के मालिक हरबख्श सिंह ने मालती को देखते ही उठते हुए कहा - ‘आओ बेटी’ और हाथ जोड़कर अविनाश को ‘सतश्री अकाल’ कहा।
मालती - ‘पापा, यही हैं मेरे दूसरे पापा।’
अविनाश अचम्भित। फिर भी उसने कोई प्रश्न नहीं किया। हरबख्श सिंह ने मालती की बात सुनकर और अविनाश के चेहरे के भाव पढ़कर कहा - ‘कल शाम वेले मैं आपणे स्कूटर ते ‘नीलम थियेटर’ दी पिछली सड़क तों आ रेहा सी कि मैं देख्या कि तिन-चार गुंडेयाँ ने मालती नूँ घेर रख्या सी। मैं ओन्हाँ नूँ वंगारिया ते मालती नूँ छड्डन लई केहा। इक्क जना बोल्या - ‘ओऐ सरदारा तूँ आपणा कम्म कर, सानूँ आपणा कम्म करन दे। ऐह तेरी की लगदी है?’ मैं कटार कढके जवाब दित्ता - ‘ऐह मेरी धी है, हुण किसे ने कोई हरकत कित्ती तां ऐस कटार तों बच्च नहीं सकना।’ ते ओन्हां गुंडेयाँ ने भज्जन ‘च ही खैर समझी।’
अविनाश ने ऊपर की ओर देखते हुए मन-ही-मन भगवान् को धन्यवाद दिया और हरबख्श सिंह के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर कहा - ‘भाई साइब, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। आपने मालती को बचाकर एक पिता व इन्सानियत का फर्ज़ बखूबी निभाया है, जिसके लिये धन्यवाद जैसे शब्द नाकाफी हैं।’
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पर उपदेश ......
कॉलेज के वार्षिक समारोह का आयोजन ओपन-एयर ऑडिटोरियम में किया गया था। छात्र-छात्राओं द्वारा विभिन्न कलाओं की रंगारंग प्रस्तुतियों की खूब सराहना हुई। शैक्षणिक, खेल-स्पर्द्धाओं तथा अन्य क्षेत्रों में श्रेश्ठ प्रदर्शन के लिये पुरस्कार वितरण किये गये। कार्यक्रम के अन्त में कॉलेज के वरिश्ठ तथा अर्थशास्त्र के विभागाध्यक्ष प्राध्यापक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने विद्यार्थिओं को सम्बोधित किया। अपने सम्बोधन में त्रिपाठी साहब ने जीवन में नैतिक मूल्यों के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए विद्यार्थिओं को सफलता प्राप्त करने के लिये नियमित जीवन जीने तथा शुद्ध आचरण करने के लिये आह्नान किया। सभी उपस्थित श्रोत्राओं ने उनके प्रेरक उद्बोधन का करतल-ध्वनि से अनुमोदन तथा स्वागत किया।
कार्यक्रम की समाप्ति पर सभी के लिये चार-चार लड्डुओं के लिफाफे वितरण की व्यवस्था थी। इसके लिये ऑडिटोरियम के निकासी-द्वार पर दो विद्यार्थी नियुक्त थे। छात्र-छात्राएँ और प्राध्यापकगण उसी द्वार से बाहर निकलते हुए प्रसाद ले रहे थे। ड्यूटी पर तैनात विद्यार्थियों की चौकसी के बावजूद कुछ छात्र-छात्राएँ तिकड़म से एक की जगह दो लिफाफे भी ले गये। व्यवस्था भंग न हो, इसलिये ड्यूटी दे रहे विद्यार्थी चुपचाप अपना कर्त्तव्य निश्ठा से निभाते रहे। त्रिपाठी साहब को जब उन्होंने लड्डुओं का लिफाफा दिया तो उन्होंने एक और माँग लिया।
ड्यूटी पर तैनात विद्यार्थी ने उन्हें दूसरा लिफाफा तो दे दिया, मगर वह इतना कहे बिना न रहा - ‘सर, आप भी!’
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ममि / मम्मी
अपने साढ़े चार वर्षीय बेटे सुनील की दिसम्बर की छुट्टियों में राजेश और नीता राजस्थान-भ्रमण के दौरान जब जयपुर पहुँचे तो जन्तर-मन्तर, जयपुर का महल, हवामहल, बिरला मन्दिर आदि देखने के उपरान्त वहाँ का म्यूजियम देखने गये।
म्यूजियम में अलग-अलग कक्षों में से होते हुए वे एक कक्ष में पहुँचे, जहाँ शीशे के शोकेस में एक मृत-शरीर को बड़े विचित्र ढंग से लपेट तथा बाँधकर रखा हुआ था। शोकेस की ‘परिचय-पट्टिका’ पर अंग्रेज़ी में लिखा हुआ था - ‘टू थाउजेन्ड ईयर्स ओल्ड ममि’ (दो हज़ार वर्ष पुराना मृत-शरीर)। इसे पढ़कर सुनील ने राजेश से पूछा - ‘पापा, यह क्या है?’
‘बेटे, कैमिकल्स आदि से लेप करके रखी डेड बॉडी को ‘ममि’ कहते हैं।’
‘लेकिन पापा, मेरी मम्मी तो जिन्दा है। अगर डेड बॉडी को ‘मम्मी’ कहते हैं तो अब मैं ‘मम्मी’ नहीं, माँ कहा करूँगा।’
राजेश और नीता अचम्भित भी हुए और प्रसन्न भी।
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