लाजपत राय गर्ग
की
चुनिंदा लघुकथाएँ
(2)
पैसे की ताकत
ठेकेदार रामावतार के पास उसके फोरमैन का फोन आया कि एक मज़दूर पैड़ से फिसल गया और सिर पर गहरी चोट लगने की वजह से मर गया। उसकी पत्नी उसके लिये दुपहर का खाना लगा रही थी, लेकिन उसने डाइनिंग टेबल से उठते हुए कहा - ‘मुझे तुरन्त ‘साईट’ पर जाना है, खाना रहने दो।’
उसकी पत्नी असमंजस में। बिना कुछ और कहे रामावतार ने कार निकाली और घंटे-एक में ‘साईट’ पर पहुँच गया। मृतक की पत्नी तथा कुछ अन्य मज़दूर शोकग्रस्त अवस्था में लाश के इर्द-गिर्द बैठे उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसने उन्हें सान्त्वना दी और मृतक की पत्नी को नकदी सहायता देने की बात भी कही। तदन्तर फोरमैन को साथ लेकर नज़दीक की पुलिस चौकी में रिपोर्ट लिखवाने के लिये चल दिया।
चौकी में हादसे की खबर तो पहले ही पहुँच चुकी थी, किन्तु आगामी कार्रवाई हेतु अभी कोई पुलिसकर्मी मौका-ए-वारदात पर नहीं गया था। रामावतार ने जैसे ही चौकी-इन्चार्ज को घटना की जानकारी देनी चाही, वह उसे टोकते हुए व्यंग्यात्मक लहज़े में बोल उठा - ‘हाँ तो लाला, बेचारे गरीब को अपने आदमी से धक्का दिलाकर मरवा दिया और अब अपनी सफाई देने आये हो? इंक्वायरी होगी। जो मुझे सूचना मिली है, उसके अनुसार, मुझे नहीं लगता कि तुम बच पाओगे।’
रामावतार के मुँह खोलने से पहले फोरमैन बोलने लगा - ‘सर, दरअसल....’
उसे बीच में ही रोककर थानेदार गरज़ा - ‘तुम चुप रहो। तुम तो ठेकेदार का ही पक्ष लोगे!’
रामावतार ने इशारे से फोरमैन को चुप रहने के लिये कहकर बाहर जाने का संकेत दिया। और फिर थानेदार को सम्बोधित कर कहा - ‘सर, जो आप कह रहे हैं, वही ठीक मान लेते हैं। अब बताओ, आपको क्या चाहिए?’
थानेदार ने रामावतार से उसका मोबाइल माँगा। उसने पकड़ा दिया। थानेदार ने चैक किया। मोबाइल बन्द था। इत्मीनान से उसने इशारे से एक रकम का संकेत किया। रामावतार दुनियादारी के लिहाज़ से कढ़ा हुआ इन्सान था। उसे पता था कि ऐसे मामलों को जितना ज़ल्दी निपटा लिया जाय, बेहतर होता है। अतः उसने बिना किसी तरह हील-हुज्जत के ‘हाँ’ कह दी।
थानेदार - ‘पैसे लाये हो?’
‘जी, सर।’
‘लाओ।’
रामावतार ने जेब से रुपयों की गड्ड़ी निकाली और उसकी ओर बढ़ा दी। उसने मेज़ की दराज़ खोली और वहाँ रखवा ली और रामावतार को कहा - ‘निश्चिंत होकर जाओ, काम हो जायेगा।’
‘धन्यवाद सर। एक बात पूछूँ अगर बुरा ना मानो तो?’
थानेदार अब बिल्कुल सामान्य व्यवहार पर आ गया था, बल्कि खुश था कि आज का दिन बढ़िया रहा। अतः उसने कहा - ‘बैठो, दूर से आये हो, चाय मँगवाता हूँ।.....हाँ पूछो, क्या पूछना चाहते हो?’
‘सर, अब आप रिपोर्ट में क्या लिखोगे?’
‘मैं......मैं लिखूँगा कि मज़दूर की घरवाली अक्सर उससे शराब पीने को लेकर उसे बुरा-भला कहा करती थी। वह कई बार अपनी घरवाली की मारपीट भी कर देता था। आज सुबह भी उनमें झगड़ा हुआ था और वह शराब पीकर काम पर आया था। शराब पी हुई होने के कारण वह काम करते हुए पैड पर अपना बैलेंस नहीं रख पाया और गिर गया। ऊँचाई से गिरने के कारण सिर में गहरी चोट आई और वह तत्काल दम तोड़ गया, जबकि ठेकेदार उस समय वहाँ मौजूद नहीं था। सूचना मिलते ही ठेकेदार बिना देरी किये आया। मज़दूर की घरवाली को सांत्वना ही नहीं दी बल्कि उसे माली मदद भी दी। इस बात की गवाही से अन्य मज़दूर भी इनकार नहीं कर सकते।....हो गई तसल्ली?’
‘जी, धन्यवाद।’
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जो उचित समझा
आम दिनों की बजाय मनोहर ज़ल्दी तैयार हो गया और नाश्ता किये बिना जब घर से बाहर जाने लगा तो उसकी पत्नी अर्पणा ने पूछा - ‘बिना नाश्ता किये इतनी ज़ल्दी कहाँ जा रहे हो?’
‘मैं एक बार ‘आश्रम’ तक हो आऊँ, आकर नाश्ता करूँगा।’
‘ऐसी भी क्या ज़ल्दी है? नाश्ता तैयार है, कर लो। वहाँ से आते हुए लेट हो जाओगे।’
‘वहाँ से फोन आया था। कारण तो नहीं बताया, किन्तु ज़ल्दी पहुँचने के लिये कहा है। एक बार हो आऊँ। देखूँ, क्या बात है?’
और मनोहर घर से चल पड़ा। उसके घर से ‘मिलजुल कर बितायें जीवन की सँध्या आश्रम’ आधे घंटे की ड्राइव की दूरी पर एकान्त रमणीय वातावरण में बना हुआ है। ‘आश्रम’ में पहुँच कर वह सीधा ‘केयरटेकर’ जगदीश से मिला और उससे कारण पूछा।
जगदीश - ‘सर, आपकी माता जी ने ‘आश्रम’ के नियमों की उल्लंघना करते हुए कल रात बुजुर्ग सीताराम जी के कमरे में बिताई। मैंने यह बात कार्यकारी अधिकारी के नोटिस में लाने से पूर्व आपको बताई है ताकि आप माता जी से बात करके उन्हें समझा दें।’
‘इस समय माँ कहाँ हैं?’
‘इस समय तो अपने कमरे में हैं। रात को चौकीदार ने देखा कि आपकी माता जी अपने कमरे में नहीं हैं तो उसने मुझे जगाकर बताया। उस समय तीन-साढे़ तीन बजे होंगे। मैं उठकर गया। देखा तो माता जी सीताराम जी के कमरे में कुर्सी पर आधी नींद की अवस्था में बैठी थीं। मैंने उनसे कारण पूछा तो कहने लगीं - ‘इनकी तबीयत कई दिनों से ठीक नहीं चल रही है। शाम को डॉक्टर ने देखकर दवाई दी थी और कहा था कि रात को इनके पास किसी-न-किसी आदमी को ज़रूर रहना चाहिये। दिन में तो मैं इनकी देखभाल कई दिनों से कर रही हूँ, लेकिन आज डॉक्टर के कहने पर मैंने खुद रात को इनके कमरे में रुकने का सोच लिया जबकि इन्होंने तो मना किया था’
मनोहर - ‘जगदीश जी, माँ ने तो मानवता का धर्म निभाते हुए ऐसा किया, उन्होंने कुछ अनुचित काम तो नहीं किया।’
‘सर, आपकी बात तो ठीक है, किन्तु ‘आश्रम’ के नियमों के अनुसार कोई भी महिला पुरुष के कमरे में रात को नहीं रुक सकती जब तक कि वे पति-पत्नी न हों। आप माता जी को समझायें कि ऐसा दुबारा न हो, वरना मुझे कार्यकारी अधिकारी को बताना पड़ेगा।’
‘मैं माँ से बात करता हूँ।’
मनोहर की माँ नहा-धोकर पूजा की तैयारी कर रही थी। मनोहर को आया देखकर रुक गई। मनोहर ने उन्हें प्रणाम किया, कुशलक्षेम पूछा। उन्होंने जवाब दिया - ‘मैं तो ठीक हूँ। तू सुना, घर में सब ठीक हैं?’
‘घर में सब कुशलमंगल है। जगदीश ने मुझे बुलाया है। वह कह रहा है कि आप रात को सीताराम के कमरे में थीं।’
‘तो क्या हुआ? वे बीमार हैं। डॉक्टर ने कहा था कि रात को उनके पास एक आदमी रहना चाहिये। अब उनका तो ऐसा कोई सगा-सम्बन्धी है नहीं, जिसे बुलाया जा सके। जब तक वे ठीक नहीं होते, मैं उनकी सेवा से मुँह नहीं मोड़ सकती।’
‘लेकिन माँ, यह यहाँ के नियमों के विरुद्ध है। अगर तुम न मानी तो ‘आश्रम’ वाले तुम्हें यहाँ रहने नहीं देंगे।’
‘अगर ‘आश्रम’ वाले मुझे यहाँ से निकालते हैं तो मैं किसी मन्दिर-धर्मशाला में चली जाऊँगी, क्योंकि घर में तो मेरे लिये जगह पहले से ही नहीं है। जब तक यहाँ हूँ और सीताराम जी बीमार हैं, मैं उनकी सेवा से पीछे नहीं हटूँगी।’
मनोहर सिर झुकाये बिना कुछ कहे कमरे से बाहर आ गया।
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