कर्म पथ पर - 18 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कर्म पथ पर - 18




कर्म पथ पर
Chapter 18



सब जानने के बाद भी जय ने खुद को काबू में कर लिया था। वह चाहता तो उसी समय इंद्र को उसके धोखे के लिए खरी खोटी सुनाई सकता था।
अपने पापा से सवाल कर सकता था कि अपने रुतबे में एक उपाधि जोड़ने के लिए उन्होंने वृंदा को उस दरिंदे हैमिल्टन के पास क्यों पहुँचा दिया।
लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। वह जानता था कि अभी ऐसा करने पर ये लोग उसे दबा देंगे। वह हैमिल्टन को उसके किए की सज़ा देना चाहता था। वृंदा को यकीन दिलाना चाहता था कि वह धोखेबाज़ नहीं है।‌ वह तो उसके साथ उसी राह पर चलना चाहता है, जिस पर वह चल रही है। पर अभी भी उसे अपनी ताकत पर पूरा यकीन नहीं हुआ था। इसलिए उसने चुप्पी बनाए रखना ही बेहतर समझा था।

इंद्र के जाने के बाद वह भी मदन से मिलने उसके घर पहुँचा। ‌वह सारी बात उसे बता कर अपनी बेगुनाही साबित करना चाहता था।
मदन बाहर आया तो जय को अपने दरवाज़े पर देख कर उसे बहुत गुस्सा आया।
"कितने बेशर्म हो तुम ? ढीट की तरह मेरे दरवाज़े पर आकर खड़े हो गए।"
"गुस्सा छोड़ अक्ल से काम लो मदन। अगर मैं दोषी होता तो तुम्हारी बातें सुनने के लिए यहाँ नहीं आता।"
जय की यह बात मदन को तार्किक लगी। वह कुछ शांत हुआ। जय ने कहा,
"मैंने वृंदा के गुनहगार का पता कर लिया है।"
जय की बात सुनकर मदन बोला,
"कौन है वह बदमाश ?"
"यहाँ नहीं। मेरे साथ चलो। गली के बाहर मेरी मोटर खड़ी है।"
मदन उसके साथ मोटर में जाकर बैठ गया। जय ने मोटर गोमती नदी के किनारे ले जाने के लिए मोड़ दी। गोमती नदी के किनारे उसे बहुत अच्छा लगता था। इधर कई दिनों से जब भी उसका मन उदास होता था वह नदी के किनारे ही आकर बैठ जाता था।
मदन को जय पर कुछ यकीन हो गया था। पर वह यह जानने के लिए उत्सुक था कि वह कौन था जिसने पुलिस को खबर दी थी।
अपनी मोटर खड़ी कर वह मदन के साथ किनारे पर जाकर बैठ गया। मदन ने कहा,
"अब बताओ तुमने नहीं तो किसने वृंदा को पुलिस के हाथों पकड़वाया ?"
मदन ने उसे सारी बात बता दी। सब सुनकर मदन कुछ देर चुप रहा। फिर बोला,
"इंद्र ने पुलिस को खबर दी। इंस्पेक्टर वॉकर ने वृंदा को हैमिल्टन के बंगले पर पहुँचाया। इंद्र ने ऐसा क्यों किया ? राय बहादुर का खिताब तो तुम्हारे पिता को मिलेगा।"
"तुम्हें अभी भी मुझ पर यकीन नहीं हुआ है। इंद्र ने मेरे पिता के रसूख और पैसों का लाभ उठाने के लिए मुझसे दोस्ती की थी। मेरे पापा ने उसके पहले नाटक में पैसे लगाए थे। उनके रसूख के कारण ही शहर के कई दिग्गज लोग शो देखने पहुँचे थे। पर मेरा वृंदा के लिए झुकाव उसके राह का रोड़ा बन गया था। इसलिए उसने वृंदा को अपने रास्ते से हटाने के लिए यह सब किया।"
मदन उसकी कही बात पर विचार करने लगा। जय ने अपनी बात बढ़ाई।
"मैं जानता हूँ कि मुझ पर यकीन कर पाना तुम्हारे लिए कठिन है। मैं भी बार बार तुम्हें यकीन दिलाने की कोशिश नहीं करूँगा। ये तय है कि अब मैंने भी अपने जीवन का लक्ष्य तय कर लिया है। अब जयदेव टंडन एक रईसजादे के रूप में अपनी ज़िंदगी बेकार नहीं करेगा। बल्कि वह देश के भले के लिए काम करेगा। अभी कह नहीं सकता कि वह क्या होगा। पर मैं देशहित की राह पर ही चलूँगा।"
कह कर जय उठ कर खड़ा हो गया। उसने मदन से पूँछा,
"तुम बताओ तुम्हें कहाँ छोड़ दूँ ?"
"तुम जाओ.... मैं अपने आप चला जाऊँगा।"
जय चला गया। मदन कुछ देर वहीं बैठ कर उसकी कही बातों पर विचार करता रहा।
इतना कुछ होने पर भी मदन का दिल कहीं इस बात को मानने को तैयार नहीं था कि जय‌ इतना नीचे गिर सकता है कि वह वृंदा को धोखा दे। उस दिन जब पहली बार वह रेस्टोरेंट में उससे मिला था तब उसकी आँखों में उसे सच्चाई दिखी थी। तभी उसने वृंदा को उससे मिलने के लिए कहा था। पर बाद में जो कुछ भी हुआ उन परिस्थितियों में वह भी जय पर शक करने लगा था। पर अब जय ने सब स्पष्ट कर दिया था। इसलिए उसे यकीन हो गया था कि वह सही है।
वह कुछ समय तक वहीं बैठा रहा। फिर वृंदा से मिलने के लिए चला गया।

वृंदा गुमसुम सी बैठी थी। भुवनदा उसके पास जाकर बोले,
"बिटिया इस तरह अंदर ही अंदर घुलते रहना ठीक नहीं है। तुम तो बहादुर हो। कितनी हिम्मत के साथ उस दुष्ट के चंगुल से निकल कर आई हो।"
वृंदा ने भुवनदा की तरफ देख कर कहा,
"आप चिंता ना करें भुवनदा। मेरे भीतर जो भरा है वह मुझे नहीं बल्कि अंग्रेज़ी हुकूमत के लिए खतरनाक है। मेरे अंदर का लावा उस हैमिल्टन को जला कर राख कर देगा।"
वृंदा के चेहरे पर एक तेज़ था। उस समय वह रणचंडी की तरह लग रही थी। भुवनदा‌ ने मन ही मन उसके इस रूप को प्रणाम किया। अब तक वो वृंदा को लेकर चिंतित थे कि जो उस पर बीती उससे कहीं वह टूट ना जाए। पर अब उसका ये रूप देख कर उन्हें समझ आ गया था कि वृंदा आंतरिक रूप से बहुत मजबूत है।
"ईश्वर तुम्हें अपनी लड़ाई लड़ने के लिए शक्ति प्रदान करें।"
वृंदा ने अपने हाथ जोड़कर कहा,
"आप अपना आशीर्वाद बनाए रखिएगा। मैं जब तक लक्ष्य ना पा लूँ या मेरे प्राण ना निकल जाएं लड़ती रहूँगी।"

भुवनदा ने उसके सर पर हाथ रख दिया।
"तुम्हारी इस शक्ति ने मुझमें भी हिम्मत भर दी है। अब हम मिल कर लड़ेंगे।"
"तो भुवनदा फिर तैयार हो जाइए। मैंने उस हैमिल्टन के खिलाफ शंखनाद कर दिया है। रंजन को उसके काले कारनामों का पता लगाने को कहा है। वह जैसे ही जानकारियां देता है। मैं उस पर ऐसी रिपोर्ट तैयार करूँगी कि उसके लिए समाज में रहना कठिन होगा।"
"ठीक है फिर हिंद प्रभात ही इस महाभारत का कुरुक्षेत्र बनेगा।"
कह कर भुवनदा चले गए। उन्हें किसी आवश्यक काम से बाहर जाना था। जब वह बाहर निकल रहे थे तो मदन उन्हें दरवाज़े पर ही मिल गया। उसने वृंदा के बारे में पूँछा तो भुवनदा ने कहा कि वह जाकर उससे खुद ही मिल ले।

मदन भीतर आया तो वृंदा कागज़ कलम लिए कुछ लिख रही थी। मदन ने पूँछा,
"क्या लिख रही हो वृंदा ?"
वृंदा ने सर उठा कर देखा।
"आओ बैठो मदन। बहुत दिनों से सोंच रही थी कि वर्तमान में लखनऊ और उसके आसपास सक्रिय क्रांतिकारियों पर एक लेख लिखूँ। जिससे आज़ादी की लड़ाई के इस महायज्ञ में और लोग भी शामिल हो सकें। बस उसे लिखने के लिए ही कलम उठाई थी।"
"वृंदा तुम सचमुच बहुत हिम्मत वाली हो। तुम्हारे अंदर अभी भी उतनी ही आग है। वरना मैंने तो समझा था कि....."
मदन अपनी बात कहते हुए रुक गया। वृंदा उसका आशय समझ कर बोली,
"उतनी ही नहीं, अब मेरे भीतर इस लड़ाई को लड़ने की आग और बढ़ गई है। इस देश की औरतों में काबिलियत की कमी कभी नहीं रही। पर उनकी प्रतिभा को भीतर दबा देने की पूरी कोशिश की गई है। इसलिए जब मुझे मौका मिला है तो मैं हार मान कर उन लोगों को यह कहने का मौका नहीं दूँगी कि वह सही थे। औरत कमज़ोर होती है। मेरी लड़ाई सिर्फ देश की आज़ादी के लिए ही नहीं है। यह लड़ाई बहुत व्यापक है।"
"औरों के बारे में नहीं जानता हूँ वृंदा पर मैं तुम्हारी इस लड़ाई में तुम्हारे साथ हूँ।"
"ये लड़ाई तो मिल कर ही लड़नी पड़ेगी मदन। सबकी भागीदारी ज़रूरी है।"
मदन कुछ ठहर कर बोला,
"एक और शख्स है वृंदा जो इस लड़ाई में सिपाही बनना चाहता है।"
"अगर वो सच्चे दिल से लड़ना चाहता है तो उसका स्वागत है। वैसे कौन है वो ?"
"जयदेव टंडन....."
जय का नाम सुन कर वृंदा का चेहरा तमतमा गया।