जनाब सलीम लँगड़े और श्रीमती शीला देवी की जवानी
(कहानी पंकज सुबीर)
(2)
श्रीमती शीला देवी के गौने के क़रीब दो महीने बाद ही घटनाक्रम शुरू होता है। सबसे पहले तो यह हुआ कि श्रीमती शीला देवी की माताजी अचानक खेत पर काम करते समय साँप काटने से चल बसीं। पत्थर वाले पीर के चबूतरे पर दिन भर झाड़ा-फूँकी होती रही। मगर कुछ न हो सका। साँप का ज़हर अपना काम कर गया। और श्रीमती शीला देवी का मायका स्त्री विहीन हो गया। मतलब यह कि अब घर के काम-काज करने की ज़िम्मेदारी चारों पुरुषों पर ही आ गई। एक बाप और तीन बेटे। कुछ दिन के लिए शीला देवी ने आकर मायका सँभाला, लेकिन फिर ससुराल से लिवव्वा आ गए और जाना पड़ा। अच्छा तो नहीं लग रहा था पिता और भाइयों को इस प्रकार छोड़ कर जाना, लेकिन जाना तो था। मगर फिर भी श्रीमती शीला देवी का एक दो दिन में इधर का चक्कर लग ही जाता था। आकर इकट्ठी रोटियाँ सेंक कर रख जातीं। साफ-सफाई कर जातीं। उपले थेप जातीं। मतलब यह कि माँ की ज़िम्मेदारी निभा कर वापस अपने घर। इस समाज में स्त्री दोहरी ज़िम्मेदारी उठाती है, घर की भी और खेत की भी। घर का काम पूरा करके स्त्रियाँ खेत पर चली जाती हैं और वहाँ नींदना, गोड़ना, काटना, मवेशियों को सानी-पानी देना जैसे काम में जुटी रहती हैं। दिन में पुरुष खेत छोड़कर दूसरे कामों से चले जाते हैं और स्त्रियाँ खेत पर बनी रहती हैं। शाम को पुरुष खेत पर लौटते हैं और स्त्रियाँ दुधारू पशुओं को साथ लेकर घर लौट आती हैं। बहुत मेहनमकश होती हैं ये स्त्रियाँ।
तो दोनो ही स्थानों पर स्त्री की कमी खलने लगी। पिता ने दोनो बड़े भाइयों की शादी के लिए भाग-दौड़ शुरू कर दी। घर में अब एक औरत की तुरंत ही आवश्यकता थी, जो आकर घर को सँभाल सके। मगर उस समाज में लड़कों का विवाह करना इतना मुश्किल था, जितना दूसरे समाजों में लड़की का विवाह करना भी नहीं था। लड़की के पिताओं की नाक पर मक्खी तक भी नहीं बैठ पाती थी। छोटी-मोटी जोत के किसानों को तो लड़की का बाप ऐसी हिकारत से देखता था कि बस। ज़मीन, सोना, चाँदी, घर-बार, मतलब यह कि लड़की ले जाने की औक़ात है भी कि नहीं तुम्हारी। तो शीला देवी के पिता के भी सचमुच में ही जूते घिस गए। इस गाँव से उसे गाँव भागते-दौड़ते। कहीं भी कोई सकारात्मक उत्तर नहीं मिल पा रहा था। कारण यह भी था कि जो कुछ पूँजी हाथ में थी उसमें दो लड़के निपटाने थे। एक के लिए तो वह पूँजी ठीक-ठाक थी, लेकिन दो के लिए तो बहुत कम हो रही थी। शीला देवी के पिता की मुसीबत यह थी कि यदि केवल एक की शादी कर देते हैं, तो पीछे से दूसरा जो तैयार खड़ा है, उसका क्या होगा ? और उसके पीछे तीसरा भी तो है। शीला देवी के विवाह से जो मिला था उसमें कम से कम दो तो निपटें।
कहते हैं जहाँ चाह होती है वहीं राह भी होती है। अब राह तो होती है, लेकिन कैसी होती है इसकी कोई गारंटी नहीं होती है। दूर के गाँव में एक ही परिवार में दो लड़कियाँ शादी के लायक मिलीं। मगर दिक़्क़त यह थी कि उनके घर में एक बड़ा भाई भी कुँआरा बैठा था। लड़कियों के पिता ने मज़ाक में कहा कि लड़की ब्याहने के पहले आ जाते, तो अट्टा-सट्टा (अदल-बदल) कर लेते, दो लड़कियाँ तुमको दे देते और एक लड़की तुमसे ले लेते। बिना कुछ लिए-दिए बात हो जाती। खाना खाते में लड़की के पिता ने बात कही और शीला देवी के पिता का खाना खाते हुए हाथ रुक गया। उन्होंने लड़कियों के पिता को देखा, जो कुटिलता के साथ मुस्कुरा रहा था। शीला देवी के पिता ने भी एक भरपूर कुटिल मुस्कुराहट उत्तर में प्रदान की। इन मुस्कुराहटों के आदान-प्रदान में बहुत कुछ था, जो केवल यह दोनो ही जानते थे।
भोजन के बाद फिर से बैठक जमी। बात निकली थी, तो उसको दूर तलक भी तो जाना था। प्रश्न यह था कि जो पैसा श्रीमती शीला देवी के दहेज़ में प्राप्त हुआ है, वह तो समाज की पंचायत को लौटाना होगा, छोड़-छुट्टी के लिए। जो वापस शीला देवी के पति को दिया जाएगा। ऐसे में यह जो एक के बदले में दो का सौदा है, यह किस प्रकार से पूरा होगा ? लड़कियों का बाप चाह रहा था कि एक लड़के के लिए तो लड़की अट्टा-सट्टा कर ली जाए, लेकिन दूसरी लड़की एकदम से मुफ़्त में कैसे दे दी जाए? बहस लम्बी चली, और अंत में श्रीमती शीला देवी की सुंदरता के चर्चों ने ही बाज़ी मार ली। कारण यह भी रहा कि लड़कियों के पिता की माली हालत, श्रीमती शीला देवी के पिता से उन्नीस भी नहीं बल्कि चौदह-पन्द्रह ही थी। उसका लड़का छिका जा रहा था। और अंत में डील डन हो गई।
इधर डील डन हुई और उधर सप्ताह भर के अंदर ही श्रीमती शीला देवी के पति की मति फूट गई। शीला देवी रोज़ अपने मायके नहीं जाती थीं। दो-तीन दिन में चक्कर लगता था। उस दिन जब वापसी हुई तो कुछ देर हो गई। असल में उधर पिता संबंध की बात करके लौटे थे, सो बात-चीत में कुछ वक़्त लग गया। लौटते में कुछ देर हो गई। इधर पति खेत से लौट चुका था और शीला देवी को घर पर नहीं पाकर परेशान हो रहा था। श्रीमती शीला देवी ने जब अपने घर में प्रवेश किया तब तक पति का पारा सातवें नंबर के आसमान के आस-पास ही था। ग़ुस्से ने उसके दिमाग़ को इतना कुन्द कर दिया कि वह नातरा नामक सामाजिक प्रथा को ही भूल गया। वह हो गया जो नहीं होना था। वह हो गया जो श्रीमती शीला देवी के पिता के हिसाब से देखें तो हो जाना था।
अगले दिन श्रीमती शीला देवी के पति सुबह खेत गए और शीला देवी ने मायके की राह पकड़ ली। यहाँ पर कुछ लोगों के अनुसार एक छोटा सा पेंच है। कहने वाले कहते हैं कि असल में तो श्रीमती शीला देवी के पिता ने उनको सिखा-पढ़ा कर ही भेजा था कि एक-दो दिन में मामले को ख़त्म करके वापस मायके आ जाओ। छोटे भाइयों की शादी का सवाल था।एक साथ दोनो भाइयों का मामला जमने जा रहा था। और रहा सवाल मोह का, तो वो तो व्यापता ही कब था ? ख़ैर कारण जो कुछ भी रहा हो, लेकिन हुआ यही कि श्रीमती शीला देवी मय साजो सामान के अगले दिन मायके की दिशा पकड़ती भईं। पति के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई। उसने अपने स्तर पर भाग-दौड़ शुरू की। शीला देवी के पिता की मिन्नतें कीं, भाइयों की हाथा-जोड़ी की। रिश्तेदारों के तलवों में तेल लगाया, किन्तु हर जगह ढाक के तीन पत्ते थे सो थे। पिता की तो योजना ही थी, भाइयों का घर बसने वाला था, और रिश्तेदार ? रिश्तेदार तो घर टूटता देख ही खुश होते हैं, बसे हुए घर उनको सुहाते ही कब हैं।
समाज की पंचायत को सूचना दे दी गई कि छोड़-छुट्टी की नौबत आ गई है। पंचायत बिठाई जाए। छोड़-छुट्टी वाले मामलों में पंचायत को बस यह देखना होता था कि जो रकम लड़के वालों ने दी थी, वह वापस की जा रही है अथवा नहीं। विवाद हमेशा ही इस बात पर होता था। यदि रकम पूरी है तो फिर पंचायत को कुछ अधिक करना नहीं होता था। रकम जमा करवाओ और दे दो छोड़-छुट्टी। आषाढ़ माह का बीतता हुआ समय था, जब श्रीमती शीला देवी को छोड़-छुट्टी प्राप्त हो गई। बीतता आषाढ़, मतलब लगती बारिश और लगती बारिश का मतलब यह कि अब शादियों के लिए कम से कम पाँच महीने का इंतज़ार तो करना ही था। शादी ? मगर श्रीमती शीला देवी का तो अब नातरा होना था न ? हाँ सही है कि श्रीमती शीला देवी का अब नातरा होना था, शादी नहीं, किन्तु दोनों भाइयों की तो शादी ही होनी थी न? तो शादी के लिए अब पाँच महीने का इंतज़ार होना था। लेकिन इस बीच श्रीमती शीला देवी के भावी ससुर तथा वर्तमान पिता ने मिलकर सारी बातें पक्की कर दीं। छोटा-मोटा कार्यक्रम भी कर दिया रोकने का। रोकना ? समाज में लड़के या लड़की को शादी के लिए रोका जाता था। मतलब जिसे सभ्य समाज में सगाई कहा जाता है, उसे यहाँ पर रोकना कहा जाता था। तो इधर श्रीमती शीला देवी का रोकना हुआ और साथ में उनके दो भाइयों का भी रोकना हो गया। तीन लड़कियाँ और तीन लड़के रोके जा चुके थे। बरसात बाद शादियाँ होनी थीं।
श्रीमती शीला देवी का समय फिर से पहले की ही तरह हो गया। पहले जो काम माँ करती थी, वह अब शीला देवी को करना पड़ रहा था। बरसात लग चुकी थी। खेत में दस तरह के काम खुल गए थे। ज़रा पानी खुले तो खेतों में जाकर निंदाई, गुड़ाई करना होता था। मेड़ पर लगी घास को काटना। खरपतवार उखाड़ना, कुल मिलाकर यह कि श्रीमती शीला देवी का एक पैर घर में रहता था और दूसरा खेत पर। इस बीच एक समस्या यह हो गई थी कि श्रीमती शीला देवी सात-आठ महीने ससुराल में रह आईं थीं। रह आईं थीं पुरुष के साथ, पुरुष की देह के साथ। देह और अफीम का एक ही क़िस्सा होता है, जब तक न चखो, तब तक कोई दिक़्क़त नहीं, लेकिन चख ली, तो लत लगेगी ही यह तय है। श्रीमती शीला देवी को भी लत लग चुकी थी। उमर भी भादौ की बरसाती नदी की तरह थी। अठारह की उम्र और वह भी सात-आठ माह तक पुरुष का संसर्ग पा चुकी उम्र, क्या कहें इसको, नीम चढ़ा करेला या सोने पर सुहागा ? हँसिये से घास काटते-काटते इच्छा होती कि हँसिए को कलेजे में उतार लें। उस पर सचमुच में बरसात का मौसम। जितना भीगो, उतना जलो। घन घमंड नभ गरजत घोरा, प्रिया हीन डरपत मन मोरा। मन तो ईश्वर का भी डरपत था, तो फिर शीला देवी तो इन्सान थीं। घर के काम निपटा कर सोने जातीं तो छप्पर पर बरसती बरसात की बूँदें सीधे कलेजे से टकरातीं। छुन्न-छुन्न। बिजली कड़कड़ाती, बादल गड़गड़ाते, बूँदें छनछनातीं और श्रीमती शीला देवी की रात आँखों में कट जाती।
जनाब सलीम लँगड़े बरसात की उस दोपहर को अपने खेत पर जा रहे थे, जब उन्होंने श्रीमती शीला देवी की चीख सुनी। असल में शीला देवी खेत पर अकेली निंदाई करने में जुटी थीं कि अचानक तेज़ बरसात शुरू हो गई। बरसात से बचने के लिए वे खेत पर बने टप्पर में खटिया पर आकर बैठ गईं थीं। कुछ ही देर में देखती क्या हैं कि एक करिया नाग भी टप्पर के दरवाज़े से अंदर आ रहा है। बरसात में इस प्रकार कीड़े-काँटे निकलना गाँव के लिए आम बात थी। खटिया पर बैठी श्रीमती शीला देवी ने नाग को देखा, तो उनकी चीख निकल पड़ी। वही चीख जो जनाब सलीम लँगड़े ने सुन ली, काश कि सलीम लँगड़े, सलीम लँगड़े न होकर सलीम बहरे होते और वह चीख न सुन पाते। मगर नहीं थे, इसलिए चीख सुन ली और जितनी तेज़ चल सकते थे, उतनी तेज़ चलकर टप्पर तक पहुँचे। दरवाज़े पर भुजंग सरसरा रहा था। इसी बीच श्रीमती शीला देवी कोशिश करके एक बोरे का सहारा लेकर टप्पर में रखी एक कोठी पर चढ़ चुकी थीं। भुजंग ने जनाब सलीम लँगड़े को देखा तो वह फनफनाया। फुफकारा। सलीम लँगड़े भी कड़क जीव थे। बस पैर में ही थोड़ी सी लचक थी, बाकी तो अल्लाह का करम था, अभी तक गबरू थे। निशाना चाहे, गुलेल का हो, कंचों का हो या लाठी का, एकदम सधा लगता था। हाथ की लाठी को हवा में साधा। पहला ही वार सीधा निशाने पर लगा, फन पर। भुजंग का पूरा शरीर लहर खाने लगा। अलबेटियों पर अलबेटियाँ पड़ रही थीं। दो, तीन, चार, पाँच प्रहारों में तो ठंडा पड़ गया वह।
श्रीमती शीला देवी कोठी पर से नीचे उतरने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन उतर नहीं पा रही थीं। कोठी ऊँची थी। चढ़ते समय तो चढ़ गईं थीं क्योंकि जान का संकट था। जनाब सलीम लँगड़े ने श्रीमती शीला देवी को उतरने की कोशिश करते हुए देखा, काश न देखते। काश जनाब सलीम लँगड़े, सलीम लँगड़े न होकर सलीम अंधे होते। मगर नहीं थे, तो देख लिया। कुछ देर तक देखते रहे, अपनी पुरानी सहपाठिन को उतरने की कोशिश करते हुए। मर्यादा ने झोंपड़ी के दरवाज़े पर लक्ष्मण रेखा खींच रखी थी। करिया नाग की लक्ष्मण रेखा। जो ठंडा पड़ा हुआ था दरवाज़े पर, इधर से उधर तक। बरसात तेज़ हो रही थी। भादौ के बादल थे, बरस भी रहे थे और गरज भी रहे थे। लक्ष्मण रेखाएँ लाँघने के लिए ही खींची जाती हैं। जनाब सलीम लँगड़े को भी करिया नाग को लाँघना पड़ा। श्रीमती शीला देवी उतरने की हर कोशिश में नाकाम हो रही थीं। सलीम लँगड़े ने कोठी के पास पहुँच कर अपना हाथ बढ़ाया। सकुचाते हुए श्रीमती शीला देवी ने हाथ को पकड़ा। करिया नाग ने ठीक वहीं फन मारा जहाँ हाथ आपस में जुड़े। करिया नाग ने ? मगर वह तो दरवाज़े पर मरा पड़ा था न ? हिना का अत्तर श्रीमती शीला देवी की साँसों में घुलकर ज़हर की तरह नस-नस में फैल गया। बाहर बरसात मूसलाधार से भी कुछ अधिक तेज़ हो चुकी थी?
उतरने के क्रम में जैसे ही श्रीमती शीला देवी का पूरा वज़न जनाब सलीम लँगड़े पर आया, वैसे ही गड़बड़ हो गई। गड़बड़ यह कि सलीम लँगड़े अपने अच्छे वाले पैर पर वज़न साधें, उससे पहले ही हड़बड़ाहट में सारा वज़न उस पैर पर आ गया, जो ख़राब था। वो डगमगा गए। साथ में श्रीमती शीला देवी भी डगमगा गईं। सँभलते-सँभलते भी दोनो नीचे गिर गए। दोनो। काश नहीं गिरते। काश सलीम लँगड़े, सलीम लँगड़े न होकर सलीम हिजड़े होते। नहीं थे। हिना का अत्तर घुमड़ कर महका। दरवाज़े पर मरे पड़े करिया नाग तक जब हिना के अत्तर की महक पहुँची, तो वह ज़िंदा हो गया। श्रीमती शीला देवी के पोर-पोर में हिना का अत्तर समा गया। पूरा टप्पर हिना की खुश्बू से महक उठा। करिया नाग डसता रहा, इस जगह, उस जगह, सब जगह। बादल गरजते रहे, बिजली चमकती रही और बूँदें बरसती रहीं। उस दिन ख़ूब बरसात हुई। गाँव से होकर बहने वाली बरसाती नदी किनारों को तोड़ कर खेतों में जा घुसी। लोग कहते हैं कि बरसों बाद वह नदी इतने भयंकर रूप में उमड़ी। चारों तरफ पानी ही पानी हो गया।
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