जनाब सलीम लँगड़े और श्रीमती शीला देवी की जवानी
(कहानी पंकज सुबीर)
(1)
यह कहानी सुने जाने से पहले कुछ जानकारियों से अवगत होने की माँग करती है। उन जानकारियों की रोशनी के अभाव में कहानी कुछ अविश्वसनीय लगेगी। इसलिए बहुत संक्षिप्त सी जानकारी यहाँ दी जा रही है। इसे भी कहानी की हिस्सा ही मान कर पढ़ा जाए। कहानी की कहानी और ज्ञान का ज्ञान। असल में यह कहानी एक विशेष अंचल की है। इस अंचल में कुछ जिलों में कई सारी जातियों की मिली-जुली जनसंख्या है। इस मिली-जुली जनसंख्या में कुछ जातियाँ ऐसी भी हैं, जो बिल्कुल भी यहाँ की नहीं लगतीं हैं। न रंग रूप में और न ही आचार व्यवहार में। ये कहाँ से आए ? आए शब्द का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है कि इनका आचार-व्यवहार भी इस अंचल के लोगों से बिल्कुल ही अलग है। और उस अलग में से ही किसी एक अलग पर हमारी यह कहानी चलती है। इन लोगो में एक बहुत ही अजीब सी प्रथा है। अजीब तो है लेकिन पहली बार सुनने में अच्छी भी लगती है कि चलो कहीं तो ऐसा भी हो रहा है। असल में इन लोगो में लड़कियों की शादी होने पर लड़की का पिता लड़के वालों से दहेज़ लेता है ? दहेज़ ? लड़की का पिता ? जी हाँ यही एक अजीब सी बात है। इसी कारण इन लोगो में जब भी लड़की का जन्म होता है तो ख़ुशियाँ मनाई जाती हैं और लड़के के जन्म पर बाप दहेज़ की तैयारियों में लग जाता है। कई बड़ी-बड़ी उम्र के लड़के इस समाज में कुँआरे घूमते दिखाई देते हैं। कारण ? वही, पिता के पास देने के लिए दहेज़ नहीं था। यह दहेज़ अधिकतर सोने-चाँदी के रूप में लिया जाता है। लड़की के जन्म पर जो खुशियाँ मनाई जाती हैं वह देखने लायक होती हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि जो बड़ी संख्या में कुँआरे रह जाते हैं, उनका क्या होता है? उनके पास दो ही रास्ते होते हैं, पहला तो यह कि पुरुष और पुरुष ही आपस में जोड़े बना लेते हैं। इस प्रकार के जोड़े बहुतायत दिखाई देते हैं। दूसरा रास्ता यह कि क़रीब बीस पच्चीस कुँआरे पुरुष मिलकर पैसे एकत्र करते हैं। जिसके पास से जितने आ जाएँ। पैसे एकत्र करके यह लोग एक लोडिंग मेटाडोर किराये पर लेते हैं। क़रीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर स्थित आदिवासी अंचल में जाते हैं। वहाँ जाकर थोक के भाव में लड़कियाँ या औरतें ख़रीद लाते हैं। और फिर उनको लाकर पैसों के हिसाब से बाँट लेते हैं। जिसने ज़्यादा पैसे दिए थे, उसके हिस्से में कम उम्र की लड़की और जिसने कम दिए थे, उसके हिस्से में अधिक उम्र की औरत। यह काम पूरी ईमानदारी से किया जाता है। इस काम में पैसे उसकी तुलना में बहुत कम लगते हैं, जिसे शादी कहा जाता है। अपने समाज की लड़की के पिता को बहुत सारा पैसा देकर शादी करने से अच्छा, आदिवासी लड़की के पिता को पैसा देकर लड़की या औरत ख़रीद लाओ। ऐसे लोगों को, जिन्होंने यह काम किया है, कुछ नीची नज़रों से देखा जाता है लेकिन क्या फ़र्क पड़ता है नीची या ऊँची नज़र से, घर तो बस जाता है।
यह तो हो गई एक प्रथा, चलिए अब दूसरी की ओर चलते हैं। पिछली वाली से भी अधिक अविश्वसनीय प्रथा। प्रथा यह कि इनमें शादी हो जाने के बाद भी लड़की के सर्वाधिकार उसके पिता के पास सुरक्षित रहते हैं। मतलब ? मतलब यह कि लड़की का पिता कभी भी अपनी बेटी को वापस ला सकता है। दहेज़ में लिया गया पैसा लौटा कर। समाज की एक पंचायत बैठती है और छोड़-छुट्टी हो जाती है। पैसा वापस, लड़की वापस। इसके बाद लड़की का पिता लड़की को दूसरे को दे सकता है, दे देता है। असल में तो यह होता ही इसलिए है कि किसी दूसरे ने अधिक पैसा ऑफर कर दिया था। इस दूसरी बार जाने को नातरा कहते हैं। एक ऐसी भी महिला भी है, जिसका दस बार नातरा हो चुका है। और उस पर भी ग़ज़ब यह कि दस बार में वह एक ही व्यक्ति के पास तीन बार गई। दहेज़ लेने की सुन कर आपके मन में जो भाव आए थे, वह इस दूसरी सूचना से कड़वाहट में बदल गए होंगे। आपने सोच भी कैसे लिया था कि पुरुष प्रधान समाज महिला को लेकर कुछ अच्छा भी कर सकता है, रिवाजों के रूप में, परंपराओं के रूप में, रवायतों के रूप में। तो, कोई क़ानून नहीं, कोई तलाक़ नहीं, बस समाज की पंचायत बैठी और दोनो पक्षों ने अपनी-अपनी बात रखी। जो पैसा पहले वाले ने दिया था, वह पैसा समाज की पंचायत को लड़की का पिता सौंप देता है। पंचायत उसे पहले वाले को देती है और हो गई छोड़-छुट्टी। लड़की क़ानूनी रूप से वापस पिता की संपत्ति हो जाती है। यह अलग से बताने की आवश्यकता तो नहीं है न कि लड़की के पिता ने जो पैसा वापस किया है, वह कोई अपनी जेब से नहीं किया है बल्कि दूसरे दावेदार से लेकर दिया है। लड़की का नातरा अब दूसरे के साथ हो जाता है।
बस इतनी सी जानकारी जानना कहानी को जानने के लिए आवश्यक था। इसलिए क्योंकि यह जानकारी बहुत ही अविश्वसनीय है। इसे सीधी भाषा में बेटी बेचना भी कह सकते हैं। अस्थाई रूप से। आज शिक्षा के कारण यह कम तो हो रहा है लेकिन वह कम बहुत मामूली सा ही है। एक बात और इसमें यह भी है कि लड़की की शादी अक्सर तेरह चौदह की उम्र में ही कर दी जाती है। बाल विवाह ? जी हाँ बाल विवाह। कोई नहीं रोकता, कोई नहीं रोक सकता। जिस उम्र में क़ानून विवाह की अनुमति देता है, उस उम्र तक तो यह लड़कियाँ शायद दो-तीन घरों के फेरे लगा चुकी होती हैं। एक और अजब सी बात है इस पूरी जानकारी में, वह ये कि इन स्त्रियों का अपने पतियों से कोई लगाव नहीं होता है। मतलब यह कि जब एक के घर से छोड़-छुट्टी के बाद दूसरे के यहाँ भेजा जाता है, तो पिछले वाले के मोह का कोई संकेत नहीं मिलता। लगता ही नहीं है कि इनको इनके पति से अलग किया जा रहा है। जैसे उधो घर रहे वैसे रहे बिदेस। यह इस पूरी दास्तान का सबसे हैरतअंगेज़ तथ्य है। शादी हुई, साथ रहे, और अचानक छोड़ के किसी दूसरे के घर चल दिए, इस प्रकार से मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। कहा तो यह जाता है कि यदि किसी जानवर के साथ भी रह लो, तो उससे भी लगाव हो जाता है, मोह हो जाता है। यहाँ तक कि निर्जीव चीज़ों से भी कुछ समय बाद मोह हो जाता है, लेकिन जाने क्या था इन जातियों की स्त्रियों में कि उनको मोह व्यापता ही नहीं था। एक और अलग बात इन जातियों में यह थी कि इनमें देह के प्रश्नों को लेकर कोई बहुत ज़्यादा वर्जनाएँ, नैतिकता के सवाल आदि नहीं खड़े होते थे। पाश्चात्य समाज में देह की स्वतंत्रता की जो बात है, दबे-छिपे में उससे कहीं ज़्यादा प्रगतिशीलता इन जातियों में थी। शायद इसके पीछे कारण यह था कि विवाह नहीं हो पाने की समस्या के कारण इस प्रकार के चोर रास्तों की आवश्यकता सभी को पड़ती थी, सभी पुरुषों को। न तू मेरी कह और न मैं तेरी किसी से कहने जाऊँगा। उजागर तो नहीं, लेकिन अंदर ही अंदर सब कुछ होता था और सबको पता भी होता था। सामान्य सी घटना की तरह उसे लिया जाता था।
आइये अब चलते हैं कहानी के दोनो प्रमुख पात्रों की ओर। पहले बात जनाब सलीम लँगड़े की। अभी ये मरहूम नहीं हुए हैं, ऐसा मान कर चलिए। लँगड़ा शब्द कहानीकार द्वारा उपहास उड़ाने के लिए नहीं किया जा रहा है। असल में समाज में कुछ नाम ऐसे ही होते हैं। सलीम लँगड़े जो थे वह उस गाँव के पास के गाँव के थे, जिसे गाँव की श्रीमती शीला देवी थीं। यहाँ हर दो-तीन किलोमीटर पर गाँव हैं। कुछ छोटे, तो कुछ बहुत ही छोटे, टप्पर गाँव टाइप के। पगडंडियों से जुड़े हुए गाँव। पता चलता है कि किसी का घर एक गाँव में है और खेत दूसरे गाँव में है। कई गाँव तो ऐसे भी हैं कि उनके नाम भी युगल में ही लिए जाते हैं जैसे हरसपुर-बिछोली, थूना-पचामा आदि आदि। ये वास्तव में दो गाँव हैं, लेकिन इतने पास-पास हैं कि एक ही साथ इनका नाम लिया जाता है। तो, सलीम लँगड़े जो थे वे भी इसी प्रकार के एक जुड़वें गाँव में रहते थे जो कि श्रीमती शीला देवी के गाँव से जुड़ा था। सलीम लँगड़े का बचपन में एक पैर टूट गया था और ठीक प्रकार से जुड़ नहीं पाया था, इस कारण उस पैर की तरफ से कुछ कमज़ोर थे वे। बचपन में ही उनके नाम के साथ उपनाम भी जुड़ गया था। उपनाम इसलिए कि उस गाँव में तीन सलीम थे। सलीम भूरा, मिच्चा सलीम और तीसरे ये। पहले ये केवल सलीम ही थे, लेकिन बाद में इनको भी उपनाम मिल गया। सलीम भूरा जो था वह आवश्कता से कुछ अधिक गोरा था इसलिए वह सलीम भूरा था। मिच्चा जो था वह बात करते समय अचानक एक आँख को मिचमिचा देता था इसलिए मिच्चा और तीसरे अपने सलीम लँगड़े। बाकी के दोनो सलीमों का इस कहानी से कोई लेना-देना नहीं है इसलिए उनको छोड़िए। बात अपने सलीम की। तो जनाब सलीम लँगड़े के एक पैर में कुछ लचक होने के अलावा कोई कमी नहीं थी। अच्छे ख़ासे थे। गबरू जवान टाइप के। खेती भी और गृहस्थी भी थी। शादीशुदा थे और दो बच्चों पिता भी थे। शौकीन मिज़ाज आदमी थे। घर से निकलते तो टिप-टाप होकर। सफेद कुरता-पायजामा, आँखों में सुरमा, मुँह में पान और उँगली के सिरे पर लगा हुए चूना। कपड़ों पर हिना का अत्तर महकता रहता बारहों महीने। निकलते तो ख़ुशबू को एक भभका सा छोड़ते जाते। भभका ? हाँ भभका ही। उम्र यही कोई सत्ताईस-अट्ठाईस। इस उम्र में दो बच्चे भी ? उसमें क्या है, यदि उन्नीस में शादी हुई तो इस उम्र तक क्या दो भी नहीं होंगे? बल्कि ये तो कम हैं, अभी तक तो चार हो जाने चाहिए थे। सलीम लँगड़े अपनी खेती-बाड़ी सँभालते थे। बाकी का समय उसी प्रकार से काटते थे, जिस प्रकार से गाँव के बाकी के युवक काटते थे। मतलब चौपाल पर बैठकर ताश खेलना, ज़र्दा मलना, सरौती से सुपारी काटना, मलना, खाना और थूकना। दिन कब निकल जाता, पता ही नहीं चलता था। घर में बेगम बच्चों को सँभालती थीं और घर को भी। कुल मिलाकर ज़िंदगी ठीक-ठाक चल रही थी।
सलीम लँगड़े का घर और खेत जिस गाँव में था, उस गाँव में श्रीमती शीला देवी का खेत भी था और सरकारी स्कूल भी। स्कूल ? असल में शीला देवी भी गाँव की दूसरी लड़कियों की तरह चौथी-पाँचवी तक की पढ़ाई की औपचारिकताएँ पूरी करने इसी स्कूल में आईं थीं। सरकारी स्कूल में। चूँकि हर गाँव में सरकार स्कूल नहीं खोल सकती थी, इसलिए वह दो-तीन गाँवों के बीच में एक स्कूल खोल देती थी। आस-पास के गाँवों के बच्चे पढ़ाई छोड़ने से पहले तक उसी स्कूल में आते थे। जैसे शीला देवी भी आईं थीं। और जनाब सलीम लँगड़े के साथ एक ही कक्षा में पढ़ी थीं। शीला देवी ने कुछ पहले पढ़ाई छोड़ी और जनाब सलीम लँगड़े ने कुछ साल बाद। पढ़ाई छोड़ना कहना ठीक नहीं है, असल में स्कूल छोड़ना कहना होगा, क्योंकि स्कूल में पढ़ाई होती ही कब थी। बच्चे स्कूल छोड़ते थे, पढ़ाई नहीं। अब इसको ऐसा मत समझिए कि जनाब सलीम लँगड़े और शीला देवी यदि एक ही स्कूल में पढ़े हैं, तो उनके बीच में स्कूल में कहीं कुछ पनप गया होगा। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। बल्कि शक्ल-सूरत थोड़ा बहुत जानने के अलावा और कुछ भी नहीं हुआ था।
आइए अब बात करते हैं शीला देवी की। शीला देवी अच्छी खासी सुंदरी थीं। पंद्रह की उम्र में ही भरी-पूरी स्त्री लगती थीं। सुंदर थीं, इसलिए पिता को और अच्छा दहेज़ मिलने की उम्मीद थी, और मिला भी। शीला देवी के तीन भाई थे, उन पर एक अकेली बहन थीं वो। दो भाई उनसे बड़े थे और एक छोटा। अभी किसी का भी विवाह तय नहीं हुआ था। नहीं हुआ था, तो उसके पीछे भी वही समस्या आड़े आ रही थी, दहेज़ की। सोचा यह गया था कि शीला देवी के विवाह से प्राप्त दहेज़ को कम से कम दो बड़े भाइयों के विवाह में उपयोग कर लिया जाएगा, जो बिल्कुल ही छिकने की कगार पर आ चुके हैं। अगर और दो-तीन साल शादी नहीं की गई तो गाँव की कहावत के अनुसार टेमरू झड़ जाएगा। छोटा भाई भी बड़ों के पीछे लगा-लगाया ही आ रहा था। शीला देवी का विवाह पन्द्रह की उम्र में हुआ। समाज के हिसाब से कुछ देर से हुआ। क़ायदे में बारह की उम्र तक विवाह और सोलह में गौना, यह सबसे अच्छा समीकरण था समाज के हिसाब से। मगर शीला देवी का विवाह पन्द्रह में हुआ और अठारह लगते न लगते गौना भी हो गया। ज़्यादा दहेज़ के चक्कर में शीला देवी की शादी देर से हुई। ख़ैर देर से हुई पर हो गई। गौना भी हो गया और शीला देवी, श्रीमती शीला देवी अपनी ससुराल चली गईं। ससुराल का मतलब यह नहीं कि बहुत दूर चली गईं, वहीं पास के ही एक गाँव में चली गईं। पास मतलब तीन-चार किलोमीटर दूर के गाँव में। जब इच्छा हो तो पैदल-पैदल अपने मायके आ जाओ। इतना चलना तो रोज़ अपने खेत जाने के लिए भी करना ही पड़ता था।
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