जनाब सलीम लँगड़े और श्रीमती शीला देवी की जवानी
(कहानी पंकज सुबीर)
(3)
उसके बाद की बरसात श्रीमती शीला देवी के लिए वैसी नहीं रही, जैसी कष्टदायक उस दिन के पहले थी। अब बरसात में ठंडक आ गई थी। ठंडक आ गई थी, या ठंडक पड़ती रहती थी। अब हिना का अत्तर खेत के उस टप्पर में गाहे-बगाहे महकने लगा था। बल्कि यह कहें तो ज़्यादा ठीक होगा कि हिना के अत्तर की भीनी-भीनी महक अब टप्पर में हमेशा ही बनी रहती थी। एक-दो दिन कम होती, फिर किसी दिन तेज़ हो जाती। जिस दिन तेज़ बरसात होती उस दिन ही अक्सर टप्पर भी तेज़ महकता। श्रीमती शीला देवी अब ख़ुश रहने लगी थीं। बहुत ख़ुश। जनाब सलीम लँगड़े को लगता था कि वह सबाब का काम कर रहे हैं। किसी दीन दुखियारी की मदद कर रहे हैं। प्यासे को पानी पिला रहे हैं। सो वो करते रहे।
मौसमों का काम है बीतना, सो वो बीतते रहते हैं। एक मौसम आता है, चला जाता है और दूसरा आ जाता है। बरसात भी कब तक रहती ? उसे भी तो बीतना था, बीत गई। बरसात का बीतना मतलब टप्पर के महकने का मौसम बीतना। बरसात बहुत सी घटनाओं पर आड़ कर देती है, पानी की आड़। अब वह आड़ नहीं थी। अब ठंड आने को थी। खेतों पर खड़ी फसल के कटने का समय आ चुका था। खेतों पर पुरुषों की व्यस्तता बढ़ चुकी थी। ज़ाहिर सी बात है श्रीमती शीला देवी के खेत पर भी पुरुषों की व्यस्तता बढ़ गई थी। पुरुषों की व्यस्तता ने किसी एक पुरुष का खेत पर आना-जाना रोक दिया था। रोक दिया था मतलब यह कि आना-जाना, दुआ-सलाम तो हो रहा था, लेकिन सबसे हो रहा था। टप्पर के महकने के लिए ज़रूरी था कि दुआ-सलाम किसी एक ख़ास के साथ ही हो। श्रीमती शीला देवी की कहानी भी अजीब मोड़ ले रही थी। पहले सात-आठ महीने पति का साथ मिला, वो छूट गया। उसके बाद बरसात में कुछ ठंडक पड़ी, तो ठंड का मौसम आते ही वह ठंडक भी जून में बदल गई। श्रीमती शीला देवी देखती थीं जनाब सलीम लँगड़े को, देखती थीं अपने भाइयों से, पिता से बतियाते। और देखती थीं उसे देखने को भी जो भाइयों और पिता से बात करते समय जनाब सलीम लँगड़े की ओर से होता था। उन निगाहों को जो हसरत से टप्पर को निहारती थीं। फ़सल की कटाई तक अब टप्पर के महकने की कोई संभावना नहीं थी, और फ़सल कटाई के बाद तो श्रीमती शीला देवी का नातरा होना था। उसके बाद तो उनको चले जाना था अपने दूसरे पी के घर। तो क्या अब कोई भी विकल्प शेष नहीं रह गया था ?
ऐसा कभी नहीं होता है कि सारे विकल्प समाप्त हो जाएँ। ज़िंदगी हमेशा कुछ विकल्पों को शेष रखकर ही चीज़ों को समेटती है। पुरुषों की खेतों पर व्यस्तता बढ़ी, तो घर में वो कम रहने लगे। लेकिन घर तो गाँव में था और गाँव में तो लोग थे और लोगों के मुँह में तो ज़ुबान थी। तो घर भला टप्पर का विकल्प किस प्रकार हो सकता था? जिस दिन सारे पुरुष खेत पर ही रात रुके, उस दिन ही श्रीमती शीला देवी को विकल्प मिल गया। रात। आती हुई सर्दी के मौसम की रात। और विकल्प ने अमली जामा पहन लिया। गाँव में रात जल्दी भी होती है और गहरी भी होती है। बिजली रहती नहीं है गाँव में रात भर। उस पर न कोई पुलिस का गश्ती दल, न चौकीदार, न कोई और रोक-टोक। तो हुआ यह कि देर रात, जब पूरा गाँव नीम-बेहोशी जैसी नींद में सोया होता, तब एक साया उभरता। साया जो कुछ लचक कर चल रहा होता। यह साया श्रीमती शीला देवी के घर में समा जाता। क़रीब घंटे भर बाद ही यह साया जिस रास्ते से आया था, उसी से लौटता हुआ दिखाई देता। अपने पीछे हिना के अत्तर की तीखी गंध छोड़ता हुआ। गंध, जो श्रीमती शीला देवी के घर में भी ऊब-चूब हो रही होती। खिंची होती एक डोर की तरह, ऐसी कि कोई भी सिरा पकड़े तो ठीक श्रीमती शीला देवी के घर तक पहुँचे।
गंध का सबसे बड़ा दुर्गुण यही है कि उसे छिपाया नहीं जा सकता। खेत में, जंगल में तो यह होता है कि वहाँ दस तरह की दूसरी वनगंध भी बिखरी होती हैं, इसलिए वहाँ अलग से किसी गंध को नोटिस नहीं किया जा सकता। फिर हवाएँ खेत में, जंगल में किसी एक ख़ुश्बू को देर तक एक जगह रुकने भी नहीं देती हैं। यहीं पर मात खा गए जनाब सलीम लँगड़े भी और श्रीमती शीला देवी भी। गाँव में, शहर में, घर में ख़ुश्बू सुगबुगाहट पैदा करती है। और एक दूसरा परिवर्तन जो उन दिनों आ गया था, उससे भी यह दोनों ग़ाफ़िल थे। यह दूसरा परिवर्तन ख़तरनाक था, श्रीमती शीला देवी के लिए तो नहीं किन्तु जनाब सलीम लँगड़े के लिए तो था ही। क्योंकि उनका नाम सलीम था। यह नाम और इस जैसे सारे नाम धीरे-धीरे नफ़रत का पर्याय बनते (बनाए जाते) जा रहे थे। शहरों में यह नफ़रत तेज़ और स्पष्ट थी, तो गाँव में भी यह उस एक चीज़ को तो ख़त्म कर ही चुकी थी, जिसे बुज़ुर्ग भाईचारा कहते थे। यह इस कहानी का सबसे ख़तरनाक पहलू था। दोनो भूल गए थे कि यह मई दो हज़ार चौदह के बाद का समय है। जनाब सलीम लँगड़े जिस काम को सबाब का काम मान कर करने जा रहे हैं वह ख़तरनाक हो सकता है।
जनाब सलीम लँगड़े की सोच यह थी कि अपने को कौन शादी करनी है श्रीमती शीला देवी से। ज़ात अलग, मज़हब अलग। उस पर अपन तो ख़ुद ही शादी शुदा हैं, बल्कि दो-दो बच्चों के बाप भी हैं। और श्रीमती शीला देवी को भी तो महीने-दो महीने बाद ब्याह कर अपनी ससुराल जाना ही है। जहाँ उनको अपने पति से ही वह सब कुछ मिला जाएगा, जिसके लिए जनाब सलीम लँगड़े को इतनी दूर तक चल कर आना पड़ रहा है। बेचारी औरत, कहाँ इससे-उससे उम्मीद रखे, फरियाद करे, चलो..... हम ही सही। देर रात घर में यह कह कर कि खेत का चक्कर लगा कर आ रहे हैं, कंबल ओढ़कर निकलते। खेत का चक्कर लगाते और लौट आते। कौन पूछने वाला था घर में कि किस खेत का चक्कर लगा कर आ रहे हो। कहावत की भाषा में कंबल ओढ़ कर घी पी रहे थे जनाब सलीम लँगड़े।
खेत की, जंगल की आँखें नहीं होतीं, लेकिन गाँव की होती हैं। जनाब सलीम लँगड़े का आना-जाना गाँव ने पहले टोहा, फिर टटोला और अंत में देखा। देखने के बाद पहचानने की कोशिश की। और उसमें तो अधिक देर लगनी भी नहीं थी। और कुछ न भी हो, तो हिना का अत्तर तो था ही। जब हिना का अत्तर पहचाना गया, तो भृकुटियाँ तन गईं और मुट्ठियाँ भिंच गईं। चंदन का इत्र होता, तो चलो बात दबा भी जाती, लेकिन हिना का अत्तर ? बात श्रीमती शीला देवी के भाइयों तक पहुँची, पहले फुसफुसाहट के रूप में, फिर सुगबुगाहट के रूप में और फिर सीधे ग़ैरत के प्रश्न के रूप में। भाइयों ने प्रश्न को टालने की कोशिश की। बस महीने-दो महीने तो बचे ही हैं श्रीमती शीला देवी के नातरे में। जैसा कि बताया गया कि इन कुछ जातियों में दैहिक संबंधों को लेकर एक प्रकार की लापरवाही थी। इन सवालों को बहुत बड़ा सवाल नहीं माना जाता था। हो गया, तो हो गया। हो सकता है इस प्रकार से भाइयों का पूरे मामले को केजुअल तरीके से लेना गले से न उतरे, लेकिन सच यही था कि उनके लिए तो यह केजुअल ही बात थी। किन्तु पूरा गाँव तो इन ही जातियों का नहीं था न? और यदि था भी तो यह तो बात ही अलग हो चुकी थी, यह तो दूसरा ही मामला था। यहाँ तो जनाब सलीम लँगड़े आ चुके थे।
सलीम लँगड़े की आमद अब पूरे गाँव की आँख में किरकिरी की तरह खटक रही थी। किरकिरी बनने के पीछे अनंत काल से पाँच ही शब्द होते हैं -वह क्यों ? हम क्यों नहीं ? गाँव के लोगों ने अब दूसरे तरीके से भाइयों को समझाया। समझाया कि भाई अगले के तो धर्म में चार शादियाँ जायज़ हैं। तुम यह सोच कर लापरवाही कर रहे हो कि शादीशुदा है और किसी दिन वह इसे भी ले उड़ेगा। शादी करके बाक़ायदा क़ानूनी रूप से अपने घर में रख लेगा, दूसरी पत्नी बना कर। तुम्हारी बहन अगर उससे शादी करके चली गई तो फिर तुम्हारी शादियाँ किस प्रकार होंगी ? तुम्हारे होने वाले ससुर ने तो अट्टा-सट्टा में शादियाँ तय की हैं, वह तो तुरंत मुकर जाएगा। यह बात भाइयों के सबसे नाज़ुक बिन्दु पर एकदम तीर की तरह लगी। कहाँ तो उठते-बैठते दोनो भाई सपने देख रहे हैं कि बस और दो महीने की बात है और कहाँ अचानक यह समस्या सामने आ गई। इस तरह तो उन्होंने सोचा ही नहीं था। यह तो सजी-सजाई भोजन की थाली आते-आते रास्ते में ही गिर जाने की स्थिति बन रही थी।
उस दिन भी देर रात जनाब सलीम लँगड़े हिना के अत्तर की लकीर छोड़ते हुए गुज़रे थे। शरद पूर्णिमा की रात थी। आसमान पर पूरा चाँद खिला हुआ था। ज़र्द पीला चाँद। चाँदनी में एक साया मचकता हुआ, लचकता हुआ चला जा रहा था। खेत पर बहुत काम था, इसलिए श्रीमती शीला देवी के भाई तथा पिता खेत पर ही रात रुकते थे। रात का खाना एक भाई आकर घर से ले जाता था। उस रात भी श्रीमती शीला देवी घर पर अकेली ही थीं। सलीम लँगड़े कंबल में लपटे-लपटाए लहराकर कर चलते हुए आए। आए और श्रीमती शीला देवी के घर का दरवाज़ा एक बार चर्रर हुआ और दूसरी बार चूँ..हुआ। और बाहर की रात फिर जस की तस हो गई। सन्नाटे में डूबी हुई रात। लेकिन श्रीमती शीला देवी के घर के अंदर का मौसम बदल गया। शरद ऋतु की रात में पूरा चाँद अंदर खिल गया। शरद पूर्णिमा का चाँद। सलीम लँगड़े रिवाज के अनुसार शरद के चाँद की चाँदनी को पीने लगे। कहा जाता है कि शरद पूर्णिमा के चाँद से अमृत झरता है, जिसे पीने से आदमी अमर हो जाता है। तो क्या आज सलीम लँगड़े भी अमर होने वाले थे। फिर चाँद निकला, फिर चाँदनी पी ली, फिर चाँद निकला फिर चाँदनी पी ली। सारी अमरता आज ही प्राप्त करने की उत्कंठा थी दोनो में। श्रीमती शीला देवी को पता था कि अब बस कुछ ही दिन का है यह साथ, उसके बाद तो जहाँ बेच दी गईं हैं, वहाँ जाना ही है। उनका तो वस्तु विनिमय हो चुका है। जहाँ जाना है, वहाँ पता नहीं कौन मिलना है, कैसा मिलना है। जनाब सलीम लँगड़े माहिर खिलाड़ी थे चाँद और चाँदनी के खेल के। केवल पैर से कमज़ोर थे और पैर की ज़रूरत इस खेल में होती भी नहीं है बहुत विशेष। तो श्रीमती शीला देवी अब इन जाते हुए पलों को जनाब सलीम लँगड़े के साथ अधिक से अधिक जीना चाहती थीं, जी रही थीं। शरद पूर्णिमा के पन्द्रह दिन बाद दीपावली और उसके बाद रवानगी होनी थी।
रात दो या तीन का समय हो रहा होगा जब जनाब सलीम लँगड़े कंबल में लिपटे लिपटाए बाहर निकले। शरद पूर्णिमा का चाँद उसी प्रकार आसमान में टँगा हुआ था। बाहर कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें थीं और दूर कछार में कहीं सियार भी रो रहे थे। सामने इमली के भूतहा पेड़ पर एक बड़ा सा उल्लू बैठा बड़ी अजीब सी आवाज़ें निकाल रहा था। तरह-तरह के आवाज़ें मिलकर उस रात में अजीब से प्रभाव उत्पन्न कर रही थीं। अमृत छके हुए जनाब सलीम लँगड़े ने चारों तरफ़ देखा, और मुतमईन होकर बाहर क़दम रखा। वे दो क़दम ही चले थे कि अचानक दूसरी आवाज़ों के साथ मिली हुई कुछ और आवाज़ें भी आईं। चोर, चोर, चोर, चोर। जनाब को लगा कि कहीं कोई चोर निकला है गाँव में। वे घबरा गए। इस समय उनको जो काम करना सबसे आवश्यक था, वही काम वे कर नहीं सकते थे। भागना। सर पर पैर रख कर भागना। श्रापित कर्ण की तरह। जब सबसे ज़्यादा ज़रूरत होगी तब नहीं कर पाओगे। किंकर्त्तव्यविमूढ़, बहुत मुश्किल शब्द है बोलने में, और जीवन की सबसे मुश्किल परिस्थिति में ही सामने आता है। इसी मुश्किल शब्द ने जनाब सलीम लँगड़े को बुत बना दिया। वे आवाज़ों को पास आते हुए सुनते रहे। बुत बने हुए।
पास आते ही आवाज़ें बदल गईं। अब यह दूसरे प्रकार की आवाज़ें हो गईं थीं। इन आवाज़ों के आते ही भूतहा इमली पर बैठा उल्लू फड़फड़ा कर उड़ गया। कुत्ते कुछ और ऊँचे स्वर में भौंकने लगे, बल्कि रोने लगे। यह आवाज़ें थीं, हड्डी के चटकने, टूटने की, सिर पर लाठी पड़ने, सिर फूटने की और भी बहुत सी वह आवाज़ें जो किसी को लाठियों से पीटते समय आती हैं। अभी-अभी अमृत छक कर बाहर निकले जनाब सलीम लँगड़े इन आवाज़ों को सुन रहे थे, जो दुर्भाग्य से उनके ही अपने बदन की आवाज़ें थीं। बोल कुछ नहीं पा रहे थे क्योंकि उनके ही कंबल का एक सिरा उनके मुँह में ठूँसा जा चुका था। बहुत देर तक यह आवाज़ें आती रहीं। बहुत देर तक। फिर शांत हो गईं सारी आवाज़ें। गाँव एक बार फिर से सन्नाटे में डूब गया। जनाब सलीम लँगड़े उसी स्थान पर पड़े हुए थे, जहाँ वे कुछ देर पहले किंकर्त्तव्यविमूढ़ हुए थे। उल्लू वापस इमली के पेड़ पर आकर बैठ गया था। अब कुछ अलग प्रकार की आवाज़ें निकाल रहा था। कुत्ते रोने के स्थान पर फिर भौंकने लगे थे। श्रीमती शीला देवी के घर के दरवाज़े पर इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी कोई हलचल नहीं थी। चाँद उसी प्रकार अमृत बरसा रहा था और अमृत वर्षा के बीच जनाब सलीम लँगड़े धीरे-धीरे मरहूम जनाब सलीम लँगड़े में बदल रहे थे।
(समाप्त)