( 19 ) अंतिम भाग
काम करते हुए एक महीना कब निकल गया ये पता ही नहीं चला। पता चला तब, जब पहला वेतन मिला। ज़िन्दगी की पहली नियमित कमाई।
संयोग से दो दिन बाद ही रविवार था। मैं वेतन के नए नोट जेब में भर कर शनिवार की शाम को कोटा के लिए निकल गया।
नाव में जाते हुए मुझे बीते दिन याद आते रहे, और सबसे ज़्यादा शिद्दत से याद आया वो दौर जब मैं स्कूल में पढ़ा करता था और एक दोपहर मेरा छोटा भाई अपने तीन चार दोस्तों के साथ तीन किलोमीटर से सायकिल चलाता हुआ मेरे पास फ़िल्म देखने के लिए पैसे मांगने आया था और मैंने रुखाई से उसे वापस लौटा कर दोस्तों के सामने उपहास बन जाने के लिए छोड़ दिया था।
पूरे रास्ते मेरे सामने वही दृश्य किसी चलचित्र की तरह घूमता रहा। रात हो जाने से बस के सफर में खिड़की से बाहर देखने को कुछ और था भी नहीं, जो मेरा ध्यान बंटाता। मैं अपने गुज़रे समय के उस कड़वे कसैले पन्ने को ही फड़फड़ाते हुए देखता रहा।
मानो समय ने मुझे संशोधन लिखने का कोई मौक़ा उपहार में दिया था
मैंने भाई के हॉस्टल पहुंचने से पहले मिठाई और नाश्ते की कुछ चीज़ें ख़रीदीं और ऑटोरिक्शा पकड़ कर हॉस्टल पहुंचा। शनिवार होने से वहां भी चहल पहल और खुशी का सा माहौल था।
मैंने भाई और उसके तीन चार मित्रों से कहा कि हम सब आज खाना भी बाहर किसी होटल में खाएंगे और कोई नई फ़िल्म भी देखेंगे।
हम सब निकल पड़े।
खाने के पैसे मैंने भाई को पहले ही देकर उससे ही दिलवाए। फ़िल्म के टिकिट खरीदने के लिए भी उसे पैसे दिए।
रात को एक बजे हम वापस हॉस्टल पहुंचे। बातें करते करते सोने में भी हमें तीन बज गए।
अगली सुबह मैंने भाई से पूछ कर उसका हॉस्टल का महीने का पूरा खर्चा भी नए नोटों में दिया, जो पिताजी से आता था। फिर हम बाज़ार गए और वहां मैंने उसे एक नई शर्ट दिलवाई। एक जोड़ी नए जूते भी मेरे कहने पर उसने खरीदे जिसका भुगतान मैंने ही किया।
शाम को हम लोगों ने फिर बाहर खाना खाया।
अगले दिन सुबह मैं वापस अपनी ड्यूटी पर अा गया। मैं गजेन्द्र के लिए भी एक टी शर्ट लेकर गया।
लौटते समय लगातार मुझे ऐसा लगता रहा जैसे मैं अपने जिस्म के किसी पुराने घाव पर दवा लगा कर लौटा हूं पर घाव है कि अब भी टीसता जा रहा है।
मेरा मन कहता कि भाई के इन नए दोस्तों ने ज़रूर बड़े भाई के स्नेह को महसूस किया होगा पर उसके स्कूल के पुराने दोस्तों को तो भाई के लिए भाई का रूखापन अब भी याद होगा।
मेरी स्थिति उस बुढ़िया जैसी ही हो गई थी जिसकी सुई मैदान में खोई थी और वो उसे कमरे में ढूंढ़ रही थी। मैदान में जब सुई खोई तब उजाला नहीं था, और कमरे में जब उजाला था, तब वहां सुई नहीं थी। कैसे मिलती ?
बात हमेशा के लिए मुहावरा बन कर रह गई।
दिन वैसे ही निकलते रहे।
बैंक के मेरे मैनेजर साहब भी शायद धीरे धीरे समझ गए थे कि मैं उनके भरसक प्रयास के बाद भी उनके परिवार से दूरी बनाए ही रखना चाहता हूं। अतः उन्होंने मुझे बार बार आमंत्रित करना और मेरी सुविधाओं का ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान रखना छोड़ दिया था। फ़िर भी मेरा आदर और विश्वास वो बदस्तूर करते थे।
इस बीच एक बार किसी त्यौहार के मौक़े पर कुछ छुट्टियां लेकर मैं घर भी हो आया था। वहां भी मैं सभी के लिए कुछ न कुछ लेकर गया था।
मेरे पिता इस बात से बहुत संतुष्ट थे कि मैंने उनके कुछ कहे बिना ही छोटे भाई का सारा खर्च उठा लिया था। शायद ये सबसे बड़े भाई से मिले संस्कार थे जिन्होंने अपनी नौकरी लगते ही हम भाइयों की ज़िम्मेदारी स्वतः उठा कर माता पिता की ज़िम्मेदारी बांटी थी।
कुछ दिन रह कर मैं वापस आ गया।
इस बीच मुझे प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने वाली मेरी एक पुरानी टीचर भी मिलीं और बोलीं- ये अच्छी बात है कि तू इतनी जल्दी कमाने लगा। पर मैं तुझसे खुश नहीं हूं, मैं तुझे किसी बड़ी नौकरी में देखना चाहती थी।
मैं मुस्करा कर रह गया और उनका अभिवादन कर के लौट आया।
इस बीच मेरे भाई के हॉस्टल से घर पर एक शिकायत पत्र गया कि हॉस्टल में कुछ बच्चे नियम तोड़ रहे हैं, वो अनुमति न होने पर भी वहां नॉन वेज खाना लाकर कमरे में खाते हैं। ऐसे लड़कों की सूची में मेरे छोटे भाई का भी नाम था। पत्र में कहा गया था कि छात्रों को वार्निंग दे दी गई है, और दोबारा ऐसी शिकायत मिलने पर दंड दिया जाएगा जो हॉस्टल से निष्कासन भी हो सकता है।
मेरे पिता क्योंकि स्वयं वाइस प्रिंसिपल थे, उन्होंने इस शिकायत को गंभीरता से लिया और भाई के कॉलेज को लिखा कि मेरे वार्ड(भाई) के बड़े भाई की नियुक्ति अब कोटा के समीप हो गई है अतः वो अब बीच बीच में हॉस्टल में आकर भाई पर नज़र रखेगा और उसे समझा कर कोई नियम तोड़ने नहीं देगा।
पिताजी ने पत्र की भाषा मुझे भी पढ़ा दी ताकि मैं भविष्य में ध्यान रख सकूं।
मैं वापस आने के बाद नियमित रूप से रविवार को या किसी भी छुट्टी में कोटा जाने लगा।
इस बीच मेरे छोटे भाई के साथ पढ़ने वाले उसके एक दोस्त से मेरी भी अच्छी दोस्ती हो गई थी। उस लड़के ने एक दिन मुझसे कहा था कि उसका अपना कोई भाई नहीं है, वह अकेला है इसलिए जब मैं आता हूं तो उसे मुझे देख कर उसका अपना कोई भाई न होने की बात अखरती है,और वो मुझमें अपना बड़ा भाई देखता है।
उसकी ये बात मुझे भीतर तक छू गई थी।
मैंने उसे मुझे ही अपना भाई समझने के लिए कहा। मैं जब भी जाता तब हम सब साथ में घूमते, खाना खाते,या फ़िल्म देखते। वह छोटा, सुन्दर बहुत प्यारा सा लड़का था। मेरा उसकी ओर काफ़ी झुकाव हो गया था।
मेरे भाई ने भी उसके प्रति मेरे इस लगाव को भांप लिया था और जब मैं हॉस्टल जाता तो रात को सोने के लिए उसे मेरे पास छोड़ कर वो किसी दूसरे दोस्त के कमरे पर सोने चला जाता। घूमने फिरने में भी हम सब साथ साथ रहते।
उन दिनों साथ में सोना ही किसी के प्रति आत्मीयता और लगाव का प्रतीक माना जाता था।
जैसे कहावत है कि साथ बैठ कर पीने वाले अच्छे दोस्त सिद्ध होते हैं,वैसे ही साथ में एक बिस्तर पर सोने वालों को भी बेहद करीबी माना जाता था।
हम दोनों बहुत अंतरंग होकर सोते। ऐसा लगता जैसे बरसों पुराना साथ है।
एक ऐसे ही रविवार को मैं हॉस्टल में ही नहा धोकर बिस्तर पर बैठा था। मेरा छोटा भाई बगल वाले कमरे में गजेन्द्र के भाई के साथ बैठा था। हम सब लोग कभी कभी छुट्टी के दिन ताश भी खेला करते थे। सामने मेज पर रात को खेले हुए ताश बिखरे पड़े थे।
तभी वो लड़का जो मुझे भाई मानने लगा था, आया और बोला- भैया, आप हमेशा हमारे लिए इतना खर्चा करते रहते हो,आज हम आपके लिए खाना लाए हैं, मना मत करना। हमने मैस में खाने के लिए भी मना कर दिया है।
मैं अभिभूत सा होकर रह गया।
उसने साथ लाए हुए कुछ पैकेट्स, डिब्बे और थैलियां मेज़ पर रखे और पास के कमरे से प्लेट्स आदि इकट्ठी करने और मेरे भाई व दूसरे दोस्तों को बुलाने चला गया।
मेरा ध्यान सामने पड़े अख़बार में था, जिसे लड़के लाइब्रेरी से उठा लाए थे।
उधर पास ही स्टोव पर एक बर्तन में पड़ौस वाला लड़का कुछ गर्म करने के लिए ढक कर रख गया था।
कमरे में मैं अकेला था। अख़बार मेरे सामने फ़ैला हुआ था।
इतने में ही दरवाज़े पर कुछ आहट हुई और मैंने देखा कि हॉस्टल के वार्डन महाशय सामने खड़े हैं।
मैं सकपका कर खड़ा हो गया, और मैंने उन्हें अभिवादन किया।
वे जवाब देकर कुछ झुके और मेज़ पर पड़े पैकेट्स को टटोल कर देखने लगे।
मेरे होश उड़ गए जब मुझे सामने सारा नज़ारा दिखा।
एक पैकेट से तली मछली झांक रही थी। डिब्बे में बीयर की बोतलें थीं। स्टोव पर ढके हुए अंडे उबल रहे थे। पूरी मेज़ पर ताश फैले पड़े थे। बगल के कमरे से ज़ोर से ट्रांजिस्टर बजने की आवाज़ आ रही थी। एक पैकेट में कबाब रखे थे। लाइब्रेरी का अख़बार मेज़ पर बिछा था।
वार्डन साहब ने एकदम से मेरी ओर देख कर पूछा- पापा कैसे हैं?
- ठीक हैं सर,मैंने जवाब दिया।
- आपका पोस्टिंग यहां बैंक में हुआ है? वे बोले।
- जी, मैंने कहा।
- बधाई हो, कांग्रेचुलेशन !
- जी, थैंक्स। मैंने दोनों हाथ जोड़कर कहा।
वे बोले- बड़ौदा बैंक इज़ क्वाइट ए गुड वन... आई थिंक इट इज़ वन ऑफ द नेशनलाइज्ड बैंक्स ?
वे कमरे से बाहर निकलते- निकलते बोले- गुड लक, आल द बेस्ट!
और जिस कमरे में से मेरे भाई और सब लड़कों की आवाज़ें आ रही थीं,उस तरफ़ पीठ किए हुए वापस निकल गए।
बाद में उस दृश्य के लिए मेरे भाई और उसके दोस्तों ने कई दिनों तक मेरा उपहास किया। जब भाई और उसके दोस्तों को ये पता चला कि मेरे पिता ने वार्डन को ऐसा पत्र लिखा है कि मैं हॉस्टल के नियमों का पालन करने के लिए लड़कों को समझाऊंगा तो वे सब खूब हंसे।
खाना खाकर शाम को हम सब ने फ़िल्म देखी - शर्मिला टैगोर और मनोज कुमार की "सावन की घटा"!
अगले दिन मैं वापस लौट आया।
अब हम नदी पर केवल सुबह नहाने ही नहीं, बल्कि आसपास घूमने के लिए भी जाते थे। आसपास के कुछ दर्शनीय स्थल और मंदिर आदि भी मैंने देख लिए थे।
कुछ दिन बाद बैंक के परिसर में ही पक्का वाशरूम भी बन गया और इस सुविधा को देख कर कुछ लोगों ने अपने घरों में भी कच्चे पक्के शौचालय बनाने शुरू कर दिए थे।
जिस ढाबे पर मैं खाना खाता था वो मिर्च मसाले बहुत तेज़ डाला करता था।खाने के साथ हरी मिर्च भी तल कर दिया करता था।
एक दिन सुबह शौच करने के बाद जब मैं खड़ा हुआ तो मुझे शौच में कुछ खून सा दिखाई दिया।
मैं थोड़ा घबराया पर गजेन्द्र ने कहा कि ये यहां खाने पानी में बहुत ही आम बात है, और कभी कभी उसे भी ऐसा हो जाता है। फ़िर भी गांव के एक वैद्य जी को दिखाने मैं चला गया। उन्होंने भी यही कहा कि ये साधारण बात है, पर मेरी शंका के निवारण हेतु उन्होंने स्थान पर लगाने की एक दवा भी कुछ दिन के लिए दे डाली।
अब कभी कभी हम दोनों ही सुबह बैंक के अहाते में बने वाशरूम में चले जाते थे।
कुछ दिन बाद फ़िर एक बिजली गिरी।
एक दिन बैंक में खबर आई कि पिछली भर्ती परीक्षा में आरक्षित वर्ग की सीटें पूरी नहीं भरे जाने के कारण न्यायालय ने पूरी नियुक्ति प्रक्रिया को रद्द कर दिया है, और अब हम उन तमाम लोगों को पुनः परीक्षा देनी होगी जो इस परीक्षा से नियुक्त हुए हैं।
ये भी कहा गया कि अगली सूचना तक सभी नियुक्तियां रद्द की जा रही हैं।
सफ़ेद काग़ज़ पर आए उस परिपत्र ने मेरे दिन फ़िर काले कर दिए।
मैं वहां से अपनी दुनिया समेट कर वापस जयपुर चला आया। ऐसा सामान जो यात्रा में ले जाना संभव नहीं था, अपने बैंक में कार्यरत एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को दे आया।
मेरे लौटने का दुख मेरे मित्रों को भी हुआ, ये मुझे अहसास हुआ।मुझे नाव तक छोड़ने गांव के कई लोग आए।
घर पहुंच कर मेरे सामने तीन काम थे।
पहला तो ये, कि मेरे सबसे बड़े भाई को संतान प्राप्ति होने वाली थी। उनकी सहायता करना। क्योंकि भाई और भाभी दोनों ही नौकरी में थे।
दूसरे, मुझे यूनिवर्सिटी की परीक्षा का प्राइवेट फॉर्म भरना था।
तथा तीसरा एक नया द्वार मेरे सामने फ़िर खुला था, जिसकी तैयारी चुनौती पूर्ण ढंग से करनी थी।
जयपुर में पहली बार एक प्रबंधन संस्थान खुला था, जिसके प्रवेश की परीक्षा आयोजित हो रही थी। संस्थान का नया और सुन्दर भवन भी विश्वविद्यालय के पास ही बन रहा था।
मैंने उस संस्थान का फॉर्म भर दिया और उसकी परीक्षा की तैयारी में घर पर ही जुट गया।
इधर जब यूनिवर्सिटी की परीक्षा का फॉर्म भरने लगा तो शिक्षकों ने कहा कि यदि भविष्य में तुम्हारे बैंक सेवा में जाने की संभावना है तो तुम्हें अंग्रेज़ी में एम ए करने का कोई लाभ नहीं होगा। इससे बेहतर है कि तुम्हारे पास अर्थशास्त्र विषय तो रहा ही है,तुम आर्थिक प्रशासन में एम कॉम कर लो।
मैंने दोनों ही विचार छोड़ कर एम बी ए की प्रवेश परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी।
परीक्षा हुई। उसके बाद ग्रुप डिस्कशन हुआ। कुल तीस सीटें थीं। मेरा चयन अठारहवें नंबर पर हो गया।
किन्तु एक नई बात ये सामने आई कि प्रबंधन संस्थान का भवन अभी पूरा बना नहीं है, लिहाज़ा कक्षाएं अगले वर्ष अगस्त से आरंभ होंगी।
यानी बैंक की तरह यहां भी एक लम्बी प्रतीक्षा !
ये सब होते होते भाईसाहब को पुत्र रत्न की प्राप्ति हो गई। मुझे ऐसा लगा जैसे हमारी जगह दूसरी पीढ़ी आ गई। मैं ख़ुश हुआ।
इस खुशी का एक कारण और भी था।
इससे पहले भाईसाहब की एक पुत्री थी,जिसे छोटी आयु में ही कोई भयानक रोग हो जाने के कारण बचपन में ही ज़िन्दगी को अलविदा कहना पड़ा था।
मैंने लगातार भाईसाहब और भाभी को उसकी ज़िंदगी बचाने की जद्दोजहद करते हुए देखा था।
लेकिन दुखों की लंबी श्रृंखला के पटाक्षेप के बाद ये अब एक नया सूर्योदय था।
प्रतीक्षा के दौरान जब सत्रांत हो गया तो मेरे मन में ये विचार आया कि मैं फ़िर से यूनिवर्सिटी में नियमित प्रवेश ले लूं।
मैंने एम कॉम में नियमित प्रवेश ले लिया। लेकिन क्योंकि मुझे प्रबंधन संस्थान आरंभ होते ही एम बी ए में चले जाना था, मैंने अंग्रेज़ी माध्यम में प्रवेश लिया।
कुछ महीने तक नियमित कक्षाएं चलती रहीं। ये एक सर्वथा नई दुनिया थी, जिसमें दोस्त भी नए थे।
अभी कुछ ही महीने बीते होंगे कि मेरी दोबारा दी गई बैंक की परीक्षा का परिणाम आ गया।
मैं इसमें सफल रहा और मेरी नियुक्ति एक खूबसूरत शहर उदयपुर में हो गई। झीलों की नगरी उदयपुर ने मेरे विद्यार्थी जीवन को हमेशा के लिए अपने आगोश में लेकर छिपा लिया।
लेकिन उस समय बैंक की भर्ती परीक्षा सभी बैंकों के लिए सम्मिलित बोर्ड द्वारा होती थी और बाद में बैंक का निर्धारण होता था कि प्रार्थी को कौन सा बैंक दिया जाए।
मुझे इस बार यूनियन बैंक ऑफ इंडिया दिया गया।
मैंने झटपट अपना कार्यग्रहण कर लिया और साथ ही परीक्षा देकर अपना एम कॉम भी पूरा कर लिया।
अब मैं दो फर्स्ट और दो सेकंड क्लास के साथ "मास्टर ऑफ कॉमर्स" था।
अपने विद्यार्थी जीवन में मैंने एक बात और जानी। ये बात लड़कियों को लेकर थी।
मेरे जीवन का आरंभ लड़कियों की संस्था में होने और उनके बीच काफी दिनों तक आत्मीयता से रह लेने के बाद मैंने पाया कि मैं उनसे उस तरह प्रभावित नहीं होता हूं, जिस तरह बाकी लड़के या पुरुष।
मैं प्रभावित ज़रूर हुआ, किन्तु लड़कियों की देहयष्टि, मांसलता, सुंदरता से नहीं, बल्कि उनकी बुद्धिमत्ता, धैर्य, सहनशीलता,परिवार प्रियता आदि से।
अपनी शिक्षा के दौरान देखी लड़कियों व महिलाओं के अलावा मेरा वास्ता उन महिलाओं से भी पड़ा जो बहुओं के रूप में हमारे लंबे चौड़े परिवार में आईं।
मैंने ये भी देखा कि लड़कियों में चीज़ों, बातों, स्थितियों को अपने पक्ष में कर लेने की उत्कट चाह होती है। वे अपनी एक अलग दुनियां,अपनी एक निजी जागीर बनाना चाहती हैं, शायद इसका कारण यही होगा कि वे अपनी एक जन्मसिद्ध जागीर छोड़ कर दूसरे परिवेश में,दूसरे परिवार में आती हैं।
चिकित्सा शास्त्री, मनोवैज्ञानिक या समाज के चिंतक इसका चाहे जो भी स्पष्टीकरण दें किंतु मैं अपने भोगे हुए यथार्थ के आधार पर कह रहा हूं कि केवल एक जिस्म के रूप में लड़की को पाने की चाह मेरे मन के किसी कोने से कभी नहीं उठी।
मुझे ऐसे अनेकों अवसरों का सामना करना पड़ा जब लड़कियों ने आगे बढ़ कर, जोखिम उठाकर, मुझसे शारीरिक संपर्क बनाने चाहे,पर मैंने लड़कियों के दैहिक साहचर्य से मिलने वाले सुख को उनके सामीप्य से मिलने वाले मानसिक, शारीरिक और सामाजिक जोखिम से हमेशा कम ही पाया।
इक्कीस वर्ष की अवस्था तक एक लड़की को पूर्ण निर्वस्त्र देखने,एक के स्तनों के स्पर्श और एक के यौनांगों से उसकी सहमति से छेड़छाड़ के अतिरिक्त और कोई अन्य अनुभव मुझे हासिल नहीं हुआ, और इनमें से किसी भी अवसर की पुनरावृत्ति की वांछना मेरे मन में कभी नहीं जगी।