इज़्तिरार - 3 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

इज़्तिरार - 3

(13)


जब घर से बाहर निकलता तो गर्मी हो, सर्दी हो, या बरसात हो, एक ताज़ा हवा आती थी।
अब मैं किसी बंधन में नहीं था। न सपनों के, न उम्मीदों के, और न ही निर्देशों के !
अब मेरे ऊपर किसी की कोई जवाबदेही नहीं थी। मैं होरी और गोबर की तरह खेतों में भी विचर सकता था, चन्दर की तरह विश्व विद्यालय के अहाते में भी। काली आंधी मेरे आगामी अतीत के मौसम को खुशगवार बनाती थी। मुझे सूरजमुखी अंधेरे के भी दिखते थे। ज़िन्दगी को कोई रसीदी टिकिट देने की पाबंदी नहीं थी। मधुशाला भी दूर नहीं थी। कोई शेषप्रश्न नहीं।
मेरी जीवनी मेरी ही थी,शेखर की तरह। मेरे सामने सारा आकाश था। मेरी ज़िन्दगी अनाम दास का पोथा बन कर मेरे हाथों में थी। मानो कामायनी एक नई दुनिया रचने के लिए एक बार फ़िर से मेरे साथ थी। इसे मैंने छुट्टियों में एक बार फ़िर पढ़ा और प्रसाद जी को याद किया।
अपनी राख के ढेर पर खड़े होकर मैंने कहा - इदन्नमम !
अब मैंने पक्का निश्चय मन ही मन कर लिया कि मैं अब बी ए करूंगा और अपने विषय पूरी तरह बदल डालूंगा।
मैं प्रवेश का फॉर्म हाथ में लेकर विश्वविद्यालय के राजस्थान कॉलेज में पहुंच गया। फॉर्म भरने के साथ ही वहां पहले से मौजूद कुछ ऐसे मित्रों से बातचीत हुई जो मेरे ही विद्यालय से वहां आए थे और आर्ट्स के छात्र होने पर भी मेरी स्कूल गतिविधियों और उपलब्धियों से भली प्रकार परिचित थे।
मैंने उनसे कॉलेज के शिक्षकों, सुविधाओं और विषयों के बारे में भी जानकारी ली।
मैं बनिया परिवार से था। अर्थ और अर्थव्यवस्था मेरी रुचि की बातें थीं। मैंने फॉर्म में पहला विषय इकोनॉमिक्स भर दिया। यद्यपि मुझे कहा गया कि ये एक कठिन विषय है, जिसे आर्ट्स की फिजिक्स कहते हैं। इसमें आगे जाकर स्टेटिस्टिक्स भी आ जाती है, जिसमें गणित है,और गणित में दक्षता होने पर इसमें अच्छे अंक आते हैं। मैंने ये सभी बातें एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दीं। पर अर्थशास्त्र विषय को चुन लिया।
लोग अब भी यही समझते थे कि मैं आर्ट्स में आ रहा हूं तो शायद प्रशासनिक सेवाओं में जाने के इरादे से ही आ रहा हूं। कुछ लोगों ने सलाह दी कि इतिहास विषय स्कोरिंग होता है और प्रशासनिक सेवा परीक्षा में लोग इसे काफ़ी संख्या में चुनते हैं। मैंने इतिहास की जगह राजनीति शास्त्र के बारे में पड़ताल की।
मुझे मालूम हुआ कि राजनीति शास्त्र विषय काफ़ी सब्जेक्टिव है इसलिए अंक अच्छे नहीं देता,किन्तु कुछ ही वर्षों से इसी विषय की एक शाखा लोक प्रशासन के रूप में अलग विषय के रूप में जोड़ी गई है जिसे छात्र आजकल पसंद करते हैं। यह स्कोरिंग भी है और थोड़ा सा ऑब्जेक्टिव भी है।
साथ ही ये भी बताया गया कि नया विषय होने से इसमें पाठ्य सामग्री नहीं उपलब्ध है तथा क्लास नोट्स के ऊपर ही अवलंबित रहना पड़ता है।
इसे उलटने पलटने से मुझे इसमें कुछ दिलचस्पी जागी और दूसरे विषय के रूप में मैंने इसे ही चुन लिया।
तीसरे विषय के रूप में मैंने साहित्य लेने का निश्चय किया। मैं अंग्रेज़ी लिटरेचर लेना चाहता था किन्तु एक मित्र के पास हिंदी साहित्य का सिलेबस देख कर मैं उसे भी सरसरी निगाह से देखने लगा। पाठ्यक्रम में अधिकांश लेखक ऐसे थे जिन्हें मन बहलाव या समय काटने के उद्देश्य से मैं पहले ही पढ़ चुका था।
कुछ सोचकर मैंने तीसरा विषय हिंदी साहित्य चुन लिया।
दो दिन बाद जब मैं घर जा रहा था तो मन में ये उलझन थी कि शायद मेरे पिता मुझे कहेंगे, मुझे अंग्रेज़ी साहित्य लेना चाहिए था।
लेकिन मेरे आश्चर्य का पारावार न रहा जब पिताजी ने कहा - दो लिटरेचर एक साथ लेने की अनुमति नहीं है, तुमने अच्छा किया जो हिंदी साहित्य ले लिया, अब शौकिया तौर पर अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने से तुम्हें दोनों भाषाएं मिल भी जाएंगी और हिंदी में तुम अच्छा स्कोर भी कर लोगे।
तो पिताजी मन ही मन मेरे कैरियर के प्रति अब भी मनोयोग से सोच रहे थे ? मुझे कुछ अपराध बोध सा हुआ कि मुझे फॉर्म में विषय भरने से पहले पिताजी की सलाह लेनी चाहिए थी। खैर, उन्होंने मेरे निर्णय पर सहमति की मोहर लगा कर मेरे बोझ को कम कर दिया था।
कुछ दिन घर रह कर मैं अपने नए कॉलेज में आ गया। यहां मेरे एक नुकसान की भरपाई इस तरह हुई कि मुझे सीधे सैकंड ईयर में प्रवेश मिल गया। क्योंकि उस समय के प्रावधान के अनुसार मैं अनिवार्य विषय तो साइंस के साथ ही पास कर चुका था,वो भी काफ़ी अच्छे नंबरों से। इसलिए वो विषय अब दोबारा लेने की जरूरत नहीं थी, और सीधे द्वितीय वर्ष के पेपर्स के साथ में फर्स्ट ईयर वाले ऐच्छिक विषयों की परीक्षा ही मुझे देनी थी।
इस तरह ज़िन्दगी की दौड़ में मेरी उम्र के बटुए से गए दो सालों में से एक मुझे वापस मिल गया।
नई क्लास में नए मित्र थे। जो कुछ पुराने थे, वे या तो सीनियर थे, या अलग अलग विषयों में छितराए हुए।
लड़के कहते थे कि मैंने अर्थशास्त्र और साहित्य का जो कॉम्बिनेशन ले लिया है उसे लोग बहुत कम ही लेते हैं, इसलिए मेरे बहुत से मित्र अलग चले गए थे।
ये कोई गंभीर बड़ा मसला नहीं था, क्योंकि मित्र बनाने में मुझे ज़्यादा देर नहीं लगती थी।
यद्यपि ज़िन्दगी ने बाद में ये भी सिद्ध किया कि हम लोगों को परिचित बनाते हैं, मित्र नहीं। मित्र तो इने गिने ही मिलते हैं और वो भी किस्मत से !
मेरा वो मित्र भी इस बीच इन दिनों मुझे मिला जो वैसे तो मुझसे बड़ा था,पर उसके माता पिता न रहने के कारण मैं उससे हमदर्दी भी रखता था,और कभी कभी उसके कमरे पर भी चला जाता था।
अब उसकी बारी थी। शायद मेरी जीवन धारा में आए मोड़ के कारण वो मुझसे हमदर्दी रखने लगा था। उस दिन उसका व्यवहार बिल्कुल बदला बदला सा था।
हम दोनों ने साथ में जाकर एक फ़िल्म देखी। टिकिट भी उसने ख़रीदा और मुझे अपने साथ अपनी सायकिल पर बैठा कर वो ही लेकर गया। सिनेमा घर उसके घर से काफ़ी दूर था। शाम का शो देख कर रात को जब हम बाहर निकले तो उसने प्रस्ताव रखा कि हम खाना भी बाहर ही खाएं।
थोड़ी सी ना नुकर के बाद मैं इसके लिए तैयार हो गया।
हमने एक अच्छे से रेस्टोरेंट में खाना खाया।
जब खाने के पैसे देने की पेशकश उसने की तो मैं एकबार उससे पूछ बैठा - आज तेरा जन्मदिन तो नहीं?
पर ऐसा नहीं था।
हमें अपनी कॉलोनी में लौटते लौटते लगभग दस बज गए।
वह मुझसे कहने लगा कि मैं आज उसके साथ उसके कमरे पर ही ठहर जाऊं।
मैं अपने बड़े भाई या भाभी की अनुमति के बिना कभी इस तरह घर से बाहर रात को रुकता नहीं था, किन्तु उस दिन शायद मेरे मन में अपनी निराशा से उपजा विद्रोह भाव था, या फ़िर मेरे प्रति सहानुभूति का मेरे मित्र का अतिरिक्त आत्मीय भाव... उसने मुझे रात को अपने कमरे पर ही सो जाने के लिए मना लिया।
हम दोनों उसके कमरे पर आ गए। उसके कमरे का प्रवेश बाहर से ही होने के कारण उसके रिश्तेदारों के किसी तरह डिस्टर्ब होने का सवाल वैसे भी नहीं होता था,पर वहां पहुंच कर उसने बताया कि आज वहां कोई है भी नहीं। सभी लोग किसी कार्य से शहर से बाहर गए हुए थे।
इतने बड़े घर में हम दोनों ही वहां थे और सोने से पहले मुख्य द्वार पर ताला लगाने की ज़िम्मेदारी भी उसी की थी।
हम दोनों घर को बंद करके उसके कमरे में आ गए।
उसने कपड़े बदलते हुए, मुझसे भी कहा कि मैं भी कपड़े बदल कर उसके कोई पुराने कपड़े पहन लूं ताकि सोने में किसी तरह अ सुविधा न हो।
मौसम गर्म ही था। जयपुर में बारिश कम होने के कारण बरसात का मौसम भी गर्मियों जैसा ही होता था।
मेरे मित्र ने बिल्कुल अनौपचारिक होकर बनियान और अंडरवियर ही पहन रखा था, वो मुझसे भी इसी तरह सोने के लिए कहने लगा।
पर मुझे इसमें संकोच होता था क्योंकि मैं नाड़े वाली चड्डी से बचने के लिए इलास्टिक वाला छोटा वी शेप अंडरवियर पहनता था।
उसने मुझे भी अपना जैसा कपड़े का सिला नाड़े वाला अंडरवियर दिया तो मैं इनकार नहीं कर सका, क्योंकि डोरी से अपनी एलर्जी या अरुचि को खत्म करने के लिए कभी कभी इसका प्रयोग करने की कोशिश मैं चोरी छिपे किया करता था। मैंने भी अपना अंतर्वस्त्र उतार कर उसका दिया कपड़ा ही पहन लिया।
हम दोनों सोने के लिए बिस्तर पर आ गए।
उसे मेरे कैरियर में मिली विफलता के कारण मुझसे हमदर्दी थी,और मुझे उसके माता पिता न होने, तथा मेरे लिए फ़िर भी इतना खर्चा कर देने पर उससे एक आत्मीय सहानुभूति थी... ये हम दोनों के लिए परस्पर एक दूसरे के प्रति आकर्षण का कारण बनी।
विद्यार्थियों के कमरे में डबल बेड तो होते नहीं, लेकिन फ़िर भी बिस्तर पर जगह की तंगी नहीं रही। बल्कि बहुत सी जगह तो सारी रात फ़ालतू पड़ी रही।
कॉलेज में नियमित कक्षाएं शुरू हो गई थीं और समय ने एक बार फ़िर गाड़ी को पटरी पर ला दिया था।
कहते हैं कि आग पर रोटी या कढ़ाई में पूरी तभी फूलती है जब उसे थोड़ा सा दबाया जाए। यदि दबाव न हो तो वो भी नहीं फूलती।
पिछले कॉलेज में जब अध्यापक कहते थे कि ये सब गतिविधियों छोड़ कर पढ़ाई पर ध्यान दो,तो गतिविधियों- डिबेट, चित्रकला,सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मन भी ज़्यादा लगता था। किन्तु यहां जब अध्यापक कहते कि ख़ाली किताबों से ही चिपके मत रहो, ज्ञान को तरह तरह की एक्टिविटीज से समृद्ध करो तो भी इनमें भाग लेने से भीतर से डर ही लगता था।
मैं शुरू के कुछ महीनों तक क्लास में बेहद सख्ती से नियमित ही रहा। कोई क्लास नहीं छोड़ता था।
लेकिन धीरे धीरे पुराने दिन लौटने लगे। एक के बाद एक इंटरकालेज डिबेट्स के आमंत्रण अाए और मैंने चौदह बार अपने कॉलेज की टीम में भाग लिया। चार बार पुरस्कार भी पाए।
तीन चार लेखन स्पर्धाएं जीती।
विश्वविद्यालय कला संकाय की फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता भी जीती। इसमें मैंने " लेडी ऑन द मून" शीर्षक से प्रस्तुति दी। एक बड़े हार्ड बोर्ड से गोल चंद्रमा बनाया गया था। पार्श्व में उसे रख कर सफ़ेद कपड़ों में एक बूढ़ी औरत बन कर एक चरखा कातते हुए मैं उसके सामने बैठा। चन्द्रमा,मेरे अपने शरीर, कपड़ों और चरखे पर चमकीला सिल्वर रंग किया गया और मंच पर थोड़ा अंधेरा करके पर्दों के बीच से निकलता चन्द्रमा दिखाया गया, जिस पर प्रचलित किम्वदन्ती के अनुसार बुढ़िया चरखा कात रही है।
इस बार फ़िर मुझे पुरस्कार मिला।
विषय नए थे पर पढ़ने में आनंद आ रहा था, क्योंकि ये मेरे अपने ही चुने हुए विषय थे।
मैंने अपना बड़प्पन और झिझक बिल्कुल छोड़ दिए थे, जिससे जो सीखना था सीखा, पूछना था, पूछा। मुझे ये अहसास हर पल बना रहता था कि मैं एक परदेसी की तरह एक ऐसी नई नगरी में आ गया हूं जहां मैं कुछ नहीं जानता, कुछ नहीं समझता। यहां जो भी है वो मुझसे ज्यादा जानता है,और मुझे कुछ न कुछ नया सिखाएगा।
इस रवैए ने मुझे कॉलेज में तेज़ी से लोकप्रिय बनाया और मेरे ढेर सारे नए छोटे बड़े दोस्त बनाए।
एक दिन कॉलेज में संस्कृत विभाग का कार्यक्रम हो रहा था। संस्कृत का एक लड़का मेरे साथ लोक प्रशासन की क्लास में भी था। वो मुझे अपने साथ उस कार्यक्रम में ले गया। समारोह में उपस्थिति काफ़ी कम थी, फ़िर भी कुछ अन्य कॉलेजों से आए छात्र भी थे क्योंकि वह संस्कृत साहित्य परिषद का इंटर कॉलेज प्रतियोगिता का आयोजन था।
प्रतियोगियों को संस्कृत में निर्धारित समय में संभाषण करना था। मेरे साथ प्रथम वर्ष का एक मेरा मित्र भी था,और हम हॉल में बैठे संस्कृत सुनने का आनंद ले रहे थे।
सभी प्रतियोगियों के बोलने के बाद मंच से घोषणा हुई कि सभी प्रतियोगी बोल चुके हैं, किन्तु यदि श्रोताओं में से कोई अन्य व्यक्ति बोलना चाहे,तो उसे भी प्रतियोगिता में भाग ले सकने की अनुमति अध्यक्ष द्वारा दी गई है।
मैं न जाने क्या सोच कर उठा और मंच पर पहुंच गया। सभी को,विशेष रूप से मेरे मित्र को बड़ा आश्चर्य हुआ।
स्कूल में एक बार एक अध्यापक जी ने कक्षा में हम छात्रों से कहा था कि संस्कृत के अंक तुम्हारे रिज़ल्ट में डिवीजन में नहीं जोड़े जाते,इसलिए तुम लोग संस्कृत भाषा पर ध्यान नहीं देते हो जबकि ये बहुत वैज्ञानिक भाषा है,और इस पर पकड़ बनाने से तुम्हारा किसी भी भाषा का व्याकरण का ज्ञान समृद्ध होगा।
मैंने तब उनकी बात का मान रखने और छात्रों के बीच कुछ नाटकीय दिखाने के इरादे से संस्कृत की एक कहानी याद करके रट डाली थी, जिसके कारण अगले टेस्ट में मुझे संस्कृत में अप्रत्याशित रूप से बहुत अच्छे अंक मिले थे।
वो कहानी मैं अब तक भूला नहीं था।
वही कहानी मैंने यहां प्रतियोगिता में सुना डाली। डिबेटर होने से मंच पर बोलने का कौशल तो पहले से ही पनप चुका था।
सब हैरान रह गए जब प्रतियोगिता का परिणाम घोषित हुआ और मुझे प्रथम पुरस्कार मिला।
हॉल से निकलते वक़्त अपने कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर साहब के अपने साथी को कहे गए शब्द मेरे कानों में पड़े,वे कह रहे थे- यदि संस्कृत में ऐसे स्मार्ट छात्र आयेंगे तो हम इंटर यूनिवर्सिटी संभाषण प्रतियोगिता भी जीत लेंगे।
मैं मन ही मन फूल कर कुप्पा हो गया। लेकिन मेरे मित्र का मुंह भी फूल कर कुप्पा हो गया जब उसने मुझसे कहा - तूने अकेले अकेले छिप कर तैयारी कर ली और मुझे नहीं बताया... मैं उसे लाख विश्वास दिलाता रहा कि यहां आने से पहले मुझे इस स्पर्धा के बारे में पता तक नहीं था।
हम तीन मित्र वहां से सीधे कैंटीन गए जहां मैंने उन्हें समोसे खिलाए। एक ने समोसे को मेरे जीतने की ख़ुशी में दी गई ट्रीट समझा, दूसरे ने उसे मनाने की कोशिश, कि उसे मैं प्रतियोगिता से पहले तैयारी करवा कर साथ में क्यों नहीं ले गया।
एक रात मेरे मित्र के कमरे पर सो जाने के कारण मुझे अगले दिन अपने बड़े भाई से हल्की सी डांट खानी पड़ी, लेकिन भाभी ने कहा कि- जाने में कोई बात नहीं, लेकिन आगे से जब भी जाऊं तो पहले घर पर बता कर जाऊं कि रात को मैं घर नहीं आऊंगा।
इससे मुझे लगा कि उस दिन रात को घर न आने पर भैया ज़रूर परेशान हुए होंगे।
भाभी की बात से मुझे एक प्रकार से अनुमति भी मिल गई कि मैं आगे से पहले बता कर बाहर जा सकूंगा।
इस अनुमति का पता जैसे ही मेरे मित्र को चला, अर्थात मैंने उसे बताया,तो अगले ही दिन वो फ़िर से मुझे रात को अपने साथ ले गया।
इस बार मुझे उसके साथ रह कर और भी आनंद आया क्योंकि बिना पूछे आने का तनाव अब मेरे साथ नहीं था।
अब हम अक्सर मिलते।
एक दिन हमारे हिंदी साहित्य के प्रोफ़ेसर क्लास में बोले- साहित्य कोई ऐसा विषय नहीं है, जिसमें गणित की तरह तुम्हें शत प्रतिशत अंक मिल जाएंगे। यहां तो साठ प्रतिशत, अर्थात प्रथम श्रेणी के अंक भी एक चुनौती हैं।
वे जोश में बोल गए कि साहित्य में यदि तुम साठ प्रतिशत नंबर ले आओ तो अपनी मार्कशीट को ही नौकरी का अपॉइंटमेंट लेटर समझ लेना।
हमारे कॉलेज के छात्र भी दो वर्गों में बंटे दिखाई देते थे। यद्यपि एकवर्ग काफ़ी बड़ा था जिसमें सत्तर फीसदी लड़के थे जो प्रायः नौकरी भविष्य आदि के बारे में नहीं सोचते थे, लेकिन दूसरी ओर लगभग तीस प्रतिशत ऐसे थे जो किसी बड़ी सरकारी नौकरी की परीक्षा के लिए तैयारी कर रहे थे। इनमें से ज़्यादातर अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों से आए थे या फ़िर ऐसे संपन्न शिक्षित घरों से थे जो कोचिंग आदि के सहारे भविष्य की तैयारी में भी सक्रिय थे।
अपनी अभिरुचि और पिताजी से मिली सहायता के चलते अंग्रेज़ी पर मेरी पकड़ भी अंग्रेज़ी माध्यम वाले लड़कों की तरह ही थी। लेकिन मैं अपनी दक्षता के बावजूद मन से हिंदी वाले छात्रों के साथ ही रहता था।
एक रात मेरे उसी मित्र के कमरे पर रुकने के दौरान मेरी उससे काफी देर तक बहस हुई जब उसने मुझे ज़िन्दगी का एक नया फ़लसफ़ा समझाया।
वह बोला- हमें जीवन में किसी भी आदत या नशे का गुलाम नहीं होना चाहिए,किन्तु जीवन की कोई भी बात ऐसी भी नहीं होनी चाहिए जो हमें मालूम न हो। हमारे पास जीवन को जानने समझने के लिए एक ही जीवन है,बस।
आरंभ में मुझे लगा कि वह कैसी बहकी बहकी भावुक बातें कर रहा है,शायद उसे अपने दिवंगत मातापिता की याद आ रही हो,और वह मन में कोई अकेलापन महसूस कर रहा हो।
किन्तु जल्दी ही मुझे पता चला कि वो आज कहीं से थोड़ी सी बीयर ले आया है जो उसने अपनी अलमारी में छिपा रखी है।
बीयर पीने के उसके प्रस्ताव को मैंने अस्वीकार कर दिया। लेकिन उस दिन मुझे शराब नोशी की पहली सीढ़ी, बीयर पीने के बारे में भी कुछ नई बातें पहली बार पता चलीं।
सुनी सुनाई बातों पर विश्वास कर लेना न उसकी फितरत में था,और न मेरी।
मेरे मना कर देने पर उसने भी बीयर की बोतल को नहीं खोला, और उसे ऐसे ही वापस रख दिया।
मुझे उसने बताया कि जैसे नॉन वेज खाना न खाने वाले भी कभी कभी अंडा खा लेते हैं,वैसे ही शराब न पीने वाले भी कभी कभी बीयर पी लेते हैं। बीयर ठंडी करके ही पीना ही अच्छा रहता है। बीयर में एल्कोहल यानी शराब का अंश बहुत थोड़ा सा होता है। इसे भोजन करने से पहले पिया जाता है। कोई भी शराब ख़ाली पेट पीना नुकसानदेह है और ऐसा केवल वही करता है जो शराब की लत का शिकार हो चुका हो, और जिसे दुनिया नशेड़ी कहती है।
मेरे मित्र ने बीयर के साथ खाने के लिए कुछ स्वादिष्ट चीज़ें भी लाकर रखी थीं।
जब उसने खाने के लिए उन्हें निकाला तो उसके चेहरे की मायूसी देख कर मुझे बहुत अपराध बोध महसूस हुआ।
वह बहुत सुंदर और स्मार्ट था। हंसमुख भी। इस समय उसका उतरा चेहरा देखा नहीं गया। रात को काफ़ी देर भी हो चुकी थी।
कुछ सोच कर मैंने धीरे से कहा,अच्छा चल निकाल, थोड़ी सी पीते हैं।
वो किसी छोटे बच्चे की तरह किलकारी भरता हुआ खुश हुआ और हाथ में पकड़ा ब्रेड पकौड़े का चटनी में भीगा टुकड़ा वापस प्लेट में रख कर अलमारी से बोतल उठाने के लिए लगभग दौड़ ही पड़ा।
उसकी चिरपरिचित वो मुस्कान फ़िर उसके चेहरे पर आ गई जो मुझे बेहद पसंद थी।
मैंने मन में सोचा ऐसा चेहरा देखने के लिए थोड़ी सी बीयर पी लेना कोई जोखिम भरा सौदा नहीं है।
आख़िर उसने मेरा सम्मान किया था कि मेरे मना करने के बाद उसने भी पीने का इरादा छोड़ कर बोतल वापस रख ही दी थी। मैंने भी उसे एक बार मायूस करने के बाद फ़िर से सम्मान देने के लिए उसका छोड़ा हुआ पकौड़े का टुकड़ा हाथ में उठाकर खाना शुरू कर दिया। उसकी खुशी और उत्साह जैसे दुगने बढ़ गए।
मैं सोच रहा था कि उसे इतना खुश देखकर उसके माता पिता की आत्मा जहां भी होगी,कितना खुश होगी?
देर तक बातें करते हुए हम दोनों गर्मी की उस रात फ़िर अंतरंगता से सोए।

(14)


मुझे बहुत छोटी आयु से ही राजनीति में भी रुचि रही। होश संभालने के बाद से ये तो मैंने देखा था कि किसी भी समूह में नेतृत्व विकसित कर लेने की क्षमता मुझे अपने में दिखाई देती थी,लेकिन शुरू में ये केवल कक्षा मॉनिटर, छात्र दल प्रमुख, सर्वश्रेष्ठ छात्र, छात्र संघ का उपप्रधान मंत्री या विज्ञान परिषद के अध्यक्ष जैसी हैसियत में ही रही।
विद्यालय पत्रिका का संपादक,डिबेटिंग सोसायटी का अध्यक्ष भी मैं बना।
लेकिन एक बात मुझे बराबर महसूस होती थी कि इस शक्ति को पाने में और बहुत सी शक्तियां खर्च हो जाती थीं।
यदि देश की राजनीति की बात करें तो मेरी रुचि हमेशा व्यक्ति केंद्रित रही। किसी एक पार्टी की हर बात पसंद हो, या किसी पार्टी का सब कुछ नापसंद हो,ऐसा कभी नहीं रहा।
मेरे मन में जनता के वोट अर्थात जीते हुए के प्रति सद्भाव हमेशा रहा।
मैं ये नहीं कर पाता था कि अपनी पसंद का व्यक्ति जीत गया तो जनता महान,और अपनी पसंद का आदमी हार गया तो जनता मूर्ख! अक्ल का ऐसा दीवालियापन मैंने कभी अपने सिर चढ़ कर बोलने नहीं दिया।
यद्यपि समय के साथ साथ अपने देश में हर बात के लिए एक ऐसी शब्दावली पनपती हुई भी मैंने देखी कि हर सूरत में आप अपनी ही बात को सही सिद्ध कर सको - यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी। हर भाव के लिए एक शब्द चुन लेना हमारी नकारात्मकता ने हमें बख़ूबी सिखा दिया।
ऐसा भी अवसर आया कि चोर साहूकार को ग़लत ठहरा सके। रिश्वत खाने वाला ईमानदार को नीचा दिखा सके। नकल से पास होने वाला मेहनत करके पास होने वाले की खिल्ली उड़ा सके
इन बातों ने कुल मिलाकर देश को नीचा दिखाया।
वैसे यदि परंपरागत राजनीति की बात करें तो आरंभ में कई वर्ष तक कांग्रेस ही देश की आशा पर खरी उतरने वाली पार्टी दिखाई देती थी। जयपुर में महारानी गायत्री देवी की लोकप्रियता भी अच्छी लगती थी। बाद में जब अलग अलग विचारधारा उभरने का अराजक समय आया तो इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व प्रभावित करता था।
महात्मा गांधी या लालबहादुर शास्त्री जैसे लोग सैद्धांतिक तौर पर अच्छे लगते थे किन्तु सत्ता पर पकड़ से उनका पलायन उन्हें संदिग्ध भी बनाता था।
क्षेत्रीय दल तो प्रायः ऐसे ही लगते थे कि जैसे देश की अखंडता में सेंध लगाकर निजी हित साधने का कोई जुनून भरा उपक्रम हो।
अब बात अपने कॉलेज के दिनों की।
बी ए सैकंड ईयर में कई बार डिबेट स्पर्धाओं में भाग लेने के बाद मुझे कॉलेज का बेस्ट डिबेटर का अवॉर्ड मिला।
इसके बाद जब कॉलेज में डिबेटिंग सोसायटी का गठन हुआ तो अध्यक्ष पद के लिए मैंने चुनाव लड़ा और जीता। यद्यपि मैं अपनी बात ज़्यादा प्रभावशाली तरीके से चला नहीं सका क्योंकि उपाध्यक्ष,महासचिव पदों पर अंग्रेज़ी के डिबेटर छात्र जीते।
वैसे भी मेरी सोच विद्यार्थियों को निजी तौर पर संभाषण के लिए सहायता देने की होती थी।
कॉलेज के सांस्कृतिक सचिव के पद पर अध्यक्ष और महासचिव मिल कर किसी को मनोनीत करते थे। ऐसे व्यक्ति का दायित्व कल्चरल प्रोग्राम के अलावा खेल के टूर्नामेंट्स आदि के आयोजन में भी होता था।
कॉलेज का एक खिलाड़ी मुझे बहुत पसंद था। वह देखने में तो बहुत छोटा, मासूम सा चेहरा दिखता था, किन्तु शरीर से बेहद संतुलित और पुष्ट था। चेहरे से खूबसूरत और बहुत सुंदर बालों वाला।
कॉलेज की कई खेल टीमों में उसे चुना जाता था। अच्छा एथलीट भी था।
उसी को अध्यक्ष सांस्कृतिक सचिव बनाना चाहते थे। किन्तु वो ये दायित्व नहीं लेना चाहता था।
कोई लड़का ये नहीं जानता था कि वो ये ज़िम्मेदारी क्यों नहीं लेना चाहता था।
संयोग से उसने मुझे बता दिया कि वो सार्वजनिक रूप से बोलने से बहुत कतराता है, उसे बोलने में बहुत झिझक होती है इसलिए वह सचिव नहीं बनना चाहता।
एक दिन छात्र संघ के अध्यक्ष ने उससे कहा कि यदि तू सचिव नहीं बनना चाहता तो तू हमें नाम बता दे,तू जिसे कहेगा उसे ही सचिव बनाया जाएगा।
ये बात पता लगते ही चार पांच लड़के उससे संपर्क करके उसे प्रभावित करने की कोशिश तरह तरह से करने लगे।
एक दिन शाम को कॉलेज में एक मैच हो रहा था। सफ़ेद शर्ट,सफ़ेद हॉफ पैंट और सफेद जूते पहनकर वो मैच के लिए तैयार होकर आया तब कॉलेज के गेट से निकलते हुए वो मुझे मिला।
मैं घर जा रहा था, वैसे भी शाम देर तक होने वाले खेल देखने के लिए मैं प्रायः रुकता नहीं था।
मैं और वो जैसे ही आमने सामने हुए वो मुझसे बोला- मैच देखने नहीं रुकेगा?
उसने जिस उत्साह और अपनेपन से कहा, एकाएक मुझसे कहते न बना कि नहीं देखूंगा। मैं उसके साथ- साथ वापस कॉलेज के कैंपस में दाखिल हो गया।
हम दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए चलते हुए ग्राउंड की ओर जा ही रहे थे कि हमें सामने से मेरे घर के पास रहने वाला मेरा एक दोस्त आता दिखा।
वो घर जाने के लिए सायकिल लेने सायकिल स्टैंड की ओर जा ही रहा था।
मेरे खिलाड़ी दोस्त ने उसे इशारे से बुलाया और उससे कहा- तू घर जा रहा है न, तू प्रबोध के घर पर कह देना कि ये आज रात को घर नहीं आयेगा।
उस लड़के को आश्चर्य हुआ और उसने मेरी ओर देखा,जैसे पूछना चाहता हो कि क्या सचमुच ऐसा कह दूं!
अचंभा मुझे भी हुआ कि मुझसे पूछे बिना ही मेरे दोस्त ने मैच के बाद मुझे अपने साथ अपने घर ले जाने का प्लान भी बना लिया?
लेकिन मैं कुछ नहीं बोला और इससे लड़के ने अनुमान लगा लिया कि मेरी सहमति है। वह चला गया।
रात को मैच ख़त्म होने के बाद जब हम दोनों कॉलेज से बाहर निकले तो सड़कें बिल्कुल सुनसान हो चुकी थीं। मैच का कोलाहल भी थोड़ी देर में ही तिरोहित हो गया।
उस दिन मुझे पहली बार पता चला कि हमारे कॉलेज के उस बेस्ट स्पोर्ट्समैन लड़के का घर कॉलेज से लगभग आठ किलोमीटर दूर नज़दीक के एक गांव में है।
सड़क पर थोड़ी दूर जाने के बाद हमने सड़क का पक्का रास्ता छोड़ दिया और खेतों की ओर एक कच्चे रास्ते पर सायकिल चल पड़ी।
कच्चे रास्ते पर खेतों के बीच से उसे इतने आराम से सायकिल चलाते देख कर उसके पीछे बैठा मैं सोच रहा था कि इतना धुंआ धार खेलने के बाद भी ये थका नहीं है और आराम से बातें करता हुआ चला जा रहा है। पर वो शायद इस रास्ते और सवारी का अभ्यस्त था।
थोड़ी देर बाद हम उसके खेतों के बीच में थे। लहलहाते हरे भरे खेतों के बीच एक किनारे पर उसका घर बना हुआ था। घर पहुंच कर हमने स्वादिष्ट गर्म खाना खाया और हम छत पर आ गए जहां उसका कमरा बना हुआ था।
उसके घरवाले बहुत सादे ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोग थे,इसलिए उनसे कोई बातचीत तो नहीं हो सकी पर उन्होंने जिस तरह मेरी आवभगत की मैं अभिभूत हो गया।
मुझे ये भी देखना अच्छा लग रहा था कि उस कृषक परिवार ने अपने बेटे को कितने जतन से पढ़ा लिखा कर काबिल बना दिया। लेकिन कहीं हल्की सी आशंका ये भी हो आई कि इस खेत खलिहान से सजे साम्राज्य को संभालने की रुचि इसमें बनी रहेगी? क्योंकि वह अकेला लड़का था और शेष उसकी बहनें थीं। उस समय ये सोचा भी नहीं जा सकता था कि लड़की परिवार के किसी कार्य व्यापार में हाथ बंटाएगी। लड़कियों के लिए तो यही माना जाता था कि शादी करके घर से चली जाएगी।
मुझे ये वातावरण बहुत सुहाना लगा।
मैं छत से ही आसपास का नज़ारा देखने लगा जहां दूर दूर कहीं कहीं किसी कच्चे पक्के मकान की धुंधली सी रोशनी दिखाई देती थी और बाकी चारों ओर खेत ही खेत।
सोने से पहले उसने लाल रंग के मंजन से अंगुली से दांतों को साफ़ किया। मुझे भी कुल्ला करने के लिए लोटे में पानी देते हुए थोड़ा सा मंजन दिया।
हम दोनों कमरे के भीतर आ गए और उसने दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया।
शर्ट उतारते ही उसका कसरती बलिष्ठ बदन देखकर मैं दंग रह गया। उस समय साधारणतया जिम नहीं होते थे, गांवों में तो बिल्कुल नहीं,जो कुछ था वो उसकी मेहनत, देखभाल और शुद्ध सात्विक खानपान का नतीजा।
सोने से पहले हम देर तक बातें करते रहे। उसने बताया कि वह अकेला तो रस्सी की खाट पर बिना कुछ बिछाए ऐसे ही सोता है पर आज मेरे कारण उसने गद्दा और चादर बिछाया है।
गर्मी का मौसम नहीं था पर उसने केवल कच्छा ही पहन रखा था।मुझसे बोला- मैं तुझे बिना पहले से कहे आज यहां ले आया, इसलिए कल सुबह यहीं से हम कॉलेज चलेंगे तो अपने कपड़े बदल कर ये पहन ले। कहकर उसने मुझे भी एक छोटा पुराना अंडरवियर और एक पुरानी टी शर्ट दे दी।
वो खुद खिलाड़ी होने के कारण शायद गमछा या तौलिया लपेट कर रहने के स्थान पर छोटे तंग कपड़े ही पहनता था।
उसके कपड़ों में उसकी गंध थी। मेरे कपड़े जतन से समेट कर उसने एक ओर रख दिए।
उसे थोड़ी देर बाद जैसे कुछ याद आया,एकदम से बोला - हमारे घर बाथरूम और लैट्रिन नहीं है।अगर रात को पेशाब लगे तो तू बाहर छत पर कोने में जाकर कर लेना।
मैंने पूछा- तू कहां करता है?
बोला- मैं तो नीचे बाहर जाकर खेत में कर देता हूं,पर खेत में तू कैसे जाएगा,तू तो यहीं कर लेना।
ये बात सुनकर मुझे थोड़ी सी बेचैनी हुई और मैंने उससे कहा कि छत क्यों गंदी करवाता है, चल एक बार अभी बाहर ही कर आते हैं, फ़िर मुझे ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
हम सीढ़ियों से उतर कर पिछवाड़े के दरवाज़े से बाहर निकले और खेत में पेशाब करके अाए।
जब उसने मुझे पानी का लोटा दिया तो मैंने केवल हलक तर करने के लिए एक घूंट ही पिया।
हम दोनों लेटकर फ़िर बातें करने लगे।
वह मेरे एकदम समीप आकर धीरे से बोला- मैं बहुत दिनों से तुझे अपने घर लाना चाहता था।
मैंने कहा- क्यों? पर तूने कभी कहा तो नहीं।
वह बोला- मैंने एक दिन डिबेट में तुझे बोलते हुए सुना था, तभी से मैं सोचता था कि तुझसे बोलना सीखूंगा। मतलब भाषण देना।
- अच्छा। मुझे मन ही मन खुशी सी हुई।
वह कहने लगा - जब हम लोग कहीं खेलने जाते हैं तो मैं किसी से बात नहीं कर पाता।
मैंने खुश होते हुए कहा- अच्छा, पर मुझे क्या देगा?
वह बोला- तेरे सामने हूं,जो कहे, बोल!
मुझे थोड़ा सा मज़ाक सूझा, मैंने कहा - तेरे मंजन से बहुत प्यारी ख़ुशबू आती है, इसकी एक शीशी दे देना।
तुझे अच्छी लगी ये खुशबू? तो ले सूंघ ! कह कर उसने अपना मुंह एकदम मेरे पास लाकर खोल दिया और ज़ोर से सांस ली।
उस लाल मंजन में तंबाखू मिला होता है,ये मुझे उस दिन पहली बार पता चला।
उसने फ़िर एक रहस्य की भांति अपना मुंह मेरे कान के पास लाकर मुझे बताया कि उसने मेरा नाम प्रेसीडेंट और कॉलेज के स्पोर्ट्स इंचार्ज को कल्चरल सेक्रेटरी बनाने के लिए दिया है। वो बोला- उन्होंने मंज़ूर भी कर लिया है,जल्दी ही डीन साहब से वो लोग अनाउंस करवाएंगे।
मैं चकित ही नहीं बल्कि बहुत खुश भी हुआ।
मैंने उसे बताया कि मैंने बचपन से कभी खेलों में भाग नहीं लिया,इसलिए खेलों से किसी तरह जुड़ना मुझे मन ही मन बहुत अच्छा लगता है।
-अरे, क्यों पर? उसने आश्चर्य से कहा।
मुझे उसे अपना बचकाना कारण बताने में संकोच हुआ,पर फ़िर भी मैंने सच बात बतादी- मुझे जूतों के लेस, धागे, नाड़े आदि चीज़ों से बहुत अरुचि जैसी होती थी। एलर्जी जैसी। मैंने कहा- बिना जूतों के खेल या एन सी सी आदि में काम ही नहीं चलता था तो मैं इनसे दूर ही रहा।
कुछ सोच कर मैंने कह दिया- जैसे ये तेरी चड्डी का नाड़ा है,इसके कारण बहुत दिनों तक तो मैं चड्डी भी नहीं पहनता था।
- अरे,तो उतार दूं? उसने बेहद भोलेपन से कहा।
मैं एकदम से झेंप गया, लेकिन फ़िर मैंने भी उसी की तरह मज़ाक के मूड में कहा- रहने दे,क्या क्या उतारेगा?
वो लटका हुआ नाड़ा चड्डी के भीतर करने लगा,पर मैंने हाथ बढ़ा कर उसे ऐसा करने से रोक दिया। और उसे और भी बाहर खींच कर निकाल दिया। वह मेरी ओर करवट लेकर गौर से मेरी तरफ़ देखने लगा।
फ़िर मैंने गंभीर होकर कहा- एलर्जी को दूर करने का ये भी एक तरीका है कि जिस चीज़ से एलर्जी हो उसे और भी ज़्यादा नज़दीक लाकर उसका अभ्यस्त होने का प्रयास किया जाए। कह कर मैंने उसकी कलाई पकड़ ली जिसमें काला धागा बंधा हुआ था। मैं उसका काला धागा अंगुलियों में लेकर घुमाते हुए उससे खेल करने लगा।
वो न जाने किन खयालों में डूब गया। उसके गले में और कमर पर भी एक काला धागा बंधा हुआ था। वह खोया खोया लेटा रहा और मैं उसके शरीर पर बंधे धागे अंगुलियों में लेकर घुमाता रहा।
मुझे एक परिचित वैद्य की बात याद आ रही थी कि जिन चीज़ों से हम शारीरिक कारणों से घृणा करते हैं उन्हें यदि जीवन में आवश्यक और स्वाभाविक मानते हों तो उनसे बचने की जगह उनमें और उलझने की कोशिश करनी चाहिए। इससे हमें उनका अभ्यस्त होने का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की क्रिया में सहायता मिलती है। यह भी एक मनोवैज्ञानिक सच है कि हम जिन लोगों, शरीरों,बातों या चीज़ों को पसंद करते हों उनके साथ जोड़ कर हम अपनी नापसंद चीज़ को रखें तो उनके प्रति आकर्षण का फ़ोर्स नापसंद वस्तु के विकर्षण के फ़ोर्स से लड़ता है और इससे उस वस्तु से हमारी नापसंदगी कम होती है। बार बार ऐसा करने से ये नापसंदगी विलुप्त भी हो सकती है। चिकित्सा शास्त्र में हम ऐसे ही ठीक होते हैं और अपनी शारीरिक या मानसिकता रुग्णता से निजात पाते हैं।
ये वैसा ही है कि हम अपने बच्चे की पॉटी से या अपने पिता की उल्टी से उस तरह घृणा नहीं करते जिस तरह अजनबी बच्चे या अपरिचित वृद्ध की विष्ठा या वमन से करते हैं। मेरे इस मित्र की खूबसूरत देह को मैं इतना पसंद करता था कि उसके बदन से उतरे पुराने कपड़ों में भी एक अंतरंग अपनापन महसूस करता रहा। उसके हाथ पर बंधे धागे, उसकी चड्डी के लटके हुए नाड़े और उसकी कमर पर लिपटे डोरे ने भी मेरे मन में कोई वितृष्णा नहीं जगाई।
न जाने कितनी देर बाद हम सोए।
आंख सुबह ही खुली।
सुबह जल्दी उसके साथ खेत में शौच के लिए जाना भी मुझे अच्छा लगा। सुबह जब हम खेत की ओर जाने लगे तो उसने मुझे कहा कि खेत में गीली मिट्टी होगी, अपने सैंडिल छोड़ दे,ये पहन ले,कह कर उसने अपने एक पुराने सफ़ेद स्पोर्ट्स शूज़ मेरे सामने रख दिए। मैं उसका आशय समझ कर मन ही मन मुस्कराया। वो मुझे जूते पहनने का अभ्यास करवाना चाहता था। मैंने जूते पैरों में डाल तो लिए पर उन्हें बांधा नहीं। ऐसे ही खुले लेस लटकते रहे और हम चल पड़े। रात को एकसाथ सोकर हम इतने करीब आ चुके थे कि खेत में भी आमने- सामने बैठे देर तक बात करते हुए निवृत्त हुए।
लौट कर खेत पर चल रहे पम्प के पानी से ही हम नहाए।
नाश्ता करने के समय तक उसके घर के बाकी लोग भी जाग चुके थे। उसकी माता का बनाया नाश्ता हमें उसकी दो बहनों ने इतने प्रेम से परोसा कि जीवन में उसका परिवार मुझे कहीं दोबारा मिल भी जाए तो मैं किसी को भी पहचान न सकूंगा। सिवा उसके पिता के।
हां, उनके बेटे, यानी अपने मित्र के बदन के पोर पोर से मैं वाक़िफ हो चुका था।
कॉलेज पहुंचने तक हम दोनों गहरे मित्र बन चुके थे।
कुछ दिन बाद मैंने एक कविता लिखी। ये मेरी बिना किसी मांग, बिना किसी प्रतियोगिता या बिना किसी असाइनमेंट के स्वतः लिखी गई पहली कविता थी।
मैंने इसे हिंदी साहित्य की क्लास में डॉ विशंभर नाथ उपाध्याय को दी जो क्लास लेने आए थे। उन्होंने बिना कुछ कहे इसे मोड़ कर अपनी जेब में रख लिया।
कुछ दिन बाद मैं कॉलेज का सांस्कृतिक सचिव बना और हम लोग बड़े पैमाने पर होने वाले वार्षिकोत्सव की तैयारियों में जुट गए।
किन्तु कुछ ही दिनों के बाद मुझे ये पद छोड़ना पड़ा।
पद छोड़ने का कारण सिर्फ ये था कि मुझे डिबेटिंग सोसायटी का अध्यक्ष चुना जा चुका था,और इस बात पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया था कि विश्व विद्यालय के संविधान के अनुसार दो पद किसी एक छात्र के पास नहीं हो सकते थे।
मैं खेल गतिविधियों में शामिल होकर पूरा सहयोग करता रहा किन्तु सचिव पद पर एक अन्य छात्र को चुन लिया गया।
इन्हीं दिनों मैंने अपने अवचेतन में संचित निष्कर्षों के सहारे एक और बात पर ध्यान दिया कि राजनीति में जो भी आता है उसके मस्तिष्क में कोई न कोई मनोवैज्ञानिक जटिलता ज़रूर होती है। एक सामान्य व्यक्ति आसानी से राजनीति में पड़ना नहीं चाहता। वह राजनीति को पसंद कर सकता है,उसकी समीक्षा कर उस पर चर्चा,बहस कर सकता है,उस पर राय दे सकता है, पर स्वयं राजनीतिज्ञ नहीं बन सकता।
चाहे ऊंची अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय राजनीति की बात हो,या स्थानीय, छोटी,सीमित, छात्र राजनीति की।
इसी लिए सामान्य बोलचाल में कहा जाता है कि राजनीति का एक "कीड़ा" होता है, वो जिसके दिमाग में होता है, उसी के दिमाग़ में होता है।

(15)



ये कितना चमत्कारिक है कि आपके भाई बहन भी उसी मिट्टी के बने हुए होते हैं, जिसके आप। आरंभिक दौर के जो निवाले आपने खाए,वही उन्होंने। जो हवा पानी धूप साया आपको मयस्सर हुआ,वही कमोवेश उन्हें भी।
लेकिन फ़िर भी एक मुकाम ऐसा ज़रूर आता है जहां से कुछ सुस्त कदम रास्ते, कुछ तेज़ कदम राहें उन्हें आपसे अलग कर देते हैं।
मन से भी, तो परिवेश से भी।
मैं अपने सबसे बड़े भाई को अपने से सबसे नज़दीक पाता था। इसके कई कारण थे। एक बड़ा कारण तो ये था कि वो मुझसे लगभग चौदह साल उम्र में बड़े थे,इसलिए मेरे ठीक से होश संभालने से पहले ही वे अपनी पढ़ाई के सिलसिले में दूर पास आते - जाते रहे, बाद में उत्तर प्रदेश से पढ़ाई पूरी करके उनकी सर्विस राजस्थान में लगी तो मैं राजस्थान से बाहर निकल गया। फ़िर भी मेरी स्कूल कॉलेज की पढ़ाई के समय मुझे काफ़ी दिन उनके साथ, उनके पास रहने का मौका मिला।
कभी कभी भीतर से मुझे ऐसा लगता था कि वो मुझे बहुत बुद्धिमान और संवेदन शील मानते थे और इसी कारण स्नेह और सम्मान देते थे। मुझे कई ऐसे अवसर याद हैं जब उन्होंने मुझे "ओवर एस्टीमेट" किया हो।
उनसे छोटे तीन भाइयों में मैं बीच का होने के कारण ये पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि कई बार उन्होंने एकसी स्थिति होने पर भी मेरे अन्य भाइयों की तुलना में मेरा पक्ष लिया होगा। कोई निष्पक्ष बुद्धिजीवी शायद कह दे कि इसमें मेरी भी कोई भूमिका रही होगी।
मैं मन से उन्हें बहुत करीब पाता था। वे अन्यथा भी बहुत सीधे सरल स्वभाव के स्वामी थे। इसका एक नैसर्गिक कारण ये भी था कि उन्होंने बहुत छोटी अवस्था में अपनी माता का स्नेह आंचल छोड़ दिया था,और आरंभ से ही अधिकतर हॉस्टल में रह कर पढ़े थे।
हमारी माताएं अलग थीं।
मेरे प्रति उनकी अत्यंत आत्मीयता ने उनका विवाह होने के बाद उनकी पत्नी,अर्थात मेरी भाभी के मन में भी मेरे लिए अतिरिक्त अपनापन भर दिया था। मैं अपनी भाभी से भी निकटता से जुड़ा हुआ था। मुझे बचपन और किशोरावस्था के कई वर्ष उनके साथ गुजारने का अवसर मिला।
उनसे लगभग छह वर्ष छोटी मेरी बड़ी बहन थीं। मुझसे छोटा भाई मुझसे दो वर्ष से भी कम अंतर से छोटा होने के कारण मैंने अपनी माता की गोद भाई बहनों के लिए सबसे कम अवधि में खाली कर दी थी, इसलिए बचपन में एक शिशु के रूप में अपने कामकाज और देखभाल के लिए अपनी माता जी से भी ज़्यादा इन बड़ी बहन जी से ही मैं जुड़ा था।
दूसरे, ये हिंदी साहित्य की विद्यार्थी भी रहीं। तो अधिकांश हिंदी साहित्यकारों को आरंभिक दिनों में ही पढ़ लेने का सौभाग्य मुझे अपनी बड़ी बहन के कारण ही मिला। इनकी पुस्तकों की अलमारी में कई उपन्यास, कहानियां,नाटक आदि मुझे मिल जाते थे। जिन्हें लाइब्रेरी में वापस करने से पहले मैं भी पढ़ पाता था।
मुझे उनकी अपनी सहेलियों से होने वाली बातों से पुस्तकों के बारे में बहुत सी जानकारी मिलने से मैं तय कर पाता था कि मुझे कौन सी किताब पढ़नी है।
बचपन में वे हिन्द पॉकेट बुक्स की घरेलू लाइब्रेरी योजना की सदस्या भी थीं, जिससे नई नई किताबों की जानकारी मुझे भी मिलती रहती थी। मैं दावे से कह सकता हूं कि साहित्य अध्ययन की ये सुविधा कई साहित्य के विद्यार्थियों को तो बी ए तक में नहीं मिल पाती थी।
एक बात और! मेरे कुछ मित्र कहा करते थे कि किसी लड़के के शरीर में बलिष्ठता, खिलंदड़ा पन, फुर्ती,शरारत आदि गुण अपने भाइयों से आते हैं,पर विनम्रता, करुणा, जिजीविषा, संवेदन शीलता, धैर्य या बुद्धिमत्ता आदि गुण अपनी बहनों से आते हैं। यदि ऐसा है तो मेरे व्यक्तित्व की बहुत सारी बातों का श्रेय निस्संदेह मेरी इन दीदी को दिया जा सकता है।
इस बहन से चार साल छोटे भाई मेरे मझले भाई हैं। इनके साथ मेरे रिश्ते जानने समझने के लिए " हिंदी साहित्य के अमर कथाशिल्पी" प्रेमचंद का सहारा लिया जा सकता है। प्रेमचंद की कहानी "बड़े भाईसाहब" हमारा साठ प्रतिशत किस्सा बयान करती है।
इनसे मेरा रिश्ता कुछ जटिल रहा। वहां जितना सहयोग,साथ है, उतना ही अविश्वास और संदेह भी। ये बात मैं किसी व्यंग्य या अनादर से नहीं कह रहा हूं। बल्कि मुझे तो लगता है कि रहीम ने जो कहा है कि - "कह रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग..." इसी में हम दोनों के आपसी रिश्ते का मर्म भी छिपा है। मैं अपने को उनके केले के पत्ते जैसे पावन नर्म और मुलायम सोच की तुलना में कंटीली झाड़ियों जैसा ही पाता हूं। यदि मेरी जगह वो और उनकी जगह मैं भी होता तो भी हमारा ये रिश्ता वैसा ही होता,जैसा कि अभी है।
दरअसल वो पढ़ाई में कभी बहुत अच्छे नहीं रहे।
और ये उनका दोष नहीं है। बल्कि हमारी शिक्षा प्रणाली ही ऐसी है कि ये कोई सार्वभौमिक दृष्टि नहीं देती। इसे न तो ईश्वर ने ही बनाया है और न ही ये ऐसी नैसर्गिक है कि श्रेष्ठ को श्रेष्ठ घोषित कर सके।
लेकिन पढ़ाई को लेकर घर और विद्यालय में शायद हम दोनों भाइयों की तुलना होती रही और बड़े भाई अकारण हारते रहे।
फिर एक बात और दुर्भाग्य वश घट गई। बड़े भाई को आरंभ से ही बोलने में थोड़ा अटकने या हकलाने की परेशानी हो गई।
इससे हुआ ये कि जब हम दोनों साथ होते तो उनकी इस कठिनाई से उन्हें बचाने के लिए लोग मुझसे ही बात करते,जो पूछना होता वो मुझसे पूछते। जो बताना होता वो मुझे बताते।
इस बात ने आरंभ से ही उनके मन में हीन भावना की एक ग्रंथि भर दी,जिससे वो अपने को उपेक्षित महसूस करने लगे।
जब हमारा दाखिला घर से एक दस किलोमीटर दूर के स्कूल में हुआ तो मुझे सायकिल चलाना न आने के कारण वे ही मुझे हमेशा सायकिल पर बैठा कर लाया ले जाया करते थे।
किन्तु पढ़ाई में अच्छा होने के कारण जब परीक्षा में मेरे अंक उनसे बेहतर आते तो हमारी तुलना करके मुझे श्रेष्ठ ठहरा दिया जाता। उस वक़्त उनके मन में मेरे प्रति ये घुटन भरा भाव ज़रूर आता होगा कि मुझे जो सहूलियत उनके कारण मिलती थी, वो खुद उन्हें सुलभ नहीं थी।
इस तरह बहुत छोटी आयु से ही हमारे बीच एक दूरी बन गई।
कभी कभी इससे एक दिलचस्प स्थिति भी बनी। एक बार स्कूल में किसी बात पर कुछ लड़कों को सज़ा मिली।
मेरे बड़े भाई के मित्रों ने मेरे भाई से कह दिया कि शायद मैंने ही प्रधानाध्यापक जी से उन लड़कों की शिकायत की है क्योंकि जब वे सब क्लास छोड़ कर स्कूल के एक बगीचे में चले गए थे तब मैं किसी काम से गेट के पास ही था।
भाई ने आव देखा न ताव,लड़कों की बातों में आकर मेरी क्लास में आ गए। दरवाज़े पर ही गुस्से से मेरे लिए पूछते हुए वे भीतर मेरी ओर बढ़े। मैं तब अपने मित्रों के साथ अपनी जगह पर बैठा था। शायद लड़कों ने उनके तेवर देखकर भांप लिया कि वो मुझे डांटने या मारने आए हैं।
लड़कों ने तत्काल मेरे चारों ओर गोल घेरा बना लिया और उनसे बोले- घर जाकर चाहे जो करना, पर यहां हम अपनी क्लास में इसे कुछ नहीं कहने देंगे, हाथ लगाना तो दूर।
वे बौखलाए हुए लौट गए। छुट्टी होने पर वे ही मुझे अपने साथ सायकिल पर बैठा कर घर लेकर गए। तब रास्ते में मैंने उन्हें समझाया कि मैंने किसी की कोई शिकायत नहीं की और न ही मुझे इस बारे में कुछ पता है कि किसे,किस बात पर,किससे सज़ा मिली।
मेरे ये भाई पढ़ाई में अपनी कमी को गीत और कविता लिखने के माध्यम से पूरी कर लेते थे। ये भी हैरानी की बात थी कि वो जिस तरह बोलते समय अटकते थे, गाते समय बिल्कुल भी नहीं अटकते थे।
मुझसे छोटा भाई दो साल छोटा था। उसका और मेरा स्वभाव बिल्कुल अलग था। वह एक औसत विद्यार्थी था, पर खेल कूद में आगे रहता था।
बाद के दिनों में हम दोनों का स्कूल भी अलग हो गया था। उसे छात्र राजनीति आदि में ज़रा भी रुचि नहीं थी। किन्तु एक बार उनके स्कूल में छात्र संघ के अध्यक्ष का चुनाव होने पर उनके स्कूल का एक उम्मीदवार छात्र अपने प्रचार के लिए मुझे अपने साथ लेकर गया तो उसे इस बात पर गहरी हैरानी हुई कि मेरी पकड़ उसके स्कूल के लड़कों पर भी है।
हम दोनों को घर में बराबर जेब खर्च मिलता था, पर वो मस्तमौला तबीयत का होने से अपने पैसे तत्काल खर्च कर देता। बाद में जब उसे पता चलता कि मेरे पास पैसे हैं तो उसे अचंभा होता। कभी कभी वो मुझसे मांगता भी था।
एक दिन उसका अपनी क्लास के लड़कों के साथ फ़िल्म देखने का मूड बन गया। सब लड़के अपनी अपनी टिकिट के पैसे अपनी जेब से दे रहे थे। किन्तु उसके पास पैसे नहीं थे।
वो तीन किलोमीटर दूर से सायकिल से अपने मित्रों को भी साथ लेकर मेरे स्कूल अा गया, ताकि मुझसे पैसे लेकर पिक्चर देखने जा सके।
मैं क्लास से बाहर आ कर उसकी बात सुनते ही उत्तेजित हो गया कि उसने ऐसा कार्यक्रम क्यों बनाया, और मैंने उसे पैसे न देकर वापस भेज दिया। जबकि मेरी जेब में पर्याप्त पैसे थे, और वो जितने पैसे मांग रहा था, उतने आराम से मैं उसे दे सकता था। वो चला गया।
इस घटना ने मुझ पर जीवनपर्यंत बहुत प्रभाव डाला। उसके जाते ही मुझे गहरा पश्चाताप हुआ कि मैंने ऐसा क्यों किया? मेरा मन किसी बात में न लगा। मैं दिनभर यही सोचता रहा कि उसके दोस्तों के सामने उसकी स्थिति कैसी हुई होगी? उन्होंने क्या सोचा होगा? फ़िर क्या किया होगा? क्या अकेला वही फ़िल्म देखे बिना वापस लौटा होगा, या सभी ने मित्रता में अपना प्लान रद्द कर दिया होगा।
छोटे- छोटे चार- पांच बच्चे किस उम्मीद और उत्साह से सायकिल चलाते हुए इतनी दूर मेरे पास आए होंगे कि अपने मित्र के बड़े भाई से उन्हें सहयोग मिल जाएगा, पर बाद में उनकी मनोदशा क्या हुई होगी।
इस घटना को मैं अपने व्यक्तित्व पर से खुरच कर जीवन भर नहीं मिटा पाया।
सबसे छोटी मेरी एक बहन थी। उसका स्वभाव मुझसे बहुत मेल खाता था। हम सब उसे प्यार भी बहुत करते थे और भाई बहन वाली छेड़खानी में भी कमी नहीं करते थे।
जब वो बहुत छोटी थी तो एक दिन स्कूल से आकर बोली - हमारे स्कूल में एक नया फैशन चला है, हॉस्टल की लड़कियां अपने माथे पर से कुछ बालों को काट लेती हैं ताकि वो कान पर लटके रहें।वो बहुत सुंदर लगते हैं।
असल में स्कूल के हॉस्टल में जो दूसरे शहरों में रहने वाली लड़कियां थीं वो जब अपने घर जाकर छुट्टियों से वापस आतीं तो शहर के फैशन या अपनी देखी हुई फ़िल्मों से ये सब सीख कर आती थीं।
मैंने उससे कहा कि ला तेरे बाल भी मैं काट कर वैसे ही बना दूं।
वो बोली - मम्मी नाराज़ होंगी, मुझे डांट लगाएंगी।
मैंने कहा - नहीं डांटेंगी, मैं उनसे कह दूंगा कि मैंने काटे हैं इसके बाल।
वो आश्वस्त हो गई और जल्दी से कैंची उठा लाई। उसे भरोसा था कि घर में मुझे किसी बात के लिए कोई नहीं डांटता है।
मैंने सचमुच उसके बाल उस समय चल रहे फ़ैशन के अनुसार बना दिए। वो खुश हो गई।
जब शाम को मम्मी के वापस आने का समय हुआ, मुझे कुछ मज़ाक सूझा। मम्मी को दूर से आता देख कर मैं उससे ये कहकर बाहर चला गया कि मैं मम्मी से तेरी शिकायत करता हूं कि तूने बाल कटवा लिए।
वो मुझे मम्मी के पास जाता देख कर सचमुच ज़ोर ज़ोर से रोने लगी।
उधर मैंने मम्मी को कुछ कहा तो नहीं था, उनसे वैसे ही बातें करता हुआ उनके साथ साथ आ रहा था।
उसे दरवाज़े पर खड़े होकर ज़ोर ज़ोर से रोते देख कर मम्मी ने प्यार से पूछा - अरे,क्या हो गया? मम्मी ने उसके बालों पर ध्यान भी नहीं दिया।
उसे जैसे ही पता चला कि न तो मैंने उसकी कोई शिकायत की है और न ही मम्मी ने बाल कटवाने पर कोई आपत्ति की है, तो वो ज़ोर ज़ोर से हंसने लगी।
आंखों में आसूं और ज़ोर की हंसी...उसकी शक्ल उस समय तस्वीर उतारने जैसी हो गई।
बाद में हम सब इस घटना पर खूब हंसे।
मुझे बचपन से ही ऐसे मज़ाक सभी घर वालों से करने की बहुत आदत थी।
इसमें मेरा छोटा भाई भी मेरा बहुत साथ देता था, और हम दोनों किसी का भी कहीं भी मज़ाक उड़ा देते थे।
खासकर छुट्टियों में जब चाचा, ताऊजी, मौसी या बुआ के घर हम लोग जाते,या वो हमारे यहां आकर इकट्ठे होते तो ढेर सारे बच्चे होते और ऐसे में हमारी शैतानियां भी खूब बढ़ जाया करतीं।
हम किसी भी घटना पर फिल्मी गानों की तर्ज़ पर पैरोडियां तुरंत बना लेते और ढोलक की थाप पर गाकर किसी की भी खिल्ली उड़ा देते थे।
घर पर किसी भी बात पर अगर किसी बच्चे को डांट खानी पड़ती तब हम हंस कर मज़ाक उड़ाते।
हम छोटे तीनों भाइयों के स्वभाव अलग अलग होने से हमारे बीच में घर के छोटे मोटे काम भी उसी अनुपात में बांटे जाते।
जैसे कहीं बाहर जाने या बाज़ार से कुछ लाने का काम हो तो छोटे भाई को मिलता। वो बहुत जल्दी सायकिल, स्कूटर, मोटर साइकिल और कार भी अच्छी तरह चलाने लगा था।
आश्चर्य की बात ये थी कि मुझे सायकिल चलाना बड़ा भाई सिखाता था और मोटर साइकिल छोटा भाई...पर मैं कुछ नहीं सीख पाता था।
घर में लोहे लकड़ी के मेहनत वाले काम बड़ा भाई करता। बिजली, नल, पंखा, प्रेस ठीक करने से लेकर बगीचे में पेड़ पौधे संभालने तक के काम में उसे मज़ा आता।
यदि कुछ लिखने पढ़ने का काम हो, किसी का कोई फॉर्म भरना, एप्लीकेशन लिखना, बैंक पोस्ट ऑफिस का कोई काम हो तो वो मेरे जिम्मे रहता।
घर के काम, कपड़े आदि से संबंधित काम हर घर परिवार की तरह बहनों के होते।
हमारा परिवार संख्या की दृष्टि से बहुत बड़ा था। मेरे पिता पांच भाई और दो बहन थे, तथा माता पांच बहन एक भाई। फ़िर सभी के बड़े बड़े परिवार। हम लोग ढेर सारे भाई बहन होते थे।
अक्सर कोई न कोई दूसरा परिवार भी आता जाता रहता था। छुट्टियों में तो मिलते ही थे।
इसी अनुपात में हम सब के अपने अपने मित्र भी होते।किसी मौक़े पर सबका मिलना एक साथ होता तो आनंद आ जाता था।
मुझे अपने बालपन का ऐसा अवसर भी याद है जब हम घर के चचेरे, ममेरे, मौसेरे सात भाई भी गर्मियों में एक बाथरूम में एक साथ बिल्कुल नंगे नहा लिए थे। जिनमें नौ साल से लेकर उन्नीस- बीस साल तक की उम्र के भाई शामिल थे।
भाइयों के बीच अपनेपन की ऐसी मिसाल शायद ही कोई और हो।
हमने बड़े गुसलखाने को भीतर से बंद करके उसमें नल से पानी भर कर स्विमिंग पूल बना लिया। जब जहां कहीं से पानी रिसता तो सबसे छोटे भाई का अंडरवियर उतरवा कर वहां लगवा देते। थोड़ी देर में खूब सारा पानी इकट्ठा हो गया और एक एक कर के सबकी चड्डी उतर गई। पूरे कपड़े उतार कर सब नहाने का आनंद लेने लगे।
हमारे घर के बड़े बूढ़े लोगों के भी खूब सारे ऐसे किस्से प्रचलित थे जिन्हें सुनकर किसी को भी आसानी से यकीन नहीं हो।
एक बार इलाहाबाद में गंगा यमुना नदी के संगम पर नहाते समय मेरी सबसे छोटी बहन बह कर पानी में चली गई थी।
घाट के मल्लाह युवकों के परिश्रम से वो हमें जीवित वापस मिल पाई।
खेल खेल में स्विमिंग पूल बनाकर नहा लेने के अनुभव ने मुझे जीवन का एक बड़ा रहस्य भी समझाया जिसका परीक्षण मैंने बाद में अलग अलग बहुत से अवसरों पर करके कुछ प्रचलित बातों की पुष्टि भी की।
हिन्दू समाज में सगे भाई बहनों के बीच आपस में विवाह नहीं होता है। इसी तरह कुछ अपवादों के साथ कुछ जातियों में खून के इन रिश्तों के बीच भी कुछ कुछ संबंधों में शादी हो जाती है। कभी कभी क्षणिक उत्तेजना और आवेश में शादियां हो तो जाती हैं,पर उन्हें दीर्घकाल तक शारीरिक संतुष्टि उपलब्ध नहीं होती है।
जहां कहीं ऐसा हो जाता है वहां कोई न कोई शारीरिक कारण ज़रूर होता है।
कई बार हम सुनते हैं कि पिता पुत्री के बीच संबंध बन गया। ऐसा तभी हो पाता है जब पिता वास्तव में संतान का जनक नहीं हो। संबंधों में घालमेल के चलते जाने अनजाने में किसी और के संसर्ग से संतान गर्भ में आई हो। केवल शादी विवाह की ही बात नहीं, बल्कि कभी कभी बहन भाई के बीच भी शरीर का ये आकर्षण देखने में आ जाता है। प्रायः दूर के रिश्तों से भाई बहन एक दूसरे के शरीर में जगह बना लेते हैं।
खून के रिश्तों के मामलों में कई बार शरीर की मिट्टी हमको ऐसे संकेत दे देती है कि कहां सफलता मिलेगी कहां नहीं। हम त्वचा के घर्षण मात्र से इस शारीरिक केमिस्ट्री के या बायोलॉजिकल विभेद को भांप सकते हैं।
अलग अलग रिश्तों के भाइयों के साथ निर्वस्त्र होने की स्थिति में, और जाने अनजाने एक दूसरे का बदन छू जाने की अवस्था में भी ये अंतर मैंने महसूस कर लिया था कि कुछ शरीरों के छूने के साथ उनसे विकर्षण और कुछ से तटस्थता महसूस की जा सकती है। शायद हमारे शरीरों की निर्मिती का समीकरण हमारे कामोद्दीपन को ऐसे ही संचालित करता है।
यही बात लड़के और लड़की के बीच रिश्ता होपाने और न हो पाने को निर्धारित करती है। यदि इसके इतर कुछ होता भी है तो वो नशे की अधिकता या परिस्थितियों के प्रवाह में हो पाता है।
लेकिन यहां ये भी आवश्यक है कि शरीर का ये ताप लड़की के मामले में रजस्वला हो जाने और लड़के के मामले में उसके वीर्य वान हो जाने के बाद ही लागू होता है जिसकी आयु प्रायः ग्यारह से चौदह वर्ष के बीच होती है।बच्चे इस परिवर्तन को आसानी से जान नहीं पाते।
मैंने बहुत छोटी अवस्था से ही इन जटिल तथ्यों को भांपने का जो अनुभव पा लिया इसके पीछे शायद तत्संबंधी गंभीर साहित्य को पढ़ लेने का ही कारण मुख्य रहा होगा।
बहरहाल ये ज़रूर हुआ कि इस तरह के विमर्शों के मौके भी मुझे खूब मिले।

(16)

साल के अंत में परीक्षा देकर मैं घूम फ़िर कर दिन काट ही रहा था कि एक दिन रिज़ल्ट आ गया।
मैंने सैकंड ईयर के साथ ही फर्स्ट ईयर के पेपर्स भी दिए थे।
मेरे प्रथम श्रेणी के काफी अच्छे नंबर अाए।
ये किसी के लिए भी ज़्यादा खुशी की बात नहीं थी। आखिर डॉक्टर या इंजीनियर बनने का सपना देखने वाला बी ए में अच्छे नंबरों से पास हो, तो इसमें कौन सी बड़ी बहादुरी।
मैं लोगों से उनकी उम्मीदें, जिज्ञासा या कौतूहल वापस लाने के लिए तो कह नहीं सकता था, हां, अपने सपनों की प्रोफ़ाइल को थोड़ा नीचे सेट कर लेना मेरे वश में था। मैंने वही किया।
नया साल शुरू होते ही मैं अपने खोए हुए आत्मविश्वास के साथ वापस कॉलेज में आ गया।
अच्छा लगता था मुझे।
लेकिन अब न तो चित्र बनाने की इच्छा होती थी,और न ही कुछ लिखने की।
इस अवधि को मैं अपने जीवन की एक अन्य विशिष्ट अवधि की तरह गिनता हूं।
इसमें मैं ज़्यादा से ज़्यादा मित्र बनाने की कोशिश करता था। जो मित्र थे,उनके ज़्यादा से ज़्यादा करीब आने की कोशिश करता। हमेशा किसी न किसी के साथ रहने की जरूरत होती थी। मैं अकेलेपन को किसी भी तरह भगाने के लिए प्रयासरत रहता।
दो साल बिगड़ जाने से क्लास में भी जो मित्र होते वो अधिकतर मुझसे छोटे होते।
जिस तरह अपनी बुद्धिमत्ता के चलते स्कूल में मुझे अपनी उम्र से बड़े लड़के मित्र के रूप में मिलते थे, उसी तरह अब छोटे लड़के मेरे मित्र होने लगे।
मैं नहीं जानता कि मेरा बौद्धिक स्तर गिर गया था या किशोरावस्था का बोध फ़िर से जाग गया। मैं, जिस आयु का मित्र होता,उससे उसी स्तर पर मिलता।
एक दिन तो हद ही हो गई।
मैं कॉलेज के ऑफिस में जाकर सभी छात्रों की एक छपी हुई रोल लिस्ट उठा लाया। ऐसी सूची प्रायः चुनाव में खड़े होने वाले लड़के लिया करते थे। ऑफिस ये आसानी से उपलब्ध भी करवा दिया करता था क्योंकि ये बड़ी संख्या में छपी हुई लिस्ट होती थी,जो परीक्षा, हाज़िरी, रिज़ल्ट, डिग्री आदि के लिए काम में आती ही रहती थी।
एक रविवार को घर पर अकेले बैठे हुए मैंने कैंची से हर विद्यार्थी का नाम अलग अलग करके काट लिया,और इन पर्चियों को एक बड़े से डिब्बे में रख लिया। गत्ते का ये डिब्बा मेरे सैंडिल का था जो मैंने नए खरीदे थे।
मैं बिना किसी प्रयोजन के रोज शाम को कॉलेज से आने के बाद इन पर्चियों को उलटता पलटता रहता था। मैं बिल्कुल नहीं जानता था कि मैं क्या कर रहा हूं।
लेकिन एक छुट्टी के दिन विचित्र सी मनोदशा में मैंने लॉटरी की तरह एक पर्ची बिना देखे चुन कर निकाली और उसे अलग एक लिफ़ाफे में रख लिया।
शायद ये अवचेतन में मेरा कोई विद्रोह था जो इस बात पर आधारित था कि मेरे चाहने से यदि कोई बात नहीं हो पा रही है तो जो स्वतः हो रहा हो, उसे सहने आत्मसात करने का बल मुझे अपने भीतर पैदा करना चाहिए ताकि दुनिया और ज़िन्दगी से एक आसान सहज सामंजस्य स्थापित हो सके।
मेरे मन में ये ख्याल आया कि मैं अपने पास इकट्ठे सभी नामों में से एक नाम लॉटरी से चुनूंगा और उसे अपना मित्र बनाऊंगा। चाहे वो किसी भी क्लास का हो, किसी भी उम्र का हो,किसी भी शहर या गांव का हो, किसी भी आर्थिक स्थिति का हो या किसी भी जाति धर्म का हो।
मैं पूरा प्रयत्न करूंगा कि वो मेरा सबसे अच्छा,यानी बेस्ट फ्रैंड बन कर रहे। हम कभी कभी साथ में खाना खाएं,साथ में घूमें,साथ में फ़िल्म देखें,साथ में रहें,साथ में पढ़ें। मैं उसकी किसी बात का विरोध नहीं करूंगा,उसकी हर आदत में साथ दूंगा,उसके लिए अपना श्रम, संसाधन और ज़मीर भी बाधा नहीं बनने दूंगा।
ये एक प्रकार से अपने को समायोजन के लिए प्रस्तुत करने का अभ्यास था।
कभी कभी मैं ये सोच कर विचलित भी होता कि कहीं ये ज़िंदगी से भागने, पलायन करने या "पैसिव" हो जाने का कोई रास्ता तो नहीं है।
कुछ दिन ऊहापोह में निकले।
मैंने दोस्त चुन लिया था पर उसका नाम किसी रहस्य की भांति लिफ़ाफे में बंद था।
लिफाफा तो मैं चाहे जब खोल लेता, उसमें जिसका नाम निकलता, उसे खोज कर ढूंढ़ भी लेता,पर उसे अपना मन दिखाना एक दुश्वारी भरा काम था। क्या जाने उससे कैसा प्रतिसाद मिले?
ख़ैर,मुझे इसमें कुछ खोना तो था नहीं, केवल दिमाग का एक फितूर,दिल का एक शगल ही तो था।
मैंने एक दिन लिफ़ाफा खोल कर नाम पढ़ लिया।
मुझे थोड़े से प्रयास से ये भी पता चल गया कि वो कौन है !
वो प्रथम वर्ष का दुबला पतला, राजस्थान के एक बॉर्डर के ज़िले के छोटे कस्बे से आकर हॉस्टल में रहने वाला, सांवले से रंग का, बेहद सीधा सादा प्यारा सा विद्यार्थी था।
नाम था...
जाने दीजिए।
नहीं, नहीं, जान लीजिए। नारायण।
जब मैं पहली बार उससे मिला तो वो अकेला लायब्रेरी से निकल रहा था। मेरे रोकने पर उसने शायद इसे सीनियर छात्र द्वारा रैगिंग का मामला समझा। वह थोड़ा सा सकपकाया।
पर मैंने उसे आश्वस्त करते हुए पहले अपना परिचय दिया,फ़िर उसके परिचय की दो तीन बातें पूछीं। इसी बीच मेरे एक दो परिचित छात्र मिल जाने और उनसे "हाय हैलो" हो जाने से उसकी झिझक भी खत्म हो गई और हम तीन चार लड़के एक साथ बातें करते हुए साथ में पोर्च तक अाए।
किसी की भी क्लास नहीं थी। हम सब कैंटीन में चले गए।
हमने चाय पी।
नारायण का हॉस्टल कॉलेज से घर जाने के मेरे रास्ते में ही पड़ता था। उसका तीन में से एक विषय मेरे साथ कॉमन था।
और जल्दी ही मुझे ये भी पता चला कि मेरे छोटे भाई का स्कूल टाइम का एक अच्छा मित्र,जो अब मेरा भी मित्र था, नारायण की क्लास में उसके साथ ही था।
हम सहजता से मित्र बन गए और कॉलेज में समय समय पर मिलने लगे। वैसे ही, बिना किसी प्रयोजन के।
फ़िर मैंने कभी उसे ये भी बताने की जरूरत नहीं समझी कि मैंने उसे कैसे और क्यों खोजा था।
इस साल भी मैंने कॉलेज की ओर से कई डिबेट प्रतियोगिताओं में भाग लिया।
गणित ने यहां एक बार फ़िर मुझे डराया।
इकोनॉमिक्स में अब मुझे दो पेपर्स में से एक चुनना था। एक पेपर सांख्यिकी का था, जिसमें गणितीय सवाल शामिल थे और प्रोफेसर्स कहते थे कि तुम्हें अच्छा डिवीजन बनाए रखने के लिए यही विषय लेना चाहिए।
दूसरा आयोजना का था, जो पूरी तरह सैद्धांतिक पेपर था। सब कहते थे कि इसमें अंक ज़्यादा नहीं आते।
पर मैं दूध का जला था, इसलिए छाछ भी फूंक फूंक कर पीना चाहता था। मैंने अंकों का लालच नहीं किया और आयोजना का प्रश्नपत्र ही चुना।
बी ए पूरा होते होते मुझे एक चिंता और व्यापने लगी।
मेरे दो भाई दूसरे शहरों में हॉस्टल में रहकर पढ़ रहे थे, और छोटी बहन की शिक्षा भी चल रही थी।
बड़े भैया ने शादी के तुरंत बाद से ही घर के खर्च में भारी सहयोग दिया था।
मेरे मन में भी ये बात आने लगी कि मुझे भी अपने मातापिता को घर खर्च में हाथ बंटाने के लिए कुछ करना चाहिए।
मुझे दसवीं कक्षा से ही सरकार की ओर से जो छात्रवृत्ति मिलती थी, वो अब विषय बदल लेने के बाद बंद हो गई थी।
बड़ी बहन का विवाह हो चुका था और वो घर से जा चुकी थीं।
मेरे मन में ये आने लगा कि मुझे ऐसा कुछ प्रयास करना चाहिए कि बी ए पूरा होते ही मैं कम से कम अपना खर्च खुद उठा सकूं। साथ ही आगे के लिए जो भी कोचिंग, परीक्षाओं आदि में शामिल होना हो, उसका बोझ घर वालों पर न डालना पड़े।
मुझे लगातार ये महसूस होता था कि मैं सक्षम होते हुए भी अपने माता पिता के सपनों को पूरा नहीं कर पाने का गुनहगार हूं।
मुझे ये बात भी कचोटती थी कि मैंने घरवालों के सपने और उम्मीदों को अपना ख़्वाब क्यों नहीं बनाया!
बचपन में साइंस टैलेंट हंट की परीक्षा पास कर लेने के बावजूद मैंने विज्ञान को कभी गंभीरता से क्यों नहीं लिया? मैंने नेशनल साइंस टैलेंट सर्च की परीक्षा भी पास करने के बाद उसका प्रायोगिक प्रोजेक्ट पूरा नहीं किया था।
मुझे नवीं कक्षा में रेडियो स्टेशन द्वारा आयोजित राज्यस्तरीय क्विज़ में भी उपविजेता का पुरस्कार मिल चुका था किन्तु मैंने वहां भी हिंदी संस्कृत नाटकों में भाग लेने में ही रुचि बनाए रखी।
मैंने अब अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश में एक राष्ट्रीय कृत बैंक में भी लिखित परीक्षा के लिए आवेदन कर दिया। साथ ही सरकार के असिस्टेंट ग्रेड की परीक्षा का फॉर्म भी भर दिया।
मेरे मित्रों व अध्यापकों द्वारा ये कहा जाता था कि मुझे अपने आप को इतने निम्नस्तर पर रख कर कैरियर की प्लानिंग नहीं करनी चाहिए।
पर मैं उन्हें समझाया करता था कि एक बार किसी भी जगह पैर रखने की जगह मिल जाने पर मैं बाद में लिखित परीक्षाओं के माध्यम से आगे बढ़ने की कोशिश करूंगा।
एक बार मेरे पिता ने भी मुझसे कहा कि मैं अपने आप को अंडर एस्टीमेट करने लगा हूं,जो मुझे नहीं करना चाहिए,और ज़िन्दगी में कुछ बनने के मंसूबे रखने ही चाहिए।
ये आश्चर्य जनक था कि मेरे पिता, मेरे दो बड़े भाई, और एक बड़ी बहन के होते हुए भी अपनी सभी चिंताएं, योजनाएं मेरे साथ बांटा करते थे और मेरी सलाह को पूरा महत्व दिया करते थे। उन्होंने मेरे विषय परिवर्तन को मेरी असफलता नहीं माना था।
ये बात मेरा भी मनोबल बढ़ाती थी।
मैंने इन्हीं दिनों रेडियो स्टेशन पर कार्यक्रम देने के लिए आवाज़ टेस्ट करवाने के लिए भी फॉर्म भर दिया।
अप्रैल महीने में मेरी वार्षिक परीक्षा थी, बीच बीच में लंबे अंतराल के कारण ये परीक्षाएं मई माह तक चलनी थीं।
संयोग से जिस दिन मेरा अर्थशास्त्र का पेपर था, उसी दिन सुबह ग्यारह बजे मुझे रेडियो स्टेशन पर वॉइस टेस्ट के लिए बुलाया गया।
अच्छी बात ये थी कि पेपर दोपहर तीन बजे से शुरू होना था। मैं जानता था कि यदि मैंने किसी को भी इस बारे में बताया तो वो मुझे टेस्ट के लिए न जाने की सलाह देगा। इसलिए मैं चुप रहा और सुबह साढ़े दस बजे सायकिल उठा कर रेडियो स्टेशन चल पड़ा।
साथ ही मैंने अपने पेपर के लिए आवश्यक सामग्री भी ले ली ताकि वहीं से सीधे परीक्षा के लिए मैं जा सकूं।
सुबह नाश्ते के समय ही मैंने खाना भी खा लिया और भाभी से कह दिया कि देर से खाना खाने से परीक्षा में नींद आती है इसलिए अभी खा लिया है, अब नहीं खाना है।
रेडियो स्टेशन सरकारी विभाग था, इसलिए टेस्ट शुरू होते होते बारह बज गए। इसके बाद भी मौखिक जांच होनी थी,जिसमें और देर लग रही थी।
मैं स्टेशन की डायरेक्टर मैडम के पास चला गया और उनसे कहा कि मेरी यूनिवर्सिटी की वार्षिक परीक्षा है और यहां बहुत देर लग रही है।
वे तत्काल उठकर मेरे साथ आईं और उन्होंने विभाग के अधिकारियों से नाराज़ होकर मुझे जल्दी छोड़ने के लिए कहा। उन्होंने हल्की डांट मुझे भी लगाई कि वार्षिक परीक्षा के समय मुझे इस टेस्ट के लिए नहीं आना चाहिए था। उनका कहना था कि ऐसे टेस्ट तो हम हर छह महीने बाद लेते हैं।
मैं टेस्ट पूरा होते ही सायकिल उठा कर कॉलेज की ओर भागा जहां मेरा परीक्षा केंद्र था।
मैं उन मैडम से प्रभावित हुआ, उनकी बात सही थी। पर पेपर ठीक हो गया और शाम को घर पहुंच कर लगा कि वास्तव में मैंने गलती तो की ही थी।
दो दिन बाद हिंदी साहित्य का वो पेपर था जिसके लिए मेरे एक प्रोफ़ेसर कहते थे कि नया पेपर है,अगर साठ प्रतिशत अंक ले आओगे तो अपनी अंक तालिका को अपना नौकरी का अपॉइंटमेंट लेटर समझना।
गर्मी के दिन थे।
रात को छत पर ठंडी हवा चलती थी। पर ये देख कर बहुत खीज होती थी कि चारों दिशाओं में सब सो रहे हैं और मैं बंद कमरे में पंखे के नीचे चड्डी पहने किताब में आंखें गढ़ाए बैठा हूं।
ये तनाव तो मन में रहता ही था कि बाक़ी लड़के जिस विषय को नवीं कक्षा से पढ़ते आए हैं उसे मैं केवल पिछले साल से ही पढ़ रहा हूं।
फ़िर भी शिक्षक गण कहते थे कि विज्ञान पढ़कर आए बच्चे उन लोगों से बेहतर करते हैं जो शुरू से ही कला के विद्यार्थी हैं।
तनाव कभी कभी ज़्यादा बढ़ जाता तो मैं अपने खास मित्र के पास चला जाता। रात को उसके कमरे पर ही रुकता।
परीक्षा खत्म होते ही मैंने बहुत सारी फ़िल्में देखीं। आखिरी पेपर वाले दिन कोई मित्र नहीं मिला तो मैं अकेला ही आखिरी शो में फ़िल्म देखने निकल गया। धर्मेंद्र मुमताज़ की फ़िल्म "लोफर" देखी।
दूसरे दिन मित्र के साथ शशि कपूर राखी की फ़िल्म "शर्मीली" देखी।
रात को हम दोनों ने खाना साथ ही खाया और मैं उसके कमरे पर उसके साथ ही रहा।
छुट्टियों की दोपहर में एक दिन मैं लाइब्रेरी में बैठा था कि मेरी क्लास का एक लड़का आया। वह भी पास के किसी छोटे से गांव से पढ़ने आता था।
वह मुझसे बोला- मैं बहुत दिन से तुझसे एक बात कहना चाहता था,पर कभी मौका नहीं मिला। आज मिला है।
मैंने तुरंत कहा -अरे ऐसी क्या बात है,बोल !
वह कुछ सकुचाते हुए बोला - मैं एक बार तेरे साथ किसीअच्छे होटल में खाना खाने जाना चाहता हूं, पर सारा खर्चा मैं करूंगा।
मुझे बहुत मज़ा आया। मैंने कहा - तू मुझे अब तक क्यों नहीं मिला? बोल कहां चलना है, और कब?
सुबह के ग्यारह बजे थे,हम तत्काल निकल कर एक होटल में चले गए।
वहां जाकर मुझे पता चला कि वो ग्रामीण लड़का असल में मुझसे किसी होटल में खाने का तरीका सीखना चाहता है। कैसे खाना ऑर्डर करें,कैसे मेनू चेक करें, टेबल मैनर्स और थोड़ी सी ड्रिंक्स के बारे में जानकारी, शब्दावली, क्रॉकरी की जानकारी और उनका प्रोपर यूज आदि उसे जानना था।
मुझे बहुत मज़ा आया। केवल एक पेग रम भी पी,और खाना खाया। मेरे मना करने के बावजूद सारा खर्चा उसी ने किया। खाना खाते समय मैं उसे बहुत सी बातें बताता रहा।
होटल से निकल कर पोलोविक्टरी सिनेमा में हमने पिक्चर भी देखी। टिकिट उसी ने लिया। फ़िल्म थी विनोद खन्ना और मौसमी चटर्जी की "कच्चे धागे"।
बाद में मुझे पता चला कि वो बी ए के बाद होटल मैनेजमेंट और टूरिस्ट गाइड का कोई कोर्स करना चाहता है।
हम जैसे ही फिल्म से निकले, बाहर मुझे मेरा एक पुराना मित्र मिला। वो बोला- बड़े दिनों से वो मेरी परीक्षा ख़त्म होने का इंतजार कर रहा था, और आज मेरे साथ फ़िल्म देखने के लिए मुझे घर से बुलाने वो मेरे घर गया था।
उसकी बात सुन कर मैंने तुरंत दोबारा फ़िल्म देखने का कार्यक्रम बना लिया। गांव से आए पहले वाले मित्र को अब जाना था,उसने मुझे, और मैंने उसे धन्यवाद देकर एक दूसरे से विदा ली। वो चला गया, और हम दोनों अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी की फ़िल्म ज़ंजीर देखने घुस गए।
शाम छह बजे बाहर निकले तो सिनेमा घर से कुछ ही दूरी पर मैंने अपने भैया भाभी को खड़े पाया। वे फ़िल्म देखने आए थे।
मित्र चला गया। और मैं भैया भाभी के लिए टिकिट लेने फ़िर लाइन में लग गया। पर भारी भीड़ होने से टिकिट नहीं मिली।
भैया भाभी की इच्छा कोई भी फ़िल्म देखने की थी। हम तीनों पास के सिनेमा घर में शम्मी कपूर और राजश्री की पुरानी फिल्म जानवर देखने घुस गए।
फ़िल्म अच्छी थी।
नौ बजे पिक्चर से निकलते ही भैया भाभी का इरादा बाहर ही खाना खाने का था। हम तीनों जा ही रहे थे कि मेरा वो दोस्त मिल गया जिसके घर में कई बार जाया करता था। वह भी दो एक बार मेरे साथ रात को मेरे घर पर ही रह चुका था।
भैया जानते थे कि हम दोनों एक दूसरे की बात कभी टालते नहीं हैं,इसलिए जब उसने कहा कि वो फ़िल्म देखने के इरादे से आया है,तो भैया ने मुझे उसके साथ जाने दिया।
इतना समय नहीं था कि हम खाना खा सकें, क्योंकि साढ़े नौ बज चुके थे और आखिरी शो का समय हो गया था।
भाभी ने जल्दी से समोसे लेकर हमें दिए और हमें फ़िल्म में जाने के लिए कह कर वो लोग खाना खाने चले गए।
मैं और मेरा दोस्त पास के एक थियेटर में "पाकीज़ा" देखने घुस गए।
जाते जाते मैंने भाभी से ये भी कह दिया कि रात को घर पर मेरा इंतजार न करें, मैं दोस्त के पास ही सोऊंगा।
ये जीवन का मेरा एक ऐसा रिकॉर्ड बन गया,एक दिन के लगातार चारों शो देखने का,जिसमें मैंने अलग अलग लोगों के साथ, अलग अलग सिनेमा घर में, अलग अलग फ़िल्में देखीं।
फ़िल्म देख कर रात लगभग एक बजे हम दोनों उसके कमरे पर आए और कपड़े उतार कर बिस्तर पर पड़ गए।
मैं आज दिनभर में लगातार चार फ़िल्में देख कर अजीब सी थकान महसूस कर रहा था पर वो शायद दोपहर में काफ़ी सो लेने और छुट्टियां होने से तरोताजा अनुभव कर रहा था।
वो न जाने क्या क्या बातें किए जा रहा था और मैं उसके बगल में लेटा आधी नींद में हां हूं किए जा रहा था।
वो कह रहा था - डॉक्टरी पढ़ते समय पहले खरगोश,चूहे या मेंढक काटने पड़ते हैं, तब कहीं जाकर आदमी का शरीर काट पाने का हुनर आता है।
- मतलब? मैंने उसकी विचित्र बात पर प्रतिक्रिया जताई।
वो बोला- लड़के पहले लड़कों से दोस्ती करते हैं, फ़िर ज़िन्दगी में उन्हें लड़कियों के साथ घर बसाना और प्रेम करना आता है।
मैंने उसकी बात को अनसुना कर करवट बदल ली और मुंह फेर कर सो गया।
जाने वो रात को कितनी देर बाद सोया होगा।


( 17 )

एक दिन कॉलेज के लॉन में बैठा हुआ मैं कोई फॉर्म भर रहा था। अकेला था।
तभी मेरा एक मित्र आया, और बोला - क्या कर रहा है?
- कुछ ज़रूरी नहीं, बोल ! मैंने पैन बंद करके फॉर्म को एक लिफ़ाफे में रखते हुए कहा।
वो उठा,हाथ पकड़ कर मुझे भी उठाया और लगभग खींचता हुआ मुझे ले चला।
वो बेहद उत्साहित और उत्तेजित था।
मुझे बताने लगा कि उसकी एक मित्र लड़की जो किसी दूसरे शहर में रहती है, जयपुर आई हुई है और अभी उससे मिलने आ रही है। उसने विश्वविद्यालय परिसर में ही एक सुनसान से रहने वाले कोने में उसे मिलने का समय दिया है।
पूरी बात सुन कर मुझे मज़ाक सूझा, मैंने कहा - तो इस पूरी प्रेम कहानी में मेरा रोल क्या होगा?
वो बोला- नयन सुख!
मैं उस संस्कृत के छात्र,कालिदास के मुरीद को देखता रह गया।
लड़की ऑटोरिक्शा से आई। जब उतरी तो उसके साथ एक सहेली और थी।
मैंने धीरे से कहा- अच्छा तो सहनायिका के साथ जोड़ी मुझे बनानी है?
वो थोड़ा सकपका गया, क्योंकि लड़की ने आते ही उससे हाथ मिलाया। फिर मुझसे भी।
कुछ देर एक बिल्डिंग के पिछवाड़े वो दोनों साथ में बैठे रहे। दूसरी लड़की चुपचाप मेरे पास खड़ी रही।
चुप्पी मैंने ही तोड़ी, जब उससे परिचय किया।
असल में वो दोनों नागौर से आई थीं और अगले सत्र में अब जयपुर में ही पढ़ने के लिए प्रवेश लेने वाली थीं। जिस कॉलेज में फॉर्म भरा था वो यूनिवर्सिटी के सामने ही था।
मैं कानोड़िया कॉलेज से अच्छी तरह परिचित था क्योंकि एक तो ये बिल्कुल मेरे पुराने स्कूल के करीब था, और दूसरे उसमें कुछ परिचित लड़कियां भी पढ़ती थीं। इनसे परिचय डिबेट स्पर्धा में जाते रहने के कारण हुआ था।
थोड़ी देर में वो चली गईं। मेरे लिए ये आश्चर्य और कौतूहल का विषय था कि उनके जाने के बाद मेरे मित्र ने काफी देर तक दीवार के पास खड़े रह कर पेशाब किया।
जब पलट कर आया तब भी नीचे पड़े पीपल के सूखे पत्तों से रगड़ रगड़ कर हाथ साफ कर रहा था।
यद्यपि अंधेरा हो चुका था फिर भी इक्का दुक्का आते जाते लोगों को भांप कर मैंने उससे कहा- साले, पहले पैंट की ज़िप बंद करके बेल्ट तो ठीक से बांध ले, फ़िर सामने चाय वाली दुकान पर हाथ धो लेना।
चाय पीकर मैं घर गया, वो सायकिल उठा कर अपने घर की ओर निकला।
अगले दिन छुट्टी थी। शायद कोई त्यौहार था। इसलिए कॉलेज बंद था। वैसे मेरी परीक्षा तो समाप्त हो ही चुकी थी, मैं तो कभी लाइब्रेरी में बैठ कर पत्र पत्रिकाएं उलटने पलटने,या फ़िर मित्रों से मिलने ही जाया करता था। मित्र भी बाहर के, या हॉस्टल वाले तो चले ही गए थे। जो छुट्टियों में वहीं रहने वाले होते, उन्हीं से मिलना हो पाता।
मैं पास की एक दुकान से कुछ सामान लेने बाज़ार की ओर आया था कि वहीं मुझे अपने एक प्रोफ़ेसर मिल गए।
मैंने उन्हें नमस्ते की।
वे जल्दी से बोले- ख़ाली नमस्ते से काम नहीं चलेगा। तुम से बहुत ज़रूरी काम है, आज शाम को घर आ जाओ।
मैंने तत्काल उनसे आने का समय पूछा और शाम होते ही उनके घर पहुंच गया।
वहां जाकर पता चला कि उनकी लड़की की सगाई तय हो गई है और उन्हें तुरंत अपने गांव जाना होगा। उनका गांव काफ़ी दूर, हरियाणा के पास कहीं था। उनका परिवार वहीं रहता था और वे अकेले ही जयपुर में रहा करते थे।
मैं पहले भी दो एक बार उनके घर गया था। वहां जाकर उनके लिए भी चाय बना देता और खुद भी उनके साथ बैठ कर पी आता था।
वे मुझसे कभी कभी कहा करते थे कि जब पुत्र का कद पिता के समान हो जाए तो वे दोनों मित्र हो जाते हैं।उनके बीच फ़िर कोई रहस्य नहीं रहता।
उस दिन उन्होंने यही बात फ़िर दोहराई। इस बात पर काफ़ी ज़ोर दिया कि मित्र बन जाने के बाद आपस में कोई रहस्य नहीं रहता।
मैं चुपचाप बैठा उनकी बात सुनता रहा, पर ये अनुमान नहीं लगा पाया कि वो क्या कहना चाहते हैं।
लड़कों की आपस की टीका टिप्पणी सुनते रहने के कारण मेरा ध्यान केवल इस बात पर गया कि ये या तो अकेले रहते रहते उकता जाने के कारण मुझे रात को अपने पास रोकेंगे, या फ़िर सगाई के कारण कुछ रुपए पैसे की कोई व्यवस्था करने को कहेंगे।
लेकिन मेरे दोनों ही अनुमान सिरे से ग़लत निकले। बल्कि मुझे अपने आप पर शर्म आई कि मैं क्या सोचने लगा था।
बात ये थी कि उनके पास बाहर की किसी यूनिवर्सिटी से जांचने के लिए परीक्षा की कॉपियां आईं थीं,और उन्हें लगभग एक महीने के लिए जाना था। वे चाहते थे कि उनका काम मैं कर दूं।
ये तो बहुत बड़ी बात थी कि उन्होंने इस महत्वपूर्ण काम के लायक़ मुझे समझा था। पर इससे भी विचित्र बात ये थी कि खुद मैंने जिस क्लास की परीक्षा दी थी,उसी की कॉपियां जांचने का मौक़ा मुझे मिल रहा था।
वो बार बार मुझ पर इतना बड़ा भरोसा जताने की बात करते हुए ख़ाली अंकसूचियों पर हस्ताक्षर करके मुझे सौंप गए। मुझे कॉपियां जांच कर उन पर केवल नंबर लिख देने थे और नंबरों को अंक सूची पर चढ़ाना था जिन पर उनके हस्ताक्षर पहले से ही थे।
उनका कहना था कि कॉपियां बाद में वापस भेजी जाती हैं, अतः वे लौट कर उन पर तो साइन बाद में कर देंगे पर नंबर भेजने की आख़िरी तारीख पहले ही होने के कारण ये काम मुझे करना होगा।
उनकी सख़्त हिदायत थी कि कॉपियां उनके घर से किसी भी सूरत में बाहर न जाएं।
वे अपने एक कमरे की चाबी मुझे दे गए ताकि मैं रोज़ रात को वहां आकर थोड़ी थोड़ी कॉपी जांच कर कुछ दिनों में काम पूरा कर दूं।
लगभग अनुनय विनय करते हुए उन्होंने जाते जाते ये भी कहा कि मैं थोड़ी देर से ही रात को वहां आया करूं, ताकि उनके मकान मालिक आदि कोई मेरे पास आकर व्यवधान न डालें, या जान न पाएं कि मैं क्या काम कर रहा हूं।
साथ ही वे ये भी कहना न भूले कि मैं अपने किसी दोस्त को अपने साथ न लाऊं।
मेरे लिए ये बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी थी, और गर्व की भी बात थी कि दुनिया भर पे आशंका और संदेह जताते हुए भी वो मुझे अपना भरोसा सौंप कर जा रहे हैं।
अगले दिन वे चले गए।
मैं अगले ही दिन मानो अपनी उम्र से दस साल बड़ा हो गया।
पूरी निष्ठा और सामर्थ्य से मैंने अपना काम शुरू कर दिया।
लगभग तीन या चार दिन हुए होंगे मुझे अपने काम को शुरू किए हुए। शुरू शुरू में मुझे एक एक पंक्ति ध्यान से पढ़नी पड़ती थी, पर धीरे धीरे अभ्यास होता चला गया। अब मुझे एक कॉपी को जांचने में पहले से आधा समय लगता।
चौथे दिन मैं लाइब्रेरी में बैठा था कि अचानक एक सीनियर शोध छात्र मेरे सामने बैठते हुए बोला- और भाई, कैसा चल रहा है? कितने फर्स्ट क्लास दे दिए गुरुजी के? कोई फेल भी किया क्या?
मैं जैसे आसमान से गिरा। केवल हड़बड़ा कर इतना बोल पाया- मैंने आपको पहचाना नहीं सर।
मेरे "सर" बोलने से वो थोड़ा नरम पड़ा और तब मेरे करीब आकर उसने बताया कि जो काम मैं कर रहा हूं, वो पिछले चार साल तक उसने किया है। गुरुजी हर बार अपनी कॉपियां दूसरों से ही चैक करवाते हैं और खुद लंबे समय के लिए गांव चले जाते हैं।
मैं हैरान रह गया। सब जानकर उसकी बात पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं था।
उस युवक ने बताया कि वो यूनिवर्सिटी में पी एच डी कर रहा है और गुरुजी का विद्यार्थी रहा है। उसका कहना था कि गुरुजी ने पिछले साल ये काम करने के कुछ पैसे देने के लिए कहा था, पर दिए नहीं,इसलिए उसने इस बार ज़्यादा काम होने का बहाना करके मना कर दिया। वैसे शुरू के दो तीन साल वो बिना पैसे लिए करता रहा है।
मैंने ये कभी सोचा भी नहीं था कि इस काम के लिए गुरुजी कुछ पैसे देंगे,फ़िर भी पूरी बात जान कर गुरुजी पर थोड़ा क्रोध ज़रूर आया।
मुझे महसूस होता रहा कि जिस कार्य को मैं अपने गुरु का मुझ पर अगाध विश्वास समझ कर पूरी निष्ठा से कर रहा हूं वो तो वास्तव में मुझे मूर्ख बना कर किया जा रहा असंवैधानिक कार्य है। मेरा मन उचाट हो गया।
गुरुजी यहां नहीं थे, इसलिए मुझे काम तो पूरा करना ही था,किन्तु सब जानने के बाद उस काम के प्रति मेरी गंभीरता कम हो गई।
मैं अगले दिन रात को कॉपियां चैक करने गया तो साथ में अपने एक मित्र को भी ले गया।
मित्र को ये जानकर बहुत कौतूहल हुआ कि मैं ये काम कई दिनों से कर रहा हूं ।
मैं कॉपी जांचता रहा,और मित्र इधर उधर गुरुजी के कमरे का सामान, अलमारियां आदि खंगालता रहा।
उसने फ्रिज और पीने का पानी तलाश करने की कोशिश की। पर न मिलने पर खीज कर बोला - साला, कंजूस, तेरे लिए पीने का पानी तक नहीं छोड़ के गया,और तू गधे की तरह उसके धंधे में जुता हुआ है?
मुझे हंसी तो आई पर मैं उसे धैर्य रखने के लिए समझाता रहा।
उसने गुरुजी की कपड़ों की अलमारी से एक लुंगी निकाल ली, और बोला - तू गर्मी में अपने कपड़े पसीने में क्यों खराब कर रहा है, ये ले, ये पहन कर बैठा कर।
मैंने हंसकर मना किया तो उसने खुद लुंगी लपेट ली और अपनी कमीज़ तथा पैंट खूंटी पर टांग दी।
वह बैठा बैठा उनकी हर चीज़ से छेड़खानी करता रहा।
कभी कोई किताब निकाल कर पलटता,कभी उनके कपड़ों की जेबें खंगालने लगता। उसे अलमारी के ऊपर के खंड में एक बिस्किट का पैकेट भी रखा हुआ मिल गया। झट से उसे खोलकर उसे मेरे सामने कर दिया। मैंने एक बिस्किट उठाया, बाक़ी के वो खाने लगा।
अगले दिन पहले तो मैंने सोचा कि मेरे दोस्त को भी बुलाया तो वो वहां उसी तरह छेड़खानी और डिस्टर्ब करेगा, पर बाद में मैंने उसे ये सोच कर आवाज़ दे ली कि उससे भी नंबर जुड़वाने और सूची में चढ़वाने में मदद लूंगा तो काम कुछ जल्दी हो जाएगा।
वो सहर्ष मेरे साथ आ तो गया,पर वह अपनी जेब में सिगरेट का पैकेट और माचिस भी रख लाया।
ये सुविधा उसे अपने घर पर तो मिलती नहीं थी, पान की दुकान पर जाकर छिप कर कभी कभी पीता था,पर यहां आराम से ले आया।आते ही कपड़े उतार कर खूंटी पर टांगे और केवल चड्डी बनियान पहन कर, पैर फ़ैला कर मज़े से कश लगाने लगा।
कुछ देर बाद मैंने अंक चढ़ाने में उसे बोल कर लिखाने की सहायता ली। वो इतना बातूनी था कि उसके कारण मेरा काम और भी धीमी गति से होने लगा।
मैंने मन में सोचा कि कल से इसे नहीं लाऊंगा। पर अगले दिन वो मेरे निकलने से पहले ही मेरे घर के दरवाज़े पर खड़ा हुआ मिला।
आज वो कुर्ता पायजामा पहन कर आया था।
उसके इस वस्त्र विन्यास का कारण मुझे गुरुजी के कमरे पर पहुंच कर पता चला, जब उसके पायजामे की जेब से एक बीयर की बोतल निकली और कुर्ते की जेब से नमकीन का छोटा सा पैकेट।
किसी तरह से धीरे धीरे करके काम खत्म हुआ।
कुछ दिन बाद गुरुजी भी लौट आए। मैंने न उनसे कुछ पूछा और न ही उन्हें कुछ बताया।
वे काफ़ी खुश थे।
मैंने इन लगभग साढ़े तीन सौ कॉपियों में उच्चतम अंक लगभग सत्तर प्रतिशत दिए थे। जिन के भी पैंसठ से ज़्यादा अंक थे, उन कॉपियों को गुरुजी ने एक बार उलट पलट कर देखा। दो अभ्यर्थी फेल हो गए थे, उनकी कॉपी भी गुरुजी ने निकाल कर पलटी।
वे आश्वस्त हो गए।
मैं उनके घर से मिठाई खाकर लौट आया।
विश्वविद्यालय के परीक्षा परिणाम आने शुरू हो गए थे। अब कभी भी हमारा भी परिणाम आ सकता था। इसलिए छुट्टियां होते हुए भी अब मैंने लगभग रोज़ ही लाइब्रेरी जाना शुरू कर दिया था।
एक दिन मैं लाइब्रेरी से वापस आ रहा था तो रास्ते में मुझे दो लड़कियां मिलीं। उनमें से एक मुझे जानती थी। उसने कहा- प्रबोध, ये मेरी फ्रेंड है,इसे एक दिन के लिए कुछ देखने के लिए लोक प्रशासन की किताब चाहिए, तुम दे दोगे?
मुझे भला क्या ऐतराज होता। अगले दिन घर से लाकर मैंने उसे किताब दे दी।
वो दूसरे ही दिन वापस ले आई।
मेरे एक मित्र का छोटा भाई जो ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था, अचानक मुझसे बोला- भैया, बिलव्ड माने क्या होता है?
- क्यों? तुझे किसने बताया ये शब्द? मैंने उससे पूछा!
वो बोला- बताया किसी ने नहीं, आपकी किताब पर लिखा है!
मैंने चौंक कर देखा, सचमुच मेरी किताब पर चढ़े अख़बार के कवर पर सुन्दर और जमी हुई लिखावट में लिखा था- "माय स्वीट हार्ट बिलव्ड प्रबोध !"
मैं बुरी तरह शरमा गया। मैंने जल्दी से उसे बताया- प्यारा।
वो कुछ मुस्कुराता हुआ वापस चला गया।
उस शाम मेरा मित्र घर आया। उसे शायद उसके छोटे भाई ने किताब पर लिखी इबारत की बात बता दी थी। मित्र बोला- किसने लिखा था?
मैंने पूरी बात बता दी। वो कुछ याद सा करता हुआ बोला,शायद वही लड़की होगी, मैं उसे जानता हूं।
- कैसे? मैंने पूछा।
- अरे वो चालू लड़की है, तीन चार लड़के उसे मसल चुके हैं। शाम को जब लड़के क्रिकेट खेलते हैं तब कूलर से पानी पीने के बहाने आ जाती है। तू खुद देख लेना उसकी छातियां! वो बोला।
मुझे मज़ाक सूझा। मैंने कहा - क्यों,उसकी छाती पे क्या लड़कों के साइन हैं?
वो हंस पड़ा। बोला- भाईसाहब, पांच सात लड़कों के मसले बिना ऐसी छाती हो ही नहीं सकती। एक बार तो मैंने ख़ुद देखा है, बाथरूम में अभिनव ने ऊपर से उसके कुर्ते में हाथ दे रखा था। मेरे आते ही निकल कर भाग गया साला।
- तुझे देख लिया? फ़िर तो तुझे भी मौका दे देगी। मैंने कहा।
- माफ़ करो,मुझे ऐसे चक्कर में नहीं पड़ना। कह कर वो चला गया।
दो तीन दिन बाद वो दोनों लड़कियां फ़िर एक दिन मुझे मिलीं। और तब मुझे पता चला कि कुछ लड़के मेरा नाम लेकर उसे कभी कभी छेड़ते हैं। मैंने अपनी जानने वाली लड़की को कहा कि न तो मुझे ऐसी बातों में कोई दिलचस्पी है और न ही मैं इस तरह किसी से मिलना चाहता हूं। मेरे सख़्त और सपाट लहज़े से कुछ अपमानित सा महसूस करते हुए वे दोनों चली गईं और उसके बाद फिर कभी मुझे नहीं मिलीं।
कुछ ही दिनों में मेरा रिज़ल्ट आ गया। मैं केवल चार अंकों से फर्स्ट क्लास चूक गया था,और बी ए में मुझे उच्च द्वितीय श्रेणी मिली थी।
मेरे अंक बड़े ही बेतरतीब थे। कुछ पेपर्स में विशेष योग्यता और कुछ में बेहद कम।
ख़ैर,अब मेरे अंकों से किसी को कोई फर्क पड़ना बंद ही हो गया था। लोग मानने लगे थे कि मैं मनमाने फ़ैसले लेता हूं,इसलिए परिणाम भी अजीबोग़रीब आते हैं।
जिस पेपर के लिए कहा गया था कि उसमें साठ प्रतिशत अंक आना नौकरी मिलने की गारंटी है,उसमें मेरे लगभग अस्सी प्रतिशत अंक थे।
साथ ही ऐसे विषय में बहुत कम नंबर थे जिन्हें लड़के स्कोरिंग कहते थे।
अब सवाल ये था कि मैं एम ए किस विषय में करूं?
मेरे पिता की सलाह पर मैंने इंग्लिश में प्रवेश ले लिया। मुझे अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने में आनंद आता था। मैंने बहुत सी कोर्स की किताबें छुट्टियों में ही पढ़ डाली थीं।
मेरे हिंदी साहित्य के प्रोफ़ेसर ने कहा कि मुझे हिंदी में एम ए करके उनके अंडर में पी एच डी करनी चाहिए। पर मैंने इसके लिए उन्हें ये कहते हुए अनिच्छा जता दी कि मेरा मन शिक्षा विभाग से जुड़ने का नहीं है।
अंग्रेज़ी की कक्षाएं शुरू हो गईं।
अभी " मिड समर नाइट्स ड्रीम", "अंडर द ग्रीन वुड ट्री", "फार फ्रॉम द मेडिंग क्राउड" का आनंद ले ही रहा था कि एक शाम डाक से एक छोटा सा परवाना किसी पंछी की तरह चला आया।
मैंने बैंक ऑफ बड़ौदा की जो परीक्षा दी थी, उसमें मेरा चयन हो गया था और मुझे कोटा के पास एक गांव केशोरायपाटन में कार्य ग्रहण करना था।
हमेशा की तरह फ़िर मेरे सामने दो रास्ते थे।
एक ओर था, रुतबेदार अंग्रेज़ी विभाग, नामी गिरामी प्रोफेसर्स, एम ए इंग्लिश की लुभावनी डिग्री,फ़िर आई ए एस की परीक्षा में बैठने की तैयारी की गौरवपूर्ण चुनौती...
दूसरी ओर एक नामी राष्ट्रीयकृत बैंक में मुलाजिम होकर हर महीने आकर्षक वेतन, आंतरिक परीक्षाएं पास करके आगे बढ़ने के मौक़े, इक्कीस वर्ष की आयु होते ही अपने पैरों पर खड़े हो जाने का आत्म सम्मान, चंबल के किनारे बसे एक धार्मिक कस्बे नुमा गांव में आत्म निर्भर होकर रहने का सुख...
पहली सोच दिमाग़ की थी और दूसरी दिल की।
फ़िर एक बार मेरे दिल ने दिमाग़ पर जीत हासिल की।
मैंने विश्वविद्यालय शिक्षा से अपने दिन समेटने शुरू कर दिए। घर पर किसी ने मेरे फ़ैसले पर आपत्ति नहीं की, केवल पिताजी ने इतना कहा कि बैंक में जाकर भी अपनी पढ़ाई जारी रखने और आगे बढ़ने की कोशिश छोड़नी नहीं है। अगले महीने नॉन कॉलेजिएट छात्र के रूप में एम ए का फॉर्म भर लेना जरूरी है।
अपने बड़े भाई से पहले ही नौकरी पर लग जाने का गर्व भी मेरे साथ जुड़ रहा था, जो हमारे बीच स्पर्धा की कटुता को शायद और बढ़ा ही रहा था, किन्तु बड़े भाई अब एक अच्छे नामी कॉलेज से एग्रीकल्चर का अपना मनपसंद कोर्स कर रहे थे और उसके पूरा होने पर उन्हें अच्छी सरकारी नौकरी मिल जाने की संभावना थी।
छोटा भाई भी हॉस्टल में रह कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था।
मैंने अपने नए दिन और नई ज़िंदगी के खयालों में डूबना शुरू कर दिया था।

( 18 )

मैंने झटपट यूनिवर्सिटी छोड़ी और थोड़े से सामान के साथ अपनी नई नौकरी के लिए रवाना हो गया।
मेरी नौकरी जिस जगह लगी थी वो कोटा जिले में थी। वहां जयपुर से कोई सीधी बस नहीं जाती थी। जयपुर से कोटा जाना पड़ता था और फ़िर कोटा से लगभग एक घंटे में वहां पहुंचा जा सकता था।
सबसे अच्छी बात तो ये थी कि कोटा में मेरा छोटा भाई हॉस्टल में रह कर पढ़ रहा था।
मैं शनिवार को उसके पास ही पहुंच गया ताकि एक दिन वहां रुक कर सोमवार सुबह केशोरायपाटन जाकर अपनी ड्यूटी कर सकूं। अगले दिन रविवार होने से उसकी भी छुट्टी थी। हम लोग उस दिन कोटा शहर घूमे, शाम को एक पिक्चर भी देखी।
भाई के हॉस्टल में ही जाकर पता चला कि केशोरायपाटन का भी एक लड़का उसके साथ पढ़ता है और वहीं हॉस्टल में रहता है। वो लड़का ये जानकर बहुत खुश हुआ कि मेरी नौकरी उसके गांव में ही लगी है।
उस लड़के से ही गांव के बारे में पूरी जानकारी भी मिली। उसने बताया कि गांव में ये पहला ही बैंक है जिसकी शाखा खुली है। उस गांव के लिए कोटा के सरोवर सिनेमा के पास से प्राइवेट बस जाती थी, जो एक घंटे में केशोरायपाटन में चंबल नदी के एक किनारे पर छोड़ती थी। नदी पर तब कोई पुल नहीं था, और वहां से नाव में बैठ कर नदी पार करनी होती थी।
उस पार किनारे पर एक मंदिर बना था,जिसके एक ओर बनी सीढ़ियों से चढ़ कर गांव में जाना होता था। वहीं से गांव का मुख्य सदर बाज़ार था जिसमें बैंक की नई खुली हुई शाखा थी।
सोमवार की सुबह मैंने जाने का जब कार्यक्रम बनाया तो भाई के दोस्त ने खुद अपनी इच्छा बताई कि वो भी मेरे साथ में जाना चाहता है,और मुझे अपने घर वालों से मिलवा कर तथा वहां मेरी सब व्यवस्था करवा कर वापस आ जाएगा।
मैं और मेरा भाई इस प्रस्ताव से खुश हो गए और हमारी नई जगह को लेकर जो चिंता थी वो भी दूर हो गई।
अगले दिन सुबह जल्दी उठ कर हम दोनों हॉस्टल से निकल गए। बस स्टैंड आते ही हमें बस तैयार मिल गई और बातों में पता ही नहीं चला कि कब हिचकोले खाती रेंगती बस ने हमें चंबल नदी के किनारे उतार दिया।
तेज़ी से बहती नदी को देख कर ताज़गी आ गई। किनारे पर हमें एक नाव भी खड़ी मिल गई। नाव में महिलाएं, बच्चे, सामान बेचने वाले, व्यापारियों और छात्रों की खासी चहल पहल थी। कई लोग सायकिल, बकरियां तक उसमें साथ लिए हुए थे। दूधवालों, सब्ज़ी वालों का जमघट था।
नाव काफ़ी बड़ी थी और दोनों ओर से आ जा रही थी। सैर में खूब आनंद आया।
किनारे पहुंच कर भाई का दोस्त मुझे मंदिर, बाज़ार, गांव के बारे में बताता हुआ अपने घर की ओर ले चला।
उसके घरवाले हमें देख कर बहुत खुश हुए और ये जानकर तो और भी प्रसन्न हो गए कि उनके गांव में नए खुले बैंक में मेरी नियुक्ति हुई है।
घर से खाना खाकर हम दोनों बाज़ार में बैंक आए जो पास में ही था।
छोटे से बैंक में कुल तीन लोगों का स्टाफ था। मुझे नई नौकरी ज्वाइन करवाई गई और जब स्टाफ के लोगों को पता चला कि कोई स्थानीय व्यक्ति पहले से मेरा जानकर है तो वे और भी तत्परता से मुझे बैंक,गांव और वहां के काम के बारे में बताने लगे।
छोटी जगह के लोगों की सहयोग भावना ने मुझे बहुत प्रभावित किया।
शाम को मैं भाई के दोस्त के घर आ गया, जो अब मेरा भी दोस्त और भाई जैसा बन चुका था।
उसके घर में माता पिता और एक छोटा भाई और था जो वहां के विद्यालय में ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था।
मुझे बैंक वाले लोगों ने कहा कि उन्होंने मेरे रहने के लिए दो जगह कमरे देख रखे हैं, जो भी मुझे पसंद आएगा, उसमें वे मेरे रहने की व्यवस्था करवा देंगे।
शाम को घर आने के बाद दोस्त वापस कोटा लौट गया। आखिरी बस शाम सात बजे जाती थी, उसी को पकड़ने के लिए वो निकला। मैं और उसका छोटा भाई उसे नाव तक छोड़ने के लिए गए।
दोस्त के माता पिता ने मुझे ये भी कहा कि मैं उनके घर में ही रह सकता हूं।
पर मैंने उनसे तीन चार दिन बाद किराए के कमरे में शिफ्ट हो जाने की इच्छा जताई। वे आश्वस्त हो गए।
दोस्त के पिता ने कहा कि ये भी तुम्हारा ही घर है, जब तक चाहो यहां रहो, फ़िर अपने कमरे की व्यवस्था ठीक हो जाए तब चले जाना।
रात को खाना खाकर मैं और दोस्त का छोटा भाई सोने के लिए छत पर आए तो उसने मुझे बताया कि गांव में किसी भी घर में शौचालय नहीं है। घर के सब लोग सुबह नहाने निबटने के लिए चंबल नदी पर ही जाते हैं।
मुझे थोड़ा अचरज हुआ। उसने बताया कि मंदिर की सीढ़ियों के दाईं तरफ बने घाट पर औरतें जाती हैं और बाईं ओर बने घाट पर पुरुष जाते हैं। सुबह चार बजे से ही औरतों की आवाजाही शुरू हो जाती है। वो निपट कर, नहाकर और कपड़े आदि धोकर पौ फटने से पहले ही घर आ जाती हैं।
पुरुष लोग सवेरे दिन निकलने के आसपास जाते हैं। युवा और बच्चे जो और भी देर से जाने के आदी हैं, वो घाट से और भी थोड़ा आगे कच्चे घाट पर जाते हैं, क्योंकि पक्के घाट पर फ़िर नावों की आवाजाही शुरू हो जाती है।
कुछ लोगों ने घरों के पिछवाड़े बांस की खपच्चियां लगा कर पुराने टाट के बोरे से आड़ कर रखी थी।
घर के बुजुर्ग,बीमार,तथा इमरजेंसी के समय में औरतें भी वहां शौच कर लिया करते थे।
लेकिन वहां पानी की और साफ़ सफ़ाई की कोई माकूल व्यवस्था न होने से हर समय बदबू और मक्खियों का साम्राज्य रहता था।
गजेन्द्र, दोस्त के छोटे भाई ने बताया कि वहां से मल निस्तारण का केवल एक ही तरीका था कि वहां घूमते हुए सूअर विष्ठा को खा जाया करते थे।
कभी कभी तो ये सूअर इतने आक्रामक और निरंकुश हो जाते थे कि बैठे हुए व्यक्ति की भी परवाह न करते हुए पिछवाड़े में थूथन घुसा कर मल खींचने लग जाते थे।
गजेन्द्र ने दो साल पहले का अपना अनुभव भी बताया जब एक बार स्कूल से आकर शौच की हाजत होने पर वह जल्दी में वहां बैठ गया। टाट के पर्दे के नीचे से थूथन घुसा कर जब सूअर ने पीठ चाटना शुरू किया तो पहले तो वह इस गुदगुदी का कारण समझा ही नहीं,और कोई तितली भंवरा जैसा मच्छर समझ कर हाथ से उड़ाने की कोशिश करता रहा। फ़िर तत्काल जब सूअर की आवाज़ सुनी तो उठ कर भागा।
उस दिन के बाद वह घर के इस शौचालय में कभी नहीं बैठा।
गांव में सुबह जल्दी ही जाग और चहल पहल हो जाने के कारण रात को जल्दी ही सन्नाटा हो जाता था।
लगभग नौ बजे घर के सब लोग सो जाते थे। नीचे माता पिता के सो जाने और बत्ती बंद हो जाने के कारण छत पर हम दोनों भी जल्दी ही सो गए।
सुबह हल्का सवेरा होने के बाद नीचे से बर्तनों की खटर पटर होने के बाद नीचे आंगन से गजेन्द्र की मां की आवाज़ आई - पप्पू, भैया से पूछ, कि चाय पहले बनाऊं कि नहा कर पिएगा?
पर गजेन्द्र जाग कर बिस्तर समेट ही रहा था कि मां ने चाय का प्याला सीढ़ियों पर कुछ ऊपर आकर पकड़ा दिया।
मैं यही चाहता था, मुझे तो चाय पीकर ही शौच जाने की आदत थी।
मैंने चाय पीकर कप रखा ही था कि गजेन्द्र बोला- चलो भैया चलें !
उसने जांघिया पहने हुए पैरों में चप्पल डाली तो मैं भी चप्पल पहन कर उसके पीछे चल पड़ा।
मेरा पायजामा और बनियान पहने घर से निकलने का ऐसा मौका शायद पहली बार आया था।
गलियों के बीच से निकलते हुए हम दोनों नदी किनारे कच्चे घाट पर पहुंचे। पानी से थोड़ी दूर एक सूखी सी झाड़ी के पास उसने मुझसे कहा पायजामा यहां रख दो।
हम दोनों बैठ गए।
उसने मेरा बिना नाड़े वाला इलास्टिक का वी शेप अंडर वियर देखते हुए कहा, अच्छा इसलिए आप पायजामा पहन आए,आपको छोटी चड्डी में आना अच्छा नहीं लगा होगा। पर देखो,नीचे से धूल मिट्टी और कीचड़ में कितना गन्दा हो गया। कल से चड्डी में ही आना।
शौच करके आसपास सभी लड़के चड्डी नीचे सरकाये हुए हाथ में नाड़े पकड़े पकड़े पानी के पास जा जाकर धो रहे थे।
हाथ धोकर नीम की पतली सी टहनी से हमने दातुन किया और फ़िर किनारे के एक पत्थर पर बैठ कर नहाए। साबुन पप्पू लाया था।
लगभग आधे घंटे बाद हम वापस लौटे। मेरे गीले कपड़ों को गजेन्द्र छत पर जाकर फ़ैला आया।
नाश्ता करके जब मैं बैंक जाने के लिए निकला तो गजेन्द्र मेरे साथ गया।
उसका स्कूल बारह बजे का था।
बैंक में ज़्यादा भीड़भाड़ नहीं थी। मुझे पता चला कि शाखा में कुल तीन ही लोगों का स्टाफ स्वीकृत है, अब मेरे आ जाने से एक व्यक्ति वापस लौट जाएगा जो किसी अन्य शाखा से कुछ ही दिन के लिए वहां आया था।
धीरे धीरे मुझे काम समझ में आने लगा। मुझे ये भी बताया गया कि कुछ माह काम कर लेने के बाद मुझे प्रशिक्षण के लिए जयपुर या दिल्ली भेजा जाएगा।
मेरी लिखावट अत्यधिक सुंदर और आकर्षक होने के कारण बैंक में अाए ग्राहक खुश होकर कोई न कोई टिप्पणी करते हुए अपनी पासबुक लेकर जाते थे।
मेरा व्यवहार भी लोगों को वहां बहुत पसंद आता था और वे अक्सर कहते थे कि मैं बहुत मिलनसार हूं, और सबका काम बहुत आत्मीयता से करता हूं। शाखा के प्रबंधक भी मेरी तारीफ़ किया करते थे।
कुछ ही दिन में मैंने मंदिर के पास एक कमरा किराए से ले लिया था।
बाज़ार से मैं और गजेन्द्र एक गद्दा,चादर और तकिया भी ले आए।ज़मीन पर बिछा लिया।
खाना खाने के लिए भी मुख्य सड़क पर एक अच्छा ढाबा था,जिस पर मैं खाना खाया करता था।
गजेन्द्र का नियम हो गया था कि वो रोज़ सुबह मुझे आकर नींद से जगाता था और हम दोनों नदी पर साथ में जाते थे। वो मेरे लिए बाज़ार के एक दर्जी से नाड़े वाले, कपड़े के दो कच्छे भी सिलवा लाया था,और हम दोनों सुबह कच्छे में ही नदी पर जाते थे। हम दोनों आपस में काफी खुल गए थे और वह कभी कभी रात को मेरे कमरे में मेरे पास ही रुक जाता था।
जिस ढाबे पर मैं खाना खाता था उस पर खाना खाने के लिए कुछ दूरी पर बनी एक मिल के कर्मचारी भी आते थे। कभी कभी वहां थोड़ी ज़्यादा भीड़ हो जाती तो गजेन्द्र मुझे अपने घर पर खाने के लिए ले जाता।
वैसे भी घर से वो नाश्ते का कोई न कोई सामान मेरे लिए लाता रहता था।
कुछ दिन बाद बैंक के प्रबंधक मुझे अपने घर पर खाना खाने के लिए बुलाने लगे। दो तीन दिन तो मैं चला गया पर जब वो रोज़ ही शाम को घर आने के लिए कहते, तो मुझे संकोच होता।
मेरे मन में ये ख्याल आया कि शायद ये मुझे अपने घर पर पेइंग गेस्ट बनाना चाहते हों।
पर एक दिन गजेन्द्र मुझसे बोला- भैया, आपकी जाति कौन सी है?मैंने बता दिया- बनिया!
वो कुछ मुस्कुराता हुआ बोला - आपके मैनेजर साहब की एक लड़की है, पहले हमारे स्कूल में पढ़ती थी,अब प्राइवेट बी ए की परीक्षा दे रही है। घर पर ही रहती है, शायद वो उसके लिए आपको फांसना चाहते हैं!
मुझे उसकी बात पर हंसी आई,क्योंकि मैनेजर सचमुच हमारी जाति के बनिया ही थे।
वो बोला- हमारे स्कूल के लड़के कहते हैं कि वो आपको रोज़ शाम को खाने के लिए इसीलिए घर पर बुलाते हैं।
-अरे, लेकिन तुम्हारे स्कूल के लड़कों को कैसे पता चलता है कि उन्होंने मुझे खाने पर बुलाया है? मैंने आश्चर्य से कहा।
वो बोला- उनका बेटा हमारे स्कूल में ही तो पढ़ता है, दसवीं कक्षा में। वो बता देता है सबको।
ओह! तो ये बात थी। बैंक के मैनेजर साहब के दो बच्चे थे।बड़ी लड़की थी जो ग्यारहवीं पास करने के बाद प्राइवेट बी ए कर रही थी।और उनका छोटा बेटा दसवीं में पढ़ता था। उनके बेटे का भी घर का नाम पप्पू ही था,गजेन्द्र की तरह।
एक दिन सच में मुझे इस गोरखधंधे में कुछ सच्चाई नजर आने लगी जब एक शनिवार को मैनेजर साहब ने कहा - मिस्टर गोविल, क्या आप कल थोड़ा समय निकाल पाएंगे? यदि हो सके मेरी डॉटर को कोटा से कुछ बुक्स दिलवा लाइए। कल तो सन्डे है।
यदि मुझे गजेन्द्र ने पहले से ये सब नहीं बताया होता तो शायद मैं शिष्टाचार के नाते उनकी बात मान कर रविवार को उनकी लड़की को कोटा ले जाने को तैयार भी हो जाता। पर अब मैं चौकन्ना हो गया था।
मैंने बहाने बाज़ी करते हुए कहा - सर, कल तो मुझे भी कुछ काम है कोटा में, इसलिए मैं जाऊंगा तो सही पर रात को अपने भाई के पास हॉस्टल में ठहर कर सोमवार को सुबह ही वापस अा पाऊंगा।
मैं जानता था कि रात को लड़कों के हॉस्टल में रुकने के नाम पर वे अपनी लड़की को भेजने की बात छोड़ देंगे। पर उन्होंने भी आसानी से हार नहीं मानी। झट से बोले- ओके,नो प्रॉब्लम, तब आप पप्पू को अपने साथ ले जाइए,ये तो रात को आपके साथ ही रुक जाएगा, हॉस्टल में। और थोड़ा सा समय निकाल कर बेटी की किताबें भी ले आइएगा। ये आपको लिस्ट बना कर दे देगी।
अब मैं इनकार नहीं कर पाया। मैंने अगले दिन सुबह जाने के लिए उन्हें हां कह दिया।
उस रात गजेन्द्र मेरे पास सोने के लिए आया तो हैरान था।
बोला- पप्पू आपके साथ कोटा जाएगा?
- हां, मैंने कहा।
- रात को आपके साथ सोएगा वहां? उसने कहा।
- हां। मुझे अचंभा हुआ कि वो ये सब क्यों पूछ रहा है।
वह कुछ देर चुप रहा, फ़िर बोला- आप ध्यान रखना,वो अच्छे लोग नहीं हैं।
- अरे, क्यों? मैंने पूछा।
वह बोला- उसकी बहन भी कई लड़कों से लगी हुई थी, इसीलिए उसकी पढ़ाई छुड़ा कर उसे घर बैठाया है।
लेकिन - मेरे साथ तो पप्पू जा रहा है,उसकी बहन थोड़े ही जा रही है।
वो चुप हो गया।
अगले दिन सुबह सुबह मैं पप्पू को साथ लेकर कोटा चला गया। रविवार होने से मैं सीधा भाई के हॉस्टल में ही गया। गजेन्द्र का बड़ा भाई भी हॉस्टल में ही था।
हम चारों ने जाते ही खाना खाकर एक फ़िल्म देखी। शाम को बाज़ार में भी घूमे। मैनेजर साहब की बेटी की किताबें भी ख़रीदीं।
भाई ने नई नौकरी के सब हाल चाल पूछे।
मैनेजर के बेटे को मेरे साथ देखकर उसने अनुमान लगा लिया कि मैंने सब अच्छी तरह से जमा लिया है।
गजेन्द्र के भाई से भी उसे मेरे ज्वाइन करने के सब समाचार मिल ही गए थे।
रात देर तक हम लोग बातें करते रहे। मेरा भाई अपने दोस्त के पास सोया और मेरे लिए उसने अपना बिस्तर खाली किया जिस पर पप्पू को लेकर मैं सोया।
अगले दिन सुबह हम लोग लौट गए।
मैनेजर साहब बड़े खुश हुए।अगले दिन मुझे कहने लगे कि पप्पू आपकी बहुत तारीफ़ करता है, कहता है भैया ने मेरा बहुत ख़्याल रखा, मुझे पिक्चर भी दिखाई।
लेकिन अब मेरे लिए ये उलझन और भी ज़्यादा हो गई कि वो अाए दिन मुझे घर बुलाते। कभी रविवार को मेरा कोटा जाने का कार्यक्रम बनता तो पप्पू को साथ कर देते।
कभी कभी मेरे कमरे पर आ जाते। आते तो टिफिन में खाना बनवा कर ले आते। कभी कभी पप्पू को रात को सोने के लिए मेरे पास छोड़ देते।
पप्पू अगले दिन सुबह जाकर बताता कि भैया के पास पानी की सुराही नहीं है, तो सुराही भिजवा देते। एक दिन तो कुर्सी और स्टूल भिजवा दिया, जिसे मैंने बड़ी मुश्किल से वापस लौटाया।
गजेन्द्र ने मुझे बताया कि पप्पू को स्कूल में लड़के छेड़ते हैं।जब वो आपके पास आता है तो उसे कहते हैं कि अपने जीजाजी के गया था क्या?
उधर दो एक बार गजेन्द्र का भाई आया तो वो भी बताने लगा कि उनके हॉस्टल में सब लड़के पूछते हैं - भाई साहब का साला इस रविवार को आयेगा क्या?
एक दिन मैनेजर साहब ने मुझसे कहा कि आपको थोड़ा समय मिले तो बिटिया को अंग्रेज़ी पढ़ा दिया करो।
मैंने खुद अपनी परीक्षाएं होने और उनकी तैयारी का बहाना बना दिया।
रात को ये बात मैंने गजेन्द्र को बताई तो वो बोला- भूल कर भी हां मत करना...वो सलवार खोल देगी आपके सामने!
गजेन्द्र ऐसा बोल तो गया पर तुरंत ही झेंप भी गया। शायद उसे अहसास हुआ कि वो क्या बोल रहा है।
पर अब हम दोनों काफी खुल चुके थे, वो मुझसे तीन चार साल छोटा ज़रूर था पर डील डौल में युवक ही लगने लगा था। मसें भींगने लगी थीं। चढ़ती उम्र थी।
मैंने कहा- तेरे सामने खोली है क्या कभी?
वो बोला- मेरे दोस्तों ने मसला तो है उसे।
- तूने..? मैंने फिर छेड़ा।
- लड़के बोलते हैं हमारे एक गुरुजी का लिया है उसने। उसने जैसे रहस्य खोला।
फ़िर वो बताने लगा कि जब हमारे स्कूल में दसवीं में थी तो टूर्नामेंट में खो खो में रावतभाटा गई थी।
- तब कहते हैं पी टी आई साहब ने फंसाया था।
- कैसे पता? मैंने कहा।
- लड़के कहते हैं चाल बदल गई थी, लौटी जब। वो मुझे समझाने के स्वर में बोला।
मैंने कहा- तू तो तब बहुत छोटा होगा?
वो हंसने लगा। बोला- आठवीं कक्षा में था।
अब मुझे भी उससे बातचीत में रस आने लगा था। मैंने कहा- आठवी में तो कितना सा होगा?
उसे भी शरारत सूझने लगी, बोला- इसका आधा।
मेरी निगाह गई, वो सच में कच्छे में से अपनी उत्तेजना को नाप कर दिखा रहा था।
मैंने कमरे की बत्ती बंद कर दी और हम दोनों सो गए।