इस बार की अखिल भारतीय चित्रकला प्रतियोगिता में देश भर से आए विद्यार्थियों को विज्ञानभवन में आयोजित ऑन द स्पॉट पेंटिंग में भाग लेना था। लगभग हर राज्य से ही बच्चे आए थे।
चित्र बनाने के लिए विषय दिया गया कि कल आपको दिल्ली शहर की जो सैर करवाई गई थी, उसमें देखे किसी भी स्थान का कोई भी चित्र बनाया जा सकता है।
सभी आनंदित हो गए। एक दिन पहले हमें बस से राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री आवास, क़ुतुब मीनार, लालकिला और इंडिया गेट दिखा कर लाया गया था।
राष्ट्रपति भवन और प्रधान मंत्री भवन में हम छात्रों को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन और प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से भी मिलवाया गया।
भव्य भवन में हमें बैठाने के बाद लगभग पंद्रह मिनट तक वहां के एक अधिकारी ने हमारी क्लास ली।
हमें बताया गया कि राष्ट्रपति के आने पर आप लोग बैठे रहेंगे, कोई खड़ा नहीं होगा।आप हाथ जोड़ कर अभिवादन करेंगे किन्तु मुंह से कुछ बोलेंगे नहीं। आप उठ कर उनके पास आयेंगे नहीं। उनकी बात समाप्त हो जाने के बाद आपको उनसे कुछ पूछना नहीं है। आपको जो भी नाश्ता या पेय दिया जाएगा उसे समाप्त करके प्लेट या गिलास उसी जगह छोड़ देना है, आपको उन्हें भी नाश्ता ऑफर नहीं करना है अर्थात उनके सामने किसी तरह की मनुहार या हलचल की अनुमति नहीं है। ये सब वहां की चित्रलिखित व्यवस्था और अनुशासन के अन्तर्गत किया गया था।
कुछ देर बाद चार अंगरक्षकों के साथ मंथर गति से चलते हुए राष्ट्रपति अाए। उन्होंने संक्षिप्त भाषण दिया जो अंग्रेज़ी में था। राष्ट्रपति भवन की सजधज देखने लायक थी जो लंबे समय तक मन - मस्तिष्क पर अंकित रही।
इसके विपरीत प्रधान मंत्री आवास में चहल पहल के साथ, और बातें करते हुए हम लोग लॉन में बैठे। इंदिरा गांधी तेज़ चाल से निकल कर बाहर आईं, उन्होंने अनौपचारिक रूप से खुलकर बच्चों के साथ बातचीत की। हमने उनके साथ फोटो भी खिंचवाए। उन्होंने हमारी व्यवस्थाओं और दिल्ली प्रवास के बारे में बहुत से सवाल जवाब के माध्यम से जानकारी भी ली। जो बच्चे जिन राज्यों से आए थे, उनसे वे उस राज्य के बारे में भी कोई न कोई सवाल ज़रूर करती थीं। खुल कर बीच - बीच में हंसती थीं।
उनके साथ सचमुच हम लोगों को ऐसा महसूस हुआ कि हम अपने देश के नेता से मिल रहे हैं। उन्होंने एक पेड़ के समीप खड़े होकर हमें संक्षिप्त भाषण भी दिया जिसमें बताया कि हमें देश से किस तरह जुड़ना चाहिए और हमें इसकी हर बात में किस तरह रुचि लेनी चाहिए।
कुतुबमीनार भी हमने देखी । उसमें केवल एक ही मंज़िल तक चढ़ने की अनुमति थी। हमें बताया गया कि बाक़ी मंजिलों पर रख रखाव संबंधी काम चल रहा है, इसलिए अभी जनता के लिए बंद हैं।
लालकिले का बाज़ार बेहद आकर्षक था। कुछ साल पहले एक फ़िल्म आई थी "किस्मत", जिसका एक गाना उन दिनों बहुत मशहूर था। बोल थे - कजरा मोहब्बत वाला, अंखियों में ऐसा डाला, कजरे ने ले ली मेरी जान...! इसी गाने की एक पंक्ति थी - आई हो कहां से गोरी...दिल्ली शहर का सारा मीना बाज़ार ले के।
लगता था कि मुंबई शहर में बैठ कर ऐसे गीत दिल्ली के इन बाजारों को ही याद कर के रचे जाते होंगे।
विज्ञान भवन में जब चित्रकला प्रतियोगिता शुरू हुई तो मैंने प्रधान मंत्री आवास का ही चित्र बनाया। राजस्थान में महलों, इमारतों, भव्य भवनों को चित्रित करने का अभ्यास लगभग हर कलाकार को बचपन से ही होता है। भवन तो मैंने अपनी स्मृति से आकर्षक बना ही दिया,भवन के बाहर हरे लॉन में बच्चों की भीड़ और सामने एक वृक्ष के बगल में खड़ी इंदिराजी को मैंने प्रतीकात्मक रूप से, बिना रेखाओं के,केवल रंगों के धब्बों के सहारे से दर्शाया।
मुझे अपने बनाए चित्र से इस बार पूरा संतोष था।
हमारे दल के साथ गए शिक्षक ने भी उस चित्र को देखा और उसी समय छात्रों से कहा- इस बार हम लोग ज़रूर कोई न कोई पुरस्कार चित्रकला में भी लेकर चलेंगे। मैं उनकी इस बात से खुश हो गया।
दो दिन बाद जब खचाखच भरे हॉल में टूर्नामेंट का समापन समारोह आरंभ हुआ तो मंच से परिणामों की घोषणा हुई।
अंग्रेज़ी में बोला गया एक छोटा सा वाक्य किसी मंदिर की विशालकाय घंटियों की तरह मेरे कानों में बजने लगा - द फर्स्ट प्राइज ऑफ आल इंडिया ऑन द स्पॉट पेंटिंग कॉम्पिटिशन गोज़ टू प्रबोध कुमार गोविल ऑफ आर आर पोद्दार मल्टी परपज़ हायर सेकेण्डरी स्कूल , जयपुर...राजस्थान। तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी जिसमें ज़्यादा शोर राजस्थान से आए विद्यार्थियों का था।
मैं सोच रहा था कि अपने विद्यार्थी जीवन में हम अपने देश, राज्य और शहर को लेकर कितने संगठित होते हैं।
वो शाम मेरे जीवन की सबसे खुशगवार शामों में से एक थी।अगली सुबह हमें वापस अपने अपने शहर में लौट जाना था।
कार्यक्रम के बाद रात का खाना खाकर हम लोग अपने रहने वाले हॉस्टल में आए और अपने सामान की पैकिंग में लग गए। सुबह हम लोगों को वापस लौट जाना था।
यद्यपि उस रात बहुत देर तक सोए नहीं, बल्कि एकसाथ इकट्ठे होकर शोरशराबा करते रहे। गाने बजाने का दौर भी हुआ।
कुछ छात्र भावुक भी हो गए थे और एक दूसरे से मिलने के लिए उनके पते संग्रहित करने में लग गए।
वो मोबाइल फोन का युग नहीं था। चिट्ठियां लिखी जाती थीं एक दूसरे को।
लौटने के बाद स्कूल में भी प्रधानाचार्य जी ने हम लोगों को शाबाशी दी और अगले दिन की प्रार्थना सभा में इस बात को बहुत ज़ोर शोर से उदघोषित किया गया।
स्कूल में मेरी लोकप्रियता में इससे और भी वृद्धि हुई।
इसी वर्ष मेरी सक्रियता को देख कर मुझे विद्यालय की छात्र यूनियन का उप प्रधान मंत्री भी चुना गया।
जहां बाक़ी छात्र और शिक्षक मुझे बधाई देते, वहीं फिजिक्स, केमिस्ट्री और बायोलॉजी के अध्यापक ने प्रशंसा करने के बाद ये भी कहा कि बस,अब सैर सपाटा भी खूब हो गया, अब मुझे पूरे मन से बोर्ड की परीक्षा की तैयारी में जुटना चाहिए।
उनकी बात से ऐसा लगा कि जैसे वे मेरे छात्र यूनियन में शामिल होने से ज़रा भी खुश नहीं थे। उनका कहना था कि रचनात्मक कार्यों तक तो ठीक है,किन्तु स्टूडेंट्स यूनियन आदि अच्छे विद्यार्थियों के लिए नहीं हैं।
मेरा लंबे समय तक स्कूल के चित्रकला कक्ष में रह कर चित्र बनाना भी विज्ञान के शिक्षकों को अनुपयोगी लगता था। कभी कभी मुझे भी इस बात को लेकर अपराध बोध होता था कि मैं साइंस की प्रैक्टिकल क्लासेज भी अपनी कुछ गतिविधियों के दौरान छोड़ देता था। मेरे अधिकांश अच्छे मित्र भी मेरी कक्षा से न होकर अन्य कक्षाओं से होते थे।
पर अभी तक मैंने कोई असफलता नहीं देखी थी,इसलिए किसी का ऐतराज भी इन बातों पर नहीं होता था।
हमारे विद्यालय के एक शिक्षक को इस बात पर ऐतराज होता था कि मैं एन सी सी या राष्ट्रीय सेवा योजना जैसी गतिविधियों में शामिल क्यों नहीं होता।
एक बार मेरे एक मित्र ने उन्हें बता दिया कि मैं जूते नहीं पहनता इस लिए एन सी सी परेड में नहीं जाता।
उन्होंने सोचा कि छात्र उनसे मज़ाक कर रहा है,वे नाराज़ हो गए। क्रोधित होकर उस लड़के से बोले- जाकर चुपचाप बैठ जा, वरना मैं उसे (मुझे) जूते पहना भी दूंगा,और तेरे जूता रख भी दूंगा। पूर्व आर्मी अधिकारी रहे उन शिक्षक का गुस्सा देख कर बेचारा छात्र चुपचाप जा बैठा,पर लड़के उसकी वाचालता पर हंसते रहे।
मुझे स्कूल का उपप्रधान मंत्री होने के कारण प्रधान मंत्री के साथ विद्यालय की खेल प्रतियोगिताओं में भी समय देना पड़ा।
एक दिन वार्षिकोत्सव से पहले छात्र संघ का ग्रुप फ़ोटो खींचा जा रहा था। बीच में कुर्सियों पर प्रधानाचार्य और कुछ शिक्षकों के बैठने के बाद हम छात्र इधर उधर अपने अपने मित्रों के साथ खड़े हो गए। तब एक शिक्षक ने प्रधान मंत्री और मुझे कंधा पकड़ कर बीच में कुर्सियों पर ला बिठाया।
इस तरह शिक्षकों के साथ बैठने का सम्मान मिलने से मैं खुश हो गया और मैंने टूर्नामेंट में और भी बढ़ चढ़कर सहयोग किया। अपनी कक्षाएं कई दिनों के लिए छोड़ी।
आख़िर परीक्षा आई और मार्च के महीने में ही पहली बार जल्दी निवृत्त हो गए। लंबी छुट्टियां मिलीं।
इस बार बोर्ड की परीक्षा होने से रिज़ल्ट देर से आने वाला था।
हम लोग खूब घूमते और खेलते थे। कभी कभी ज़्यादा बोरियत महसूस होने पर विद्यालय भी आ जाते।
मैं कभी कभी चित्रकला कक्ष में जाकर चित्र भी बनाया करता था।मैंने अब ऑयल पेंटिंग्स बनाना शुरू कर दिया था और विद्यालय के कला कक्ष में मेरे बहुत से चित्र भी प्रदर्शित किए गए थे।
हमारे विद्यालय के कला शिक्षक नागर जी किसी भी अतिथि के आने पर कला कक्ष की प्रदर्शनी बड़े चाव और उत्साह से दिखाया करते थे।
एक बार प्रधानाचार्य महोदय किसी विशिष्ट अतिथि को कला कक्ष दिखाने लाए। संयोग से मैं भी उस समय वहीं पर बैठा हुआ कोई चित्र बना रहा था।
नागर जी का एक तकिया कलाम था। वे किसी भी अतिथि के सामने हर विद्यार्थी के बारे में बोलते रहते थे- ये जब मेरे पास आया था तो लाइन खींचना भी नहीं जानता था,और अब देखिए इसका चित्र!
संयोग से अतिथि जब मेरे पास आकर मेरा चित्र देखने लगे तो नागर जी ने आदतन कहा- ये लड़का जब मेरे पास आया तो लाइन खींचना भी...
तभी हमारे प्रधानाचार्य जी बोल पड़े- ये आपके पास आने से पहले दिल्ली में आल इंडिया प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीत चुका था।
नागर जी का चेहरा तब देखने ही लायक था।
मन ही मन मैं भी सोचने लगा कि अपना चित्र अधूरा छोड़ कर नागर जी के उस चेहरे का चित्र बनाऊं जो उन्होंने प्रधानाचार्य जी की बात सुनकर बनाया।
सभी ने मुश्किल से हंसी रोकी।
गर्मियों के दिन थे। मैं अकेला ही घूमता हुआ यूनिवर्सिटी के सामने से विद्यालय की ओर आ रहा था। मन ही मन सोच रहा था कि अपने मित्र अरुण को रजिस्ट्रार बंगले से साथ लेकर लाइब्रेरी में जाऊंगा।
तभी सामने से हमारे कला शिक्षक नागर जी मुझे आते हुए दिखे। मुझे देखते ही वे मानो खुशी से उछल पड़े। उस वक़्त वो मुझे अपने बुज़ुर्ग शिक्षक की तरह नहीं, बल्कि किसी हमउम्र दोस्त की तरह मिले,और बोले- अरे, चमत्कार! मैं स्कूल से तुझे ही फोन करवा कर बुलवाने जा रहा था।
मैं अचंभे से बोला- क्यों सर?
उन्होंने बताया कि अगले महीने बैंगलोर में सरकार की तरफ़ से एक अखिल भारतीय शिविर लग रहा है जिसमें जयपुर से पांच छात्रों का चयन होना है। मैं तेरा नाम प्रधानाचार्य जी को देने ही जा रहा था,उससे पहले तुझसे पूछना चाहता था।
- वाह ! नेकी और पूछ पूछ ! मुझे तो मानो मनचाही मुराद मिल गई।घर में किसी के मना करने का तो सवाल ही नहीं था। स्कूल में भी बोर्ड की परीक्षा खत्म हो ही चुकी थी। परिणाम आने में दो महीने से ज़्यादा का समय बाक़ी था। मैं इन दिनों पूरी तरह खाली ही था।फौरन कला टीचर के साथ स्कूल के लिए चल दिया।
ये सरकार द्वारा आयोजित नेशनल इंटीग्रेशन समर कैंप सत्ताइस दिन का था,और इसे बैंगलोर के सेंट जोसेफ कॉलेज में आयोजित किया जा रहा था।
मुझे देखते ही प्रधानाचार्य जी ने सहर्ष अनुमति दे दी और हम लोग बाक़ी औपचारिकताओं तथा तैयारियों में जुट गए।
राजस्थान के चुने हुए पांच छात्र और हमारे विद्यालय के एक इतिहास के शिक्षक जल्दी ही एक दिन अपने अपने सामान के साथ रेलवे स्टेशन पर थे।
मैं अक्सर अंडरवियर नहीं पहना करता था। मेरे पास कपड़े से सिले हुए दो छोटे अंडरवियर थे ज़रूर,पर बंधन या डोरी से होने वाली असुविधा के चलते वो रखे ही रहते थे। कभी कभी मैंने किसी मौके पर उन्हें पहना भी तो विचित्र अनुभव से गुजरना पड़ा। एक बार तो ऐसी गांठ लग गई कि उसे खोलने के लिए मित्र की सहायता लेनी पड़ी।
दरअसल इसका कारण ये था कि मैं कभी स्काउट, गाइड या एन सी सी आदि के प्रशिक्षणों में नहीं रहा था, जबकि इन चीज़ों का प्रशिक्षण लड़कों को वहीं दिया जाता था। मुझे ढंग से बांधना नहीं आता था। मैंने बांधने वाले जूते भी कभी नहीं पहने थे।
हम लोग नवीं कक्षा तक निक्कर या हाफ पैंट ही पहनते रहे थे,इस वर्ष दसवीं में आने के बाद ही कभी कभी फुल पैंट पहनने का मौक़ा आया था। मैं क्योंकि अंडरवियर नहीं पहनता था,कभी कभी कोई अध्यापक या मित्र मुझे टोक देते थे कि मैं अब हाफ नहीं, बल्कि फुल पैंट पहनकर ही रहा करूं। कभी कभी बड़ी शर्मिंदगी उठानी पड़ती थी,जब शिक्षक ऐसा कहते।
छात्रों की तो मैं परवाह नहीं करता था। बल्कि दोस्तों से तो कह देता कि यदि तुमसे नहीं देखा जा रहा तो आंखें बंद कर लो।
मेरा एक मित्र इस बात के लिए मेरे पीछे अक्सर पड़ा रहता और बार बार कहता, आज भी चड्डी नहीं पहनी है न?
एक दिन मैंने उससे कहा,इससे क्या फ़र्क पड़ता है, मैं हाफ पैंट पहनकर रहूं या फुल?
वो बोला कुछ नहीं, गाना गाने लगा- एक झलक जो पाता है, राही वहीं रुक जाता है ...
मैंने उसे चिढ़ाने के लिए कहा - कल मैं हाफ पैंट या फुल पैंट नहीं, बल्कि केवल चड्डी ही पहनकर आऊंगा।
वो मुंह फेर कर ज़ोर से गा ही रहा था - हम इंतजार करेंगे तेरा क़यामत तक...तभी सामने से शिक्षक आ गए। वो मुंह छिपाता हुआ भागा।
बैंगलोर यात्रा में हमारे साथ जो टीचर जा रहे थे वे युवा ही थे,शायद मुझसे पांच छह साल ही बड़े होंगे। मेरे पास इतिहास विषय नहीं था, और मैं वैसे भी विज्ञान का छात्र था,इसलिए उनसे मेरा ज़्यादा परिचय कभी हुआ नहीं था। वो स्कूल में दोपहर की शिफ्ट में आते थे जबकि मैं सुबह की शिफ्ट का विद्यार्थी था।
उनकी इसी साल शादी भी हुई थी।
उन्हें शायद स्कूल में बता दिया गया था कि मैं तीन साल से अखिल भारतीय स्पर्धा में दिल्ली जाता रहा हूं, इसलिए उन्होंने अघोषित रूप से मुझे ही हमारे दल का मुखिया बना दिया था। यद्यपि हम पांच छात्रों में एक मुझसे बड़ा, और एक बराबर का था। शेष दो छोटी क्लास के थे।
लेकिन सभी अलग - अलग क्लास अथवा सेक्शंस के होने से आपस में ज़्यादा घुले मिले नहीं थे।
स्टेशन पर सभी के साथ कोई न कोई "सीऑफ" करने के लिए आया था, किसी के पिता, तो किसी का भाई। मेरे साथ मेरे दो तीन दोस्त आए थे।
बैंगलोर की ट्रेन में सभी को अभिवादन का हाथ हिलाते हुए हम लोग शाम पांच बजे रवाना हुए। हम पांच छात्र और शिक्षक एक साथ एक ही कम्पार्टमेन्ट में थे।
गाड़ी रवाना होने के चंद घंटों के भीतर ही हम सब आपस में घुल मिल गए। वैसे भी अब लगभग एक महीने तक हमें साथ ही रहना था।
कुछ देर बाद जब अजमेर स्टेशन आया तो गाड़ी रुकी और हम लोगों के सामने एक रहस्य उजागर हुआ।
हमारे अध्यापक जी,जिनकी अभी- अभी शादी हुई थी, अपनी नई नवेली पत्नी को भी इस यात्रा में अपने साथ ले जा रहे थे। उन्होंने ये सावधानी बरती थी कि पत्नी को जयपुर से ही साथ न लेकर अजमेर भेज दिया था, ताकि वो वहां से हमारे साथ हो सकें। उन्हें अंदेशा था कि जयपुर में स्टेशन पर स्कूल के किसी अधिकारी या शिक्षक के आ जाने से कहीं स्कूल में ये बात फ़ैल न जाए कि नवयुवक टीचर ड्यूटी पर अपने साथ अपनी पत्नी को भी लेकर गए हैं।
उनकी पत्नी अपने भाई, अर्थात हमारे सर के साले साहब के साथ अजमेर स्टेशन पर सजधज कर हमारे दल में शामिल हुईं।
हम सबने गर्म जोशी से उनका स्वागत किया, अध्यापक जी किसी किशोर की तरह शरमाते - सकुचाते हुए हम सब से आंखें चुराते रहे।
ट्रेन रवाना हुई और उनका साला,जो हम लोगों की आयु का ही था, मुझसे हाथ मिला कर नीचे उतर गया।
अब साइड वाली बर्थ पर वे दोनों पति पत्नी और शेष बीच की सीटों पर हम सब थे।
सर के अपनी मैडम के साथ व्यस्त होते ही हम सब अब अपने को कुछ और आज़ाद व आनंदित महसूस कर रहे थे।
थोड़ी ही देर में भाभीजी (हमारी गुरूमां) ने हम लोगों को गर्म पकौड़े और अजमेर के मशहूर हलवे का नाश्ता कराया।
रात का खाना खाने तक हम लोग मिलजुल कर एक परिवार का रूप ले चुके थे। देर रात तक हम लोग अपनी अपनी सीट पर लेटे हुए भी बातों में लगे रहे। मैंने छात्रों को अपने दिल्ली वाले कार्यक्रम की भी पूरी जानकारी दी।
राष्ट्रीय एकता शिविर में हमें चार सप्ताह तक जो दिनचर्या बितानी थी, उसकी रूपरेखा विद्यालय में पहले भेजी गई थी। हमारे अध्यापक ने उसकी एक फोटोकॉपी मुझे भी दे दी थी। अतः मैं मित्रों को उसकी जानकारी देते हुए देर तक आयोजना में लगा रहा।
हमारी ये गाड़ी अहमदाबाद तक आती थी। वहां एक रात ठहरकर अगले दिन हमें बैंगलोर के लिए दूसरी गाड़ी पकड़नी थी।
सुबह पहुंचने के बाद अगले दिन अहमदाबाद शहर घूमने का कार्यक्रम था।
देर रात ढेर सारी उमंगों,ढेर सारे सपनों को अपनी अपनी आंखों में लेकर हम लोग सोए।
(8)
खचाखच भरी बस में कांकरिया लेक के पास हमारे साथ अनहोनी हो गई।
हमारे अध्यापक महोदय का पर्स किसी ने जेब से निकाल लिया। वे बुरी तरह हड़बड़ा गए और तत्काल हम सब को नीचे उतरने को कहा।
पर्स में ढेर सारे पैसे तो थे ही, हमारे ट्रेन टिकिट, स्टेशन पर क्लॉक रूम में रखे सामान की रसीदें भी थीं।
वे माथे पर हाथ रख कर सड़क के किनारे बैठ गए। जैसे तैसे हम सब की जेबें खंगाल कर जो कुछ इकट्ठा हुआ,उसे लेकर हम सब रेलवे स्टेशन आ गए।
किसी ने भी खाना तक न खाया।
हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल ये था कि क्लॉक रूम से हमारा सामान कैसे निकले। फ़िर समस्या ये थी कि रात को वो ट्रेन तो चली जाएगी, जिसमें हमारा रिज़र्वेशन है। दोबारा टिकिट लेना और एक माह तक घर से इतनी दूर गुज़ारा करना।
वो ज़माना क्रेडिट डेबिट कार्ड के बारे में जानता तक न था। वहां तो घर पर पोस्टकार्ड डाला जाता तो पंद्रह दिन बाद घर या स्कूल से मनी ऑर्डर आना था। अध्यापक जी का कहना था कि सामान किसी तरह मिल जाए तो लेकर वापस जयपुर चलें। हम उनकी बातों से मायूस हो गए।
लेकिन भाभीजी ने रहस्योद्घाटन किया कि सामान मिल जाएगा तो उनके सूटकेस में पर्याप्त पैसे हैं। हम लोग दोबारा टिकिट लेकर बैंगलोर जा सकते हैं। बाद में ज़रूरत होने पर वहां पैसे मंगवाने की व्यवस्था की जा सकती थी।
काफ़ी देर तक चिंता में बैठे रहने के बाद मैं अपने संग एक लड़के को लेकर क्लॉक रूम के काउंटर पर गया और सारी बात बताई।
वहां एक अधिकारी ने हमें सलाह दी कि यदि कोई स्थानीय व्यक्ति आपकी गारंटी देने के लिए आकर सहमत हो तो हम सामान दे देंगे।
हम अपने स्कूल से उनकी फोन पर बात करवाने की पेशकश करने लगे परन्तु हमारे शिक्षक नहीं चाहते थे कि बात स्कूल तक पहुंचे। एक तो उनकी नौकरी नई थी,दूसरे ज़िन्दगी में पहला ऐसा वाकया।
हम गारंटी का जुगाड़ देखने लगे।
उन अधिकारी ने ही हमें बताया कि स्टेशन के पास ही राजस्थानी बाज़ार है, वहां शायद आपका पहचानने वाला कोई व्यापारी मिल जाए।
अंधेरे में तीर चलाने के ख़्याल से ही हम उस बाज़ार में भटकने लगे। संयोग से एक मारवाड़ी भोजनालय के मालिक जयपुर में हमारे स्कूल को अच्छी तरह पहचानने वाले मिल गए।
क्लॉक रूम से अपने अपने सूटकेस उठाते हुए हम लोग ऐसा महसूस कर रहे थे मानो हमें कारूं का ख़ज़ाना मिल गया हो।
बेचैनी और मायूसी की रात स्टेशन पर काटने के बाद अगली सुबह हम फ़िर से बैंगलोर की ट्रेन में थे।
हमारा उल्लास धीरे धीरे लौटने लगा।
बैंगलोर में हमें एक नामी कॉलेज के हॉस्टल में ठहराया गया। कॉलेज में उन दिनों छुट्टियां थीं।
हम सभी को एक साथ मिला कर दस- दस छात्रों के समूह में बांटा गया। ये सभी छात्र अलग- अलग राज्यों के थे। इस तरह अपने साथियों से हम लोग केवल देर रात को ही मिल पाते थे जब हम सोने के लिए अपने कमरे में आते थे।
सोने के लिए एक कक्ष में पंद्रह छात्रों को रखा गया था। ज़मीन पर लाइन से सबके बिस्तर लगे रहते।
कुछ दिनों के बाद छात्रों में दोस्तियां हो गई थीं और वे सोने के लिए भी अपनी मित्रता के अनुसार जगह बदल- बदल कर रहने लगे थे।
ये देखना दिलचस्प था कि अलग- अलग राज्य से आए लड़के एक दूसरे के साथ अभिन्न मित्र की तरह रह रहे थे और खाना, पीना, खेलना, सोना एक साथ कर रहे थे।
सभी को कैंप के दौरान अपनी मातृभाषा के अलावा कोई एक भाषा और सीखना ज़रूरी था।
इसी तरह मेस में बारी- बारी से अलग- अलग राज्यों का खाना बनता था और जिस दिन जिस राज्य का भोजन बनता उस दिन वहां के छात्रों को मेस में रह कर भोजन बनवाने में सहायता करनी होती थी। ताकि वे अपने राज्य में प्रचलित डिश अपने मार्गदर्शन में बनवा सकें।
सभी के लिए किसी अन्य राज्य का कोई लोकगीत और डांस सीखना ज़रूरी था।
अलग अलग कक्षों में इन सभी गतिविधियों के लिए शिक्षक और विशेषज्ञ उपस्थित रहते थे, और हम लोगों को टाइम टेबल के अनुसार वांछित कक्षों में जाना होता था।
मैंने वहां पंजाबी भाषा सीखी। लिखने में तो हमें अपना नाम और थोड़ा परिचय ही सिखाया गया किन्तु बोलने का अभ्यास काफ़ी कराया गया। वहां सिखाने वाले अध्यापकों के अलावा उस राज्य से आए कुछ छात्र भी होते थे।
मैंने एक कन्नड़ गीत भी वहां सीखा।
इसके अतिरिक्त बुंदेलखंड का एक लोकनृत्य भी मैंने सीखा जिसे मध्यप्रदेश से आए दल ने सिखाया।
हमने भी राजस्थान का भोजन एक दिन बनाया।
अलग- अलग राज्यों का ये प्रयोगवादी भोजन हमें लंच में मिलता था,बाक़ी सुबह का नाश्ता और रात का खाना सबको एक साथ और एक सा मिलता था।
सुबह जल्दी उठ कर हमें परेड में जाना होता था। उसके बाद योगा क्लास होती थी।
दक्षिण में गर्म प्रदेश होने के कारण लोग जूते कम पहनते हैं और सैंडल या चप्पल का प्रयोग ज़्यादा होता है। इसलिए वहां परेड में जूते पहनने की बाध्यता नहीं थी। मेरे लिए वहां परेड में शामिल होना असुविधा जनक नहीं था। कुछ छात्र ज़रूर सफ़ेद जूते पहन कर आते थे।
वहां पर केवल लड़कों का कैंप था।हमें बताया गया था कि लड़कियों का राष्ट्रीय एकता शिविर अलग किसी अन्य शहर में आयोजित किया गया था।
योगा में कुछ लड़के अंतर्वस्त्र और बनियान में आते थे,क्योंकि बैंगलोर शहर का मौसम अच्छा होने पर भी गर्मी वहां थी।
आरंभ के कुछ दिनों तक हम सबको रात का खाना एक सा मिला पर कुछ ही दिनों में हमारी मेस को वेज और नॉनवेज में बांट कर अलग-अलग कर दिया गया।
सभी को एक बार अपनी चॉइस बताने के बाद अंत तक उसी मेस में रहना था। बदलने की अनुमति नहीं थी।
मैंने यद्यपि कभी निरामिष भोजन नहीं किया था,फ़िर भी वहां नॉनवेज मेस में नाम लिखवा दिया।
जीवन में पहली बार अंडा, मछली, मुर्गा, मीट (बकरा) या चाइनीज़ भोजन मैंने यहीं चखा।
दक्षिण भारत में इडली, डोसा, चावल आदि भी हमें काफ़ी दिनों मिलते थे।
दोपहर के भोजन में बहुत विविधता होती थी।
फ़िर भी हमारे वेज मेस के छात्र इस बात से असंतुष्ट रहते थे कि उन्हें अच्छा भोजन नहीं मिलता था। शायद दक्षिण में अच्छी रोटी और चटपटी मसालेदार सब्जियां बनाने वाले कारीगर आसानी से नहीं मिलते थे।
मैंने कई ऐसे छात्रों को देखा जिन्होंने जीवन में पहली बार नॉनवेज खाना वहीं खाया।
हमें तीन चार दिन में एक बार बाज़ार भी ले जाया जाता था,ताकि हम अपनी ज़रूरत का सामान खरीद सकें। बिना नाड़े वाले अंडर वियर भी पहली बार मैंने वहीं खरीदे। उनमें बहुत हल्की इलास्टिक थी,जिससे मुझे असुविधा नहीं होती थी।
इस कारण मेरी पुरानी आदत से भी मुझे निजात मिली और मैं अंतर वस्त्र नियमित पहनने लगा।
इसी शिविर में मुझे अपने साथ के एक दो छात्रों से ये भी सुनने को मिला कि हॉस्टल के पीछे वाले फ्लैट्स में रहने वाले स्टाफ ने कुछ छात्रों को जीवन के कुछ नए अनुभव भी दिए।
रात को बिस्तर पर सोने के लिए लेटते ही मैंने अपने उस मित्र से पूरी बात विस्तार से बताने के लिए कहा। वह मुझसे एक क्लास नीचे का विद्यार्थी था,और एक वर्ष छोटा भी। वह पहले मुझे बताने में कुछ झिझका,किन्तु इस समय हम केवल दोनों ही वहां होने से उसका संकोच कम हुआ। हमारे कक्ष के बाक़ी लड़के धमा चौकड़ी मचाने के लिए दूसरे कमरों में गए हुए थे।
लड़के ने बताया कि हॉस्टल के एक पादरी शिक्षक ने उसे शाम को खेल के बाद अपने कमरे में बुला कर उसका "किस" लिया।
इतना ही नहीं, बल्कि यह भी कहा है कि कल रात को आओ तो अपने किसी मित्र को भी लाना साथ में !
- क्यों? तूने पूछा नहीं? मैं बोला।
- वो कह रहे थे कि रात देर हो जाने से तुम अकेले वापस लौटने में डरते हो, इसलिए ! लड़का बोला।
अगले दिन शाम को मैं भी उसके साथ "फादर" के कमरे में चला गया।
पादरी शिक्षक बहुत खुश हुए। उन्होंने हमें कमरे में जूस पीने को दिया और स्कूल की कुछ एक्टिविटीज के फोटोज़ भी दिखाए। साथ ही बताया कि वे स्वयं बहुत अच्छे चित्रकार भी हैं। उनके बनाए कुछ आकर्षक चित्र भी हमने देखे।
उनसे आत्मीयता से बात करना मुझे अच्छा लगा। मेरे मित्र की झिझक भी काफ़ी खुली। मुझे वो शिक्षक काफ़ी अच्छे स्वभाव के लगे।
हम बाद में भी कभी - कभी उनसे मिलने जाते रहे।
मुझे ये जानने में दिलचस्पी थी कि फादर का बिना किसी के साथ, अकेले रहना और विवाह भी न करना,क्या कोई संन्यास है, दुर्भाग्य है, कोई कुटैव या लत है या फ़िर कोरी मजबूरी।
अपनी इस जिज्ञासा के चलते फादर से हमारी बातचीत और भी आत्मीयता से होने लगी और एक दिन वे हमें अपने कमरे से थोड़ी दूर बनी फिजिक्स लैबोरेट्री दिखाने ले गए।
वे फिजिक्स के ही टीचर थे। मुझे ये जानकर बहुत अच्छा लगा और मैं बहुत चाव से उनके साथ चला गया। मित्र भी साथ में था।
लैब में वो हमें माइक्रोस्कोप में कुछ स्लाइड्स दिखाने लगे। वे समझाने के अंदाज़ में मेरे करीब आकर अपना हाथ मेरी कमर के गिर्द लपेट कर मुझे कुछ समझाने लगे। कुछ ही देर में उनका हाथ मेरी जांघों से होता हुआ मेरे अंदरूनी कपड़ों के भीतर था।
मुझे अजीब सा तो लगा पर कुछ अच्छा सा भी लगा।
जब हम दोनों अपने कमरे में वापस लौट रहे थे तब मित्र ने मुझे बताया कि आज फादर ने उसके साथ क्या किया! जब मैंने उसे बताया कि ठीक उसका वाला अनुभव मुझे भी हुआ, तो वो काफ़ी आश्वस्त हुआ।
रात को सोते समय मैं सोच रहा था कि क्या शिक्षक शिक्षक में इतना अंतर होता है? एक शिक्षक अपने उत्सर्जन अंग को हाथ लगाने के बाद क्लास में साबुन से हाथ धोने की बात कहते हैं, तो दूसरे आराम से खुद वहां हाथ लगा देते हैं?
हम दो- तीन दिन तक फ़िर उनके पास नहीं गए।
किन्तु एक दिन सुबह नॉन वेज मेस में भारी खाना खा लेनेके कारण शाम को मेरा खाना खाने का मन नहीं हुआ,तो डिनर टाइम में मैं और मेरा वही मित्र सड़क पर घूमने के लिए टहलते हुए निकल गए। चलते चलते बातें करते हुए हम दोनों ही फादर के कमरे में पहुंच गए।
फादर बहुत ही खुश हुए। कुछ दिन तक हमारे नहीं आने से शायद उन्हें मन ही मन कोई अपराध बोध महसूस हुआ हो, क्योंकि आज हमें फ़िर वहां देख कर वे अत्यंत उत्साहित और उत्तेजित लग रहे थे।
उन्होंने हमें कॉफी पिलाई और हम दोनों से ही एक दूसरे के सामने काफ़ी प्रेम से पेश आए।
उनका हमेशा वीरान सुनसान रहने वाला कमरा उस शाम तिहरी उत्तेजना से भर गया।
वे देर रात को हमें बाहर काफ़ी दूर तक छोड़ने भी आए।
अगले सप्ताह हमारे कैंप में दो दिन का सांस्कृतिक उत्सव होने वाला था। इन्हीं दोनों दिन अखिल भारतीय प्रतियोगिताएं भी होनी थीं, जिनके लिए हम लोग चुन कर आए थे।
मेरे मित्र को ग़ज़ल गायन स्पर्धा में भाग लेना था और मुझे चित्र कला में।
अगले कुछ दिन हमारे कैंप में बहुत चहल - पहल के रहे।
प्रतियोगिता के दौरान गोपाल स्वरूप पाठक भी शिविर में आए जो उन दिनों कर्नाटक के राज्यपाल थे। पाठक जी बाद में देश के उपराष्ट्रपति भी बने।
अगले दिन सुबह- सुबह परेड में जाने से पहले मैं शौचालय में था, कि तभी शौचालय का दरवाज़ा ज़ोर ज़ोर से बजने लगा। मैंने सोचा कि किसी छात्र को जोर के प्रेशर से लैट्रिन आई होगी इसलिए वह दरवाज़ा खुलवा रहा है। मैंने भीतर से ही कहा- यार किसी दूसरी में चला जा,मुझे अभी देर लगेगी।
पर बाहर से मेरे एक मित्र ने जवाब दिया - आज के अख़बार में राज्यपाल के साथ तेरा फोटो आया है!
मैंने जल्दी से कपड़े पहने और दरवाज़ा खोल कर बाहर आया। सच में अकेले मेरा बड़ा फ़ोटो कार्यक्रम के मुख्य अतिथि का स्वागत करते हुए छपा था। मैंने शिविर के सभी छात्रों की ओर से उनका स्वागत उन्हें गुलदस्ता भेंट करते हुए किया था।
अगले दिन से ही शिविर में मेरी लोकप्रियता बढ़ गई।
इसी शिविर में एक बेहद मज़ेदार और अविश्वसनीय घटना और हुई।
एक दिन हम बहुत से छात्र एक बड़े प्रांगण में बैठे हुए किसी चर्चा में व्यस्त थे कि शिविर के एक अधिकारी वहां आए और उन्होंने घोषणा की, कि राजस्थान के किसी नगर से एक टेलीग्राम आया है जिसमें शहर का नाम काग़ज़ फट जाने से पढ़ने में नहीं आ रहा है। किन्तु तार का मजमून ये है कि "राजस्थान बोर्ड की सैकंडरी परीक्षा का परिणाम घोषित हो गया है, और प्रबोध फर्स्ट डिवीजन पास हुआ है।"
मैं उछल पड़ा, और एकदम खड़ा हो गया। पर मेरे आश्चर्य का पारावार न रहा जब मैंने देखा कि प्रांगण के दूसरे कौने से एक और लड़का खड़ा हो गया। सब शिक्षक और छात्र देखने लगे कि आखिर माजरा क्या है?
दरअसल राजस्थान के बीकानेर शहर से एक लड़का आया था, उसका नाम भी प्रबोध था, और वह भी दसवीं की परीक्षा देकर ही कैंप में आया था।
सब चकित थे। बीकानेर से आए शिक्षक ने तत्काल कहा- प्रबोध हमारे विद्यालय का अच्छा छात्र है, और ये हमेशा फर्स्ट क्लास ही आता रहा है, ये परिणाम इसका ही हो सकता है।
तुरंत हमारे सर भी बोल पड़े- प्रबोध की फर्स्ट डिवीजन आने की हमें पूरी आशा है,ये तेज़ छात्र है। ये तार जयपुर से आया हुआ भी हो सकता है।
हम दोनों के सरनेम अलग थे, पर टेलीग्राम में सरनेम का कोई ज़िक्र नहीं था।
दो तीन शिक्षक बारी- बारी से तार को हाथ में लेकर उलट- पलट कर देखने लगे। तार से शहर का नाम और भेजने वाले का नाम फट चुका था और पढ़ने में नहीं आ रहा था।
तभी एक शिक्षक बोल पड़े कि भेजने वाले के नाम में केवल एक पहला अक्षर "वी" जैसा दिखाई देता है।
मैं तत्काल बोला- मेरे बड़े भाई का नाम विनोद है, वे जयपुर में रहते हैं।
तुरंत बीकानेर वाला लड़का प्रबोध मेरे पास आया और हाथ मिला कर मुझे बधाई दी। उसके ऐसा करते ही बहुत से लड़के मेरे पास आकर मुझे बधाई देने लगे। कुछ शिक्षकों ने भी मुझे बधाई दी।
मैंने तार को हाथ में लेकर एक बार फ़िर से चैक किया कि तार भेजने वाले के नाम का पहला अक्षर "वी" ही है या नहीं!
उत्साह और उल्लास दो गुणा हो गया।
दिन भर घर और स्कूल की याद आती रही।
अभी हमारे यहां से लौटने में आठ- दस दिन बाक़ी थे। दूसरे दिन ही पता चला कि बीकानेर वाले प्रबोध की भी प्रथम श्रेणी ही आई थी।हम दोनों में प्रगाढ़ दोस्ती हो गई,और हम अक्सर साथ रहने लगे।
एक दिन हमारे कुछ मित्र शाम को कमरे में आए तो मैं और प्रबोध बैठे बातें कर रहे थे।
एक लड़का बोला - हम तुम दोनों को ही ढूंढ़ रहे थे।
मैंने कहा - क्यों?
वो बोला - हम तुम दोनों के फर्स्ट आने की पार्टी कर रहे हैं, तुम्हारे पास दो चॉइस हैं,निर्णय तुम्हें लेना है।
हम दोनों ही मन ही मन खुश होते हुए एक साथ बोल पड़े - क्या?
लड़का कुछ रहस्यमय स्वर में बोला - या तो पार्टी का खर्चा तुम दोनों दोगे, या फ़िर हम जो तय करेंगे वही खाना पीना पड़ेगा।
प्रबोध शायद कुछ समझ गया,तत्काल हड़बड़ाकर बोला - मैं नॉन वेज नहीं खाता, खाऊंगा भी नहीं।
उसकी घबराहट देख कर बाक़ी सब लड़के हंस पड़े।
तभी एक लड़के ने कहा- खाना तो सबको मेस में ही खाना है,हम तो बस थोड़ी सी बीयर लाए हैं।
ये सुनते ही हम दोनों ही उछल पड़े और एक साथ बोल पड़े- सवाल ही पैदा नहीं होता !
यद्यपि मैंने पहले जीवन में कभी भी बीयर या और कोई शराब नहीं पी थी, उस दिन मित्रों के कहने पर केवल एक घूंट पी कर उसका स्वाद चखा।
प्रबोध इसके लिए तैयार नहीं था, पर दोस्तों ने इस बात का वास्ता दिया कि हम लोग आगे जीवन में न जाने कभी फ़िर मिलेंगे भी या नहीं। फ़िर मुझे घूंट भरते देख कर उसने भी भारी कठिनाई से एक घूंट किसी तरह भरा। इसी के साथ उसे हल्की खांसी भी आई,पर लड़कों ने खुश होकर तालियां बजाईं और हम सब झुंड बना कर खाना खाने चल दिए।
अगले दिन हमें बताया गया कि परिसर के पिछवाड़े में एक स्विमिंग पूल है,जिसे आज से छात्रों की मांग पर खोल दिया गया है। ये कहा गया कि जो छात्र स्विमिंग के लिए जाना चाहें वे सुबह योगा क्लास वाले समय में वहां जा सकते हैं।
मैं भी अपने मित्र के साथ वहां चला गया। मैं तब तक तैरना नहीं जानता था,किन्तु गांव के तालाब में कभी - कभी नहाने और हाथ पैर मारने का मौक़ा ज़रूर मुझे मिला था।
इससे पहले मैं या तो चड्डी पहनता ही नहीं था या कपड़े की नाड़े वाली हाथ की सिली हुई चड्डी ही मैंने पहनी थी। यहां आने के बाद पहली बार इलास्टिक वाला अंडरवियर पहना था, जो "वी" शेप का और छोटा होने से मुझे कुछ संकोच सा हो रहा था।
पर एक दो दिन में ही मैं इसका अभ्यस्त हो गया।
कुछ उत्साही लड़के तो तुरंत बाज़ार जाकर स्विमिंग कॉस्ट्यूम भी ले आए थे। कुछ अच्छी तरह तैरना जानने वाले भी थे।
यहां मैंने ज़िंदगी में पहली बार दो तीन बातों पर भी गौर किया।
मैंने पहली बार ये अनुभव किया कि चेहरे और शरीर के सौंदर्य में कोई समानता नहीं होती। कुछ लड़के जो शक्ल से बहुत खूबसूरत लगते थे उनके शरीर दुबले- पतले या आनुपातिक रूप से बेडौल भी थे। इसके विपरीत कुछ लड़के ऐसे भी थे जिनका चेहरा सुन्दर न होते हुए भी शरीर गठीला,कसा हुआ और संतुलित लगता था।
यहां मुझे समझ में आया कि मेरे पुराने स्कूल के साथी लड़कियों के चेहरे की तुलना में शरीर की सुंदरता पर क्यों ध्यान देते थे !
मैंने ये भी देखा कि लंबाई या डीलडौल का संबंध हमारे गुप्तांग के आकार से नहीं होता। कई छोटे, दुबले- पतले लड़कों के निजी अंग लंबे और पुष्ट थे और कुछ लंबे बलिष्ठ व्यक्तित्व के मालिक लड़कों के पास निजी अंग इसकी तुलना में छोटे या पतले थे।
यही बात किशोरों के संकोच के बारे में भी थी। कुछ लड़के कपड़े बदलने में इतना झिझकते थे कि चेंज रूम में नम्बर आने के लिए कतार में लगते थे, वहीं कुछ लड़के निसंकोच बाहर ही स्विमिंग के कपड़े पहन भी लेते थे,और उतार कर बदल भी लेते।
पहली बार कुछ लड़कों को निर्वस्त्र देखने का अवसर भी वहां मिला। लड़के गुप्त स्थान पर उगने वाले बालों के लिए भी अलग नज़रिया रखते थे। कोई- कोई बालों को काट कर साफ़ रखते थे तो कुछ के बाल नैसर्गिक रूप से बढ़े हुए ही रहते थे।
एक बात पर मेरा ध्यान यहां और गया। किशोरों के बाल भी उनकी सुंदरता निर्धारित करते हैं।
सुन्दर बालों वाले लड़के पानी में भीगने के बाद अपने बालों के जम जाने के कारण अजीब से लगने लग जाते थे।
मुझे अपने पहले स्कूल की लड़की मंजरी का ख़्याल आया जो बात करते समय सुन्दर बालों वाले लड़कों के माथे पर हाथ लगाती रहती थी।
इस बात की पुष्टि भी हुई कि लड़कों का सीना चौड़ा होने से वे सुन्दर लगते हैं।
मंजरी कई बार लड़कों से बात करते समय उनकी शर्ट के बटन से भी खेलती रहती थी।
कुदरत को देखने के तौर तरीके भी उतने ही निराले थे जितनी खुद कुदरत !
(9)
एक महीने के इस शिविर ने अनुभवों में मुझे लगभग पांच साल आगे बढ़ा दिया।
बैंगलोर से आने के बाद लोगों को वहां के अनुभव सुनाते हुए दिन यूंही निकल जाता था। रिज़ल्ट की बधाइयां घर लौट कर भी बहुत सारी मिलीं। कुछ शिक्षक इस बात पर भी हैरान थे कि मैं पढ़ा कब,जो मुझे प्रथम श्रेणी मिली।
लेकिन मेरे पिता खुश होते हुए भी कुछ चिंतित से दिखाई दिए। वे एक रात मेरी मार्क्स शीट और पेंसिल हाथ में लेकर मेरे साथ बैठे और एक- एक विषय के अंकों की समीक्षा करने लगे।
मेरे पिछले विद्यालयों के टीचर्स को ये उम्मीद थी कि बोर्ड की परीक्षा में मेरा नाम राज्य की मेरिट लिस्ट में आयेगा। इस बात को लेकर उन्होंने अपनी उम्मीद मेरे पिता को भी बताई थी,किन्तु मेरिट में मेरा नाम न देख कर उन्हें थोड़ी निराशा ज़रूर हुई।
मैंने भी देखा और मेरे पिता ने भी, कि इस बार फ़िर अनिवार्य विषयों में तो मेरे अंक बहुत अच्छे हैं पर ऐच्छिक विषयों में अपेक्षाकृत उतने अधिक नहीं हैं। मेरे पिता ने ये भी कहा कि फिजिक्स स्कोरिंग विषय है और यदि मैं इसमें ध्यान दूं तो बहुत बेहतर कर सकता हूं।
हिंदी में तो मेरे अंक आशा से भी अधिक थे।
अब मैं ग्यारहवीं कक्षा में आ गया। उस समय ग्यारहवीं कक्षा ही स्कूल की आख़िरी क्लास होती थी।
प्रथम श्रेणी आने से मेरे उन अध्यापकों ने भी मुझे टोकना बंद कर दिया था जो मुझे अन्य एक्टिविटीज छोड़ कर मुख्य विषयों पर ध्यान देने के लिए कहा करते थे।
स्कूल में सत्र आरंभ होते ही मेरा ध्यान फ़िर इधर उधर जाने लगा। कुछ महीने ही बीते होंगे कि यूनाइटेड स्कूल्स ऑर्गनाइजेशन का नोटिफिकेशन जारी हुआ।
इस बार मुझे ये जान कर गहरी निराशा हुई कि उसमें उन छात्रों का भाग लेना प्रतिबंधित कर दिया गया जो लगातार तीन साल तक किसी स्पर्धा में भाग ले चुके हों।
किन्तु ये प्रावधान था कि वही छात्र यदि सेलेक्ट हो जाए तो किसी अन्य स्पर्धा में ज़रूर भाग ले सकता है।
मैंने रंग और ब्रश रख दिए। चित्रकला से मेरा मन बिल्कुल ही उचट गया।
अब संगीत, नृत्य, भाषण या निबंध लेखन शेष थे। मैंने इस बार चयन स्पर्धा में भाषण (डिबेट) में किस्मत आजमाने का फ़ैसला किया। लाइब्रेरी में बैठ कर विषय की तैयारी कर अपना भाषण स्वयं ही तैयार किया।
अपने एक दो अध्यापकों की थोड़ी मदद ज़रूर ली, पर अध्यापक कहते थे कि तुम फर्स्ट क्लास विद्यार्थी हो, क्यों अपने कैरियर से खिलवाड़ कर रहे हो? उनका मानना था कि ये सब तो उन छात्रों के काम हैं जिनका मन पढ़ने में नहीं लगता।
मैंने अपने मन को समझाया कि चयन नहीं हुआ तो सब छोड़ दूंगा,पर एक बार आजमा कर तो देखना ही है।
"संयुक्त राष्ट्र संघ" विषय पर हमें बोलना था और इसकी भूमिका के पक्ष या विपक्ष में डिबेट में अपनी बात रखनी थी।
जयपुर के कई स्कूलों के चुने हुए छात्र छात्राएं चयन के लिए आए थे। श्रोताओं से खचाखच भरा हॉल था।
पहला पुरस्कार मुझे मिला,साथ ही दिल्ली जाने का चौथा अवसर भी।
दिल्ली में मुझे आल इंडिया डिबेट में पहले ही वर्ष तीसरा पुरस्कार मिला। पहले स्थान पर बिरला बालिका विद्यापीठ, पिलानी और दूसरे स्थान पर होली एंजेल्स कॉन्वेंट स्कूल, मद्रास रहा। तीसरा स्थान संयुक्त रूप से दो स्कूलों को मिला था जिनमें एक हमारा भी था। व्यक्तिगत तीसरा पुरस्कार मुझे मिला।
स्कूल में लौट कर फ़िर से वाहवाही हुई। विद्यालय की तारीफ भी हुई।
लेकिन इस छोटी सी सफ़लता ने कई रास्ते और खोल दिए। विद्यालय में यदि कोई डिबेट या भाषण स्पर्धा का नोटिस आता तो उसकी जानकारी संबंधित टीचर मुझे दे देते और फ़िर या तो मैं खुद इसमें भाग लेने की तैयारी करता,या फ़िर छोटी कक्षाओं के जो छात्र इसमें भाग लेते, विषय वस्तु तैयार कराने में मैं उनकी सहायता करता।
एक दिन तो ऐसा भी आया कि एक ही टीम के दोनों लड़कों को पक्ष में भी मैंने ही भाषण तैयार करवाया और विपक्ष में भी।
अपने ही तर्कों को कैसे काटा जाता है,ये भी मेरे खुले विचारों ने मुझे सिखा दिया।
जब भी मुझे अपनी खुद की पढ़ाई का ध्यान आता,हमेशा मैं फिजिक्स की तैयारी की ही बात सोचता। जैसे जैसे क्लास आगे बढ़ रही थी,मुझे फिजिक्स में गणित की मात्रा भी बढ़ती दिखाई दे रही थी, इसलिए मैं और विषयों पर ध्यान न देकर फिजिक्स के बारे में ही सोचता।
विद्यालय में छात्रसंघ भी दो भागों में बंटा हुआ था। एक विज्ञान परिषद का अध्यक्ष होता था और दूसरा प्रधानमंत्री पद होता था।
मेरे मित्रों ने अध्यक्ष पद के लिए मेरा नाम प्रस्तावित कर दिया। साइंस के टीचर्स ने इसे बिल्कुल पसंद नहीं किया और मुझे आगाह किया कि यदि तुम्हारे जैसे लड़के भी राजनीति में पड़ने लगेंगे तो जीवन में कुछ नहीं कर सकेंगे।
उनका कहना ये था कि ये तो उन लड़कों का काम है जिनका लिखने पढ़ने से कोई लेना देना न हो।
पर मेरे मित्र कहते थे कि मुझे कुछ नहीं करना पड़ेगा, मेरी विद्यालय में लोकप्रियता ऐसी है कि मैं बिना कुछ किए भी जीत जाऊंगा। कई बार स्कूल की प्रार्थना सभा में किसी न किसी कारण मेरा नाम बुलाया ही जाता था।
इस पद के लिए कुल छह लड़कों ने नामांकन दाखिल किया। एक लड़का तो खुद मेरे ही सेक्शन से था।
उसके पिता का शहर में प्रिंटिंग का बिज़नस था। उसने पोस्टर, कार्ड, स्टिकर्स, पेम्प्लेट्स आदि का अंबार लगा दिया।
मेरे मित्रों ने मेरे लिए हाथ के बने कुछ पोस्टर्स ही लगाए। उनमें से भी कुछ में तो मुझ से ही चित्रकारी करवाई। मेरे कुछ दोस्त सुबह शाम स्कूल के आसपास की कॉलोनियों में घर घर घूमे। कुछ उम्मीदवार स्कूटर मोटरसाइकल पर घूमते, पर मेरे मित्र पैदल ही प्रचार करते।
चुनाव से पहले सभी उम्मीदवारों को एक दिन प्रार्थना सभा में बोलने का मौक़ा भी दिया गया।
चुनाव में खड़े होने वाले लड़के तरह तरह के प्रस्ताव रख रहे थे। कोई कह रहा था कि अभी कैंटीन स्कूल परिसर के बाहर है, जीत गया तो वो उसे स्कूल के अंदर ले आयेगा। कोई कहता था परीक्षा की तैयारी की छुट्टी पंद्रह दिन की जगह एक महीने की करवा देगा। लड़के ऐसी बातों पर तालियां बजा देते थे। मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा, लेकिन ये ज़रूर कहा कि हमारा स्कूल आकार में राज्य का सबसे बड़ा विद्यालय कहलाता है, हम सब मिल कर इसे श्रेष्ठता में सबसे बड़ा बनाने की कोशिश करें।
मैं जानता था कि लड़कों ने किसी की बात ध्यान से नहीं सुनी है, वो तो हम सब के नाम और चेहरे देख कर वोट डालेंगे।
मैं चुनाव जीत गया।
इस जीत पर केवल बायोलॉजी के शिक्षक मित्तल साहब ने मुझे बधाई दी। हिंदी वाले भी बेहद आनंदित हुए। अंग्रेज़ी वाले कुछ शंकित से दिखे। पर फिजिक्स और केमिस्ट्री वाले अध्यापकों ने तो मुझे ऐसी निगाहों से देखा, मानो मन ही मन बोल रहे हों - बंटाढार !
इस जीत के बाद स्कूल में मेरी गतिविधियां और बढ़ गईं।
जब खेल प्रतियोगिता होती तो मेरी क्लास में मेरा जाना कई कई दिन तक नहीं हो पाता।
मुझे ये बहुत अच्छा लगता था कि मैं किसी खेल का भी अच्छा खिलाड़ी न होते हुए भी अपने स्कूल की टीमों के कप्तानों से चर्चा करता और वे मेरी बात मानते थे।
अपनी इस भूमिका में मैं कई खिलाड़ी लड़कों के निकट संपर्क में आया। जब मैं उन्हें सफ़ेद कपड़ों और सफ़ेद जूतों में देखता तो मुझे वे बड़े प्यारे और आकर्षक लगते।
फ़िर मैं सोचता कि मैं जूते क्यों नहीं पहन पाता। मुझे क्या होता है? असुविधा सी क्यों होती है? क्या बुरा लगता है? घृणा किस बात से होती है?
ऐसे में स्वस्थ खिलाड़ी लड़के मुझे और भी आकर्षक लगते। पर मन ही मन मैं उनसे क्षमा मांगता कि मैं उनके पैरों में पहने जूते नहीं स्वीकार कर पा रहा हूं।
ठीक ऐसा ही मुझे हाथ की कलाई में बंधे धागे के साथ भी होता था। यहां तक कि राखी के त्यौहार पर बहनों द्वारा बांधे गए धागे भी मैं तुरंत ही खोल दिया करता था।
यही पूजा पाठ के दौरान पंडितों द्वारा कलाई पर बांधे गए धागों के साथ भी होता था। मैं या तो बंधवाता ही नहीं था,या किसी न किसी बहाने से तुरंत खोल देता था।
हाथ में राखी बांध कर या डोरा बांध कर खाना खाने में तो मुझे घृणा की हद तक असुविधा होती थी। और यदि मेरे साथ या पास बैठा व्यक्ति हाथ पर धागा लपेटे है तो भी मुझे असुविधा होती थी।
कुछ लोग धागे इस तरह बांधे रखते थे कि उनके डोरे लंबे लंबे लटके रहते थे।
यदि ये लंबे लटके धागे खाते समय दाल, सब्ज़ी, खीर, रायते आदि में जाते थे तो ऐसे व्यक्ति के साथ बैठ कर खाना खाने में मुझे बहुत परेशानी होती थी।
कभी कभी तो ऐसा दृश्य देख कर उबकाई आने लगती थी।
इसी कारण मेरी आदत समूह की जगह अकेले बैठ कर खाना खाने की रही।
यदि किसी त्यौहार या पूजा में मेरे हाथ पर भी धागा बंधा हो तो मेरी कोशिश ये रहती थी कि उसकी गांठ इस तरह टाइट बंधी हो कि धागे का सिरा लटके नहीं।
जो लोग हाथ पर बंधे धागे को गन्दा या बहुत पुराना होने पर भी नहीं बदलते थे,वे भी मेरे प्रिय कभी नहीं बन पाते थे।
बचपन में एक लड़की की मित्रता में मैं जब गप्पें मारना सीख गया तो एक बार उसके पूछने पर उसे मैंने बताया कि पिछले जन्म में मैं तोता था। तब मेरी मृत्यु एक डोरी से गला घुट जाने के कारण ही हुई थी, इसलिए मैं डोरी से डरता हूं।
ये बात मेरे पिता ने भी सुन ली तो वे तुरंत मुझसे पूछने लगे कि ये बात मुझे किसने बताई।
मैं शरमा कर भाग गया क्योंकि मैं झूठ बोल रहा था। उसी लड़की की तरह,जो मेरे साथ पढ़ती थी और झूठ बोलती थी।
वैसे बचपन में मैं तोते का चित्र बहुत सुंदर बनाता था इसलिए उस लड़की ने और मेरे पिता ने भी एक बार मेरे झूठ पर गंभीरता से ध्यान ज़रूर दिया।
कभी कभी मुझे लगता था कि वो छोटी लड़की मुझे खुद को बिना कपड़ों के नंगी दिखाना चाहती है। क्योंकि मैं जब उसके घर खेलने जाता था तो वो जल्दी से अपने आंगन में फ्रॉक उठा कर पेशाब करने बैठ जाती थी, और ऐसे में हमेशा अपनी कोई न कोई चीज़, जैसे कलर बॉक्स, रुमाल या पेन आदि मुझे पकड़ा देती ताकि मैं वहीं खड़ा रहूं, जाऊं नहीं।
उसी ने झूठ बोल कर मुझे जीवन में पहली बार डांट पड़वाई थी।
विद्यालय के वार्षिक उत्सव में भी मेरा सहभाग बढ़ चढ़ कर रहा।जब सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी लड़के करते तो मैं भी लंबे समय तक उनके साथ रहा करता।
इस साल के टूर्नामेंट्स में भी मैंने कई गतिविधियों में भाग लिया और मुझे बहुत सारे पुरस्कार मिले।
डिबेट तैयार करने के दौरान मैं जो आलेख लिखता, उन पर भी निबंध के रूप में मैंने कुछ पुरस्कार पाए। एक प्रतियोगिता में मुझे राज्य स्तरीय स्पर्धा में प्रथम पुरस्कार मिला। मेरी भाषा पर अच्छी पकड़ बनती चली गई।
ये सब किसी दिए की बाती के बुझने से पहले झिलमिलाने जैसा सिद्ध हुआ।
ग्यारहवीं बोर्ड की परीक्षा में मेरी केमिस्ट्री विषय में सप्लीमेंट्री आ गई।
मेरे कुल अंक जैसे तैसे प्रथम श्रेणी के तो बने,किन्तु मैं क्लीयर पास नहीं हो सका।
गनीमत ये थी कि परीक्षा का परिणाम आने तक मैं स्कूल छोड़ चुका था,इसलिए मुझे दोस्तों, अध्यापकों, साथी छात्रों के वो हैरत भरे चेहरे नहीं देखने पड़े जो उन्होंने मेरे पास न हो पाने पर बनाए होंगे।
उन अध्यापकों से भी मैं फ़िर कभी नहीं मिला जिन्होंने मुझे पढ़ाई में ध्यान देने के लिए बार- बार आगाह किया था।
लेकिन इस अप्रत्याशित परिणाम से भी मेरा मनोबल टूटा नहीं, क्योंकि केवल एक रसायन शास्त्र विषय को छोड़ कर मेरे अंक बाक़ी विषयों में अच्छे ही थे।
यदि ये माना जाय कि स्कूल की दूसरी गतिविधियों में शामिल होने के कारण मेरा परिणाम खराब हुआ तो प्रश्न ये था कि बाक़ी विषयों में मेरे अंक अच्छे क्यों अाए।
मेरे पिता बहुत दूरदर्शी और संवेदन शील थे, उन्होंने एक ओर तो मुझे सांत्वना दी कि मैं चिंता न करूं, दूसरी ओर मन ही मन ये भी भांप लिया कि मेरा रुझान कला विषयों की ओर है।
उन्होंने मुझे कहा कि मैं अगस्त माह में होने वाली पुनः परीक्षा की तैयारी करूं।
वे स्वयं मुझे बताए बिना मेरे प्रधानाचार्य जी से मिले।
फ़िर वो दोनों बोर्ड के उच्चाधिकारियों से मिले और मेरे परीक्षा परिणाम से असंतुष्ट होकर मेरी कॉपी की दोबारा जांच कराई।
साल बीतने की ख़ुशी, नया सत्र शुरू होने की खुशी, कॉलेज में जाने की ख़ुशी, सावन के मौसम में नया परिसर और नए मित्र खोजने की ख़ुशी...सबकी बलि चढ़ गई,और मुझे दिन रात केमिस्ट्री रटनी पड़ी।
मेरे पुराने अध्यापक के पास पढ़ने जाते समय उनसे सीख मिली कि मुझे इतनी सी बात से विचलित नहीं होना चाहिए और उसी लक्ष्य की ओर देखते हुए आगे बढ़ना चाहिए जो मैंने अपने लिए निर्धारित किया था।
गर्मी की छुट्टी में मैं अपने ताऊजी के परिवार से मिलने भाई बहनों के साथ देहरादून गया। उससे पहले कुछ दिन मैं, मेरा छोटा भाई और मेरी बड़ी बहन दिल्ली भी रहे।
दिल्ली में मेरी एक दूर के रिश्ते की बहन रहती थीं। उन्हें मेरा ग्यारहवीं कक्षा का रिज़ल्ट सुन कर कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्हें केवल इतना पता था कि मैं बहुत सुंदर चित्र बनाया करता हूं। उन्होंने अपने पेटीकोट के कपड़े पर कशीदाकारी करने के लिए मुझसे कुछ डिज़ाइन बनवाए।
मुझे महसूस होता रहा कि परीक्षा परिणामों से सबको फर्क नहीं पड़ता। मैंने भी अपने मन से इस बोझ को उतार दिया।
दिल्ली की भीड़ भरी बस में एक बार हम सब भाई बहन भटक कर बिछुड़ गए।
हुआ ये कि मेरे रिश्ते के एक भाई हम लोगों को अपने घर ले जाने के लिए आए थे। जब हम लोग जा रहे थे, एक भीड़ भरी बस में चढ़ने की कोशिश में एक भाई और बहन तो चढ़ गए पर मैं और एक भाई नीचे ही रह गए।
बाद में हमने ऑटो रिक्शा से बस का पीछा किया और आगे जाकर अगले स्टॉप पर उतरे उन लोगों से मिल गए।
मुझे लगा कि ज़िन्दगी ऐसी ही है।
इसकी चाल पर विस्मित होने का कोई लाभ नहीं है।
देहरादून में एक यादगार अनुभव हुआ। एक दिन मैं और मेरी चचेरी बहन घर के पास के बाज़ार में पैदल ही जा रहे थे कि हल्की बारिश शुरू हो गई। पानी से बचने के लिए हम एक दुकान के छज्जे के नीचे खड़े हो गए।
वहीं मेरी नजर पड़ी एक काग़ज़ पर, जिस पर किसी पज़ल का कोई चित्र सा बना हुआ था।
उठा कर देखा तो वो ब्रुक बॉन्ड चाय की एक प्रतियोगिता का फार्म था, जिसमें ऊपर कुछ सिर तथा नीचे कुछ धड़ बने हुए थे। वेशभूषा के आधार पर सही सिर को सही धड़ से मिलाना था। साथ ही ब्रुक बॉन्ड चाय के बारे में एक स्लोगन लिखना था।
मैंने फार्म उठा लिया और बारिश थमने के बाद हम लोग घर आ गए।
इसे पूरे मनोयोग के साथ भर कर मैंने भेज दिया।
मेरे बड़े भाई ने टिप्पणी की,कि रिज़ल्ट बिगड़ गया है परन्तु अभी तक इन चीज़ों की लत नहीं छूटी।
मैंने भाई की टिप्पणी का बुरा नहीं माना क्योंकि उसे बहुत सालों के बाद मुझे नीचा दिखाने का मौक़ा मिला था।
छुट्टियों में खूब घूमे हम सब।
लौट कर मैंने केमिस्ट्री की पूरक परीक्षा दी।
अब मैंने बी एस सी प्रथम वर्ष में एक नामी और प्रतिष्ठित कॉलेज में एडमिशन ले लिया।
ये एडमिशन अस्थाई था और ये मेरा परीक्षा परिणाम आने के बाद ही स्थाई होने वाला था। इस जोखिम को सिर पर लाद कर डेढ़ महीना निकाला।
परिणाम आया और मेरा प्रवेश पास हो जाने से स्थाई हो गया।
ये एक मायूसी भरा अकर्मण्यता का साल था, जिसमें न कोई रोचक गतिविधि थी और न ही कोई बड़ा लक्ष्य।
केवल पास हो जाने के बाद फ़िर प्री मेडिकल परीक्षा में बैठना था।
पिछले कुछ सालों से मेरा मित्र रहा एक लड़का भी इसी कॉलेज में था।
उसके माता पिता नहीं थे। वो अपने रिश्तेदारों के परिवार में रहता था।
मैं इन दिनों उसके साथ कुछ ज़्यादा रहने लगा।
मुझे उससे केवल इसीलिए सहानुभूति नहीं थी कि उसके माता पिता नहीं हैं। बल्कि वो मुझे अच्छा लगता था।
वो मुझसे कुछ बड़ा था। बहुत सज संवर कर रहता था। जहां रहता था उस घर में साथ रहते हुए भी उसे अलग कमरा मिला हुआ था। कमरे की स्थिति भी ऐसी थी कि उसमें बाहर से प्रवेश था। वो कभी अाए,कभी जाए,किसी को कोई व्यवधान पैदा नहीं होता था। मेरा काफ़ी समय उसके साथ कटने लगा।
उसके साथ रह कर मुझे लगता था कि माता पिता के मर जाने से कहीं कम दुःख दाई है रसायन शास्त्र में सप्लीमेंट्री आना।
हम बहुत करीब आ गए। बहुत करीब। काफ़ी क़रीब !
मुझे लगता था कि जैसे मक्खी आकर कभी बदन पर बैठती है, उड़ाने पर उड़ जाती है,कभी ढीठ होकर बार बार आती है तो कभी जम कर बैठ जाती है, ठीक वैसे ही इंसान, इंसान की नज़र, इंसान की सोच भी कभी कभी वैसा ही व्यवहार करती है। मक्खी सा।
मुझे बचपन और किशोरावस्था के ऐसे कई मौक़े याद थे जब मुझे ये अनुभव हुए।
मैं नहीं जानता था कि ये वात्सल्य है, प्यार है,अभिसार है या आक्रमण है। मैं इन्हें जिज्ञासा से देखता, सहता और अनुभव करता था। अब यदि किसी मक्खी को आप सह लें तो वो भला आपको छोड़ेगी? इस कारण कभी कभी असुविधा भी होती थी,और झूठ नहीं बोलूंगा,मज़े भी आ जाते थे।
शिशु अवस्था में तो बच्चों के गाल खींचे ही जाते हैं,चुम्बन भी लिए जाते हैं, सार्वजनिक मौकों पर भी आत्मीयता से प्रियजन परिजन ऐसा करते ही हैं, पर मैं केवल उन अवसरों की बात करूंगा जब ये मक्खियां खुले में सबके सामने नहीं, बल्कि अंधेरे में, अकेले में बैठी।
मैं चौथी क्लास पास करके पांचवीं में आया तब मैंने एक राज्य स्तरीय स्कॉलर शिप की परीक्षा दी। इस परीक्षा का सेंटर किसी दूसरे शहर में आया था।
मेरे पिता के एक मित्र मुझे ये परीक्षा दिलवाने के लिए उस कसबे नुमा छोटे शहर में ले गए। परीक्षा के बाद जब हम वापस लौट रहे थे,तब वे मुझे एक वीरान सी सड़क के किनारे एक पत्थर की बेंच पर बैठा कर बस के बारे में पता करने के लिए और टिकट लेने चले गए। वहां कोई वाहन नहीं था, इसलिए बैग उठा कर मुझे लंबा न चलना पड़े, ये सोच कर वे मुझे वहां बैठा गए।
बैंच के पास ही एक कुआ और उससे सटा हुआ हैंडपंप था। कुछ ही देर में एक युवक वहां आया और कपड़े उतार कर पंप के नीचे नहाने लगा।
वह नहाते समय बार- बार मुझे देखता और मल- मल कर बदन पर साबुन लगाता जाता। उसका बहुत पतले सफ़ेद कपड़े का अंतरवस्त्र भीग जाने के बाद पूरी तरह पारदर्शी हो गया था। मुझे अपनी ओर देखते हुए पाकर वह कुछ उत्तेजित हो गया और पेट पर से हाथ भीतर डाल कर ज़ोर - ज़ोर से साबुन लगाता रहा।
मैं सोचता रहा कि उसका शरीर कितना मैला है जो वह इतना रगड़ रगड़ कर साबुन लगाए ही जा रहा है।
उसने इतनी बार साबुन को रगड़ा कि मैं अगर शुरू से गिनता तो शायद मुझे पूरी सौ तक गिनती का अभ्यास हो जाता।
नहाकर कपड़े बदलता हुआ वह दोबारा अंडरवियर पहनते समय मानो मुझे दिखा रहा हो, कि देखो मेरा तन कितना साफ़ हो गया। वहां के काले बाल तक चमका लिए थे उसने।
थोड़ी ही देर में टिकट लेकर अंकल आ गए और हम चले गए।
मेरी दूर के रिश्ते की एक आंटी छुट्टियों में मुझे अपने साथ ले गईं।गर्मियों के दिन थे। सब लोग छत पर सोते थे।
देर रात इतनी ठंडी हवा चलती कि चादर ओढ़नी पड़ती।
आंटी की बेटी मुझसे तीन- चार साल बड़ी थी। रात को जब सोने लगे तो वो मेरे साथ फिल्मी गीतों की अंत्याक्षरी खेलने के लिए मेरे ही बिस्तर पर आ गई।
हम बहुत देर तक अंत्याक्षरी खेलते रहे। न मैं हारा,न वो हारी। सब लोग गहरी नींद सो चुके थे।
वह उठ कर अपने बिस्तर पर जाने में आलस कर गई। बोली- अब यहीं सो जाती हूं। मैं कुछ न बोला।
मैं सो गया। रात को जैसे ही सर्दी बढ़ी, मेरी आंख खुल गई,पर मैं आंखें बंद किए वैसे ही लेटा रहा।
थोड़ी ही देर में उसने उठ कर चादर खोली और मेरे ऊपर फ़ैला दी। मुझे आराम आ गया।
मैं सोचने लगा कि वो अब या तो अपने बिस्तर पर चली जाएगी,या वहां से अपनी चादर उठा कर लाएगी।
मैं कुछ देर आहट का इंतजार करता रहा। मैंने सोचा शायद उसे सर्दी नहीं लग रही होगी। वैसे ठंडी हवा तो थी।
किन्तु चंद मिनट ही बीते होंगे, वो मेरी ही चादर को खींच कर उसमें आ गई।
मैं एकदम से सकपका कर दूसरी ओर मुंह करके लेटा रहा।
देर काफ़ी हो चुकी थी इसलिए नींद तो आ ही रही थी।
काफ़ी देर तक एक ही करवट से सोते- सोते जब बेचैनी सी हुई तो मैंने करवट बदली। वह मेरी तरफ़ पीठ किए आराम से सो रही थी। शायद उसे नींद आ गई हो।
वो पास के ही एक विद्यालय में नवीं कक्षा की छात्रा थी। पर छुट्टियां हो जाने के बाद स्कूल की यूनिफॉर्म की चिंता किसे होती है। नए सत्र में तो नई ड्रेस मिलने वाली होती ही है।
वो अपनी स्कूल यूनिफॉर्म की चैक की स्कर्ट पहने ही सो रही थी।
थोड़ी देर में जब उसने करवट बदली तो मेरा मुंह उसके सीने के करीब हो गया।
बल्कि उसके कुछ बाल मेरे मुंह पर आने लगे।
मैं ज़रा नीचे की ओर खिसक गया।
मैं ज़रा कच्ची नींद में था, पर वो शायद गहरी नींद में थी।
मेरे नीचे खिसकने से उसने शायद नींद में ही नया संतुलन बनाना चाहा अतः वो और भी ऊपर की ओर खिसक गई।
अब मेरी आंख पूरी तरह खुल गई क्योंकि उसकी इस हरक़त से उसकी स्कर्ट का कुछ भाग पलट कर मेरे गालों पर आ गया।
मैं कुछ देर ऐसे ही सोता रहा।
ज़रा देर बाद अपने मुंह पर असुविधा महसूस करते हुए मैंने अपने हाथ से उसका वस्त्र अपने मुंह पर से हटाना चाहा तो अचानक मुझे ऐसा झटका सा लगा,मानो कोई अस्पृश्य वस्तु हाथ में आ गई हो।
उसका नाड़ा मेरे हाथ को छूता हुआ गाल पर आ लगा।
मैं उछल कर उठ बैठा।
मैंने चादर हटा कर पूरी उसके ऊपर ही फ़ैला दी,और खुद बिना ओढ़े दूसरी ओर करवट लेकर सो गया।
सुबह ही आंख खुली।
आंटी चाय का जग और प्याले एक ट्रे में संभाले सीढ़ियों से ऊपर आईं तो बोलीं- बिटिया,तेरी चादर तो वहां तह की हुई रखी रही और तू सुबह - सुबह ठंड में बेचारे प्रबोध से लिपटी पड़ी थी।
हम दोनों ही झेंप गए।
स्कूल में मेरा एक दोस्त मेरे घर के पास ही रहता था। गणतंत्र दिवस पर झंडारोहण के बाद बच्चों के लिए तरह तरह की रेस व स्पर्धाएं होती थीं जिनमें ईनाम भी दिए जाते थे।
एक दिन वो आया तो मुझसे बोला, मैं इस बार "बोरारेस" में भाग लेने वाला हूं, मैंने अपना नाम भी लिखा दिया है।
- वो कैसे होती है? मैंने पूछा। क्योंकि मैं जिस स्कूल से गया था वहां ये रेस नहीं होती थी।
दोस्त मुझसे बड़ा था और एक क्लास आगे भी था। बोला- चल, मैं बताता हूं, हम छत पर चलते हैं।
मैं उसके साथ चला गया। उसके घर की छत पर एक बोरी रखी हुई थी। उसने अपनी चप्पल उतारी और पायजामे के ऊपर से बोरे को पांवों में पहन लिया। फ़िर वो उछल उछल कर आगे बढ़ने लगा।
मुझे देख कर बड़ा मज़ा आया।
मैंने उससे कहा, मैं भी करके देखता हूं।
उसने बोरी मुझे दे दी। मैंने बोरी में पैर डाल कर चलने की कोशिश की,पर मेरा अभ्यास न होने से मैं ऐसा न कर सका।
वो बोला- आ, मैं तुझे सिखाता हूं। तू भी मेरे साथ आजा।
हम दोनों एक ही बोरी में खड़े हो गए। मैं आगे था,वो पीछे।
वो कहने लगा- तू कस कर बोरी को पकड़ लेना लपेट कर, मैं तुझे पकड़ लूंगा।
हमने ऐसा ही किया। मैंने कस कर बोरी को लपेट कर हाथ में पकड़ा और उसने पीछे पीठ पर से लिपट कर मुझे पकड़ लिया। वो बोला- चल, कूद कर आगे चल।
हम दोनों उछलने लगे। उसने मुझे इतना कस कर पकड़ रखा था, मानो हम एक ही शरीर हों। उसने दोनों हाथ मेरी कमर से लेकर पेट पर भींच रखे थे।
एक दो कदम चल कर ही हम दोनों गिर गए। वह ऐसे ही पीठ पर लेटा रहा- बोला,रुक थक गए।
मैंने उससे पूछा - तेरी जेब में गुल्ली है क्या?
वो झटपट उठकर बोला। गुल्ली डंडा तो मैं घर रख कर आ गया।
बोरी में जाने से मेरी निकर पर मिट्टी लग गई थी। उसने अपना पायजामा झाड़ा और मैंने अपनी हाफ पैंट।
मैंने उसके पायजामे की जेब में हाथ डाला। उसकी समझ में नहीं आया कि मैंने उसकी बात पर विश्वास क्यों नहीं किया।
एक बार गांव के ही तालाब में हम कुछ बच्चे नहा रहे थे। हम लोग पहले से ही इस तैयारी से तो नहीं गए थे कि वहां नहाना भी है। बस, छुट्टियां थीं,गर्मियां थीं,तो जब घूमते घूमते थके,एक एक कर पानी में कूदने लगे।
कपड़े किसी के पास नहीं थे। हम लोग गांव में थे ज़रूर,पर ग्रामीण पृष्ठभूमि का हममें से कोई नहीं था कि गले में कोई गमछा या चादर ही हो। हम सब शिक्षित खानदानों से ताल्लुक़ रखते थे।
ये जोख़िम भी नहीं लेना था कि गीले कपड़ों में घर जाएं और घरवालों से डांट खाएं।
सबसे आसान यही लगा कि सब नंगे नहाएं।
थोड़ी झिझक ज़रूर हुई, पर जब मुझसे बड़े बड़े लड़के नंगे नहा रहे थे तो मेरा संकोच भी जाता रहा। दोपहर के वीरान सन्नाटे में वैसे भी कोई तालाब पर नहीं होता था।
तैरना नहीं आने के कारण कुछ लड़के किनारे पर ही थे, जबकि तैरना जानने वाले लड़के आराम से पानी के बीच में जाकर अठखेलियां कर रहे थे।
तैरना सिखाने का लालच देकर कुछ बड़े लड़के गहरे पानी में खड़े हो जाते और अपने पेट के दोनों ओर हमारे पैर करके हमें कहते कि अब पानी में हाथ पैर चलाएं। हम लोग कोशिश भी करते पर कभी कभी हम में से कोई ज़ोर से उछल पड़ता और बड़े लड़के हंस पड़ते तो हमें लगता कि "दाल में कुछ काला है" और हम छिटक कर दूर हो जाते।
हमारे स्कूल में लड़कों से सुना हुआ "शेर और बब्बर शेर" का अंतर भी यहां आकर अच्छी तरह समझ में आया।
एक बार तो एक बड़ी झील में अनजाने में टूटी हुई नाव लेकर हम लोग पतवार के सहारे गहरे पानी में उतर गए। पानी के बीच में पहुंच कर जब पता चला कि नाव टूटी फूटी होने के कारण भीतर पानी आ रहा है,तो सबके होश फाख्ता हो गए।कुछ बच्चे बदहवास होकर दोनों हाथों से पानी बाहर उलीचने लगे और कुछ जल्दी जल्दी चप्पू चला कर नाव को किनारे लाए।
उस दिन हमारे साथ कुछ लड़कियां भी थीं।
हम सबकी शिकायत घाट के धोबियों के माध्यम से हमारे घरों में भी पहुंच गई,और कुछ मित्रों को उनके परिजनों से डांट भी खानी पड़ी।
हमारी बस्ती के एक किनारे एक बड़ी सी गौशाला थी। जिसमें हम कुछ मित्र कभी कभी एक साथ दूध लेने जाया करते थे। एक दिन मैं और मेरा मित्र छुट्टी के दिन वहां से गुज़र रहे थे कि हमें एक परिचित लड़का मिला। लड़का मेरे मित्र को बताने लगा कि वो अपनी गाय को पास की ढाणी में एक सांड के पास ले जा रहा है। उसने कुछ ऐसा शब्द भी बोला कि उसकी गाय हरी हो गई है।
मैं ये बात नहीं समझा। गाय हरी कैसे होती है,और उसे सांड के पास ले जाने का क्या मतलब है, ये सब किसी रहस्य की तरह मेरे दिमाग में घुस गया।
बाद में मेरे मित्र ने मुझे समझाया कि गाय की योनि में सांड अपना गुप्तांग घुसा कर पेशाब जैसा कुछ गाढ़ा पानी छोड़ देता है,जिससे बाद में गाय को बच्चा पैदा होता है। गाय की जब ऐसा करवाने की इच्छा होती है, उसे हरी होना कहते हैं।उस समय वह ये सब करवाने के लिए तैयार होती है।
सांड और बैल में क्या अंतर होता है,ये भी मेरे मित्र ने ही मुझे समझाया। बैल को क्योंकि खेत में मेहनत करनी पड़ती है इसलिए उसके गुप्तांग को गाढ़ा पानी गाय के पेट में छोड़ने के नाकाबिल बना दिया जाता है। फ़िर वो गाय की जगह खेत या गाड़ी को जोतता है, जबकि सांड गाय को।
मैं और मेरा मित्र रात को साथ में पढ़ते। उस समय यदि मित्र मेरे पास आकर चिपटने या मुझे छूने की कोशिश करता या अपने शरीर से कोई खिलवाड़ करता तो मैं मज़ाक में उससे कहता- तू हरा हो रहा है क्या? नई शब्दावलियों को हम ऐसे ही सीखा करते।
मुझे ये भी महसूस होता था कि ऐसी चीज़ें और ऐसी बातें जिन्हें सब पसंद करते हैं, करना चाहते हैं, करते हैं, उन्हें छिपाया क्यों जाता है? क्यों अकारण कुंठा, ग्रंथि या जुगुप्सा बना कर छोड़ा जाता है।
हम जो हैं,जिन क्रियाओं से हैं, जिन पर मरते हैं,उन्हें छिपा किस से रहे हैं? और क्यों?
अपने नए कॉलेज में शुरू के कुछ महीने तो इसी ऊहापोह में निकल गए कि प्रवेश स्थाई होगा या नहीं, लेकिन ये हो जाने के बाद मेरा ध्यान इस बात पर गया कि हमारा कॉलेज शहर में बहुत ही प्रतिष्ठित है,और इसका विद्यार्थी होने मात्र से शहर में एक पहचान मिलती है।
अब विषय भी बहुत सीमित हो गए थे,और नए शिक्षकों का रवैया बिल्कुल अलग था। वे प्रोफेसर्स थे और उन्हें इस बात की कतई परवाह नहीं थी कि आप क्लास में हैं या नहीं, हैं तो केवल शारीरिक रूप से हैं या मानसिक रूप से भी। क्लास में पढ़ाया जा रहा विषय आप सुन रहे हैं,समझ रहे हैं या नहीं।
एक एक क्लास में विद्यार्थियों की संख्या भी बहुत ज़्यादा थी।शिक्षक के लिए अपने सभी छात्रों को पहचान पाना भी संभव नहीं था। वे आते थे,और अपना तैयार व्याख्यान देकर चले जाते थे।
लेकिन अपनी पहचान के लिए सदा सतर्क रहने वाले मेरे जैसे छात्र ने फ़िर एक रास्ता खोज लिया।
हमारे कॉलेज में सांस्कृतिक सप्ताह बहुत ज़ोर शोर से मनाया जाता था, जिसमें कई प्रतियोगिताएं होती थीं। इसके अलावा कुछ कॉलेजों से समय समय पर डिबेट के निमंत्रण भी आते थे।
उन दिनों कॉलेज में रैगिंग भी हुआ करती थी। नए छात्रों को पुराने छात्र तरह तरह से छेड़ा करते थे। इनमें सामान्य शरारतों से लेकर बड़े बड़े कांड तक हो जाया करते थे। जो छात्र हॉस्टल में रहते थे,उन्हें इस विपदा का सामना ज़्यादा करना पड़ता था।
इस संदर्भ में मुझे दो तीन लाभ मिले।
एक तो इस कॉलेज में मुझसे पहले मेरे स्कूल से आए ढेरों सीनियर छात्र ऐसे थे जो स्कूल की मेरी गतिविधियों से परिचित ही थे और उनके लिए मेरा सम्मान करते थे। दूसरे अंतिम वर्ष में मेरा परीक्षा परिणाम बिगड़ जाने से मेरे साथ अाए मेरी क्लास के छात्र भी कुछ सॉफ्ट कॉर्नर मुझसे रखते ही थे। यद्यपि मुझे किसी की हमदर्दी अच्छी नहीं लगती थी, और हमदर्दी जताने वाले छात्रों को तो मैं ये जता ही देता था कि विज्ञान विषयों में मेरी रुचि नहीं है।
फ़िर डॉक्टर बनने का सपना, सपना पूरा होने के बाद ही फ़िल्में देखना... इन सब बातों का क्या हश्र होगा,ये मैं भी नहीं जानता था। मैंने इन बातों को पूरी तरह समय और भाग्य के आसरे ही छोड़ दिया था।
मन ही मन मुझे लगता था कि जब कोई चीज़ प्रयत्न करने पर भी नहीं मिलती है तो शायद बिना प्रयत्न किए मिल जाने का कोई रास्ता भी होगा।
मैं ये बात दूसरों के कई उदाहरण देख सुन कर ही सोचता था, खुद मेरे साथ तो प्रायः ऐसा कभी नहीं हुआ था कि प्रयास करने से कोई लक्ष्य हासिल न हुआ हो।
हमारा कॉलेज विज्ञान का ही कॉलेज था इसलिए इसमें ज़्यादा तर छात्र साइंस को लेकर गंभीर और संजीदा थे।अतः डिबेट या अन्य स्पर्धाओं में कोई कॉम्पिटिशन नहीं था,और जो विद्यार्थी चाहें, उन्हें आसानी से इनमें भाग लेने का मौक़ा मिल जाता था।
एक सिंह द्वार फ़िर सामने था।
यदि किसी प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए कॉलेज से अनुमति मिल जाती तो दो छात्र दल के रूप में उसमें जाकर भाग लेते। ज़्यादातर सीनियर छात्र शहर से बाहर कॉम्पिटिशन में जाते समय पार्टनर के रूप में मुझे साथ ले जाते। मैं विषय सामग्री तैयार करने में उनकी सहायता कर देता।
इस वर्ष चार पांच प्रतियोगिताओं में मैंने भाग लिया और दो जगह कोई न कोई पुरस्कार भी मुझे मिला। एक कस्बे के महाविद्यालय में तो नकद पुरस्कार भी दिया गया।
एक बार का किस्सा तो बाद में कई दिनों तक रात को नींद में भी आकर डराता रहा। जब ट्रेन से आधी रात को दो बजे हमें घोर सर्दी के मौसम में किसी स्टेशन पर उतरना था, किन्तु कोहरे की वजह से स्टेशन का नाम न दिखाई देने के कारण ट्रेन चल पड़ी और हड़बड़ी में दो छात्र तो उतर गए, पर दो गाड़ी में ही रह गए। यहां तक कि एक के तो जूते भी गाड़ी में ही छूट गए। बाद में अगले स्टेशन पर उतर कर किसी ट्रक से हमारे साथी वापस लौट कर आए। तब जान में जान आई।
हम हिंदी और अंग्रेज़ी डिबेट की टीमों के रूप में भाग लेने के लिए चार छात्र एक साथ जा रहे थे।
ऐसे अनुभवों ने मुझे ये सिखाया कि जब समूह में कहीं जाने के लिए निकलें तो सभी की जेब में पैसे हों। मैं खुद अपने पैसे भी सफ़र में दो तीन जगहों पर अलग अलग बांट कर रखने का अभ्यस्त हो गया।
कॉलेज में एक दिन मेरे एक सीनियर छात्र ने मुझे कहा कि वह मेरी रैगिंग लेना चाहता है।
मुझे आश्चर्य हुआ कि रैगिंग के लिए सीनियर्स इतनी शराफ़त से कब पूछते हैं ! वहां तो किसी को भी, कभी भी डांट फटकार कर घेर लेते हैं और अपनी मनमर्जी चलाने लगते हैं।
- मुर्गा बन जाओ, कपड़े उतारो, पांव छुओ, यहां हाथ लगाओ, गाना गाओ, नाचो, एक दूसरे का चुम्बन लो...अंतहीन सिलसिला।
लेकिन वो सीनियर लड़का शायद मुझे पहले से भी जानता हो,या उसने मुझे कहीं देखा हो, ये सोचकर मैं चुपचाप उसके आदेश का इंतजार करने लगा।
वह बोला, मेरे साथ हॉस्टल में मेरे कमरे में चलना होगा। उसके इस तरह शराफ़त से बोलने के कारण मेरा आधा भय तो पहले ही खत्म हो चुका था, बाक़ी आधा डर भी तब निकल गया जब उसने अपनी क्लास बताते हुए कहा कि जब भी मेरा पीरियड ख़ाली हो, मैं उसे वहां से बुला लूं।
इस नाटकीय रैगिंग में मुझे भी आनंद आने लगा। मैंने उसे कहा- ओके सर !
वैसे सीनियर्स को लड़के "बॉस" बोलते थे पर मैंने जान बूझ कर उसे " सर" कहा।
एक क्लास के बाद ही मैंने उसे उसकी क्लास में से बुला लिया।
कॉलेज चल रहा था पर हम दोनों पिछवाड़े बने हुए होस्टल में चले गए। वो वहीं रहता था।
हॉस्टल में उसका कमरा डबल सीटर था,पर उस समय उसका पार्टनर वहां नहीं था।
रूम में पहुंच कर उसने सबसे पहले मुझसे कहा- कौने में स्टोव रखा है, यदि चाय बनानी आती हो तो बना लो।
कह कर वो बाथरूम की ओर चला गया,जो कुछ ही दूरी पर बने हुए थे। हॉस्टल खाली सा ही था,किन्तु किसी किसी कमरे से लड़कों की बातों की आवाज़, हंसने की आवाज़, या ट्रांजिस्टर से गाने बजने की आवाज़ आ रही थी।
मैं चायपत्ती,चीनी,और मिल्क पाउडर का डिब्बा देखकर चाय बनाने लगा।
वहां कांच के दो तीन गिलास थे, जिन्हें मैंने सुराही के पानी से थोड़ा साफ़ कर लिया।
(11)
जब कॉलेज का वार्षिकोत्सव आया तो लगा कि कुछ नया किया जाए। मैंने इंटर कॉलेज फैंसीड्रेस स्पर्धा में नाम लिखा दिया। क्योंकि समारोह हमारे कॉलेज के सभागार में ही हो रहा था,तो कुछ ऐसा किया जा सकता था,जो दूर बाहर कहीं जाकर करना संभव नहीं होता।
मैंने राजस्थान की प्राचीन सतीप्रथा को दर्शाने का निश्चय किया। हमारा कॉलेज केवल लड़कों का ही कॉलेज था इसलिए हर कार्यक्रम में डांस,नाटक आदि में लड़कियों के पार्ट भी लड़के ही करते थे।
मैं भी सती औरत बना। मेरे दो मित्रों ने इसमें बहुत सहयोग किया। एक ने मुझे तैयार किया और दूसरा मृत पति के रूप में दृश्य में मेरी गोद में लेटने के लिए तैयार हुआ।
मुझे इसमें दो बाधाएं आईं। एक तो जब हमारे कार्यक्रम प्रभारी को ये पता चला कि हम सचमुच स्टेज पर आग लगा कर दृश्य दिखाएंगे तो वे चिंतित हो गए। उन्होंने साफ़ मना कर दिया।
वे चाहते थे कि हम पतले रंगीन काग़ज़ की लपटें तेज़ पंखा चला कर दिखाएं। पर हमने सच में आग लगाने के स्वाभाविक दृश्य की तैयारी की थी।
जब हमने बहुत अनुनय विनय की,और उन्हें समझाया कि हम बिल्कुल सुरक्षित तरीके से आग लगाएंगे,तो वे मुश्किल से तैयार हुए।
पर साथ ही उन्होंने प्रतियोगिता की अंतिम प्रविष्टि के रूप में मेरा नाम अंत में डाल दिया।
लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ी। लगभग पूरे कार्यक्रम में पहले से तैयार होकर अंत तक बैठे रहना पड़ा। कुछ लड़के तो तैयार होकर स्टेज पर एक ओर बैठ कर कार्यक्रम देखते रहे,किन्तु मैं लड़की बना होने के कारण सामने भी नहीं आ सका और पूरे समय भीतर ही छिप कर बैठा रहा।
दूसरे, प्रतियोगिता निर्णायकों ने ये आदेश भी जारी कर दिया कि प्रतियोगी किसी अन्य छात्र का सहयोग नहीं ले सकते,उन्हें अकेले ही अपनी प्रस्तुति देनी होगी।
मेरा दूल्हा बना लड़का ये सुनते ही अपनी पगड़ी उतार कर मुझे देते हुए चूड़ीदार पायजामा और शेरवानी पहने बाहर जा बैठा।
मुझे दृश्य में अपनी गोद में एक चादर से ढक कर केवल पगड़ी ही रखनी पड़ी।
मेरे मित्र मुझसे मज़ाक करने लगे, बोले - लो, मरा हुआ पति तो उठकर भाग गया अब अकेले सती होना पड़ेगा।
मेरा नम्बर आते ही हमने आधे टूटे हुए तीन मटकों में तेल से भिगोई हुई रुई में आग लगा कर सामने रखी और उसके पीछे सती के रूप में मैं बैठा।
पर्दा उठते ही ज़बरदस्त तालियां बजीं।
मुझे पहला पुरस्कार मिला।
जिस लड़के ने मुझे तैयार किया था उसकी भी बहुत सराहना हुई। वो चाहता था कि मैं पुरस्कार लेने भी इसी वेशभूषा में जाऊं,पर मैं इतनी देर से दुल्हन की तरह सजा बैठा हुआ बुरी तरह उकता गया था, अतः परिणाम घोषित होते ही कपड़े बदल कर मुंह धोकर सामने आ गया। प्रतियोगिता इंटरकालेज थी, पर हमारा ही कॉलेज होने से दर्शकों ने जोरदार तालियां बजाकर खुशी जाहिर की।
मेरी पिछले दिनों की मायूसी तत्काल खत्म हो गई और मैं वापस अपने पुराने रंग में आ गया।
कुछ ही दिन बीते होंगे कि एक चमत्कार और हुआ।
मैं अपने कॉलेज की कैंटीन में बैठा था कि एक लड़का अख़बार लेकर दौड़ता हुआ आया।
अख़बार में बहुत बड़े विज्ञापन में ब्रुक बॉन्ड चाय की उस प्रतियोगिता का परिणाम छपा हुआ था जिसमें कुछ समय पूर्व मैंने भाग लिया था।
इसमें दूसरे पुरस्कार विजेता के रूप में बहुत बड़े अक्षरों में मेरा नाम छपा था। साथ ही इनाम की राशि दो हज़ार रुपए भी छपी थी।
सन उन्नीस सौ इकहत्तर में इतनी बड़ी राशि मिलने का यह मेरा पहला अवसर था।
मैं खुशी से उछल पड़ा और मित्र को साथ लेकर तत्काल घर पर मेरे पिता को फोन करने के लिए दौड़ पड़ा।
मेरी खुशी दोगुनी हो गई जब फोन पर मेरे पिता ने बताया कि आज ही डाक से कोलकाता से ग्रिंडलेज बैंक का चैक भी मेरे नाम से आ गया है। साथ ही बधाई का पत्र भी था।
कुछ दिन बाद एक समाचारपत्र में ब्रुकबॉन्ड चाय के विज्ञापन में मेरा लिखा वो स्लोगन भी छपा,जिसके लिए मुझे पुरस्कार मिला था।
स्लोगन था - "सर्दी हो चाहे गर्मी, या रिमझिम बरसात
ब्रुक बॉन्ड की चाय, रहती है लाजवाब!"
इसी चैक को भुनाने के लिए मैंने पहली बार अपने नाम से बैंक ऑफ बड़ौदा में अपना खाता खोला। बैंक की उस शाखा के प्रबंधक ये जानकर बेहद खुश हुए कि मुझे ये राशि ईनाम में मिली है।
सांस्कृतिक कार्यक्रम ने कुछ दिन तक मुझे व्यस्त रखा। इस बीच कुछ डिबेट प्रतियोगिताओं में भी मैंने भाग लिया।
एक दिन कॉलेज में लगातार दो तीन पीरियड ख़ाली होने से हमारी क्लास के पंद्रह सोलह लड़के लॉन में गोल घेरा बना कर बैठे हुए थे कि अचानक एक लड़का बोल पड़ा - क्लास का सबसे सेक्सी लड़का कौन है,सब अपनी अपनी राय दो!
ये बड़ी अजीब बात थी।
वास्तव में "सेक्सी" होने का क्या मतलब होता है,ये हम में से बहुत कम लड़के जानते थे। कुछ एक ऐसे लड़के जो सैंट जेवियर स्कूल से अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ कर आए थे, वे भी हमारी क्लास में थे। शायद ये प्रश्न उन्हीं लोगों की ओर से आया था !
हम सब अपने अपने सोच के अनुसार कयास लगाने लगे कि सत्रह अठारह साल के लड़कों में सेक्सी कौन और कैसे हो सकता है।
मेरा अनुमान तो यही था कि वे शायद सबसे सुंदर,स्मार्ट, होशियार, स्वस्थ लड़के के बारे में ही बात कर रहे हैं।
किन्तु सबकी बातचीत से ये भी समझ में आया कि ये चारों बातें अलग अलग हैं।
सबसे पहले सुंदरता की बात करें। सुंदरता का मानदंड लड़कों और लड़कियों में अलग अलग माना जाता है। इसीलिए अंग्रेज़ी में सुन्दर लड़कियों को ब्यूटीफुल और सुन्दर लड़कों को हैंडसम कहा जाता है। इसका सेक्सी होने से कोई संबंध नहीं है।
स्मार्ट,होशियार होना तेज़ और बुद्धिमान होना है। ऐसे लड़के भी सेक्सी कैसे होंगे?
स्वास्थ्य तो पूरी तरह शरीर की बलिष्ठता और निरोगीपन पर आधारित है।
मैं मन ही मन शायद यही सब सोच रहा था। एकाएक बोल पड़ा - सेक्सी मतलब?
प्रश्न मेरा था,इसलिए इसे हंसी में नहीं टाला गया। पूछने वाले ने संजीदगी से समझा कर जवाब दिया - सेक्सी मतलब ऐसा चेहरा या बदन, जिसे देखकर उसे प्यार करने,उसे छूने, उसे "किस" करने की इच्छा हो।
एक लड़के ने समझाया कि शादी के लिए जब लड़का या लड़की को एक दूसरे की फोटो दिखाई जाती है तो इसीलिए कि वो देख सकें, उनके जीवन साथी में सेक्स अपील कैसी है।
मुझे ये बात बहुत अच्छी और नई लगी।
इससे थोड़ा थोड़ा सेक्स शब्द का मतलब भी समझ में आया।
मैंने सोचा कि सेक्स का संबंध शायद लड़के या लड़की से भी नहीं है। यहां केवल जीवित शरीर की बात है जिसमें आकर्षक स्पंदन होता हो।
इसमें एक लक्ष्य होता है और एक प्रयासकर्ता। लक्ष्य लड़के के लिए लड़की,लड़की के लिए लड़का,लड़की के लिए लड़की और लड़के के लिए लड़का भी हो सकता है।
यदि आप किसी को छूना, देखना, बांहों में लेना, निर्वस्त्र करना, या उससे एकांत में लिपटना चाहते हैं,तो आप सेक्सी नहीं, बल्कि वो सेक्सी है,जो आपको ऐसा करने के लिए प्रेरित करके उकसा रहा है।
अब लड़कों का उत्तर सुनने में मेरी जिज्ञासा बढ़ गई,किन्तु समय कम था,इसलिए खुल कर कोई बात नहीं हो पाई। पर इस चर्चा से एक नया आयाम खुला,एक नया नज़रिया मिला।
ऐसी ही बातें अब कभी कभी मुझे विज्ञान और कला के रास्ते जाने में द्वंद पैदा करने लगीं।
मुझे लगता था विज्ञान जीवन को ऐसा बहुआयामी दृष्टिकोण नहीं देता। ये कला का ही बूता है जो आपको दूसरे के बदन में अपना ठिकाना दिखा दे।
मेरे भीतर एक सकारात्मक ऊर्जा निरंतर बढ़ने लगी और मैं लोगों को पढ़ने लगा। मुझे अच्छे चेहरे अच्छे लगते थे।
मैं इससे धोखा भी खा जाता था। क्योंकि हम सब दो होते हैं,एक का अक्स हमारे चेहरे पर होता है,दूसरे हम तमाम अनुभूतियों और संवेदनाओं से सजे अपने भीतर रहते हैं।
व्यक्तित्व का छिलका उतरने पर असलियत सामने आती है। कई बार आकर्षक खोल में निहायत बोदा शख़्स निकल आता है। तो कई बार नीरस पैकिंग में बड़ा मज़ेदार माल निकलता है।
जीवन इसी का नाम तो है।
जिस लड़के ने मुझे रैगिंग लेने के लिए हॉस्टल के अपने कमरे में अकेले बुलाया था, वो भी बड़ा संवेदनशील और शालीन लड़का निकला।
मुहावरा है कि "खोदा पहाड़ निकली चुहिया", बस इतनी सी ही बात थी। उसने बताया कि वो मुझे तीन चार साल पहले से जानता है।जब मुझे स्कूल के मंच पर स्वर्ण पदक मिला,तब वो भी छात्रों के बीच मौजूद था। पर मैं उसे जानता नहीं था।
बाद में संयोग से जब मैं और वो एक ही कॉलेज में आ गए,और वो मेरा सीनियर बन कर मुझे मिला तो उसने रैगिंग के दस्तूर का फ़ायदा उठा कर मुझे अपने कमरे में बुला लिया। हम दोनों बाद में अच्छे दोस्त बन गए।
दो लड़कों के बीच अकेले कमरे में भी कौन सा मेला लग सकता था। हम देर तक बातें करते रहे।
इस उम्र के नवयुवक की जिज्ञासा होती भी कितनी सी है - ये दिखा दे, वो दिखा दे, देख, छू, बता, वो कैसी है, वो कैसा है... इससे किसका क्या बिगड़ता है? हो गई रैगिंग !
पुराने स्कूल मित्र और कोई कोई परिजन अब कभी कभी मुझसे कहते थे कि यदि तुमने डॉक्टरी की लाइन में जाने का लक्ष्य रखा है तो ये सही समय है,अब तुम्हें सब बातों से ध्यान हटा कर केवल परीक्षा की तैयारी पर ही ज़ोर देना चाहिए।
मुझे बात गंभीर लगती भी थी, क्योंकि अब फाइनल परीक्षा नज़दीक थी और उसके तुरंत बाद प्री मेडिकल टेस्ट देना था।
राजस्थान में उन दिनों केवल पांच मेडिकल कॉलेज थे, जिनके लिए संयुक्त पी एम टी आयोजित होता था।
इसमें कुल सीटें निर्धारित थीं जो छात्र संख्या को देखते हुए काफ़ी कम थीं।
समय समय पर छात्रों द्वारा विश्वविद्यालय में जो हड़ताल होती थी, उसमें भी ये मुद्दा बार बार उठाया जाता था कि इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में सीटें बढ़ाई जाएं।
संयोग से उस वर्ष मेडिकल में काफ़ी सीट बढ़ाए जाने की घोषणा भी हो गई।
कुछ लड़के कहते थे कि राज्य के एक प्रभावशाली मंत्री का बेटा भी अगली बार मेडिकल कॉलेज में जाने वाला है,उसी को देखते हुए सीटों में इज़ाफ़ा किया गया है।
मैं इस बात पर ज़्यादा विश्वास नहीं करता था, क्योंकि मंत्री के जिस बेटे का नाम लेकर ऐसी बात कही जाती थी, वो मेरी ही क्लास में था और मेरा दोस्त भी था।
मंत्रीजी चाहे जैसे हों,बेटा बहुत विनम्र, प्यारा और सलीके मंद था। मैं मन ही मन उसे पसंद करता था। उसकी संकोच शीलता, विनम्रता और सुन्दर चेहरा मुझे आकर्षित करता था।
वो ज़्यादातर जूते भी इस सलीके से पहनता था, कि मैं जिन जूतों को डोरी की वजह से नापसंद करता था, उसके पैर में वो भी मुझे आकर्षक लगते थे। शायद उसका उन्हें बांधने का तरीक़ा बड़ा कलात्मक था।
जब मेरे नजदीकी लोग मुझे परीक्षा को गंभीरता से लेने का उपदेश देते तो मैं उनसे कह दिया करता कि यदि मेरे नसीब में अपना लक्ष्य पाना लिखा होगा तो इसी तरह का कोई चमत्कार हो जाएगा कि सीट बढ़ जाएं या कोई नया कॉलेज खुल जाए।
यद्यपि भाग्य पर मेरा विश्वास कभी नहीं रहा था। मैं हमेशा परिश्रम और पुरुषार्थ पर ही भरोसा किया करता था।
वार्षिक परीक्षा शुरू हुई,हमेशा जैसी साधारण तैयारी भी मैंने की।
गर्मियों की छुट्टियां हुईं तो मैं अपने मित्रों के साथ मेडिकल परीक्षा के बारे में भी खोजखबर लेकर सामग्री जुटाने लगा।
घुटन और थकावट भरी ये छुट्टियां बीत गईं और मेरा बी एस सी प्रथम वर्ष का परिणाम आ गया।
इस बार मेरी रसायन शास्त्र विषय में फ़िर से सप्लीमेंट्री आ गई।
प्री मेडिकल परीक्षा में बैठ पाने का अवसर हाथ से निकल गया।
अब मैंने अपने पिता को पहली बार अपने मन की बात बताई कि मैं विज्ञान नहीं पढ़ कर कला में ही जाना चाहता हूं।
पिता को इस बात पर ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ, मानो वे पहले से ही ये अनुमान लगा चुके थे कि मैं आर्ट्स के लिए ही उपयुक्त हूं। आख़िर वे भी शिक्षाविद् थे और एक नामी शिक्षण संस्थान में वाइस प्रिंसिपल थे।
ये जान कर मुझे बेहद सुकून मिला कि मेरे पिता मेरे मन की बात को समझते हैं। मुझे और किसी की परवाह नहीं थी। बाक़ी लोगों को तो किसी न किसी तर्क से अपनी बात समझा ही सकता था। हालांकि लोगों को इस बात से ज़्यादा सरोकार भी कहां होता है कि आप कहां सफल हुए और कहां विफल। वो तो दो - एक दिन आपकी मिजाज़ पुर्सी करके अपनी अपनी राह हो लेते हैं।
पर मेरे पिता ने मुझे पूरी तरह विश्वास में लेकर कुछ बातें कहीं। इतनी लंबी बात करने के लिए वो मुझे एक शाम अपने साथ सड़क पर टहलने के लिए ले गए और लगातार बोल कर मित्र, फिलॉसफर और गाइड की भांति समझाते रहे।
मैं एक आज्ञाकारी बेटे, शिष्य और अन्वेषी की तरह उनकी हर बात ध्यान से सुनता रहा।
उन्होंने कहा- यदि मैं थोड़ी सी हिम्मत करूं तो अगले साल सेकंड ईयर में पढ़ते रहकर प्री मेडिकल परीक्षा की तैयारी करता रह सकता हूं। उनका कहना था कि बड़े लक्ष्य के लिए जीवन में एक ही प्रयास काफ़ी नहीं होता। कई बार बार बार कोशिश करके लोग सफल हो जाते हैं। उन्होंने मुझे कई ऐसे डॉक्टरों के नाम बताए जो बी एस सी पास करने के बाद मेडिकल में गए। उन्होंने मुझे ये भी कहा कि केमिस्ट्री में सप्लीमेंट्री आने के अलावा अन्य विषयों में मेरे अंक हमेशा की तरह अच्छे ही हैं। पूरक परीक्षा पास कर लेने के बाद मेरी अंक प्रतिशत अच्छी ही रहेगी। और मैं प्रथम लक्ष्य मेडिकल कॉलेज को ही रख कर सेकंड ईयर में पढ़ता रह सकूंगा।
मुझे नहीं पता कि ये सब सुनते हुए मेरे चेहरे पर कैसे भाव थे।
पिता बोले- साहित्य का क्षेत्र खराब नहीं है,कई नामचीन हस्तियां इस क्षेत्र से ऐसी रही हैं जो अन्य किसी पेशे में होते हुए भी साहित्यकार के रूप में सफल रही हैं। उन्होंने कई ऐसे नाम गिनाए जो वैज्ञानिक,वकील, नेता, व्यापारी, अफ़सर, इंजीनियर, डॉक्टर,शिक्षक होते हुए भी साहित्य लिखते रहे और एक साहित्यकार के रूप में सफल हुए।
उन्होंने शेक्सपीयर का नाम भी लिया जो घुड़साल में काम करते हुए विश्व प्रसिद्ध नाटककार बना।
पिता ने मुझे अंत में तीसरे विकल्प के रूप में ये भी बताया कि आर्ट्स के कुछ अच्छे विषय पढ़कर लोग प्रशासनिक अधिकारी भी बनते हैं। शोध करके कई उच्च पदों पर जाते हैं, किन्तु पहले एक बार अपने सोचे हुए लक्ष्य के लिए जी तोड़ प्रयास करने के बाद ही इन दूसरे विकल्पों की ओर जाना चाहिए। वही मेरे लिए उपयुक्त होगा।
मैं अन्दर से हताश नहीं था। मेरे जीवन में कभी नकारात्मकता नहीं आई थी।
मैं पिता की बात अक्षरशः समझ गया और इसके लिए तैयार हो गया।
मेरे "ठीक है" कहते ही, पिता ने मानो कोई बड़ा युद्ध जीत लिया। वो संतुष्ट हो गए।
मैं फ़िर से केमिस्ट्री की पुनः परीक्षा की तैयारी में लग गया।
मुझे ये बात ज़रूर थोड़ा अखरती थी कि छुट्टियों में जब सब लोग मौज मस्ती में लगे हों, सावन आने को हो, नए परिसरों में नए नए मित्र चहचहाते हुए घूम रहे हों... मैं बंद कमरे में एच टू एस ओ फोर प्लस एम एन एस ओ फोर बराबर क्या... ये रटता रहूं।
मैंने ज़िन्दगी का ये फ़लसफ़ा कभी नहीं जाना था कि किताबों में से कुछ रट लूं फ़िर उसे आने वाली पीढ़ियों को रटवा कर हर महीने वेतन लेता रहूं और एक दिन दुनिया से चल दूं।
मेरा मन तो हवाओं के साथ बहना चाहता था, घटाओं के साथ गाना चाहता था, लोगों की आंखों में झांक कर वहां बसे सपने पढ़ना चाहता था और जब इस दुनिया में दिन पूरे हो जाएं तो किसी दूसरी दुनिया की खोज में निकल जाना चाहता था।
खैर, ज़िन्दगी मेरे सोच से तो चलने वाली थी नहीं।
मेरे पड़ोस में एक महिला रहती थीं जिनकी छोटी बहन फर्स्ट ईयर बी एस सी में दो तीन बार से फेल हो रही थी। इस बार उन्होंने ऐलान कर दिया कि ये आख़िरी मौका है,और यदि इस बार भी वो पास नहीं हुई तो बी एस सी छोड़ कर उसे या तो कोई नौकरी करनी पड़ेगी या फ़िर बी ए में एडमिशन लेना पड़ेगा।
उस लड़की को शायद मेरा परिणाम देख कर बहुत सांत्वना मिली।वो मुझसे बोली कि मेरे केमिस्ट्री में तो बहुत अच्छे नंबर आते हैं,पर मैं बाकी विषयों में फेल हो जाती हूं।
उसने कहा कि वो केमिस्ट्री मुझे पढ़ाएगी।
मैं न तो उसकी बात को गंभीरता से लेता था, और न ही उस पर विश्वास करता था,फ़िर भी शाम के समय कुछ देर के लिए घूमता फिरता उसके घर चला जाता था। वो इस बात को अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना कर बेहद सीरियस हो गई और जिस दिन मैं न जाऊं, मुझे बुलाने आ जाती। दिन दिन भर मुझे पढ़ाने के लिए खुद पढ़ कर तैयारी करती। मानो किसी तरह मुझे पास करवाना ही उसके जीवन का लक्ष्य था।
वास्तव में उसे रसायन शास्त्र के पाठ रटे पड़े रहते थे और वो धाराप्रवाह बोलती थी।
मेरे दोस्त उससे पढ़ने के लिए मेरा मज़ाक उड़ाया करते थे और रात को खाना खाने के बाद जब हम मित्र लोग घूमने जाते तो वे मुझसे पूछते कि आज उसने क्या पहना था,आज मुझे क्या खिलाया,आज उसने बाल खुले रखे थे या चोटी की थी, आज वो अलग कुर्सी पर बैठी थी या बिस्तर पर मेरे साथ ही...कभी किसी ने ये नहीं पूछा कि उसने क्या पढ़ाया था?
आखिर परीक्षा खत्म हो गई और मैं मेरे पिता के कहे अनुसार सैकंड ईयर में आ गया।
प्री मेडिकल की परीक्षा भी हो चुकी थी और हमारी क्लास के दो तीन लड़के ही उसमें सलेक्ट होकर चले गए थे। शेष सभी क्लास में ही थे।
जो छात्र चयनित हुए वे राज्य के मेडिकल कॉलेजों में अलग अलग जगह चले गए।
(12)
था कि इस साल अपनी बी एस सी द्वितीय वर्ष की पढ़ाई को तरजीह नहीं देनी है,शुरू से ही केवल पी एम टी की तैयारी करनी है।
फर्स्ट ईयर पास करते ही मैं मेडिकल की प्रवेश परीक्षा के लिए पात्र हो गया था। सप्लीमेंट्री परीक्षा का परिणाम भी आ चुका था। मेरे इसमें इतने अधिक अंक अाए कि सब लोगों को मुख्य परीक्षा में मेरे साथ कोई धोखा ही हो जाने का अंदेशा होता रहा। किन्तु मैं खुद अपनी कमज़ोरी को जानता था।
इस साल मैंने अन्य गतिविधियों में भी अधिक भाग नहीं लिया। यद्यपि कुछ बाहरी कॉलेजों में मैं डिबेट स्पर्धा में ज़रूर गया। सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान मेरे एक मित्र ने मेरा नाम अपने ग्रुप के साथ ग्रुपडांस के लिए लिखवा दिया। मैं कुछ दिनों तक रिहर्सल में भी जाता रहा, किन्तु बाद में मैंने इससे अपना नाम वापस ले लिया।
इस बार फैंसीड्रेस स्पर्धा में मेरे एक दोस्त ने अपना नाम लिखवाया। ये मेरा बहुत अच्छा मित्र था जिसने गत वर्ष मेरी इस प्रतियोगिता को जीतने में बहुत मदद की थी। इस बार मुझे भी उसके साथ लगभग पूरे समय ही रहना पड़ा।
वह इसमें हिम मानव बना था, जो ध्रुवीय प्रदेशों में रहते हैं। इसके लिए हम दोनों ढेर सारी रुई खरीद कर लाए थे। स्टेज के अंतिम हिस्से में हमने इगलू भी बनाया था, जिसमें ये रहा करते हैं। उसके पूरे नंगे बदन पर गोंद लगा कर रुई चिपकाई गई थी फ़िर हाथों में बर्फ़ का बड़ा गोला बना कर दोनों हाथ उसके भीतर ढके गए थे। रुई निकल न जाए इसके लिए पतले सफ़ेद धागे को उसके पूरे शरीर पर लपेटा भी गया था।
उत्साह में वह तैयार तो हो गया पर उसका नंबर कुछ देर बाद आया। संयोग से इस बीच उसे पेशाब करने की जरूरत पड़ी। कुछ देर तो वह बिना बोले जप्त करता रहा,किन्तु बाद में उसके लिए रोकना मुश्किल हो गया।
इतना समय भी नहीं था कि सब मेकअप (शरीर का) हटाया जा सके। ऐसे में उसने मुझसे मित्रता की पूरी कीमत वसूली।
उसे पेशाब घर में ले जाकर रुई के बीच से उसका अंग हाथ से निकाल कर मुझे उसे पेशाब करवाना पड़ा।
मज़ेदार बात ये हुई कि काफ़ी देर से जबरन रोके हुए वेग को जब वह पूरे ज़ोर से निकाल रहा था,तभी मंच से उसका नाम अनाउंस हो गया। वह जल्दी से भागा और जाते जाते उसके अंग को वापस व्यवस्थित करके ढकने का काम भी मुझे ही करना पड़ा।
लेकिन उसका मुंह भी रुई से पूरी तरह ढका हुआ होने के कारण उसे कोई संकोच तो था नहीं, केवल मैं जानता था कि रुई के इस ढेर में छिपा ढका कौन लड़का है।
मैंने बाद में उसका इस बात के लिए मज़ाक उड़ाया कि जल्दी में मुझे हाथ धोने तक का समय नहीं मिला,और पर्दा उठते ही मैंने छींटे लगे हाथों से ही उसके लिए तालियां बजाईं।
उसे प्रतियोगिता में दूसरा पुरस्कार मिला।
उन दिनों किसी परीक्षा के लिए प्रायः अपने आप या कॉलेज द्वारा ही तैयारी करवाई जाती थीं, तथा कोचिंग संस्थान अस्तित्व में नहीं थे। फ़िर भी कोई कोई संस्थान मेडिकल या इंजीनियरिंग की कोचिंग देना शुरू कर चुका था।
मेरे बड़े भाई की सलाह पर मैंने भी एक कोचिंग इंस्टीट्यूट में प्रवेश ले लिया।
मेरी एक बड़ी कमी या कमज़ोरी ये थी कि मैं प्रायः अपने साथियों का चुनाव नहीं करता था। मैं उन्हीं लोगों पर विश्वास कर लेता था,जो अपने साथी के रूप में मुझे चुन लेते थे।
इसके पीछे मेरा दृष्टिकोण यह था कि हमें अच्छे लोग चुनने की जगह जो लोग संपर्क में आएं, उन्हें ही अच्छा बनाने की कोशिश करनी चाहिए। शायद मैं पूरी दुनिया को एक परिवार मानने का कायल था।
विशेष रूप से लड़कियों को तो मैं चुनने के ही ख़िलाफ़ होता, क्योंकि मेरा मानना था कि लड़कियों को तो सभी को,जो वो करना चाहें,उसका अवसर दिया ही जाना चाहिए। वर्षों से हमारा समाज उनकी उपेक्षा करता रहा है,अतः उनकी उन्नति के रास्ते खोले ही जाने चाहिए।
लड़कों में ज़रूर स्वभाव, योग्यता,व्यक्तित्व आदि के अनुसार मैं चुनाव किया करता। यद्यपि लड़कों में भी आकर्षक होना मेरी पहली प्राथमिकता होती। मैं योग्यता को नहीं भांप पाता था।
यहां भी मेरा निर्णय गलत सिद्ध हुआ।
मेरे कोचिंग इंस्टीट्यूट की एक छात्रा इस तरह मेरे साथ हो गई कि मैं उसकी उपेक्षा नहीं कर पाया। वो सुबह क्लास से पहले मुझे बुलाने घर आ जाती। क्लास में भी मेरे पास बैठ जाती। बिना मांगे किताब, नोट्स आदि मुझे देती, साथ में खाने- पीने को जो कुछ भी लाती, वह किसी न किसी तरह मुझे खिला कर ही छोड़ती।
कई बार मेरे मित्र, तो कई बार मैं खुद भी, उसकी अनदेखी या उपेक्षा करते,पर वो किसी बात की परवाह किए बिना मेरे करीब बने रहने की कोशिश करती।
यहां तक कि एक बार तो उससे खीज कर मैंने अपने एक मित्र से कह दिया कि सुबह मुझे बुलाने आ जाया करे। एक दो बार मैं उसके साथ उसकी सायकिल पर बैठ कर जल्दी इंस्टीट्यूट आ भी गया। जल्दी आ कर हम तीन- चार लड़के पास- पास बैठ जाते,पर वो आने के बाद हमारे बीच में घुस कर मेरे पास ही बैठने की कोशिश करती। इससे मेरे मित्र चिढ़ते, मैं खुद चिढ़ता,पर सीधे-सीधे उसे मना नहीं कर पाता। एक बार तो देर से आकर बीच में घुसने के लिए हमारे टीचर ने भी उसे डांटा।
उससे पीछा छुड़ाने के लिए बहुत प्रयत्न करने पड़े।
मेरे मकान में पड़ोस में रहने वाली एक आंटी ने तो एक दिन साफ़ कह दिया कि इस लड़की को साथ मत रखा करो, ये एक दिन तुम्हें उड़ा कर ले जाएगी।
मेरे मित्र भी बाद में उसका मज़ाक बनाते हुए मेरे साथ हंसी करने लगे। कहते - जब तुझे उड़ाकर ले जाए तो हमें भी बुला लेना।
कोई कहता - मुझे तो माफ़ ही कर देना, अकेला ही तू उड़ कर आ जाना।
लेकिन उससे पीछा छुड़ाने के प्रयास में जो लड़का मेरे मित्र के रूप में आ गया, वो भी कुछ कम नहीं था। दिखने में तो भोला भाला,बेहद सुंदर, सजीला,पर पढ़ाई के नाम पर ज़ीरो। उसकी कॉपियां आगे फिजिक्स, केमिस्ट्री या बायोलॉजी से इतनी भरी हुई नहीं होती थीं, जितनी पीछे से फिल्मी गानों और कार्टूनों से।
मुझे कभी- कभी अपनी इस भूल पर पश्चाताप भी होता था कि मैं मेडिकल कोचिंग के लिए गंभीर होकर पढ़ने वाले होशियार लड़के क्यों नहीं चुनता। और सबसे बड़ी बात तो ये, कि किसी को चुनने की ज़रूरत ही क्या थी, मैं अकेला ही ध्यान से पढ़ाई क्यों नहीं करता।
पर मैं अकेला बहुत ही कम रहा। हमेशा मेरे साथ कोई न कोई लड़का रहता।
दरअसल इस कोचिंग में मेरे मन में एक भय सा बैठ गया था, कि ये कोई अंधेरी गली है जो एक दिन मुझे जिंदगी की दौड़ में गिरा देगी।
फ़िर भी मैं नियमित रूप से क्लास में जाता।
हमेशा मेरे साथ कोई न कोई लड़का रहता। ताकि मुझे सांत्वना सी मिलती रहे।
किसी तरह सैकंड ईयर की परीक्षा भी खत्म हुई। अब पूरे ज़ोर- शोर से में पी एम टी के लिए जुट गया। देर- देर तक पढ़ाई करता। अपनी कमियों को कोचिंग, अध्यापकों और मित्रों के माध्यम से दूर करने की कोशिश भी की थी। अपना मुश्किल विषय केमिस्ट्री चार बार परीक्षा देने के कारण तैयार हो ही गया था। गणित का डर भी कुछ हद तक निकल गया था। कोचिंग में पिछले वर्षों के पेपर्स में आए न्यूमेरिकल्स काफ़ी समझा कर सिखा ही दिए गए थे।
लड़के और टीचर्स कहते थे कि प्रथम श्रेणी के नंबर, अर्थात साठ प्रतिशत अंक आ जाएं तो डॉक्टर बनने का रास्ता खुल जाएगा।
सब कहते थे कि मेडिकल कॉलेज में एक बार घुसने वाला तो डॉक्टर बन कर ही निकलता है, चाहे उसे एम बी बी एस करने में दस साल का समय ही क्यों न लगे।
हम लोग कुछ मित्र परीक्षाएं ख़त्म होने के बाद एक बार मेडिकल कॉलेज को देख भी आए थे।
कॉलेज के पीछे ही हॉस्टल था। हम उसमें भी जाकर अाए।
इसके अलावा प्रथम वर्ष के अंग्रेज़ी के कोर्स में हमने एक किताब "डॉक्टर इन द हाउस" भी पढ़ी थी, जिससे मेडिकल शिक्षा के माहौल के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी मिली।
उन दिनों सारा माहौल एक ही दिशा में ढल गया था।
एक दिन तो हद ही हो गई, जब मेरा एक मित्र शाम को मुझसे मिलने घर आया। हम दोनों बाहर खड़े होकर आपस में कुछ बातें कर रहे थे कि पड़ोस वाली आंटी आईं और उससे कहने लगीं - बेटा,तुझे कंधे के दर्द की कोई गोली मालूम है क्या?
मुझे ज़ोर से हंसी आ गई। लड़का पी एम टी में बैठ रहा था और उसे मेरे पास आते हुए आंटी ने पहले कई बार देखा भी था।
लड़का झेंप गया। मैंने आंटी को बताया कि अभी डॉक्टर बनने में हम लोगों को बहुत साल लगेंगे।
उनके जाने के बाद मेरा मित्र दांत पीसता हुआ उनके घर की ओर देखता हुआ धीरे से मुझसे बोला - थोड़ा ठहर जा,एक दिन इनकी डिलीवरी करवा कर बताऊंगा।
मैं हंस कर रह गया।
कुछ दिन बाद हम लोगों के प्रवेश पत्र भी अाए और परीक्षा निकट आने लगी।
हम सब मित्र इन दिनों उठते, बैठते, सोते, जागते एक ही ख़्वाब देखते थे कि हम अपनी परीक्षा के द्वार पर खड़े हैं और दरवाज़ा खुलने वाला है।
इस बीच एक समाचार मिला कि मेरे चाचा की लड़की की शादी है
घर के सभी लोग, माता-पिता,भाई- भाभी, और बहन आदि शादी में चले गए।
बाक़ी दोनों भाई अपने- अपने कॉलेज में जा चुके थे। वे दोनों हॉस्टल में रहते थे और दूसरे शहरों में पढ़ते थे।
मैं घर में बिल्कुल अकेला रह जाने के कारण खुश था कि अब बिना किसी शोरशराबे और व्यवधान के परीक्षा दी जा सकेगी।
किन्तु घर से माता पिता का आदेश था कि परीक्षा के दिनों में मैं घर में बिल्कुल अकेला न रहूं। मुझे पास ही रहने वाले अपने एक अंकल के परिवार में रहने की सलाह दी गई।
वो शादियों का मौसम था। अंकल का परिवार भी तीन चार दिन के लिए किसी शादी में शहर से बाहर जा रहा था। पर एक तो अंकल का बेटा भी पी एम टी परीक्षा दे रहा था, दूसरे उनके घर पर दो बड़े भाई और भी थे,जिनमें एक आई ए एस की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। उनकी परीक्षा भी कुछ ही दिन बाद थी। चौथे भाई को हम सब के चाय नाश्ते खाने आदि की ज़िम्मेदारी देकर सब चले गए। खाना बनाने के लिए एक महिला आती ही थी,जो साफ सफ़ाई आदि भी करती थी।
कुल मिलाकर घर में किसी हॉस्टल जैसा ही माहौल अपनी- अपनी किताबों और नोट्स के साथ हम तीनों ने मोर्चा संभाल लिया।
सबके जाने के दूसरे ही दिन मुझे एक ज़बरदस्त झटका लगा।
मेरा बी एस सी सैकंड ईयर की परीक्षा का परिणाम आ गया और मैं इसमें फेल हो गया।
जैसी मैंने तैयारी की थी और इस परीक्षा को अंतिम प्राथमिकता दी थी,ऐसे में ये परिणाम कोई अप्रत्याशित नहीं था। किन्तु फ़िर भी सालभर व्यर्थ हो जाने के इस फ़रमान से घर में एक मायूसी तो व्याप ही गई।
बड़े मौसेरे भाई ने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया और मुझे समझाया कि मुझे इस परिणाम से विचलित नहीं होना है,और परसों होने वाली प्री मेडिकल परीक्षा पूरे मनोयोग से देनी है।
मैं रोया तो नहीं पर दिन भर रोनी सूरत ज़रूर बनी रही। कोई और मित्र परिणाम के बाद मिलने भी नहीं आया क्योंकि दो दिन बाद ही हमारी परीक्षा थी।
परीक्षा से पहले वाली रात जब मैं और अंकल का बेटा खाना खाकर अंतिम रिवीजन करने बैठे तो दोनों ही उदास से थे। वो तो मेरे रिज़ल्ट की सहानुभूति मुझे दर्शाने के ख़्याल से सुस्त था, पर मैं क्या सोच रहा था,आइए आपको बताता हूं -
"सूरज का एक टुकड़ा आकाशीय पिंडों के दबाव से टूट कर आसमान में नए ध्रुवीकरण के तहत कहीं ठहर गया। लाखों वर्षों में जाकर वो ठंडा हुआ। उससे निकली गैस और भौगोलिक क्रियाओं के वशीभूत उस पर पहले पानी के चिन्ह उभरे और फ़िर धीरे धीरे वनस्पति अस्तित्व में आई। इसी के बीच से कहीं प्राणवान शरीरों का स्पंदन उगने लगा। और एक दिन इंसान अस्तित्व में आ गया। तमाम ज्ञान, अन्वेषण, चिकित्सा, संरक्षण आदि के बावजूद कुदरत ने प्राणियों की एक उम्र मुकर्रर करदी। दो शरीरों के बहुविध युग्म से नया प्राणी अस्तित्व में आए और अपनी उम्र भर इस कायनात को देख जीकर,कुदरत के इशारे पर फ़िर अनंत में लौट जाए।"
ऐसे में किसे, किससे, क्यों फर्क पड़े?
हमने काफ़ी देर रिवीजन किया। कोचिंग में अध्यापकों द्वारा बताए गए महत्वपूर्ण प्रश्नों को दोहराया, संभावित सवालों पर निगाह डाली और सुबह साथ लेजाए जाने वाले प्रवेश पत्र तथा पैन आदि को संभाल कर हम सो गए।
अगले दिन सुबह सुबह जाकर हम परीक्षा दे आए।
ये वो परीक्षा थी जो पिछले कई सालों से मेरा मक़सद बनी हुई थी।
ये वो परीक्षा थी जिसमें सफलता की आकांक्षा में मैंने तब तक फ़िल्म देखना छोड़ रखा था।
ये वो परीक्षा थी जो ज़िन्दगी का रास्ता तय कर देने वाली थी।
अगले कुछ सप्ताह इंतजार और केवल इंतजार में निकले। न कोई विशेष हलचल,न कोई गतिविधि और न कोई विचार विमर्श!
और एक दिन मित्रों के फोन और मिलजुल कर सूचना देने से पता चला कि परिणाम आ गया है।
हम कुछ मित्र सायकिलों से कॉलेज की ओर रवाना हुए। थोड़ी ही देर में हम भीड़ के बीच उस ब्लैक बोर्ड के सामने थे जिस पर परिणाम सूची चस्पां थी।
मेरा नाम उसमें नहीं था।
मेरे कुछ मित्र जो सफल हुए थे उनमें ज़्यादातर लड़कियां थीं।
मैं लौट आया।
मेरे चेहरे पर इस समय हताशा,मायूसी, विफलता,या पराजय का कितना प्रभाव था,ये तो मैं नहीं जानता था किन्तु ये ज़रूर भीतरी मजबूती से महसूस कर रहा था कि आगे का जो रास्ता है वो अब बिना किसी दबाव के मेरा अपना है,सिर्फ मेरा अपना !
बड़े भाई और भाभी ने उसी शाम मुझे अपने साथ ले जाकर एक फ़िल्म दिखाई... मुझे न तो ये मालूम था कि मैंने क्यों देख ली, और न ही ये मालूम था कि क्यों न देखूं?
एक उन्नीस साल का लड़का किसी धुंध से निकल कर मेरे सामने आ गया जो जीवन पर्यन्त मेरे साथ रहा