यदि कल्पना या सुनी सुनाई बातों का सहारा न लेना हो तो मुझे केवल पैंसठ साल पहले की बात ही याद है। अपने देखे हुए से दृश्य लगते हैं पर धुंधले।
धूप थी, रस्सी की बुनी चारपाई थी, खपरैल से ढके कच्चे बरामदे से सटा छोटा सा आंगन था। चारपाई पर एक हिस्से में बिछी पतली सी दरी, और पास ही नम, गुनगुना सा पड़ा एक तौलिया। खाट पर खुला पड़ा एक पाउडर का डिब्बा। और मुझे नहला कर बाहर धूप में लेटा कर तैयार करते दो चपल से हाथ।
शिशु शरीर पर पाउडर लगाने के बाद एक पतली सी अंगुली भी मुझे याद है जो हाथ पर काला काजल लिए मेरे माथे पर छोटा सा टीका लगाने के लिए बढ़ी थी। पहले टीका, फ़िर तेज़ी से मेरी आंख में रगड़... और मेरा एकदम से मचल कर उससे बचने की कोशिश में मुंह दूसरी ओर घुमाना और आंखों में हल्की जलन महसूस करते हुए मुंह बनाना।
हल्के से हरे रंग की छींटदार कोई झबलानुमा कमीज़, मेरी याद दाश्त में मेरे जीवन की पहली पोशाक।
इसके बाद पतले से सफ़ेद कपड़े का कोई अधोवस्त्र!
बस,मेरी बेचैनी यहीं से शुरू होती है। अधोवस्त्र में बांधने के लिए उसी कपड़े की पतली सी सिली हुई पट्टी।
अब तक मैंने किसी बात पर असुविधा या प्रतिरोध दर्ज़ नहीं कराया, लेकिन ये बंधन, ये कसाव, ये हल्की सी जकड़न मेरी बेचैनी का लगातार चलने वाला कारण है।
शायद मेरे छोटे छोटे हाथों ने इस बेचैनी को ज़ाहिर भी कर दिया है, इसलिए उठाए गए कदम के रूप में अब ये पट्टीनुमा बंधन अदृश्य है, मुझे दिखाई नहीं दे रहा।
एक दूध भरी कांच की बोतल भी मुझे याद है, इसमें गुनगुना दूध है जो मुझे अच्छा लग रहा है पर इस बोतल पर रबर का जो निपल है, वो फ़िर मेरी असुविधा का कारण है। लेकिन इस बार मेरी भूख मेरी असुविधा पर भारी है, और मैं दूध पी रहा हूं।
अब मैं कच्चे मकानों की एक तंग सी गली में किसी गोद में घर से बाहर घूम रहा हूं, जहां हल्की धूप मुझे अच्छी लग रही है।
गली में घूमते हुए जो बात मुझे चौकन्ना करती है, वो ये कि किसी भी दूसरे व्यक्ति, जो संभवतः लड़कियां ही हैं, या कभी कभी कोई महिला (मेरे जेहन में कपड़ों के आधार पर ही ये वर्गीकरण है, क्योंकि लड़की मतलब फ्रॉक, महिला मतलब साड़ी) के रास्ते में मिलते ही कठोर सी अंगुलियों से मेरे गाल खींचे जाते हैं।
असुविधा के बावजूद मैं ये तो सहन कर लेता हूं किन्तु कभी कभी जब किसी के द्वारा मुंह पास लाकर मेरे गाल चूमने की कोशिश होती है तो मुझे अच्छा नहीं लगता। यदि चूमने वाली के मुंह से हल्का गीला पन मेरे गालों पर लग गया तब तो मुझे रोना पड़ता है। वैसे मैं रोना नहीं चाहता लेकिन किसी के मुंह से थूक की हल्की सी लकीर बन जाए तो मुझे बेहद घिन आती है। लकीर चाहे कपड़े की हो, चाहे गीलेपन की, मुझे बेचैन करती है।
दिन बीतने लगते हैं, पर मैं गोद से बहुत कम उतारा जाता हूं।
कुछ महीने बीतते हैं कि घर में हर समय देखने के लिए एक और कौतूहल भरा दृश्य है, अब मेरी ही तरह एक और छोटा भाई भी हर समय घर में मेरे साथ, मेरे सामने है।
मेरा घर से बाहर रहना अब पहले से ज़्यादा हो गया है। लेकिन गोद में। एक से दूसरी गोद में।
मैं जब भी सोने के लिए बिस्तर पर लेटाया जाता था, मुझे हमेशा तुरंत ही नींद आ जाती थी। किन्तु मेरी यादों में एक दृश्य अभी भी ऐसा है जो सोने से पहले नींद गहराने के समय आया करता था।
इस दृश्य में मैं किसी भी पालने जैसी किसी चीज़ में होता था और ये ज़मीन पर, पानी में या हवा में तेज़ी से दौड़ती हुई दिखाई पड़ती थी। और इसमें कभी कभी कोई मेरे साथ भी होता था। कोई भी, कभी देखा हुआ सा कोई चेहरा, या फ़िर अस्पष्ट सा कोई बुत।
मैं आज भी कुछ दृश्यों को अपने दिमाग में ठहरा हुआ पाता हूं जो मेरे उस दौर के देखे हुए हैं।
मुझे हल्की सी याद मेरे पहले विद्यालय की भी है। मेरी कुछ शिक्षिकाएं अब भी मेरे दिमाग़ में उसी तरह जीवंत हैं।
एक बात आपको बता दूं कि घर से स्कूल जाने के रास्ते में गली पार करके एक गेट से गुजरना पड़ता था जिस पर एक महिला के बहुत सुंदर और कलात्मक चित्र के साथ कुछ ऐसा लिखा था कि औरत का सम्मान करने से भगवान खुश होते हैं। वस्तुतः भगवान वहीं रहते हैं जहां नारी का वास हो।
मेरी पहली शिक्षिकाओं में मंजु गांधी, कृष्णा जोबनेर, शांति आनंद मुझे अब तक याद हैं।
इनमें से मंजु गांधी से मैं थोड़ा भयभीत रहता था। इसके दो कारण थे- पहला कारण तो ये था कि वो बहुत छोटी थीं, मुझे हर समय लगता था कि बच्चों की भीड़ को वे कैसे संभालेंगी, कहीं गुस्सा होकर वो किसी बात पर डांट न दें। दूसरे, एक दिन मेरे छोटे भाई ने उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे गोद में लेने पर उनकी चोटी ज़ोर से खींच दी थी। मैं सोचता था कि कहीं वे उस के बदले मुझे डांट न दें।
पर मैं उनसे डरते हुए भी किसी न किसी तरह उनके पास ही बना रहता था क्योंकि उनके सामने रहने पर लड़कियां मेरे गाल नहीं खींचती थीं।
एक और साल बीतते बीतते तो मेरी टीचर कृष्णा जोशी, अन्नपूर्णा गौड़ और अरुणा तिवारी भी हो गई थीं।
मुझे शांति आनंद बहुत स्नेह करती थीं क्योंकि मैं उन्हें चित्र बनाते हुए ध्यान से देखा करता था। वो बहुत सुंदर चित्र बनाती थीं। उनका पक्षियों के पंजे बनाना मुझे आज भी याद है। ब्रश हाथ में लेकर कमल की पंखुड़ी में कलात्मक ढंग से गुलाबी रंग भरना मेरे प्रयास को भी चुनौती देता था। वे कहती थीं कि चित्र बनाते समय कभी किसी की नकल नहीं करनी चाहिए, पर मैं वही बनाने की कोशिश किया करता था जो वे बनाती थीं।
सब कहते थे कि मैं बहुत सुंदर चित्र बनाता हूं।
यहीं से मैं अपने आसपास वालों और अपने में एक अंतर महसूस करने लगा।
मैं देखता था कि सभी बच्चे चित्र बनाते समय लगभग एक से पहाड़ बना रहे हैं, एक सी चिड़िया, एक सी नदी और एक से पेड़ बना रहे हैं, पर मेरे पहाड़, नदी, चिड़िया, पेड़ सबसे अलग होते। मैंने कभी अपने साथ वाले बच्चों की नकल करके चित्र नहीं बनाया, पर मैं देखता था कि मेरे पास बैठने वाले बच्चे चित्र बनाते समय बार बार मेरे चित्र को देखते, फ़िर अपना चित्र बनाते।
मैं अच्छा बना रहा हूं,इस बात की पुष्टि इस तरह भी होती थी कि कोई भी बच्चा जब टीचर के पास जाकर कहता कि चित्र पूरा हो चुका है, उसे नया काग़ज़ दिया जाए, तो शिक्षिका हमेशा यही कहती थीं कि अभी और बनाओ, जो जगह खाली बची है उसे भी भरो।किन्तु मेरे अपना चित्र उनके पास लेकर जाते ही वे उसे रख लेती थीं और मुझे दूसरा काग़ज़ दे दिया जाता था, जबकि कई बार मैं देखता था कि काग़ज़ पर अभी बहुत सी जगह बाक़ी है।
दो तीन बार इस तरह का अनुभव होने के बाद एक दिन मैंने जानबूझ कर ये जानने की कोशिश की, कि सचमुच जीजी (हम अपनी शिक्षिका को जीजी ही कहते थे, जिसका अर्थ था बड़ी बहन) क्या मुझे और बच्चों की तरह पूरा काग़ज़ भरने के लिए नहीं कहती हैं ? वे नया काग़ज़ लेने के मेरे निर्णय को आसानी से मान लेती हैं?
सब बच्चे काग़ज़ पर जंगल या गांव के दृश्य बना रहे थे जिनमें घर, पेड़, जानवर आदि सभी थे और काग़ज़ का कोना कोना भरा जा रहा था। मैंने अपने काग़ज़ पर केवल पीपल का एक पत्ता बनाया और बहुत सारी जगह ख़ाली छोड़ दी। फ़िर भी जब सबने अपने काग़ज़ लौटाए और उन्हें नया काग़ज़ दिया गया तो जीजी ने मुझसे ये नहीं कहा कि काग़ज़ को पूरा भरो। बल्कि मेरा चित्र हाथ में उठा कर सभी बच्चों को दिखाया और तुरंत मुझे दूसरा काग़ज़ दे दिया। कई बच्चों को इससे अचंभा हुआ कि मुझसे काग़ज़ पूरा भरने को क्यों नहीं कहा गया।
मैंने देखा कि कुछ बच्चे अब मेरे चित्र की नकल करके चित्र बना रहे थे।
कुछ समय बाद मैंने देखा कि मेरे लिए बाज़ार से रंग और काग़ज़ भी सबसे अच्छे और अलग लाए जाने लगे। जब कक्षा के और बच्चे पेंसिल से लिखते मैं स्केच पेन भी मांगता तो मुझे मिल जाता। मुझे वो मोटा काग़ज़ भी मिलने लगा जो बड़े बच्चों को दिया जाता था।
धीरे धीरे कभी कभी ऐसा भी होने लगा कि जीजी से छिपा कर कोई बच्चा चुपचाप मुझसे कहता कि मैं उसके काग़ज़ पर कुछ चित्र बना दूं। मैं ऐसा कर देता।
कुछ दिन बाद मैंने ध्यान दिया कि मैं पक्षियों को बहुत गौर से देखता हूं। मुझे उनके नाम, रंग, आकार आदि याद भी होने लगे। सबसे ज्यादा मैं इस बात पर ध्यान देता कि किस पक्षी के पंजे कैसे हैं, और बारीकी से देख कर उनके चित्रों में मैं बिल्कुल वैसे ही पंजे बनाने की कोशिश करता।
वैसे ही मैं पक्षियों की चोंच भी वास्तविक आकार की बनाने की कोशिश करता। मोर, तोता, मैना, कबूतर, बतख आदि मैं आसानी से बनाने लगा।
मैं विभिन्न जानवरों को भी उनके हाव भाव देख कर वैसा ही बनाने की कोशिश करने लगा।
इन दिनों की और जो बातें मुझे याद हैं उनमें एक ये भी है कि मेरी रुचि खेल में बिल्कुल नहीं होती थी।
खास कर के शाम के समय जब ज़्यादातर बच्चे खेलने के लिए घर से निकलते तो मैं उनके साथ निकलता तो था, पर मेरी रुचि खेलने में नहीं रहती थी। कई बार केवल खेल को देखता था या फ़िर मैं खेल के समय कहीं इधर उधर घूमना पसंद करता था।
खेल देखते समय मुझे एक अनुभव और हुआ जो मुझे आज तक याद है।
अक्सर खेलते खेलते बच्चों में किसी न किसी बात पार विवाद,बहस या झगड़ा हो जाता था। ऐसे में वे अपनी टीम या दोस्ती के आधार पर एक दूसरे का पक्ष लेते। मैं, क्योंकि खेल नहीं रहा होता था, मुझे किसी एक पक्ष में नहीं माना जाता था और प्रायः विवाद की स्थिति में मुझसे पूछ कर निर्णय लिया जाता। ये बात अंदर ही अंदर मुझे बहुत अच्छी लगती और मुझे बहुत मज़ा आता था।
बच्चों के क्रिकेट आदि खेलते समय इसी कारण से मुझे अंपायर भी बना दिया जाता था।
किन्तु खेल में मेरी रुचि न होने के कारण मुझे खेलों के नियम भी अच्छी तरह मालूम नहीं होते थे और इसलिए अंपायर बनने से मैं एक तनाव में आ जाता था। इसलिए मैं अंपायर बनने से भी बचा करता था।
खेल के समय जब बच्चे टीम बना रहे होते, तब यदि संख्या के आधार पर किसी ओर खिलाड़ियों की कमी होती तो कभी कभी मुझे भी टीम में शामिल कर लिया जाता था।
पर मुझे खेलते समय कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता था। जो बच्चे कैच छूट जाने पर एक दूसरे को बुरी तरह कोसा करते थे, वे मुझसे कैच छूटने पर कुछ न कहते। मुझे किसी कठिन काम के लिए केवल तभी कहा जाता था, जब काम बहुत ज़रूरी हो और उसे करने वाला और कोई न हो।
इस तरह के खिलाड़ी को बच्चे "कच्ची रेडी" वाला खिलाड़ी कहते थे। अर्थात ऐसा खिलाड़ी, जिससे किसी को कोई उम्मीद न हो।
लेकिन मेरे खेल को लेकर कभी कोई दोस्त या दूसरा खिलाड़ी किसी तरह की टीका टिप्पणी नहीं करता था।इसका कारण ये था कि वे सभी,स्कूल की अन्य सभी बातों में मुझे अपने से आगे मानते थे।
दूसरा कारण ये भी था कि मैं हम तीन भाइयों में बीच का था, जिसका एक बड़ा भाई और एक छोटा भाई वहां हमेशा मौजूद होता। तीन भाई होने से मोहल्ले में हमारे दोस्त भी ढेर सारे होते थे।
हमारे चौथे,सबसे बड़े भाई काफ़ी बड़े होने के कारण पढ़ाई के लिए अक्सर बाहर ही रहते थे।
स्कूल में मैं अपनी कक्षा का सबसे तेज़ छात्र माना जाता था। केवल पढ़ाई ही नहीं, बल्कि अन्य कई बातों में मुझे आगे रहने का अवसर मिलता। मैं अपनी क्लास का हमेशा मॉनिटर भी रहता।
विद्यालय में प्रार्थना के समय के बाद अख़बार से पढ़ कर समाचार सुनाने का प्रचलन था, मुझे याद है कि मुझे इसका मौका किसी भी अन्य विद्यार्थी की तुलना में अधिक मिलता था।
मेरे विद्यालय में लड़के बहुत ही कम संख्या में होते थे, क्योंकि ये लड़कियों का ही स्कूल था। हर क्लास में पच्चीस तीस लड़कियों के बीच में दो तीन लड़के ही होते थे। संयोग से मैं तो कई बार अपनी कक्षा में लड़कियों के बीच अकेला छात्र भी रहा।
ये एक महिला विश्वविद्यालय के अहाते में बना स्कूल था, जहां केवल वही लड़के होते थे, जिनके माता पिता विश्वविद्यालय में काम करते हों। जबकि लड़कियां देश भर से आकर छात्रावास में रहती थीं। कुछ छात्राएं भी स्टाफ की होती थीं।
ये एक ऐसा स्कूल था जहां काम करने वाले लोगों के कुछ लड़के भी अपनी पढ़ाई के लिए दूसरे शहरों में बाहर चले गए होते थे,और इसके उलट विभिन्न परिवारों में पढ़ाई की सुविधा के चलते दूर दूर के रिश्तेदारों की लड़कियां भी आकर परिवारों में रहा करती थीं।
हम देखते थे कि हमारे साथ पढ़ने वाली लड़कियों में देश के कई राज्यों से आई हुई लड़कियां होती थीं। पंजाबी, बिहारी, बंगाली से लेकर दक्षिण और उत्तर पूर्व तक के राज्यों की।
हम शुरू में एक दूसरे की भाषा, रीति रिवाज और खानपान पर एक दूसरे को आपस में चिढ़ा कर परिहास करते, पर जल्दी ही एक दूसरे से परिचित होकर आत्मीय और घनिष्ठ मित्र भी हो जाते।
लड़कियों का शिक्षा परिसर होने के कारण हम लोगों को एक अनुशासन में रहना पड़ता था और ज़्यादातर लड़के भी संकोची स्वभाव के बन जाते थे।
मुझे अपने प्राथमिक विद्यालय की एक बात और याद है। मैं लड़कियों में शारीरिक ताक़त को देख कर ही उनसे प्रभावित होता था। आज आप मुझसे पूछें कि मेरे विद्यालय की सुन्दर लड़कियां कौन कौन थीं तो शायद मैं न बता पाऊं,परन्तु मंजु हांडा, कुलजिंदर कौर, शकुन्तला जालान, विक्रम वीर ढिल्लन जैसी लड़कियां मुझे याद हैं जो लंगड़ी टांग, कबड्डी, लंबी कूद आदि में हमेशा हम लोगों से जीत जाती थीं। लड़के उनके सामने निरीह से दिखाई देते थे।
इसी तरह मैं उन लड़कियों से भी बहुत प्रभावित होता था जो पढ़ने में बहुत तेज़ होती थीं। उषा खन्ना, सरिता,चंद्रकिरण आदि बहुत अच्छी हिंदी लिखती थीं और भाषा में त्रुटियां नहीं करती थीं।
हमारे गणित के अध्यापक उपाध्याय जी होते थे,जो बहुत वयोवृद्ध थे। वे बहुत धीरे धीरे चलते हुए स्कूल आते थे, और कभी कभी उनके हाथ में एक छड़ी भी हुआ करती थी। वे मुझे बहुत पसंद करते थे और मुझे हमेशा अपना प्रिय छात्र मानते थे। मैं भी दूर से उन्हें विद्यालय आता देख कर बाहर निकल कर रास्ते पर चला जाया करता था और फ़िर उनकी छड़ी अपने हाथ में लेकर उन्हें अपने साथ स्कूल में लाया करता था।
सच कहूं, मुझे गणित विषय केवल तभी तक अच्छा लगा जब तक उनका हाथ मेरे कंधे पर रहा।
वे कक्षा में आते ही बैठ कर हमें सवाल बोल कर लिखवाया करते थे, फ़िर जो विद्यार्थी उसे हल करले, उसी से अन्य विद्यार्थियों के लिए बोर्ड पर उसे लिखवाया करते थे।
अधिकतर ऐसा होता था कि मैं ही सबसे पहले सवाल हल करता था,किन्तु यदि कभी ऐसा हुआ कि मैं सवाल को हल नहीं कर पाया तो वे स्वयं खड़े होकर सवाल को बोर्ड पर दोबारा समझाते थे। ऐसे में उन लड़कियों को अचंभा होता ही होगा जो मुझसे पहले सवाल हल कर लें।
उपाध्याय जी बहुत लंबे और वृद्ध थे और हमेशा खादी के हल्के पीले, बादामी, भूरे रंग के वस्त्र पहना करते थे। पुराने ज़माने के आदर्श शिक्षक की छवि जैसी बताई जाती, उस पर वे खरे उतरते थे।
हिंदी से भी मेरा संबंध बहुत छोटी अवस्था से बनने लगा। शिवरानी भार्गव, शीला माथुर मेरी हिंदी की शिक्षिका थीं।
एक और बात जो मुझे अच्छी तरह याद है,एक बार "मिल" शब्द को लेकर हमारे विद्यालय में बहस छिड़ गई। इसका कारण ये था कि स्कूल में खादी के कपड़े पहनना अनिवार्य था। विद्यार्थी दो ही किस्मों के बारे में बात करते थे, खादी के कपड़े या फ़िर मिल के कपड़े।
इसी मिल के कपड़े को अधिकांश लोग बोलचाल में मील के कपड़े कहते थे। मगर एक दिन "श्रुतलेख" की परीक्षा में ये शब्द बोला गया। मैंने इसे इसी तरह लिखा था - मिल।
किन्तु कक्षा की अधिकांश छात्राओं द्वारा "मील" लिखे जाने के कारण अध्यापकों में भी ये बहस छिड़ गई कि सही शब्द क्या है। यहां तक कि एक टीचर भी ज़्यादा लड़कियों के लिखने के कारण मील को ही सही बताने लगीं पर शिवरानी जी ने दृढ़ता से मेरा पक्ष लिया और मेरे लिखे को सही ठहराया। आज छप्पन साल बाद भी नाक में चमकती लौंग पहनने वाली मेरी प्रिय अध्यापिका का वो चेहरा मुझे याद है जिसने मेरे भाषा ज्ञान पर इतना भरोसा जताया।
तबसे मुझे भाषा को लेकर भी अपने सामर्थ्य पर कुछ अतिरिक्त भरोसा होने लगा।
मुश्किल से एक दशक भर ही तो हुआ होगा तब मुझे दुनिया में आए।
विश्व विद्यालय के इस परिसर में रहते हुए कई मशहूर लोगों को समय समय पर देख पाना तो सुलभ होता ही था, कई विख्यात चित्रकार, संगीतज्ञ, अध्यापक भी हमारे यहां होते थे।
देश के एक नामी चित्रकार देवकीनंदन शर्मा मेरे एक मित्र के पिता थे, और संयोग देखिए कि वे मेरे पिता के मित्र भी थे।
चित्रकला के प्रति बारीक बातों को समझने के लिए मेरे आदर्श वही थे। मैं उनके पास बहुत देर तक बैठ कर उनकी चित्रकारी देखा करता था।
एक बार मुझे याद है कि मैं और मेरा छोटा भाई बैठ कर ख़ाली काग़ज़ पर अपने अध्यापकों के हस्ताक्षर बनाने की कोशिश कर रहे थे। तभी अचानक मेरे पिता के साथ नज़दीक के कॉलेज के प्रिंसिपल,और कुछ और लोग आए। हमारे उन्हें नमस्कार कहते ही उन्होंने मुझसे पूछा- बच्चो क्या कर रहे हो?
मैंने कहा- सभी अध्यापकों के साइन बनाने की प्रैक्टिस कर रहे हैं।
वे बोले - गलत बात!
पर उन्होंने ग़लत बात इतने लय से कहा कि मुझे अच्छा लगा। मुझे इस बात का ज़रा भी अहसास नहीं हुआ कि मुझे किसी बात से रोका गया है।
किन्तु उनकी बात का असर मुझ पर जीवन भर रहा। मेरे हाथ आज भी किसी और के हस्ताक्षर बनाते समय कांप जाते हैं।
ये बात ज़रूर थी कि लड़के संख्या में लड़कियों के मुकाबले बहुत कम होते थे, और लड़कियां भी इस बात का फ़ायदा उठाने में कभी चूकती नहीं थीं, लेकिन फ़िर भी मैं लड़कों में लड़कियों से श्रेष्ठता का एक छिपा भाव देखता था। कई बार मौका मिलते ही लड़के लड़कियों से भिड़ जाते थे और किसी न किसी तरह उन्हें ये जता देते थे कि वे उनकी श्रेष्ठता स्वीकार नहीं करते।
आपस में तू तू मैं मैं भी हो जाती,पर ये सब निर्भर होता था इस बात पर, कि ऐसा मौका लड़कों को कहां और कैसे मिलता है।
हमारे विद्यालय में लड़के लड़कियों के लिए अलग अलग शौच घर नहीं था। जो था,वह लड़कियों की सुविधा के अनुसार ही बना हुआ था।
पेशाब घर भी इस तरह बना हुआ था कि भीतर छोटे छोटे, बंद हो सकने वाले खंड ही बने हुए थे। आधुनिक पुरुष शौचालयों जैसी सामूहिक व्यवस्था नहीं थी जिसमें खुली कॉमन जगह में कई लोग खड़े खड़े पेशाब करने जा सकें।
ये जगह और ये क्रिया हमेशा ही मेरे लिए तनाव का एक कारण हुआ करती थी। इसलिए मैं भरसक इस बात की कोशिश किया करता था कि मुझे विद्यालय समय में इस क्षेत्र में जाने की जरूरत ही न पड़े।
एक दिन कक्षा के अंतिम कालांश में मुझे पेशाब घर जाने की जरूरत आ पड़ी। घर जाने में देर थी, इसलिए जाना ही पड़ा। किन्तु वहां लड़कियों का लगभग तांता ही लगा हुआ था। एक छात्रा बाहर निकलती उससे पहले दूसरी को भीतर घुसने के लिए वो ही आमंत्रित कर देती। और दूसरे लड़कों की तरह बोलने या चिल्लाने की धृष्टता विद्यालय में मैं कभी नहीं कर पाता था।
मैं भरसक अपने पर नियंत्रण रख कर चुपचाप एक ओर खड़ा लड़कियों की कतार के खत्म होने का इंतजार करता रहा। नतीजा ये हुआ कि मैं अपने को रोक नहीं सका और खड़े खड़े ही मैंने एक कोने में आंसुओं से रोना शुरू कर दिया। शरीर के दो भागों से एक साथ टपकने की ये सार्वजनिक शर्मिंदगी मेरे जीवन का एक ऐसा अध्याय है जिस पर मैं आधी सदी बीत जाने पर भी कभी हंस नहीं पाया।
अच्छा यही हुआ कि मुझे उस अवस्था में देख लेने वाली लड़कियों में सभी छात्रावास की लड़कियां ही थीं,इसलिए बात छात्रावास से बाहर अा कर फैली नहीं। यदि कोई लड़का या फ़िर घरों में रहने वाले स्टाफ की कोई लड़की उस समय वहां होती तो बात मेरे घर तक भी आ सकती थी।
केवल एक लड़की दीपा चौधरी को मैं जानता था जो उस समय वहां थी और यदि वो चाहती तो मेरी क्लास की लड़कियों तक ये बात पहुंचा सकती थी। थैंक गॉड, कि उसने ऐसा नहीं किया। मेरे मन में उसका सम्मान उस दिन के बाद और भी बढ़ गया था।
मुझे याद है कि उस दिन के बाद विद्यालय में रहते हुए मैं कभी शौच घर नहीं गया।
एक बार चित्र बनाते समय मुझे कुछ फूलों के चित्र बनाने थे और मैं नज़दीक से देखना चाहता था कि गुलाब और कनेर के फूल में क्या क्या अंतर होते हैं, क्योंकि देखने में दोनों ही एक से दिखाई देते थे। रंग भी दोनों का गुलाबी ही था।
विद्यालय की वाटिका में घूमते हुए मैंने देखा कि कनेर के फूल बिल्कुल शौचघर के करीब ही लगे हुए हैं। दूर से देख कर मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं शौचघर के नजदीक जाऊं। मैं लौट आया।मैंने कनेर का फूल अपनी कल्पना से ही बनाया और शायद पहली बार मुझे जीजी (अध्यापिका) से ये सुनना पड़ा कि आगे से कनेर के फूल को बनाने से पहले ध्यान से देखना। मैंने शायद उस दिन के बाद से कनेर के फूल का चित्र भी नहीं बनाया।
मुझे बचपन में बस के सफ़र में हमेशा उल्टी आया करती थी। बस में थोड़ी देर भी बैठना पड़े तो चक्कर आने लगते थे। इसलिए मैं कहीं भी जाने की बात पर कभी खुश नहीं हुआ करता था। जबकि मेरे मित्र कहीं भी जाने का कार्यक्रम बनने पर खासे उत्साहित होते थे। कहीं नई जगह घूमने का चाव बस के सफर को याद करके ख़त्म हो जाता था।
मेरा विद्यालय जिस शहर में था वहां से उस समय रेल से जाने की सुविधा नहीं थी। कार जैसा वाहन उस समय हज़ार में किसी एक के पास भी मुश्किल से होता था।
एक बार अख़बारों के माध्यम से सारे में ये खबर फ़ैल गई कि दुनिया में "अष्ट ग्रह योग" लग रहा है जिसके कारण बड़ी उथल पुथल होगी और कई लोगों को तरह तरह के कष्ट सहने पड़ेंगे।
हमारे विद्यालय के परिसर में अधिकतर लोग शिक्षा से जुड़े हुए थे, इसलिए ऐसी बातों को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाता था, और उनकी चार चर्चा मात्र परिहास व मनोरंजन के स्तर पर ही होती थी।
हमारे विद्यालय में उस दिन नज़दीक के एक पिकनिक स्पॉट पर घूमने जाने का कार्यक्रम बना लिया गया, जिसमें विद्यार्थियों और शिक्षकों को दिनभर के लिए जाना था।
इस स्थान पर एक आकर्षक झील थी। फासला कुछ किलोमीटर तक का था। ये दूरी इतनी थी कि अधिकांश विद्यार्थियों ने पैदल ही जाना पसंद किया। फ़िर भी दो तीन वाहन साथ में लिए गए ताकि ज़रूरत पड़ने पर उनका उपयोग किया जा सके।
ग्रामीण क्षेत्र होने के कारण वाहनों में ट्रैक्टर ट्राली, ऊंट गाड़ी जैसे साधन भी थे।
हम लोग हरे भरे खेतों के बीच से गुजरते हुए पैदल ही उस स्थान तक गए। कुछ शरारती छात्र-छात्राएं वाहनों पर हुड़दंग मचाते हुए भी चले।
मुझे भी और कई बच्चों की तरह पानी के किनारे घूमते हुए मिट्टी कीचड़ से शंख और सीपियां इकट्ठा करने का शौक़ था।
हम कुछ लोग झील के किनारे इसी तरह सीपियां ढूंढ़ते हुए घूम रहे थे कि अचानक पानी के बीच से एक बड़ा शंख उठाने की कोशिश में एक लड़की का पैर फिसल गया। थोड़ा कीचड़ मिट्टी में सन जाने के बाद वह तत्परता से उठ तो गई किन्तु उसके पैर से चप्पल निकल कर पानी में बहने लगी।
वहां हम चार पांच बच्चे ही थे, बाक़ी लोग और शिक्षक गण कुछ दूरी पर अलग अलग खेल, वार्तालाप, गीत संगीत आदि में व्यस्त थे।
हमारे दल में सभी लड़कियां ही थीं और अकेला लड़का केवल मैं ही था। एकाएक न जाने मुझे क्या सूझा कि मैं उस लड़की की चप्पल पानी से निकालने की कोशिश में थोड़े गहरे पानी में चला गया। मुझे बिल्कुल भी अंदाज़ नहीं था कि पानी के नीचे दिखाई देने वाली मिट्टी वास्तव में दलदल है। मेरे पैर फंसने लगे। मैं तैरना भी नहीं जानता था कि गहरे पानी की ओर बढ़ जाऊं।
मेरे चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं और साथ की लड़कियां भी बुरी तरह घबरा गईं। सबके चेहरे से परिहास की वो हंसी तत्काल गायब हो गई जो अभी अभी उस लड़की के फिसल जाने से आई थी।
एक लड़की ने घबरा कर चिल्लाते हुए शिक्षकों की टोली की तरफ़ भागना चाहा, पर तुरंत ही दूसरी लड़की ने उसे हाथ पकड़ कर रोक लिया और वे सभी मेरी ओर हाथ बढ़ा कर मुझे सहारा देने की कोशिश करने लगीं।
आख़िर उन सबके सहयोग से किसी तरह पैर घसीटता हुआ मैं दलदल से बाहर आ पाया।
मेरे कपड़े भीगने से, और उन सबके कपड़े छीटों से सराबोर हो गए। कीचड़ में फिसली लड़की ने भी झटपट किनारे के पानी से अपने पैर धोए, और धूप में थोड़ा वक्त बिताकर हम लोग वापस अपनी पूरी कक्षा के विद्यार्थियों में आकर ऐसे मिल गए जैसे कुछ हुआ ही न हो।
तो ये था हमारी मित्र मंडली का अष्ट ग्रह योग!
लौटते समय हम लोग थक कर चूर होने पर भी हंसते गाते हुए वापस आए। रास्ते में खेतों के बीच एक घाणी में ताज़ा निकलता हुआ गन्ने का रस हमने पिया। यहीं हमने उबलते हुए रस से गुड़ बनते हुए भी देखा।
उस रात अपने बिस्तर पर सोते हुए तरह तरह के ख्याल मुझे आते रहे। पानी के बीच फंस जाने का दृश्य भी बार बार आंखों के सामने आया।
मैं तकिए पर से धीरे से सिर उठा कर बार बार अपने चारों ओर सोए घरवालों को देखता था और सोचता था कि यदि आज मैं पानी में डूब जाता तो सबका क्या हाल होता। क्या ये सब इसी तरह आराम से सोए हुए होते?
हमारे विद्यालय में देश भर से लड़कियां आती थीं जो साल ख़त्म होने पर छुट्टियों में अपने अपने घर चली जाती थीं। जुलाई के महीने में जब वे सब वापस लौटती थीं तो हमें उनसे जगह जगह की विचित्र बातें सुनने को मिलती थीं।
कैंपस में रहने वाले स्टाफ के लोग भी छुट्टियों में दूर दूर चले जाते थे। बहुत थोड़े से लोग ही तब कैंपस में रह जाते थे। उनमें अधिकांश लोग या तो स्थानीय होते थे,या फ़िर ऐसे जिनकी ड्यूटी छुट्टियों में भी किसी न किसी काम के लिए लगती थी।
उनके बच्चे भी छुट्टियों में वहां रहते।
बस,फर्क ये आता था कि छुट्टियों में बहुत थोड़े से ही लोग रह जाते तो उसी अनुपात में बच्चे भी कम हो जाते, और हम सब नया समूह बना कर, नई दोस्तियां बना कर, नई दिनचर्या में घूमते खेलते थे।
कई बार छुट्टियों में मैं भी परिवार के साथ बाहर चला जाता।
जब सब लौटते तो एक नई ताज़गी होती थी क्योंकि हम सब अगली कक्षा में आ चुके होते थे।
हमारा विद्यालय क्योंकि लड़कियों की शिक्षा के लिए समर्पित था, इसलिए वहां के पाठ्यक्रम भी घर की संपूर्ण देखभाल करने योग्य व्यक्तित्व तैयार करने वाले थे।
मतलब हमें छोटी कक्षा से ही भोजन बनाने, सिलाई कढ़ाई करने और साज सज्जा सफ़ाई करने की तालीम दी जाती थी।
इसको लेकर भी कुछ लड़के कुपित होते थे कि ये सब काम हमें सीखने की क्या जरूरत है। लेकिन मैं स्कूल की पढ़ाई को स्कूल की पढ़ाई की तरह ही मानता था और इन सब बातों में भी गहरी रुचि लेता था।
और लड़कों के साथ ये अंतर धीरे धीरे घर में भी जल्दी ही दिखाई देने लगा।
शाम का खाना घर में ज़्यादातर मेरी बड़ी बहन बनाया करती थी।इसका कारण ये था कि मेरी मां भी नौकरी करती थीं।
शाम होते ही जब ज़्यादातर बच्चे खेलने के लिए घर से निकल जाते थे, मैं खाने की पूर्व तैयारी में अपनी बहन का कभी कभी हाथ बंटाया करता था, जैसे सब्ज़ी धोना, काटना, और कभी कभी रसोई के दूसरे कामों में भाग लेना।
लेकिन ये काम नियमित रूप से तो लड़कियों द्वारा ही किए जाते थे। हां,चाय बनाना मुझे बहुत छोटी अवस्था से अा गया था।
उन दिनों हमारे परिसर में दूध के लिए भी एक गौशाला होती थी। मुझे याद है कि मेरा बड़ा भाई और छोटा भाई गौशाला से दूध लेने कभी नहीं गए। ये या तो मेरा काम होता या फ़िर घर में दूध देने आने वाले ग्वाले से दूध लिया जाता।
यदि घर में कोई मेहमान अा जाए तो उसके लिए घर में रुकना, खेल स्थगित कर देना, आवभगत में भाग लेना, ये सब मुझे भाता था।
एक ही परिसर में रहते हुए मेरे अन्य भाई या मित्र जिन लोगों को नहीं जानते थे,या नहीं मिलते जुलते थे,उनसे भी अक्सर मेरी पहचान होती।
ये सब बातें मेरे व्यक्तित्व में क्या जोड़ रही थीं, क्या घटा रही थीं,इतनी समझ मुझे उस समय नहीं थी।
पर ये मैं अच्छी तरह से अनुभव करता था कि केवल अपने काम से काम रखने वाला मैं नहीं हूं।
कुछ दिनों के लिए हमारे पड़ोस में एक परिवार रहने के लिए आया, उनमें एक लड़की मेरे साथ मेरी ही क्लास में पढ़ती थी।
धीरे धीरे हम एक साथ स्कूल जाने लगे। वैसे ज़्यादातर कॉलोनी से बहुत से बच्चे एक साथ झुंड बनाकर ही स्कूल जाया करते थे।
वह लड़की बहुत बोलती थी। अक्सर वह बेहद विश्वसनीय तरीके से कोई घटना कहानी की तरह ही सुनाना शुरू करती, लेकिन बाद में खुद ही ऐलान कर देती कि ये सब बातें मन गढ़ंत हैं।
मुझे अचंभा होता था कि जब वह एक बार ऐसा कर चुकी हो, तो दूसरी बार उसकी बात पर विश्वास किया ही क्यों।
उसका ज़िक्र आज केवल इसलिए करना पड़ता है कि उसकी झूठ बोलने की आदत के कारण एक बार मेरे बड़े भाई को पिता से मार खानी पड़ी और खुद मुझे अपनी मां से डांट खानी पड़ी।
हमारे पास उस समय उसकी बात को गलत सिद्ध करने का कोई जरिया नहीं था, और दूसरे मुझे ऐसा भी लगता है कि वो समय किसी शिकायत के मामले में दूसरों के बच्चों के बदले अपने बच्चों को डांटने का ही था।
मैंने कभी अब तक किसी से डांट खाना तो दूर,अपने से किसी को ऊंची आवाज़ में बोलते भी नहीं सुना था। मां से मिली इस डांट ने मुझे पहला सबक ये सिखाया कि दुनिया में सब आंख मूंद कर भरोसा करने लायक नहीं होते।
मैं बहुत छोटा था, पर याद से कह सकता हूं कि मैं उसके बाद अकेले किसी लड़की के साथ चलने-घूमने की बात पर चिढ़ने लगा था। चाहे वह साथ पढ़ने वाली, पड़ोस में रहने वाली ही क्यों न हो।
अगर कभी अचानक ऐसा मौका आ भी जाए तो मैं अपने किसी दोस्त को ज़रूर अपने साथ बुला लेता था।
जैसा कि मैं बता चुका हूं,क्लास में अकेला लड़का होने के कारण दोस्त वैसे भी बहुत कम, गिने चुने होते थे। शायद यही कारण हो कि मेरे दोस्तों में मुझसे बड़ी क्लास में पढ़ने वाले लड़के भी बहुत हैं, और मुझसे छोटी क्लास में पढ़ने वाले भी।
कभी कभी सोचता हूं कि बड़े लड़कों ने जल्दी समझदार बना दिया तो छोटे लड़कों ने उगती उमंगों को बरकरार रखना सिखाया।
शायद ये मेरी चित्रकला में रुचि होने का ही परिणाम था कि बड़ी क्लास की लड़कियां भी, यहां तक कि कॉलेज तक में पढ़ने वाली कभी कभी अपनी प्रेक्टिकल या प्रोजेक्ट की कॉपियों और फाइलों में मुझसे चित्र बनवाया करती थीं। मुझे ये बहुत अच्छा लगता था क्योंकि इससे साथियों के बीच महत्व तो मिलता ही था,अन्य कक्षाओं के विद्यार्थियों के बीच भी सम्मान मिलता था।
मेरी उम्र इतनी नहीं थी कि इस काम में कोई अपराध या गलती भांप सकूं। हां, दूसरों की बातें छिपाना मुझे अच्छे से आ गया था। क्योंकि ऐसा करते समय बड़ों और छात्राओं की यही हिदायत रहती थी कि किसी को बताना मत।
प्राथमिक विद्यालय की अंतिम कक्षा में आते आते मैं अपने स्कूल में विद्यार्थियों और शिक्षकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हो गया था।
हमारे विद्यालय से हर वर्ष एक शैक्षणिक भ्रमण का कार्यक्रम बनाया जाता था जो लगभग एक सप्ताह का होता था।
उस वर्ष इसके लिए राजस्थान के उदयपुर शहर को चुना गया।सबको एक बस द्वारा सात दिन की ये यात्रा करनी थी।
दो बातें मन ही मन मुझे परेशान करने लगीं।एक तो ये, कि मैं लगातार सात दिन तक बस का सफ़र कैसे करूंगा। मुझे चक्कर और उल्टी आने का भय सताने लगा।
दूसरे अपनी कक्षा में तो मैं अकेला लड़का था ही, दूसरे सेक्शंस के कोई भी लड़के इस टूर में नहीं जा रहे थे। अतः मुझे पूरे सात दिन अकेले ही रहना था।
मेरे पिताजी सोचते थे कि शायद एक बार हिम्मत करके बस का लंबा सफ़र कर लेने से मेरी चक्कर या उल्टी होने की समस्या हमेशा के लिए समाप्त ही हो जाए और मैं बस में सफ़र करने का अभ्यस्त हो जाऊं। मुझे उकसाया गया कि मैं इस मामले में ज़्यादा न सोचूं और अध्यापकों ने इस समस्या में काम आने वाली दवाएं भी साथ रख लीं।
हमारा सफ़र गाते हंसते शुरू हुआ और सचमुच एक दो दिन के बाद मुझे इस तरह की परेशानी आगे के सफ़र में बिल्कुल नहीं हुई। मेरी सीट पर मेरे साथ पार्टनर के तौर पर बैठी लड़की माया का भी इसमें बहुत सहयोग रहा। मुझे जब भी चक्कर आता वो मुझे खिड़की के पास वाली सीट तुरंत देती और तरह तरह की गोलियां, टॉफी,इलायची, नींबू आदि देकर मेरी सहायता करती।
मैंने भी उसकी इस कृतज्ञता का बदला उदयपुर के लेक पैलेस की गैलरी में एक दिन चुकाया। यदि पूरी बात आपको बताऊंगा तो आपको हंसी आयेगी।
पर नहीं बताऊंगा तो भी आपको कैसे पता चलेगा कि मैंने उसकी मदद कैसे की?
हुआ ये कि शैक्षणिक भ्रमण में उदयपुर के कई ऐतिहासिक स्थान देखने के बाद हमें विश्वप्रसिद्ध लेक पैलेस होटल दिखाने भी ले जाया गया। होटल के भीतरी भाग में पानी के बीच बने कलात्मक रास्ते से गुजरते हुए हमारे गाइड ने बताया कि भीतर एक छोटा म्यूज़ियम भी हमें दिखाया जाएगा। लेकिन गाइड ने ये भी कहा कि सब विद्यार्थी एक बार म्यूज़ियम के बाहर गैलरी में इकट्ठे हो जाएं, जहां से सबको गिन कर भीतर प्रवेश करेंगे।
कुछ देर पहले ही हम लोग खाना खाकर चुके थे। माया ने एकाएक मुझे कहा कि उसके पेट में दर्द हो रहा है और उसे शौच घर जाना होगा।
एक कर्मचारी से टॉयलेट पूछ कर वह जल्दी से उसमें घुस तो गई पर उसे ये भी डर था कि कहीं सब लोग उसे छोड़ कर म्यूज़ियम देखने न चले जाएं। उसने मुझसे कहा कि मैं वहीं बाहर रुका रहूं, ताकि बाद में उसके आने के बाद हम दोनों एक साथ जाएं।
मैं बाहर खड़ा हो गया।
उसे भी देर लगती देखकर मैं भी मन ही मन घबराने लगा कि कहीं हम दोनों ही पीछे न छूट जाएं।
मैं बेसब्री से इंतज़ार करते हुए दरवाजे की ओर देखता रहा कि वह निकले और हम भागें। बड़ी देर हो गई पर वह बाहर निकली ही नहीं।
मुझे चिंता हुई। एक बार मैंने सोचा कि जाकर टीचर को बता दूं। पर फ़िर संकोच कर गया। मैंने सोचा कि कहीं मेरे जाने के बाद वह बाहर निकल कर और भी घबरा न जाए।
मेरा धैर्य जवाब देने लगा।
मैंने एक बार टॉयलेट के नजदीक जाकर हल्की सी आवाज़ भी लगाई। पर टॉयलेट कॉमन था, वहां और भी महिलाएं भीतर हो सकती थीं।
तभी मैंने देखा कि हड़बड़ाते हुए माया ने थोड़ा सा दरवाज़ा खोला और कातर दृष्टि से मुझे देखने लगी। दरअसल उसकी सलवार का नाड़ा इस तरह अटक गया था कि उसमें गांठ लग गई थी। ज़ोर से खींचने की कोशिश में वह निकल भी सकता था।वह इसी उधेड़बुन में इतनी देर से लगी हुई थी।
एकाएक मेरी समझ में भी कुछ न आया पर टॉयलेट में और कोई न होने के कारण हिम्मत करके मैं झटपट उसके कक्ष में घुस गया। दरवाज़ा भेड़ कर जल्दी से मैंने नाखून से गांठ खोलने की कोशिश की, और संयोग से वह बिना टूटे या निकले हुए ही खुल गया।
झटपट दरवाज़ा खोल कर मैं आगे आगे भागा और पीछे से सलवार को बांध कर वो दौड़ी आई।
अपने इस जोखिम ने देर तक मेरी सांस रोके रखी।
हम दोनों दौड़ते हुए भीतर पहुंचे तब गाइड तीसरी बार बच्चों की गिनती कर रहा था।
(3)
हमारे विद्यालय की ख्याति देश भर में थी। यह एक आवासीय विद्यालय था। अपने साथ पढ़ने वाली छात्राओं के साथ कुछ दिन रह लेने के बाद हमें ये भी पता चलता था कि इतनी छोटी सी उम्र में अपने घर वालों को छोड़ कर इतनी दूर हॉस्टल में उनके चले आने का कारण क्या रहा होगा।
कई लड़कियां बताती थीं कि उनके शहर या राज्य में लड़कियों की शिक्षा के सुरक्षित प्रबंध नहीं हैं इसलिए वे यहां आती हैं। यहां ग्रामीण वातावरण, सादगी, सुरक्षा, मितव्ययता, केवल महिलाओं से नियंत्रित वातावरण और सम्पूर्ण शिक्षा की व्यवस्था एक ही परिसर में मिलने के कारण उनके घरवाले उन्हें यहां भेजना पसंद करते हैं।
मेरी कक्षा में देश के केंद्रीय मंत्री की पुत्री से लेकर हमारे मोहल्ले में सफ़ाई करने वाले जमादार की बिटिया तक एक साथ पढ़ती थीं।
ये अच्छा है, विचित्र है, या असुविधाजनक है, ये हम में से कोई नहीं जानता था।
हम सब यहां एक सी दुश्मनी और यारियां निभाते हुए बड़े हो रहे थे।
क्लास में किसी प्रखर मेधावी छात्रा के बारे में बाद में सुनने में आता कि इसके पिता इसे छठी कक्षा में प्रवेश के लिए लाए थे पर उसमें जगह न होने की सूचना विद्यालय द्वारा दिए जाने पर वे इसे पांचवीं कक्षा में ही प्रवेश दिला गए हैं। अलबत्ता उनकी प्राथमिकता ये थी कि बिटिया इस विद्यालय में पढ़े, चाहे उसका एक साल खराब हो जाए। पांचवीं कक्षा वो पहले भी पास कर चुकी होती।
इस परिवेश में पढ़ते हुए वार्षिक परीक्षा में सभी वर्गों को मिला कर मैं अपनी पूरी कक्षा में प्रथम आया।
यही नहीं, मेरे बाद दूसरे क्रमांक पर आने वाली छात्रा चंद्रकिरण या अन्य तेज़ छात्राओं- वीणा सिंह, सरिता आदि के अंक मुझसे बहुत कम थे।
मेरे शुभचिंतक और मित्र ये कह रहे थे कि मेरा विद्यालय में प्रथम आना महज कोई संयोग नहीं था।
मेरे शिक्षक और घरवाले बहुत खुश थे।
मुझे वो दिन भी याद है जब विद्यालय की सभी शिक्षिकाएँ मेरे माता पिता को बधाई देने इकट्ठी हो कर एक शाम हमारे घर भी आईं। मुझे याद है कि कुछ ही साल पहले हमारे विद्यालय में एक पुरुष शिक्षक भी आए थे,जिन्हें कुछ दिनों बाद ही विद्यालय का प्रधानाचार्य बनने का अवसर भी मिला।
ये हमारे साथ शैक्षणिक भ्रमण पर उदयपुर जाते समय भी साथ ही गए थे।
उदयपुर के नजदीक ऐतिहासिक हल्दी घाटी देखते हुए एक छात्रा को एक ऐसा पत्थर मिला जिस पर एक हल्की पर्त सोने की भी थी। बाद में इस बात की पुष्टि हुई कि वास्तव में वो सोना ही था, जो छात्रा को मिला। इसे हमारे विद्यालय के वार्षिक उत्सव के अवसर पर लगाई गई प्रदर्शनी में भी दर्शकों के देखने के लिए रखा गया था। मैं ये बात सबको गर्व से बताया करता था कि छात्रा ने पत्थर में सोने के होने की आशा की पुष्टि सबसे पहले मुझसे ही की थी।
शिक्षकों में महिलाओं की अधिकता होने के कारण हमारे स्टाफ में फेर बदल अपेक्षाकृत ज़्यादा ही हुआ करते थे।इसका एक कारण ये भी था कि अविवाहित शिक्षिकाओं के कुछ दिन बाद विवाह हो जाने, अथवा शिक्षिकाओं के पिता और पति आदि के स्थानांतरण होने के कारण उन्हें "अकारण" विद्यालय छोड़ कर जाना होता था।
विद्यालय में पर्याप्त संख्या विधवा हो चुकी, या तलाकशुदा और पति द्वारा छोड़ दी गई महिलाओं की भी थी जो अब वहां सेवा दे रही थीं और अपने परिवार का पालन पोषण कर रही थीं।
लोग कहते थे कि इस तरह की महिलाओं को चाहे और कहीं उपेक्षित या हेय दृष्टि से देखा जाता रहा हो पर वहां उन्हें पर्याप्त मान सम्मान देते हुए नियुक्त किया जाता था।
कुछ छात्राएं परिहास में ऐसा कहते हुए भी सुनी जाती थीं कि इस परिसर में हम दुनियां भर में पुरुषों के वर्चस्व और मनमानियों का बदला लेते हैं।
सचमुच सड़क पर चलते हुए हम लड़कों को ही नहीं, बल्कि वाहनों को भी एक ओर होकर, लड़कियों के लिए रास्ता छोड़ते हुए निकलना होता था।
इन्हीं दिनों मुझमें न जाने कैसे एक आदत विकसित हो गई कि मैं किसी की भी नकल उतारा करता था।
कॉलोनी में एक बंगाली प्रोफ़ेसर रहते थे जिनकी बेटी बच्चों को पढ़ाया करती थीं। वे बोलते समय कुछ अटकती थीं,और बाद में अपनी बात पर ज़ोर देने के लिए उसे बार बार दोहराती थीं।
मैं कभी कभी उनकी नकल किया करता था।
एक दिन मैंने देखा कि मेरी छोटी बहन उनके घर में बैठी बिस्कुट खा रही है,और उन्हें कुछ कह कर सुना रही है जिसे वो बड़े ध्यान से सुन रहीं हैं।
मुझे देखते ही वे बोलीं- यहां आओ, क्या तुम मेरी हंसी उड़ाते हो?
मैं एकदम से घबरा गया। बोला - नहीं जीजी...कभी नहीं।
तभी मेरी छोटी बहन बोली - झूठ बोल रहे हैं,कल तो आप हमको जीजी की नकल करके बता रहे थे।
मैं निरुत्तर हो गया। पर चोरी इस तरह खुले आम पकड़े जाने से नकल करने की मेरी आदत कुछ कम हो गई।
हमारे विद्यालय का वार्षिक उत्सव होने पर सभी विद्यार्थियों द्वारा बनाए गए चित्रों, अन्य कलात्मक वस्तुओं और चार्ट्स की प्रदर्शनी लगाई जाती थी।
अतिथियों के आते समय हम लोग अपने चित्रों के पास खड़े होकर उनके द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब भी देते थे। देश की कई बड़ी हस्तियां यहां उत्सव में आया करती थीं।
मुझे इस बात का गर्व हमेशा रहा कि देश के तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ ज़ाकिर हुसैन ने, जो बाद में देश के राष्ट्रपति भी बने, मुझे इस प्रदर्शनी के दौरान एक बार मेरा चित्र देखने के बाद गोद में उठाया था।
देश के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को भी बिल्कुल नज़दीक से देखने का मौका भी मैंने पाया। हमारे विद्यालय की वो छात्राएं जो पानी में नाव चलाना सीखती थीं, उन्हें नाव में सैर के लिए लेकर गईं।
उन्नीस सौ पैंसठ में पाकिस्तान और बासठ में चाइना के साथ हुए युद्ध का प्रभाव भी हम बच्चों पर पड़ा था। युद्ध के दौरान कई बार घोषित होने वाले ब्लैकआउट में भी हम लोगों ने उत्साह से भाग लिया था। रात को मकानों की बत्तियां गुल की जाती थीं।
हमारे विद्यालय की कुछ छात्राएं बताती थीं कि उनके पिता या अन्य परिजन सेना में हैं जिन्हें इस समय हर समय ड्यूटी पर तैनात रहने और कोई छुट्टी न लेने के लिए कहा जाता है।
एक बार ये खबर भी फैली कि युद्ध लंबे समय तक चलने पर देश के हर परिवार को कम से कम एक पुरुष सदस्य को सेना में भेजने का आग्रह किया जाएगा।
इस बात पर अविश्वास करते हुए भी कभी कभी मैं ये सोच कर डर जाता था कि यदि ऐसा हुआ तो मेरे पिता को भी सेना में जाने के लिए कहा जाएगा,जो किसी भी दृष्टि से मुझे फ़ौजी नहीं दिखाई देते थे।
लड़ाई खत्म होने के बाद हम सभी ने युद्ध को लेकर तरह तरह के चित्र विद्यालय में बनाए जिन्हें विद्यालय की दीवारों पर फ़्रेम करवा कर लगाया गया। चित्रों की कीमत भी निर्धारित करके उन पर प्रदर्शित की गई और बताया गया कि चित्रों की बिक्री की आय युद्ध में घायल सैनिकों को दी जाने वाली राहत राशि में दान करने के लिए भेजी जाएगी।
मुझे ये देख कर बहुत अच्छा लगा कि वहां लगाए गए चित्रों में सर्वाधिक कीमत मेरे ही एक चित्र की रखी गई, जिसमें मैंने पहाड़ पर लड़ते हुए, घायल सैनिकों को दर्शाया था।
मेरे एक मित्र ने मेरा ध्यान इस बात पर दिलाया कि मैंने सैनिकों के पांव पहाड़ पर या तो बर्फ़ में धंसे हुए अथवा झाड़ियों में छिपे हुए ही दिखाए। ये मेरे अवचेतन में बसी इस धारणा की ही एक प्रकार से पुष्टि थी कि मैं स्वयं बचपन में जूते पहनना पसंद नहीं करता था। मुझे अक्सर चप्पल या विशेष अवसरों पर सेंडिल्स में ही देखा जाता था।
मैं जूते पहनना पसंद नहीं करता,इसका खामियाजा एक बार बचपन में मुझे भुगतना भी पड़ा। घर में होने वाली एक शादी से पूर्व मेरी मां बाज़ार से मेरे लिए नए जूते खरीद कर लाई थीं,किन्तु लाने के दूसरे ही दिन मेरे नए जूते घर में रिश्तेदारों की चहल पहल और भीड़भाड़ के बीच खो गए।
ये ज़रूर घर के किसी काम करने वाले ऐसे ही सदस्य का काम रहा होगा जो ये जानता या जानती हो कि मैं जूते नहीं पहनता, इसलिए उन्हें ज़्यादा ढूंढा नहीं जाएगा। उसने संभवतः मां के बाज़ार से जूते लाने के समय मुझे बेमन से उन्हें स्वीकार करते देख या भांप लिया था।
मेरे प्रथम आने पर घर के सभी लोग और टीचर्स खुश ज़रूर थे पर मैं जानता था कि मेरी इस सफ़लता में कुछ ऐसे कारण ज़रूर शामिल हैं जिन पर सभी का ध्यान नहीं गया है।
सबसे बड़ा कारण ये था कि मुझे चित्रकला और हिंदी में बहुत ही अच्छे, नब्बे प्रतिशत से भी अधिक अंक मिले थे। क्लास की अन्य होशियार छात्राओं को इन विषयों में चालीस से लेकर सत्तर फीसदी तक अंक ही मिले थे। जबकि उन छात्राओं को गणित, विज्ञान आदि विषयों में मेरे बराबर, या मुझसे भी अधिक नंबर मिले थे। मैंने मौका मिलते ही विद्यालय के ऑफिस में चुपचाप इस तथ्य की पड़ताल बहुत बारीकी से की थी।
किन्तु फ़िर भी इस बारे में मैंने कभी किसी से कुछ कहा नहीं। आखिर खुद ही अपनी उपलब्धि का मुलम्मा उतारना किसे अच्छा लगता है। बालक होते हुए भी इतना तो मैं भली भांति समझता था कि गलती से भी यदि ये बात एक बार मैंने कही तो दस बार दूसरे कहेंगे।
जिस शाम विद्यालय की सभी टीचर्स मेरे माता पिता को बधाई देने और मुंह मीठा करने मेरे घर आईं, उसी शाम से मेरे घर में ये ख्याल गूंजने लगा कि मुझे भविष्य में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करवाई जाए। यद्यपि अपने कैरियर के अनुसार विषय चुनने की प्रक्रिया नवीं कक्षा से आरंभ होनी थी, जिसमें अभी पूरे तीन साल बाक़ी थे।
किन्तु मेरे लिए ये शाम हमारे विद्यालय के स्टाफ द्वारा विदाई की शाम की तरह ही महत्वपूर्ण रही क्योंकि अब मुझे किसी दूसरे विद्यालय में, दूसरे शहर में पढ़ने जाना था। हमारा विद्यालय पूरी तरह केवल लड़कियों के लिए ही था और इसमें लड़कों के पढ़ने की व्यवस्था और अनुमति केवल पांचवीं कक्षा तक ही थी, और वह भी केवल स्टाफ के बच्चों के लिए ही।
वैसे उसी गांव में कुछ दूरी पर एक सरकारी स्कूल भी था,पर वह भी उन दिनों केवल प्राथमिक कक्षाओं तक ही सीमित था। इस लिए यह बिल्कुल निश्चित था कि आगे पढ़ने के लिए शहर से बाहर जाना होगा।
छुट्टियां आरंभ होने के कुछ ही दिनों बाद घर में ये चर्चा शुरू हो गई कि अब मैं आगे कहां पढूं?
माता पिता के परिचित और शुभचिंतक ये सलाह देते थे कि मुझे अंग्रेज़ी माध्यम के अच्छे पब्लिक स्कूल में ही भेजा जाए, चाहे वो कितनी भी दूर हो।
दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी थे जिनका कहना ये था कि कम से कम पंद्रह साल की उम्र तक बच्चों को माता पिता से दूर नहीं भेजा जाना चाहिए।
मेरे वर्तमान विद्यालय से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर एक सरकारी कस्बाई स्कूल था जो ग्यारहवीं कक्षा तक था। हमारे इलाक़े के अधिकांश बच्चे पढ़ने के लिए उसी में जाया करते थे। वहां जाने के लिए बस से जाना होता था। कुछ बच्चों ने सायकिलों की व्यवस्था भी कर रखी थी। यद्यपि दस किलोमीटर दूर सायकिलों से आना और जाना छोटे बच्चों के लिए मेहनत और जोखिम का काम था। खुद मेरा बड़ा भाई भी तीन साल से उसी स्कूल में पढ़ने जा रहा था।
मैं नहीं जानता कि तीन साल से वहां पढ़ रहे मेरे भाई को मुझे किसी अच्छे पब्लिक स्कूल में भेजने की लोगों की सलाह कैसी लगी होगी?
मेरा भाई पढ़ाई में एक साधारण विद्यार्थी था, पर वो मेरा बड़ा भाई तो था।
मुझे लगता था कि लोग भाई भाई के बीच मनमुटाव, स्पर्धा, झगड़े की दुहाई तो देते हैं, पर ये खाई कैसे पनपती है, इस बात से पूरी तरह लापरवाह होकर ऐसी सलाह आसानी से, बिना मांगे दे देते हैं।
लेकिन मेरे मातापिता ने लोगों की मुझे दूर भेजने की सलाह की कोई परवाह न करते हुए मुझे भी उसी सरकारी विद्यालय में भेजने का निर्णय लिया।
मैं मन ही मन इस बात से बहुत खुश हुआ कि मैं अपने घर और माता पिता से दूर नहीं जा रहा।
लेकिन वो विद्यालय भी मेरे लिए भारी बदलाव और नए अनुभवों वाली महत्वपूर्ण सबकशाला सिद्ध हुई।
छुट्टियां खत्म होते ही अपने बड़े भाई की देखरेख में मुझे इस सरकारी स्कूल में प्रवेश मिला जो लड़कों का स्कूल था। यद्यपि इस विद्यालय में भी कुछ इनी गिनी लड़कियां थीं, पर बहुत ही कम।
ये मेरे लिए नई हवा लगने के दिन थे।
सबसे बड़ी बात तो मेरे सामने ये आई कि ये सरकारी स्कूल था और मेरे शिक्षकों ने कहा कि इसमें पढ़ाई होगी नहीं, तुम्हें करनी पड़ेगी। मेरे पिता ने भी कहा कि केवल स्कूल के भरोसे नहीं रहना है, बल्कि अपनी तैयारी अपने स्तर पर ही करनी है। पिता ने कुछ शिक्षकों के नाम भी मुझे बताए कि मैं कम से कम अंग्रेज़ी, गणित और विज्ञान के लिए उनकी गाइडेंस लेता रहूं।
इस सारे परामर्श का असर ये हुआ कि एक दिन भावुक होकर मैं सभी के सामने कह बैठा- जब तक मेरा प्रवेश इंजीनियरिंग कॉलेज में नहीं हो जाता, मैं कभी कोई भी फ़िल्म नहीं देखूंगा।
उन दिनों फ़िल्म देखने का अर्थ था केवल सिनेमा घर में फ़िल्म देखना, क्योंकि फ़िल्म देखने का और कोई जरिया नहीं था।
पढ़ाई ने मेरे लिए कभी कोई तनाव उपस्थित नहीं किया क्योंकि मैं पढ़ने के लिए घर से दूर नहीं गया था, बल्कि घर में सबके साथ ही था।
एक बड़ी सुविधा मुझे मिली कि बड़े भाई के साथ साइकल से आने जाने की सहूलियत हो गई। स्कूल जाने के लिए सीमित समय पर बस भी उपलब्ध थी किन्तु हम अक्सर साइकल से ही जाते।
यहां एक अपराध बोध मुझे ये हुआ कि मैं साइकल चलाना नहीं जानता था, इसलिए भाई के साथ आराम से बैठ कर ही जाता था। मेरे साथ के दूसरे कई लड़के या तो साइकल चलाना जानते थे, या जल्दी ही सीख गए थे और अपने आप स्कूल जाते थे।
जिनके मेरी ही तरह बड़े भाई थे, वे भी कभी कभी अपने भाइयों को बैठा कर ले जाने का सहारा दे देते थे,किन्तु मैं पूरी तरह अपने भाई पर बोझ ही बना रहा। मैं बहुत समय तक साइकल चलाना नहीं सीख पाया।
उस पर जब टेस्ट या परीक्षाओं में मेरे अंक और डिवीजन मेरे भाई की तुलना में अच्छे आते तो भाई को मेरा उदाहरण दिया जाता था। निश्चित ही भाई को ये जले पर नमक छिड़कने जैसा महसूस होता होगा, पर उसने कभी कुछ कहा नहीं।
मैं भी इस ओर से निश्चिंत होकर इसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगा कि अपने छोटे भाई का बोझ उठाना मेरे बड़े भाई का कर्तव्य है।
पढ़ाई में अच्छा होना मेरे लिए एक बचाव बन गया था। मेरा कोई दोस्त या भाई के दोस्त भी मुझे कभी टोकते नहीं थे बल्कि मेरा पक्ष ही लेते थे। मैं इस नए स्कूल में भी लोकप्रिय हो गया था।
शायद नामी गर्ल्स स्कूल का टॉपर होने का प्रभाव हो, मुझे इस नए स्कूल में अध्यापकों और छात्रों से बहुत मान मिलने लगा। ये कस्बाई मानसिकता के लड़कों का साधारण सा विद्यालय था, जहां कई लड़के भी शरारती होते थे, और कई अध्यापक भी छात्रों पर ध्यान न देने वाले। बात बात पर लड़कों की पिटाई होती थी, होमवर्क न करके लाने पर, कक्षा में शोर मचाने पर, आपस में झगड़ा होने पर... अध्यापकों द्वारा लड़कों को पीट दिया जाना मामूली बात थी। लड़के भी आसानी से मारपीट सह जाने वाले, हंसी मज़ाक में सब स्वीकार कर लेने वाले होते थे।
किन्तु यहां भी मुझे अच्छी तरह याद है कि मुझे न तो कभी अध्यापक ने मारा और न ही किसी ने कभी डांटा।
कुछ तो पिछले स्कूल में सीखे अनुशासन का असर रहा और कुछ शायद मेरा वहां के अन्य लड़कों की तुलना में सीधा सादा होना।
एक बार अंग्रेज़ी के अध्यापक दरवाज़े के पास खड़े होकर हाथ में एक लकड़ी का स्केल लेकर सब लड़कों से होमवर्क की कॉपी इकट्ठी करते जा रहे थे, और जो काम पूरा न करके लाया हो, उसे मारते भी जा रहे थे।
संयोग से उस दिन और लड़कों की तरह ही लापरवाही बरतने के कारण मैं भी अपना होमवर्क करके नहीं लाया था। मैं उनके सामने से ये कहता हुआ निकला- सर, नहीं किया। वे चौंके, और ज़ोर से उन्होंने फ़िर पूछा, क्या? मैंने धीरे से कहा- सर, होमवर्क नहीं किया।
उन्होंने बिना कुछ बोले स्केल मेज़ पर फ़ेंक दिया और मुझे अपनी जगह बैठने का इशारा किया। मेरे साथ और लड़के भी हैरान थे। पर अध्यापक बोले, सब बैठ जाओ, आगे से कर के लाना।
उस दिन कक्षा में मेरे प्रति अध्यापक का व्यवहार लड़कों में दिन भर चर्चा का विषय बना रहा।
मुझे भी बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। उस दिन के बाद कभी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने काम पूरा न किया हो। अगर वे उस दिन और लड़कों की तरह मेरे हाथ पर भी डंडे से मारते तो शायद मेरा डर निकल जाता और मैं भी दूसरे लड़कों जैसा बन जाता।
लेकिन टीचर की मेरे कारण बाक़ी सबको भी मिली माफ़ी ने व्यवहार शास्त्र के सारे समीकरण ही बदल दिए।
लड़के उस दिन से मेरा और भी सम्मान करने लगे।
जहां अपने पिछले विद्यालय में मैंने कभी किसी के मुंह से कोई निरादर करने वाला, सम्मान न देने वाला, अपशब्द नहीं सुना था, यहां लड़के आपस में गाली गलौच भी करते देखे जाते थे। लड़कों के मुंह से अध्यापकों तक के लिए ऐसे ऐसे शब्द सुनने को मिलते थे, जिनके मैं अर्थ भी नहीं जानता था किन्तु धीरे धीरे ये समझने लगा था कि ये वस्तुतः गाली है।
ऐसे शब्द बोलने से दूसरे लड़के हंसते थे। धीरे धीरे इनके अर्थ भी मैं समझने लगा।
एक दिन हम सब कक्षा में बैठे थे कि अध्यापक अाए। वे आकर बोले- देखो बच्चो, अब तुम्हारी दशहरे की छुट्टी होने वाली है। इसके बाद तुम्हारा टेस्ट होगा। टेस्ट के लिए जितना कोर्स पढ़ाना है वो मैंने पूरा करा ही दिया है। छुट्टी में तुम रिवीजन कर ही लोगे। आज मौसम भी अच्छा है, और ये आख़िरी पीरियड है... तो अब तुम बताओ, कि तुम सब जाना चाहते हो या मैं पढ़ाऊं?
छात्रों को और क्या चाहिए था, नेकी और पूछ पूछ! शोर मच गया, और लड़के बैग उठा उठा कर जाने की तैयारी करने लगे।
तभी एक शरारती सा लड़का बोल पड़ा- नहीं सर,आप तो पढ़ाओ...
तभी एक और लड़के की आवाज़ आई- साले, हमें तो जाने दे... तुझे पढ़ना है तो जाकर सर के लंड पर लटक जा...
सब हंस पड़े।
अध्यापक सिर खुजाने लगे और क्रोध से तमतमा गए, पर बोले कुछ नहीं।
यही हाल मेरा था... मुझे लगा, ये कौन सा शब्द है जिसे सुन कर लड़के हंसे और टीचर क्रोधित...?
क्लास में एक शरारती छात्र द्वारा बोले गए एक शब्द ने मुझे अपने सामने एक नई दुनियां की संकरी सी पगडंडी की झलक दिखा दी।
अब ये कशमकश थी कि अपने अब तक के संस्कारों का झाड़न लेकर इस नई मित्र मंडली की कोमलकांत पदावली को अपने से दूर हटाया जाए, या फ़िर कल्पनाओं के इस नए तरण ताल में तैरने का स्वाभाविक आनंद लिया जाए?
मेरे बौद्धिक स्वाभिमान और सिद्ध मेधा ने ये स्वीकार नहीं किया कि दुनिया में ऐसा कुछ भी हो, जिसके बारे में मुझे कुछ भी पता न हो और साथी लोग उसके विशेषज्ञ बने घूमें!
मैंने एक खाली पीरियड में अपने एक सीनियर दोस्त को पिछले दिनों घटी ये घटना सुनाई कि किस तरह अध्यापक जी क्लास में न पढ़ाने का बहाना ढूंढ रहे थे और एक लड़के ने उनके सामने ही अपने मित्र को न जाने किस तिलिस्म में लटक जाने की सलाह दे डाली।
मेरा दोस्त हंसा, लेकिन फ़िर उसे शायद ये महसूस हो गया कि मैं लड़कियों के स्कूल में पढ़ कर आने के कारण कुछ नहीं जानता।
उसने मेरी क्लास लेनी शुरू की। ज़मीन पर बैठ कर उसने एक सींक से मिट्टी में बाकायदा चित्र बना बना कर कई बातें मुझे समझानी शुरू की।
बोला - देख, तुम लोग जिसे अपने स्कूल में "नंबर वन" कहते थे, उसे यहां पेशाब करना कहते हैं।
मुझे याद आया कि सचमुच अपने पिछले स्कूल में किसी को पेशाब करने जाने की अनुमति लेनी होती थी तो अध्यापक से यही पूछना पड़ता था कि नंबर वन जाना है। इसी तरह शौच के लिए नंबर टू बोला जाता था।
वह बोला,अब पिछले स्कूल को भूल जा और नई शब्दावली सीख।
मैं अवाक उसकी तरफ़ देखता रह गया। मुझे महसूस हुआ कि मैं अपने को होशियार विद्यार्थी समझता था किन्तु कितना कुछ है जो मुझे नहीं मालूम पर क्लास के साथी लड़के जानते हैं।
इसके बाद मैं उससे और वो मुझसे काफ़ी खुल गया।
कुछ ही दिनों में मुझे महसूस होने लगा कि शायद इसी आत्मीयता को दोस्ती कहते हैं।
पिछले स्कूल में मेरा कोई दोस्त नहीं था, सभी से केवल क्लास का मॉनिटर बन कर औपचारिक रिश्ता ही रखा था मैंने, सपाट, एक सा।
यहां आकर मैंने ये भी अनुभव किया कि लड़कियों की शैतानियां वहां पिछले स्कूल में कितनी सुरक्षित प्रकार की होती थीं जबकि लड़के जोखिम भरी, नुक़सान देह, और बेपरवाह शरारतें किया करते थे। मैं घर आने के बाद अपने स्कूल के किस्से पुराने साथियों को सुनाया करता था।
हम कई विद्यार्थी सुबह एक साथ सायकिलों पर विद्यालय आते थे।एक दिन रास्ते में लड़कों का मन हुआ कि आज स्कूल न चल कर कहीं पिकनिक मनाई जाए। खाने के टिफिन हम सब के साथ थे ही। हमने स्कूल का रुख न करके दूसरी दिशा के चौदह किलोमीटर दूर के एक कस्बे का रुख किया और घूमने चल दिए।
पूरे दिन सैर सपाटा कर के शाम को हम लोग किसी को बताए बिना घर लौटे।
इधर संयोग वश एक लड़के के पिता किसी काम से हमारे स्कूल पहुंच गए। उन्हें अपने बेटे की क्लास से पता चला कि आज वो विद्यालय नहीं आया है। वे चौंके, और उन्होंने बेटे के मित्रों को उनकी कक्षाओं से तलाश करना शुरू किया। उनके आश्चर्य का पारावार न रहा जब उन्हें पता चला कि एक स्थान से साथ में आने वाले लड़कों में से कोई भी मित्र आज स्कूल नहीं आया है।
बात सब साथियों के घरों में पहुंच गई।
सबको अपने अपने घर पर डांट पड़ी।
मुझे उस समय गहरा धक्का लगा जब एक मित्र के पिता ने मुझसे कहा कि बाक़ी लड़के तो शरारती हैं, किन्तु कम से कम मुझे तो लड़कों का साथ न देकर उनकी शिकायत उनके स्कूल और घर पर करनी चाहिए थी। यानी वे मेरी शराफ़त और संजीदगी को मुखबिरी बनाना चाहते थे। अपने मित्रों को ऐसा धोखा देने की बात मैं सोच भी नहीं सकता था।
मुझे उनकी ये बात बहुत नागवार गुजरी, और मैं सोचने लगा कि यदि मैंने इस तरह अपने साथियों का साथ देने में कोताही की तो मैं बिल्कुल अकेला ही रह जाऊंगा।
फ़िर स्कूल न जाने के निर्णय में मेरा खुद का बड़ा भाई शामिल था, जो मुझे सायकिल पर बैठा कर इतनी दूर ले गया था। क्या मैं वापस लौट कर उसकी मेहनत का ये बदला देता कि उसकी शिकायत कर दूं?
इस तरह मैंने ज़िन्दगी में "लॉजिक" से कुछ हटना भी सीखा। रिश्तों के आपसी व्यवहार की कूटनीति समझने सीखने के दिन ऐसे ही गुजरने लगे।
सच मानों में लड़कों के मनोविज्ञान से मैं अब परिचित हो रहा था। लड़कों के व्यवहार में एक आत्म निर्भरता रहती थी। वे अपने अभिभावकों के मार्गदर्शन में ही हमेशा चलना पसंद नहीं करते थे। मसलन, उन्हें घर से जेबखर्च के लिए पैसे देते वक़्त मां बाप जो चीज़ न खाने खरीदने के लिए कहते, उसे वे एक बार ज़रूर चखना चाहते थे।
उन्हें अपने पैसे सिर्फ़ अपने पर ही खर्च करने की जगह साथियों के साथ बांट कर खर्च करना अच्छा लगता था।
शायद वे ज़िन्दगी में अपने निर्णय खुद लेने का स्वाभिमान इसी उम्र में सीख रहे थे।
कुछ ही दिनों में मैंने एक और बात की ओर गंभीरता से ध्यान दिया। मैंने देखा कि यहां समूह में प्रायः लड़के एक साथ रहा करते थे, और लड़कियां उनके साथ रहने में भारी संकोच अनुभव करती थीं। संख्या में बहुत कम होने पर भी वे लड़कों से घुलना मिलना पसंद नहीं करती थीं। लड़कों की आपसी बातचीत की भाषा शैली भी उनके लिए निरापद नहीं होती थी।
एक दिन हमारे गणित के शिक्षक क्लास में अपना कोई सरकारी कामकाज करने में तल्लीन थे और उन्होंने क्लास में घोषणा कर रखी थी कि सब चुपचाप अपना काम करो, यदि शोर मचाया तो मुर्गा बना दूंगा।
लड़के आपसी बातचीत में मशगूल थे तभी क्लास की एक दो लड़कियां, जो कौने में अलग से बैठी थीं, आपस में बात करने लगीं।
वृद्ध शिक्षक की कड़कदार आवाज़ आई, बोले- लड़कियो,ये मत सोचना कि तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा, शोर करोगी तो तुम्हें भी मुर्गी बना दूंगा।
लड़के ज़ोर से हंसने लगे।
एक लड़का मुंह नीचा करके बोला- गुरुजी, कक्षा में अंडे फैल जाएंगे।
क्लास में ज़ोरदार ठहाका लगा। एक पल को तो अध्यापक जी खुद अपनी मुस्कान रोक नहीं पाए,पर तुरंत ही संभल कर गंभीर हो गए, और अपने काम में व्यस्त हो गए।
क्लास खत्म होने के बाद मुझसे बड़ी कक्षा में पढ़ने वाला मेरा मित्र जब मुझे मिला तो मैंने अपनी कक्षा की ये बातें उसे भी बता डालीं।
उसे मानो फ़िर से मेरी क्लास लेने का बहाना मिल गया।
वह काग़ज़ पर पेन से चित्रकारी करते हुए मुझसे बोला- आ, तुझे बताता हूं कि अंडे कैसे पैदा होते हैं?
उसकी लोक शैली की चित्रकला देख कर मैं समझ गया कि स्कूल के शौचालय की दीवारों पर बने चित्र क्या और क्यों होते हैं।
लेकिन इस विद्यालय में ऐसा कोई संकोच किसी को नहीं होता था। यहां तक कि पेशाब घर में थोड़ी सी भीड़ होने पर लड़कों को पेशाब घर के बाहर दीवार के सहारे लाइन से खड़े होकर निवृत होते भी देखा जा सकता था।
मेरा ये विद्यालय जिस कस्बे में था वह मेरे पिछले स्कूल के गांव से काफ़ी बड़ा था, लेकिन पिछले विद्यालय में जहां देशभर से आए बच्चे और स्टाफ होते थे, वहीं यहां बरसों से यहीं रह रहे परिवारों के बच्चे ही थे।
ये जड़ता किसी तालाब में ठहरे हुए पानी की तरह स्पष्ट दिखाई देती थी। यहां मुझे ये आभास भी हुआ कि आपका विकास इस आधार पर नहीं होता कि आपका नगर कितना बढ़ रहा है, बल्कि इस आधार पर होता है कि आपके मानस को फैलने की जगह कितनी मिली !
मेरे हर परीक्षा में अपनी क्लास में सबसे ज़्यादा अंक आते थे पर कभी कभी मैं खुद भी ये महसूस कर जाता था कि कुछ अध्यापकों ने किसी न किसी तरह पक्षपात करके परिणाम तैयार किए हैं। इस कारण कई बार सबसे अधिक नंबर लाकर भी मैं अपने साथ ऐसे छात्रों को बराबर खड़े पाता जिनकी योग्यता संदिग्ध होती।
मेरा मन इस विद्यालय से उचाट होने लगा।
स्कूल में पढ़ाई का स्तर, शिक्षकों की योग्यता या विद्यार्थियों का बौद्धिक स्तर चाहे जैसा भी हो, वहां का अपनापन और मुझे सम्मान देने का जज़्बा मैं कभी नहीं भूला।
लगभग दो वर्ष उस विद्यालय में पढ़ने के बाद मैंने वो स्कूल छोड़ दिया। इन दो सालों में मैंने जीवन के बहुत से ऐसे सबक भी सीखे जो न किताबें सिखाती हैं और न शिक्षक।
ये सबक आपको खुद सीखने पड़ते हैं और इनके स्याह सफ़ेद का जोखिम भी आपको खुद ही उठाना होता है।
विद्यालय परिवर्तन के साथ साथ मुझे निजी ज़िन्दगी में भी कुछ ऐसे अनुभव मिले जो रिश्तों का मनोविज्ञान समझने में मददगार सिद्ध हुए। अब तक मातापिता के साथ हम भाई बहन ही घर में रहते आए थे,किन्तु अब मेरे बड़े भाई की शादी होने के कारण भाभी भी घर में आईं।
धीरे धीरे मैंने देखा कि घर में बड़ी बहन की भूमिका कुछ इस तरह से बदलने लगी कि उसमें भाभी की भूमिका के लिए स्पेस निकलने लगा। ये हर घर परिवार की स्वाभाविक प्रक्रिया हो सकती है पर हमारे समाज में स्त्री की इस चुनौती पर मेरा ध्यान अक्सर जाता था। मैं इस पर बहुत सोचने लगा।
उन्हीं दिनों धर्मेन्द्र शर्मिला टैगोर की एक फ़िल्म "देवर" भी आई। मित्रों से इसकी तारीफ़ सुन कर मेरे दिल में इस फ़िल्म को देखने की इच्छा जागी पर मैं ये निश्चय किए बैठा था कि इंजीनियरिंग में प्रवेश होने तक मैं कोई फिल्म नहीं देखूंगा। इसलिए फ़िल्म देखने की बात तिरोहित हो गई। मेरी भाभी भी मेरे स्वभाव और आज्ञा कारिता की तारीफ़ करते हुए इस फ़िल्म के बारे में जिक्र करती थीं।
मेरे मित्र, जो अब तक ये समझते थे कि फ़िल्म न देखने का मेरा निर्णय महज़ एक बचकानी ज़िद है जिसका भूत मेरे सिर से कुछ दिन में उतर जाएगा, वे मेरे निर्णय को गंभीरता से लेने लगे।
एक बार हमारी रिहायशी बस्ती में फ़िल्म "दो बीघा ज़मीन" दिखाई गई।
मैंने अपने मन को ये कह कर समझाया कि मैंने सिनेमा हॉल में फ़िल्म न देखने का व्रत लिया है, सड़क पर दिखाई जा रही पिक्चर तो देखी जा ही सकती है।
हम कुछ दोस्त फ़िल्म देखने चले गए।
फ़िल्म अच्छी थी और मेरे जैसे संवेदनशील विद्यार्थी को तो फ़िल्म ने काफ़ी प्रभावित किया। मैं ये सोचने लगा कि कहीं फ़िल्म न देखने का निर्णय करके मैं कोई गलती तो नहीं कर रहा? मैंने अपना निर्णय तो नहीं बदला पर मैं फिल्मों को लेकर कुछ और सचेत तथा जिज्ञासु हो गया। घर का कोई सदस्य या मित्र किसी फ़िल्म को देखकर आता तो मैं उसके बारे में बहुत पूछताछ करता।
इसका नतीजा ये हुआ कि फ़िल्म न देखने पर भी फ़िल्मों की जानकारी, गीतों की जानकारी, अभिनेता अभिनेत्रियों की जानकारी मुझे पर्याप्त रहने लगी।
धीरे धीरे मन ही मन मुझे ये महसूस होने लगा कि शायद फिल्में न देखने के कारण ही कुछ बातों में मेरा रवैया अन्य लड़कों की तुलना में बिल्कुल अलग रहने लगा है।
मसलन, लड़के देखी हुई फिल्मों के दृश्य याद कर करके लड़कियों की बातचीत करते, उनके परिधान, फ़ैशन, चाल चलन आदि पर टिप्पणियां किया करते, गीतों को याद कर के कॉमेंट्स, फिकरे कसा करते और मेरी ओर निश्चिन्त होकर ऐसे देखते जैसे मुझे चिढ़ा रहे हों।
मैं इस स्थिति को चुप रह कर स्वीकार करता क्योंकि ये मेरा खुद का निर्णय था कि फ़िल्म न देखूं।
वास्तव में मैंने अब तक ऐसा कोई दृश्य देखा ही नहीं था, न असल जिंदगी में, और न फ़िल्मों में, कि लड़की के साथ निर्जीव बेजान वस्तुओं जैसा बर्ताव कैसे किया जाता है। कैसे हम किसी निर्दोष सहगामी पर अपमानित करने वाले फ़िकरे कसते रह सकते हैं और वह सहन करते हुए निरीह सा खड़ा रहे।
मेरी इस जिज्ञासा को कुछ दोस्त हमारे विद्यालय में लगे उस बोर्ड का प्रभाव बताते जिस पर लिखा हुआ था - जहां होता नारी सम्मान, वहां बसते हैं श्री भगवान !
कुछ दोस्त मज़ाक में ये भी कहते थे कि लड़कियों का सम्मान करता रहेगा तो ज़िन्दगी भर अकेला रह कर भजन कीर्तन करेगा।
मेरी समझ में ये नहीं आता था कि ज़िन्दगी में अकेला न रह रहने के लिए लड़कियों को सताना क्यों ज़रूरी है? क्या लड़कियां उसी लड़के के साथ रहने आएंगी जो उन्हें तंग करते हुए अपमानित करे।
परीक्षा खत्म होने के बाद मैं और मेरा एक दोस्त रोज़ दूर तक घूमने जाया करते थे। एक शाम सड़क पर घूमते हुए मेरे दोस्त ने मुझसे कहा - मेरी जेब में हाथ डाल!
-क्यों? मैंने आश्चर्य से कहा।
वह बोला- डाल, तुझे अच्छा लगेगा!
मैंने उसकी पैंट की साइड जेब में हाथ डाला।
हाथ डालते ही मैंने झटके से हाथ बाहर खींच लिया। वह ज़ोर से हंसने लगा।
वह हंसते हंसते ही बोला - डर गया? लड़कियां भी इतना नहीं डरती हैं, आराम से हाथ डाल देती हैं।
मैंने तुरंत कहा, वो तुझे भिखारी समझ कर तुझ पर दया करती होंगी।
- क्यों, भिखारी क्यों? उसने कहा।
- और क्या? फटे कपड़े पहनेगा तो भिखारी ही समझेंगी।
वह धृष्टता से हंसता रहा।
घर जाने के बाद मैं इस बात को भूला नहीं। मुझे बार बार ये महसूस होता रहा कि ये कौन सा खेल है जिसमें लड़कियों के स्कूल में पढ़ने के कारण मैं शायद अपने दोस्तों से पीछे रह गया। रात को पढ़ाई करने के बाद जब मैं छत पर सोने के लिए अपने बिस्तर पर गया तो मैं लगातार अपने दोस्त की जेब के बारे में सोचता रहा।
मुझे ऐसा लग रहा था जैसे ज़रूर कोई न कोई एक ऐसी दूसरी दुनिया ज़रूर है जहां समय के किसी छिपे प्रहर में मेरे साथ के लड़के जाकर आते हैं?
लेकिन कब? मैं तो दिनभर उनके साथ ही रहता हूं, वे कब, क्या, किससे सीख कर आ जाते हैं। कौन पढ़ाता है ये सब उन्हें?
मेरा एक दोस्त बहुत अच्छा गाना गाता था। अक्सर खाली समय होने पर सब सड़क के किनारे एक लॉन में बैठ जाते और उससे गाने सुनते। दूसरे लड़के भी कभी कभी गाते, पर बाक़ी सब तो बेसुरे होकर अकेले या समूह में गाते, किन्तु वो लड़का बहुत से फिल्मी गाने सुनाता।
यहां दो एक बार फ़िर मैंने अपने आप को अकेला पाया। दूसरे लड़के गीत के बीच में एक दूसरे की ओर देख कर हंसते, पर मुझे ऐसा लगता कि इसमें हंसने की क्या बात है?
मैंने कुछ न बोल कर गीत के बोल ध्यान से सुनने की कोशिश की, क्योंकि इतना तो तय था कि लड़के के गाने पर कोई हंसने की बात हरगिज़ नहीं थी, वह बहुत मीठा गा रहा था।
गीत के बोल थे - देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का ये महूरत निकल जाएगा, निकल जाएगा...
ये फ़िल्म "नई उमर की नई फसल" में नीरज का लिखा हुआ गीत था, जिसके बोल बहुत सुंदर और भावनापूर्ण थे, लड़के क्यों हंसे, मुझे नहीं पता चल पाया।
गर्मी की छुट्टियां थीं। उसके बाद जब स्कूल खुले तो मेरा स्कूल भी नया था और शहर भी। मैं एक बड़े शहर में आ गया था।
छुट्टियों के बाद जिस दिन हमारा रिज़ल्ट आने वाला था, हम सब दोस्त स्कूल के मैदान में ही मिले। तभी मैंने मित्रों को पहली बार बताया कि मैं ये विद्यालय छोड़ कर जा रहा हूं। मेरे दो तीन दोस्त उस दिन बहुत भावुक हो गए और उन्होंने मुझे इस बात के लिए भी नाराज़गी जताई कि मैंने उन्हें पहले क्यों नहीं बताया!
एक मित्र ने यहां तक कहा कि यदि मैं पहले बताता तो वो भी ये विद्यालय छोड़ कर मेरे साथ मेरे नए स्कूल में पढ़ने चलता।
उस दिन हम सभी स्कूल के पिछवाड़े के मैदान में बहुत देर बैठे। हमने अपने गायक मित्र से गाने भी सुने। उस दिन वो लड़का बहुत मायूस और आकर्षक लग रहा था, शायद ये ख्याल, कि अब हम लोग आपस में नहीं मिलेंगे उस पर हावी था।
वो गा रहा था - नगरी नगरी द्वारे द्वारे ढूंढू रे सांवरिया... फ़िल्म मदर इंडिया में नरगिस का गाया गीत।
मैं लगातार उसे देख रहा था, उसकी आवाज़ आज और भी मधुर लग रही थी, शायद ये उसके पान खाकर आने का असर था।
हमारे स्कूल के बाहर ही पान की दुकान होने के कारण पान खाने का शौक़ हम सभी को हो गया था।
थोड़ी देर के लिए उस आत्मीय वातावरण में खोकर मुझे भी लगने लगा कि कहीं विद्यालय छोड़ने में मैंने जल्दीबाज़ी तो नहीं कर दी।
मैं सोचने लगा इतने प्यारे दोस्तों को छोड़ कर मैं नई दुनिया में क्यों जा रहा हूं।
एक दूसरे के हाथों में हाथ डाले हम सब अपना रिज़ल्ट लेने चले। अंक तालिका देख कर मैं सब कुछ भूल गया और जलदी से घर जाने के लिए अपने बड़े भाई को ढूंढने लगा,जो साइकल स्टैंड पर मेरा इंतजार करता हुआ ही मिला।
मेरा तीनों सेक्शंस में मिला कर पहला स्थान आया था। नंबर भी बहुत अच्छे थे।
लेकिन किसी ने कुछ भी नहीं कहा, शायद किसी को भी अचंभा नहीं हुआ।
मेरा भी दोस्तों से ज़रा देर पहले का लगाव ओझल हो गया और हम लोग घर के लिए चल दिए।
भाई को द्वितीय श्रेणी के साधारण अंक मिले थे।
(5)
जिस समय मैं अपनी ज़िंदगी के इस तीसरे स्कूल में पढ़ने आया, मेरी उम्र बारह वर्ष थी।
बड़ा शहर था, राज्य का तत्कालीन सबसे बड़ा कहा जाने वाला विद्यालय।
इस स्कूल की बात करूंगा, लेकिन पहले बात माता पिता से दूर होने के इस पहले अवसर की।
मेरे माता पिता दोनों ही शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत होने के कारण मुझे माता पिता से ऐसी विदाई नहीं मिली, कि अब मैं क्या खाऊंगा, मेरा ध्यान कौन रखेगा, कहीं घर से दूर जाकर बिगड़ न जाऊं, बीमार न हो जाऊं...! उनका एक ही सोच था कि मुझे बड़े अवसरों वाला अच्छा स्कूल मिलना चाहिए ताकि मैं जीवन में अपने किसी लक्ष्य को पा सकूं।
दूसरे, मैं न तो किसी हॉस्टल में रहने वाला था, और न ही अकेला कोई कमरा लेकर, या किसी रिश्तेदार- पारिवारिक मित्र के घर... बल्कि मेरे बड़े भाई और भाभी भी रहने के लिए वहीं आ रहे थे और हम चार भाई और भाभी एक साथ रहने वाले थे।
पढ़ने वाले तीनों भाइयों में मैं बीच में था,एक मुझसे बड़ा और एक मुझसे छोटा।
विद्यालय के पास ही एक अच्छी कॉलोनी में मकान लेकर हम लोग रहने लगे।
मेरे दोनों भाई भी साधारण विद्यार्थी थे, उन्होंने नई जगह के बारे में क्या सोचा होगा ये मैं नहीं कह सकता,किन्तु मैं ये सोचता था, कि नए शहर के हज़ारों बच्चों वाले इस स्कूल में अब अपना "सबसे अच्छा, सबसे होशियार" छात्र का तमगा मुझे छोड़ना ही पड़ेगा।
यहां तो बस अच्छे अंक मिल जाएं यही कोशिश करनी होगी।
कॉलोनी से आठ-दस बच्चे सुबह सुबह बैग कंधे पर लटका कर बातें करते हुए एक साथ स्कूल जाते।
एक साथ तीन भाई होने से अकेलापन तो लगने का सवाल ही नहीं था, बल्कि हमारे ढेर सारे नए नए दोस्त बनने लगे।
यहां ये साफ़ नजर आता था कि छोटे भाई के मित्रों में खिलाड़ियों की संख्या ज़्यादा होती, बड़े भाई के मित्रों में बाहर घूमने फिरने के शौकीन लड़कों की, और मेरे मित्रों में पढ़ने पर ध्यान देने वाले पढ़ाकू लड़कों की। पर तीनों को ही आपस में एक दूसरे के मित्रों का साथ भी मिलता था।
बड़ा परिवार होने के कारण मेरे मौसेरे, चचेरे भाई भी संख्या में पर्याप्त उसी शहर में, और कई तो उसी स्कूल में भी थे।
ऐसे में नए स्कूल में अपनी जगह बनाने में कोई खास दिक्कत कभी नहीं आई और मैं धीरे धीरे क्लास में लोकप्रिय होने के साथ साथ अन्य गतिविधियों में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने लगा।
इन्हीं दिनों कुछ खास बातें भी हुईं जिन्होंने मेरे आने वाले जीवन पर अच्छा खासा असर डाला।
एक बात तो ये हुई कि दो तीन महीने बीतते ही हमारी लंबी छुट्टियां हुईं और हम माता पिता के पास अपने घर गए। वहां जाते ही छोटे भाई ने ऐलान किया कि उसका मन नए स्कूल और नए घर में नहीं लगा है और वह वहां वापस नहीं जाएगा। सबसे छोटा होने के कारण उसकी बात मानी गई और संयोग से पास ही एक ग्रामीण स्कूल भी क्रमोन्नत होकर मिडल स्कूल बना।
पिताजी ने उसका दाखिला उसी ग्रामीण सरकारी स्कूल में करवा दिया और वह वहीं रह गया।
हम बाक़ी लोग छुट्टियां बिता कर वापस आ गए।
मैं अब घर में सबसे छोटा सदस्य रह गया।
छोटे भाई के यहां न रह पाने से शायद सबसे बड़े भाई और भाभी भी मन ही मन ये सोचने लगे कि उन पर छोटे भाइयों को अच्छी तरह न रख पाने का आरोप न लगे,और वे हम दोनों का और भी अच्छी तरह ध्यान रखने लगे।
इधर मैंने देखा कि कुछ पड़ोसियों और रिश्तेदारों ने भी बहती गंगा में हाथ धोने की दुनियादारी में दोनों मुझसे बड़े भाइयों के बीच अकारण संदेह पैदा करने शुरू कर दिए।
मैं देखता था कि वे बड़े भाई भाभी से कहते थे, - देखो, शादी करके आते ही तुम्हारे घूमने फिरने के दिनों में तुम पर तीन तीन भाइयों का बोझ आ पड़ा। भाभी को कितना काम करना पड़ता है।
उधर हमसे कहते थे कि भाई भाभी घूमने फिरने शॉपिंग करने में ही रहते हैं कि कुछ तुम्हारा ध्यान भी रखते हैं? तुम्हारे पढ़ने लिखने के दिन हैं, तुम्हें खाना पीना समय पर अच्छी तरह मिलना चाहिए।
मैं लोगों की इस फितरत को समझ जाता था और लोगों की बात अनसुनी कर देता था।
लेकिन मेरा भाई कभी कभी ऐसी बातों से सचमुच उखड़ जाता और बड़े भाई भाभी से सवाल- जवाब तलब भी करता तथा मिलने पर माता पिता को भी उनकी छोटी छोटी बातें बढ़ा चढ़ा कर बताने लग जाता।
वे मुझसे उन बातों की पुष्टि करते तो मैं सोचता कि ऐसी बातों से क्या फायदा, दोनों ही और से सहन शीलता व धैर्य रखवाने की कोशिश करता।
धीरे धीरे मेरे भाई के मन में ये बात घर करती चली गई कि मैं उसका पक्ष नहीं लेता, और माता पिता मेरी बात को ज़्यादा तरजीह देते हैं। मुझसे बड़ा भाई लगातार मन से मुझसे दूर होता चला गया।
भाइयों के इस खेल में कभी कभी कैसी रुचिकर स्थितियां बनतीं, आपको ये भी बताता हूं।
भाई और भाभी दोनों नौकरी में होने से घर पर नाश्ते का सामान रखते, ताकि वक़्त ज़रूरत काम आ सके। कई बार मंहगा नाश्ता, मेवा आदि होता,तो भाभी उसे किफायत से लंबे समय तक चलाने की कोशिश करतीं।
मेरी आदत थी कि मैं अपने आप कभी कुछ नहीं मांगता था,जब भैया भाभी दें,तभी लेता था। क्योंकि मेरे मन में हमेशा ये बात रहती कि ये हमारे माता पिता नहीं, बल्कि भाभी भैया हैं। ये हमारे लिए जो कर रहे हैं,वही बहुत है। वरना हम सब भाइयों को हॉस्टल में जाकर रहना पड़ता।
जबकि भाई अधिकार से मांग लेता।
तो एक दिन भाई ने भाभी से कहा, मुझे जल्दी जाना है, खाने में देर होगी, मुझे काजू बादाम या मिठाई आदि कुछ हो तो वही दे दें।
भाभी ने शायद सोचा कि इन्हें कोई ज़रूरी काम से तो जाना नहीं, खाने के लिए थोड़ी देर रुक ही सकते हैं, उन्होंने कह दिया, अभी सब खत्म हो गया, नाश्ता है नहीं, खाना खाकर ही चले जाना।
अगले दिन जब बड़े भाई और भाभी काम पर गए हुए थे, स्कूल से आकर भाई ने रसोई और स्टोर की तलाशी लेकर सब ड्राई फ्रूट्स ढूंढ़ लिए।
मुट्ठी भर भर के खुद भी खाए और मुझे भी देने लगे।जो बाक़ी बचे, छिपा कर रख लिए।
शाम को आकर शायद भाभी ने चाय के साथ नाश्ता निकालने के लिए उन्हें ढूंढा होगा पर न मिलने पर वो न तो किसी से कुछ पूछ सकीं और न ही बोल पाईं।
मैं चुपचाप देखते रहने के सिवा कुछ न कर सका, क्योंकि मेरे भाई की पहले ही ये शिकायत रहती थी कि मैं उसका साथ क्यों नहीं देता?
पर मुझे ऑफिस से थके हारे अाए भैया भाभी पर बहुत तरस आया।
क्लास में लगातार हुए टेस्टों में मेरे बहुत अच्छे नंबर आए और मैं अपने सेक्शन में सबसे आगे ही चलता रहा।
लेकिन गणित जैसा विषय मुझे बहुत ही कठिन लगता था। मेरे उसमें नंबर भी कम आते। जहां दूसरे लड़के गणित में स्कोर करके अपनी परसेंटेज सुधारते, मैं सोचता कि गणित में किसी तरह पास हो जाऊं, डिवीजन तो मेरे मनपसंद दूसरे विषयों से बन जाएगी।
यहां उपाध्याय जी जैसा कोई शिक्षक नहीं था, जो अकेले मुझ पर ध्यान देकर मेरी कमजोरी दूर करे।
घर पर रहने के दौरान पहले मेरे पिता जो कभी कभी मुझे गणित पढ़ा दिया करते थे, यहां ऐसा भी कोई नहीं था।
अध्यापक कहते थे कि तुम चित्रकला, डिबेट, निबंध, भाषण आदि प्रतियोगिताओं में इतना भाग लेते हो, इनाम भी जीतते हो, यदि सब छोड़ कर ध्यान दोगे, तभी फिजिक्स केमिस्ट्री मैथमेटिक्स जैसे विषयों में अच्छा प्रदर्शन कर पाओगे।
मुझे ये सलाह अपने सिर पर किसी पत्थर के बोझ की तरह लगती थी। यदि इंजिनियर बनने के लिए ये सब छोड़ना पड़ेगा तो क्या फ़ायदा? क्या मैं खुश रह सकूंगा ये सब गतिविधियां छोड़ कर?
ये सवाल मैंने अपने आप से किया,और बिना किसी के पूछे,किसी की सलाह लिए बिना खुद मैंने ही ये फ़ैसला कर लिया कि मैं नवीं कक्षा में अगले साल फिजिक्स केमिस्ट्री और बायोलॉजी लूंगा।
उस समय स्कूलिंग ग्यारहवीं कक्षा तक ही होती थी और कैरियर चुनने वाले विषय नवीं कक्षा से ही लेने होते थे।
मुझसे किसी ने कुछ नहीं कहा। केवल मेरे पिता ने ये कहा कि यदि तुमने गणित से डर कर विषय बदलने का निश्चय किया है तो ये याद रखना कि आगे जाकर फिजिक्स में भी गणित आयेगी और अच्छे अंक तभी आयेंगे जब गणित की पुख्ता तैयारी हो।
इस बात से मुझे थोड़ा भय ज़रूर लगा। मेरे पिता ने भी तरह तरह से मेरी रुचि गणित में पैदा करने की कोशिश की, वे तरह तरह से मुझमें गणितीय एप्टीट्यूड पैदा किया करते थे। कई बार सवाल, हिसाब, जोड़ बाक़ी आदि देते और देखते कि मैं उन्हें कैसे हल करता हूं।
एकबार काफ़ी सारी संख्याओं का जोड़ लगाते देख कर उन्होंने मुझसे कहा कि मैं एक एक संख्या को न जोड़ कर एक साथ दो तीन संख्याओं को जोड़ रहा हूं। ये हड़बड़ी ऐसी ही है जैसे कोई एक साथ दो दो तीन तीन सीढ़ियों को पार करते हुए नीचे या ऊपर जाए। उनका कहना था कि इसी हड़बड़ी के कारण मुझसे गलती हो जाती है और सवाल गलत हो जाता है।
लेकिन गणित पढ़ते हुए शायद मेरी मायूसी और बोरियत को उन्होंने भांप लिया था। एक दिन उन्होंने कहा कि विषय बदल लेना, पर फिजिक्स पर ध्यान देना, यह गणित की भांति ही स्कोरिंग विषय है।
मेरे मित्रों को भी धीरे धीरे पता चलने लगा कि मैं अब इंजीनियरिंग में जाने का ख़्याल छोड़ रहा हूं।
एक दो निकट मित्रों ने मुझसे सवाल किया, तो क्या अब जीवन भर फिल्में नहीं देखेगा?
मैंने अपनी उसी कुटिल बुद्धिमत्ता से काम लिया, जिसके लिए मैं साथियों में पसंद किया जाता था।
मैंने कहा कि इंजीनियरिंग से मेरा आशय यही था कि अपने कैरियर को बनाने की दिशा में प्रवेश मिलने तक मैं फिल्में देखना छोड़ रहा हूं।अब मैं डॉक्टर बनने का ख़्वाब देख रहा हूं, तो फ़िल्म तभी देखूंगा जब मेडिकल कॉलेज में प्रवेश हो जाए।
मैंने क्योंकि अभी तक कोई असफलता नहीं देखी थी, और विषय बदलने का निर्णय मेरा अपना था, इसलिए किसी ने भी इस पर अविश्वास नहीं किया। इसे किसी ने मेरी विफलता भी नहीं माना, और घर वाले भी मुझे इस निर्णय से खुश ही दिखाई दिए।
बल्कि मेरे कुछ शिक्षक और सीनियर मित्र तो ये कहने लगे कि मेरी ड्राइंग बहुत अच्छी होने से मुझे बायोलॉजी जैसे विषय में बहुत सहूलियत होगी और अच्छे अंक मिलेंगे।
मेरा आत्मविश्वास जस का तस कायम रहा,और मैं चित्रकला की अपनी अभिरुचि के प्रति और सजग हो गया। फ़र्क केवल इतना हुआ कि मैं पेंटिंग की जगह ड्राइंग में ज़्यादा वक़्त देता।
ढेरों साथियों की फ़ाइलों में मैंने चित्रकारी करके वाहवाही बटोरना
जारी रखा।
इसी वर्ष मुझे अपने स्कूल में एक अच्छा अवसर मिला।
यूनाइटेड स्कूल्स ऑर्गनाइजेशन की ओर से एक अखिल भारतीय चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन दिल्ली में हुआ। इसमें चित्रकला, निबंध, संगीत, भाषण,फैंसी ड्रेस में नेशनल स्तर पर भाग लेने के लिए राजस्थान से कुल पंद्रह विद्यार्थियों का चयन हुआ,जिनमें मेरा भी चयन अपने शहर से हो गया।
मुझे वो चयन प्रतियोगिता आज भी याद है जिसमें शहर के चालीस विद्यालयों के लगभग तीन सौ बच्चों ने चित्र बनाया और पहले स्थान पर मेरा चित्र चुना गया।
मुझे छात्रों के दल और शिक्षक के साथ दिल्ली जाकर प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिला।
ये स्कूल की ओर से ही सब व्यवस्थाओं वाली यात्रा थी,जिसने बहुत अच्छा अनुभव दिया।
इसी यात्रा में कई राज्यों से आए बहुत से छात्रों से मिलने और दोस्ती करने का अवसर भी मिला। मुझे वहां कोई पुरस्कार तो नहीं मिला,किन्तु सीखने जानने को बहुत कुछ मिला।
लौटने के बाद एक दिन हम लोग स्कूल के बाहर मैदान में बैठे थे, कि हमारी दिल्ली यात्रा की बात छिड़ गई। एक सीनियर दोस्त बोला- तुम कितने लड़के गए थे?
मैंने कहा- अपने शहर से पांच !
एक लड़का बोला - कौन कौन सी क्लास के थे?
मैं बताने को ही था, कि पहले वाला दोस्त बोल पड़ा- अरे क्लास का क्या करना है, तू तो ये बता दे, कितने शेर थे और कितने बब्बर शेर?
सब लड़के हंस पड़े!
लेकिन मैं उसकी बात का मतलब नहीं समझा और मुंह बाए उसकी ओर ताकता रहा। मुझे ये भी समझ में नहीं आया कि शेर और बब्बर शेर से उसका आशय क्या था !
बाद में एक लड़के ने अकेले में मुझसे कहा, तू जानता है कि वो लड़का क्या पूछ रहा था?
- क्या? मैंने कहा।
वह बोला- ये बड़े लड़के बाथरूम में घुस कर एक दूसरे को अपने गुप्त अंग दिखाते हैं। जिनके गुप्तांग पर बाल नहीं होते उन्हें शेर बोलते हैं और जिनके बाल होते हैं उन्हें बब्बर शेर!
- धत ! हम सब क्या वहां पर नंगे होकर घूम रहे थे? मैंने कहा।
लड़का हंसने लगा। बोला - ये बड़े लड़के तो यही समझते हैं कि जो भी टूर्नामेंट या कॉम्पिटिशन आदि में बाहर घूमने गया वो ये सब करके ही आया होगा।
मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आया कि खेलकूद और कॉम्पिटिशन से इस सब का क्या वास्ता? क्या एक दूसरे को नंगा देखना कोई खेल है? क्या सब ऐसा ही करते हैं?
मैं इन बातों में उलझ कर रह गया।
इस अखिल भारतीय प्रतियोगिता में जाने के बाद मेरी रुचि इन गतिविधियों में और भी बढ़ गई।
एक बात सुन कर आपको ज़रूर अचंभा होगा कि बचपन से ही धागे, डोरी,रस्सी, रबरबैंड आदि जैसी चीज़ों से मुझे भारी परेशानी होती थी। मैं उन्हें देख नहीं पाता था। उन्हें छूने में मुझे संकोच होता था। और उन्हें बांधने में तो किसी एलर्जी की हद तक मैं परेशानी महसूस करता था। न जाने ये क्या था? ये बंधन से पूर्वजन्म की सी दुश्मनी थी, या शरीर की कोई कमी अथवा एलर्जी। या फ़िर कोई मनोवैज्ञानिक ग्रंथि। लेकिन इस ग्रंथि ने मेरे जीवन में बहुत बड़ी भूमिका निभाई।
पहली बात तो ये हुई कि मैं जूते बहुत कम पहनता। यदि पहनता तो फीते,डोरी वाले कभी नहीं,बिना तस्मे वाले,या फ़िर सैंडल,चप्पल अथवा जूतियां।
स्कूल की अन्य गतिविधियों में डूबा रहने वाला मैं, कभी भी स्काउट, एन सी सी, एथलेटिक्स या स्पोर्ट्स में भाग नहीं ले पाया। और इसका कारण केवल यही था कि इन सबमें जूते पहनने पड़ते थे। उन दिनों बिना डोरी के जूते किसी यूनिफॉर्म में नहीं आते थे। अपनी इस निजी समस्या के चलते मैं अपनी पसंद की इन कई गतिविधियों से दूर ही रहा।
रबर से तो मुझे एलर्जी की हद तक चिढ़ थी। यहां तक कि स्कूल में मेरे ज्योमेट्री बॉक्स में कभी रबर नहीं रहा। बहुत कम मित्र इस बात को जानते थे कि मैं चित्र बनाते समय भी कभी रबर इस्तेमाल नहीं करता था।चित्र बनाते समय रेखाएं,वृत्त आदि भी मैंने सदैव बिना रबर के प्रयोग के ही बनाए हैं। ये ऐसा ही है,जैसे अपंग व्यक्ति हाथ न होने पर पैर से भी लिख पाता है। मैं अपने बैग में रबर को कभी जगह नहीं देता था।
दूसरे लड़के भी रबर से मिटाते थे तो मैं चुपचाप ये देखता रहता था कि वे मिटाने के बाद रबर से निकले काले, मैलनुमा, रेशों को कहां गिरा रहे हैं। यदि ऐसे रेशे मेरे आसपास भी हों,या मुझे दिखाई देते रहें तो मैं सहज नहीं रह पाता था।
मुझे ये कहने के लिए माफ़ किया जाए कि रबर, रबरबैंड, डोरी,धागा जैसी चीज़ों को मुंह में लेकर खिलवाड़ करते रहने वाले लड़कों से मेरी दोस्ती कभी पनप ही नहीं पाती थी,चाहे वे कितने ही योग्य हों,या मुझसे आत्मीयता का व्यवहार रखें।
मैं कुरूप,काले,दिव्यांग दोस्त सह सकता था, स्मार्ट, गोरे,साफ़ सुथरे,सुन्दर ऐसे लड़के नहीं,जो इन वस्तुओं को मुंह में लेकर खेलते रहते हों। मुझे इलास्टिक या मुंह में रखी च्यूइंगम, बबलगम आदि से भी ऐसी अरुचि होती थी।
मुझे कई ऐसे भोले,प्यारे,निर्दोष लड़के आज भी याद हैं जिन्हें ये समझ में नहीं आया कि मैं उनसे उखड़ा उखड़ा सा व्यवहार करके दूर क्यों हो रहा हूं !
पर मेरे पास किसी को बताने के लिए कोई कारण नहीं होता था।
मेरे जो मित्र व्यवहार से मेरी इस ग्रंथि को भांप लेते थे वे मुझे सलाह देते थे कि इन चीज़ों को ज़्यादा से ज़्यादा प्रयोग करने से ही मुझे इनका अभ्यास होगा और इनके प्रति मेरी नफ़रत कम होगी,परन्तु इनके प्रयोग से मैं तनाव में आ ही जाता था।
लगभग यही हाल मेरा गुब्बारों के प्रयोग को लेकर भी होता था।जब तक वे फूले हुए रहें,तब तक तो ठीक,किन्तु ही फूटते ही जब वे रबर के टुकड़े के रूप में आ जाते तो उनका ये गिलगिला स्वरूप मुझे बिल्कुल भी नहीं सुहाता था।
और इन टुकड़ों को मुंह में लेकर खेलने वालों को देखकर तो मुझे उबकाई ही आने लगती। मैं किसी न किसी बहाने से उनसे दूर हट जाता था।
मेरी ये समस्या धीरे धीरे समय के साथ कम ज़रूर हुई किन्तु बचपन और किशोरावस्था में ये मेरे लिए एक ऐसी विचित्र कठिनाई बन कर रही जिसका असर बहुत सारी बातों पर पड़ा।
मैंने फ़ाइलों में भी हमेशा डोरी की जगह धातु के बंध ही चुने, चाहे वे महंगे सिद्ध हुए हों।
उन छोटे बच्चों से भी मैं क्षमा मांगता हूं जिन्हें मैं मुंह में गुब्बारे का टुकड़ा लेकर खेलने के कारण बिना बात ही अपनी गोद से उतार दिया करता था।
(6)
हमारे विद्यालय में छात्र संख्या बहुत होने के कारण आठवीं के भी बहुत सारे सेक्शन थे। मेरे अपने सेक्शन में तो सर्वाधिक अंक आए किन्तु मुझे ये नहीं पता चल पाया कि कुल मिलाकर मेरा कौन सा स्थान बना।
मेरी ये जानने में ज़्यादा दिलचस्पी भी नहीं थी क्योंकि मुझे ये पता चल गया था कि अन्य सेक्शंस में कुछ लड़कों के मुझसे भी अधिक अंक हैं।
स्कूल के वार्षिकोत्सव में एक और चित्रकला प्रतियोगिता के लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री के हाथों मुझे स्वर्ण पदक मिला। साथी,दोस्त और घरवाले भी समझ गए कि मेरी उपलब्धियां परीक्षा के अंकों से ज़्यादा दूसरी गतिविधियों में ही हैं।
दूसरे,अब नवीं कक्षा से तो सब कुछ बदल ही जाना था। मैथ्स के लड़कों को अलग होना था, बायोलॉजी के अलग।
मेरे लिए ये भी विचित्र था कि अन्य गतिविधियों में मेरे साथ रहकर मेरे आत्मीय मित्र बन चुके कुछ लड़के आर्ट्स और कॉमर्स में जाने की भी सोच रहे थे।
स्कूल में विज्ञान की कक्षाएं पहली शिफ्ट में,सुबह सुबह लगती थीं और कला या कॉमर्स की दोपहर को,इस कारण भी हम मित्रों के मिलने जुलने के नए समीकरण बने और काफ़ी बदलाव आया।
एक तरह से फ़िर से नए स्कूल में जाने जैसी स्थिति ही बन गई।
फिजिक्स केमिस्ट्री और बायोलॉजी नए विषयों के रूप में आ गए।
यहां आने के बाद कभी कभी मेरे मन में एक खास किस्म का अपराध बोध आता, कि हमारी क्लास में लोग इन्हीं विषयों पर ध्यान देते हैं और चित्रकला,डिबेट आदि को समय की बरबादी जैसा मानते हैं।
हिंदी जैसा विषय, जिसमें मुझे विशेष योग्यता हासिल थी,यहां किसी की प्राथमिकता में नहीं आता था और लड़के भाषाओं के नाम पर अंग्रेज़ी के प्रति ही ज़्यादा सजग रहते थे।
मैं ये नहीं स्वीकार कर पाता था कि मैं इस क्लास का अच्छा और तेज़ छात्र होते हुए भी जो कुछ चाहता या सोचता हूं, वह एकदम बेकार या फ़ालतू है।
लेकिन समय- समय पर मेरे पिता भी मुझे यही समझाया करते थे कि मैं अंग्रेज़ी पर अपनी पकड़ ढीली न पड़ने दूं। तब मुझे महसूस होता कि ये बाक़ी लड़के भी सही सोच रखते हैं, शायद इनके अभिभावक भी इन्हें इसी तरह की सलाह देते होंगे।
मैं अपने शौक़ और अभिरुचि में भाग लेता अवश्य था, किन्तु इनमें समय देने का मेरा उत्साह काफ़ी कम होता जा रहा था।
इस वर्ष फ़िर से यूनाइटेड स्कूल्स ऑर्गनाइजेशन की प्रतियोगिता का चयन का नोटिस आया।
इस बार स्पर्धा में भाग लेने वालों में विज्ञान के लड़के बहुत कम थे। कॉमर्स के भी ज़्यादा नहीं थे। ज़्यादा संख्या कला के छात्रों की ही थी।
लेकिन मैं इसमें भाग लेने से खुद को नहीं रोक पाया।
ढेरों छात्रों के बीच मेरा चयन फ़िर से हो गया।
हमारे साथ जाने वाले शिक्षक कला वर्ग के नागरिक शास्त्र के अध्यापक थे। उन्होंने मुझे साइंस का विद्यार्थी जान कर एक तरह से छात्रों के दल प्रमुख की अघोषित ज़िम्मेदारी दे दी।
हमारे ग्रुप में मुझसे बड़े, कक्षा दस और ग्यारह के छात्र भी थे,पर अध्यापक सारे निर्देश मुझे देकर, मेरे ही माध्यम से बाक़ी छात्रों को दिलवाते थे।
दिल्ली जाने के लिए लेखा विभाग से एडवांस राशि लेने के लिए उन्होंने एप्लीकेशन भी मुझसे ही लिखवाई। उन्हें ये अहसास था कि सब लड़कों में मैं ही अकेला ऐसा था जो दूसरी बार जा रहा था। वे मेरे अनुभव और भिज्ञता का लाभ उठा रहे थे।
मैंने अति आत्मविश्वास यानी ओवर कॉन्फिडेंस में आकर अर्जी अंग्रेज़ी में लिख दी।
पर मैंने गलती से या अज्ञानवश पत्र में ऑन द स्पॉट कॉम्पिटिशन को " इन द पॉट" कॉम्पिटिशन लिख दिया।
लड़के तो कुछ नहीं समझे पर टीचर और अकाउंट्स ऑफिसर हंसे। हमारे साथ जाने वाले अध्यापक जी ने पत्र में सुधार करते हुए धीरे से मुझे कहा- अबे गधे, हम पॉट में नहीं, स्पॉट पर जाएंगे।
मुझे बहुत शर्मिंदगी उठानी पड़ी।
दिल्ली में हमारा ये तीन दिन का प्रवास पिछली बार की ही तरह बहुत अच्छा रहा।
देश के कौने- कौने से आए बहुत से विद्यार्थियों से परिचय हुआ। यहां मैंने देखा कि नामी गिरामी इंग्लिश स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी भी कुछ मामलों में आम छात्रों जैसे ही हैं। खासकर लड़कियों के प्रति व्यवहार और आकर्षण को लेकर उनमें भी अजीब तरह की रुचि है।
मुझे ये बात बहुत ही रहस्य भरी लगती थी कि कुछ लड़कों में लड़कियों के प्रति जंगली बर्ताव करने की वृत्ति क्यों होती है। वे दूर से लड़कियों को देखते ही असहज हो जाते हैं, और उन पर कोई टिप्पणी करते हुए उनके समीप आना भी चाहते हैं।
कभी कभी ऐसा भी लगता कि कुछ लड़कियां स्वयं ऐसी उद्दंडता के लिए लड़कों को उकसाती हैं।
लेकिन लड़के- लड़कियों के आपसी संबंध में एक रहस्य हर समय नज़र आता।
एक दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होने से पहले हम सभी पंडाल में एक घेरा बना कर बैठे थे। एक लड़की अपनी छोटी सी डायरी लेकर वहां आई और हम सब से कहने लगी कि वह कोई सर्वे कर रही है और हम सब से कोई सवाल पूछना चाहती है।
उसका सवाल था कि जब लड़के किसी लड़की को छेड़ते हैं तो उन्हें कैसा लगता है?
दूसरा सवाल लड़कियों से था कि यदि आपको कोई सड़क पर छेड़े या आप पर भद्दे कमेंट्स करे तो आपको कैसा लगता है।
मैं ध्यान देकर सुनने लगा कि लोग उसकी बात का क्या उत्तर दे रहे हैं। प्रायः सब कह रहे थे कि उन्हें अच्छा नहीं लगता पर मैं जानता था कि वे झूठ बोल रहे हैं, क्योंकि उनके व्यवहार से ऐसा नहीं लगता था।
मुझे विचित्र अनुभूति हुई जब एक लड़की ने इस प्रश्न के जवाब में कहा- जिस दिन सड़क पर मुझे कोई भी छेड़ने, घूर कर देखने या फिकरे कसने वाला नहीं मिला, मैं घर आकर अपना आइना फोड़ दूंगी।
लड़के- लड़की के बीच संबंध को लेकर मेरा रहस्य और भी गहरा गया। मुझे लगने लगा कि शायद लड़की को देख कर लड़कों का विचलित होना दिखावटी है और केवल इसीलिए है क्योंकि उन्हें आपस में साथ साथ रहने या मिलने से रोका जाता है। पर शायद दोनों ही वास्तव में एक दूसरे से मिलना चाहते हैं।
मेरा एक दोस्त कहता था कि मैंने कभी किसी लड़की को निर्वस्त्र देखा नहीं है इसीलिए मैं इस रिश्ते को नहीं समझता। पर मैं ये भी नहीं समझता था कि उसने किसी लड़की को बिना कपड़ों के क्यों देखा? इससे क्या होता है?
एक दूसरे को निर्वस्त्र देख कर क्या होता है !
निर्वस्त्र क्यों देखते हैं? यदि सब एक दूसरे को निर्वस्त्र ही देखना चाहते हैं तो हम कपड़े पहनते ही क्यों हैं?
दिल्ली में एक हॉस्टल में हमें ठहराने की व्यवस्था की गई थी। एक बड़े कक्ष में लाइन से आठ दस बिस्तर लगा कर हम लोग लेटे हुए थे। मेरे मित्र ने दोपहर की घटना का ज़िक्र करते हुए मुझसे पूछा - अच्छा, तूने किसी लड़के को निर्वस्त्र देखा है?
- अरे पर क्यों? नंगा देखने से क्या होता है? मैंने पूछा।
वह उपेक्षा से मुंह फेर कर सो गया।
उस बार भी अखिल भारतीय प्रतियोगिता में मुझे कोई पुरस्कार नहीं मिला। लेकिन कुछ श्रेष्ठ चित्रों को प्रोत्साहन प्रमाणपत्र मिला, उनमें मेरा भी नाम था।
बायोलॉजी की क्लास में धीरे- धीरे मैंने मनुष्य शरीर की रचना के बारे में पढ़ा और मुझे थोड़ी सी जानकारी मनुष्य के प्रजनन अंगों की भी हुई। प्रजनन संस्थान में स्त्री पुरुष युग्म भी पढ़ाया गया और धीरे- धीरे अब तक देखी- सुनी कई बातों के मतलब समझ में आने लगे।
अब कला या वाणिज्य के पुराने मित्र मिलते तो ये देख- सुन कर दंग रह जाते कि वे चटकारे ले लेकर जो बातें गुप्त रूप से आपस में किया करते थे, वो बाकायदा चित्र बना- बना कर शिक्षक द्वारा हमें पढ़ाई जा रही हैं।
लड़के और लड़की के शरीर के बारे में इस तरह की बातें सुनकर कभी- कभी लगता था कि जैसे प्यास में पानी पीने, भूख में खाना खाने या खुजली होने पर खुजाने पर जैसी अनुभूति होती है,वैसी ही किसी लड़की को ध्यान से देखने पर भी होती है।
यदि मैं अपने किसी दोस्त को किसी लड़की की ओर ध्यान से देखते हुए पाता था तो मुझे लड़की के बारे में, उसके शरीर की बनावट के बारे में दिलचस्पी हो जाती थी।
एक विचित्र बात और थी। जिस तरह ज़्यादातर सबको कुछ चीज़ों से घृणा या परेशानी होती है, मुझे उन से कोई कठिनाई नहीं होती थी। जैसे मुझे धूल और मिट्टी से कोई परहेज नहीं था।
कहीं मैदान में झाड़ू लगने पर जब धूल उड़ती है, उसकी गंध मुझे सुहाती थी।
यदि मेरा कोई दोस्त मुझे किसी लड़की को दिखा कर पूछता कि ये कैसी है,तो मैं उस लड़की का चेहरा ध्यान से देख कर बता देता था कि वह सुन्दर है या नहीं।
तात्पर्य ये कि मैं किसी की सुंदरता को उसके चेहरे की बनावट से ही आंका करता था।
किन्तु मुझे तब घोर आश्चर्य होता जब मेरे कई दोस्त लड़के ऐसी लड़कियों को सुन्दर कह देते जिनका चेहरा बिल्कुल भी आकर्षक नहीं होता था। हां,उनका शरीर भरा- भरा और पुष्ट होता जो मेरे विचार से सुंदरता का कोई मानदंड नहीं था।
मेरे एक दोस्त ने मुझे समझाया कि लड़की की सुंदरता उसके नैन नक्श से नहीं देखते,बल्कि उसकी छाती के उभारों से,और उसकी जांघों के पुष्ट होने से मानते हैं।
- क्यों? मैंने पूछा।
दोस्त बोला- उसे काम में वहीं से लिया जाता है,चेहरे मोहरे से नहीं।
मुझे उसकी ये बात बिल्कुल समझ में नहीं आई।
पर मैं एक ही लड़की को अलग - अलग समय पर अलग - अलग दोस्तों को दिखा कर इस बात की पुष्टि करने की कोशिश किया करता कि सुंदरता सब का निजी निर्णय है या इसके सार्वभौमिक मानदंड हैं!
ज़्यादातर लड़के चेहरे की तुलना में पुष्ट छातियों और पुष्ट जांघों को प्राथमिकता दिया करते।
मुझे कुछ ही दिनों में ये भी पता चला कि पतली कमर, पतले होठ, बड़ी आंखें, नुकीली अंगुलियों को भी सुंदरता के मानदंड माना जाता है।
छुट्टियों में मुझे पानी के किनारे घूमना पसंद था। कई बार मैं तालाबों के किनारे से बड़े- बड़े मेंढक पकड़ लिया करता था। मुझे ये भी पता चला कि डॉक्टरी की पढ़ाई में मेंढक को काट कर उसका अध्ययन कराया जाता है,तो मैं पकड़े गए मेंढकों को ध्यान से देख कर उनके चित्र बनाया करता था।
नवीं कक्षा में भी मेरे अपनी कक्षा में सर्वाधिक अंक आए।
मैं दसवीं में आ गया। मेरी गतिविधियां चाहे बाक़ी छात्रों की तुलना में कैसी भी हों,परीक्षा ही किसी विद्यार्थी के मूल्यांकन का अंतिम हथियार होती है। परीक्षा में मेरा स्थान बरकरार था और इसलिए मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा। मेरे हर प्रयास को मान्यता मिलती गई।
सावन की फुहार के साथ स्कूल का नया सत्र आरंभ हुआ।
इस साल भी कुछ नई बातों से मेरा वास्ता पड़ा।
मुझसे बड़ा भाई अपनी आगे की पढ़ाई करने के लिए शहर छोड़ कर बाहर चला गया। उसे एक अच्छे कॉलेज में हॉस्टल में एडमिशन मिल गया।
विद्यालय में मुझ पर बड़े भाई की किसी तरह की रोकटोक तो कभी नहीं रही थी, फ़िर भी ये बात मुझे और आत्मविश्वास दे गई कि अब विद्यालय में मेरी स्थिति किसी से कुछ पूछने बताने की नहीं रही। मुझ पर भरोसा कायम था, घरवालों का भी, शिक्षकों का भी और दोस्तों का भी।
पिछले कई सालों से मैंने कोई फ़िल्म नहीं देखी थी। फ़िल्म देखना छोड़ने से पहले मेरी देखी प्रमुख फ़िल्में थीं - दोस्ती, सांझ और सवेरा, मेरे महबूब, जानवर। इसके अलावा कुछ कला फ़िल्में तथा उद्देश्यपूर्ण फ़िल्में मैंने पहले और देखी थीं जो स्कूल में दिखाई गई थीं। इनमें हीरामोती फ़िल्म ने मुझे काफ़ी प्रभावित किया था।
घर में अख़बार के अलावा कुछ पत्रिकाएं भी आती थीं जिनमें फिल्मी पत्रिका माधुरी मैं विशेष चाव से पढ़ता था।
घर पर लगभग सभी लोगों के शिक्षा से जुड़े होने और पुस्तकालय आदि की सहूलियत होने के कारण मैंने अन्य बहुत सी किताबें भी अब तक पढ़ डाली थीं।
मेरे पिता अंग्रेज़ी के मेरे अभ्यास को बनाए रखने के लिए मुझे कई अच्छी किताबें लाकर भी देते थे और पढ़ने के लिए उकसाते भी थे।
कई मशहूर अंग्रेज़ी लेखकों की प्रसिद्ध किताबें मैंने पढ़ डाली थीं।
इन्हीं दिनों "माधुरी" पत्रिका ने पाठकों की पसंद और विशेषज्ञों की राय के आधार पर फ़िल्म क्षेत्र से "नव रत्न" चुनने का सिलसिला शुरू किया। फिल्में न देखते हुए भी मुझे इस पत्रिका से उस दौर के कई ट्रेंड्स मालूम पड़े।
अभिनेता राजेश खन्ना, जितेंद्र और अभिनेत्री साधना साल के सबसे लोकप्रिय सितारे चुने गए। इनमें से केवल साधना को ही मेरे महबूब फ़िल्म में मैंने पर्दे पर देखा था।
मैं दोस्तों की बातचीत से ही फ़िल्मों और कलाकारों के बारे में अपनी धारणा बनाता था।
इसी साल मेरा छोटा भाई भी मिडल स्तर की पढ़ाई गांव में पूरी करके वापस शहर आ गया,लेकिन उसका प्रवेश मेरे विद्यालय में न करा कर एक अन्य प्रतिष्ठित विद्यालय में कराया गया। इसका कारण केवल यही था कि वो विद्यालय पिछले कुछ सालों में तेज़ी से उभर कर शहर के प्रतिष्ठित विद्यालयों में स्थान बना चुका था।
मेरे बारे में भी मेरे पिता को राय दी गई कि मेरा भी स्कूल बदल दिया जाए।
मैंने एक अन्य बड़े और प्रतिष्ठित विद्यालय में प्रवेश फॉर्म भी भर दिया और उसकी चयन परीक्षा में मेरा दाखिला भी हो गया। पर अपने स्कूल से ट्रांसफर प्रमाणपत्र लेते समय वहां के प्रधानाचार्य जी ने ये कह कर मेरा आवेदन रद्द कर दिया कि अपने विद्यालय के अच्छे छात्रों को हम अकारण जाने नहीं देंगे। प्रधानाचार्य जी के आग्रह पर मैंने स्कूल बदलने का विचार बदल दिया।
मुझे इस बात से भी बल मिला कि इतने बड़े विद्यालय के प्रधानाचार्य ने मेरे पिता से मुझे स्कूल न छुड़वाने का अनुरोध किया।
इन बातों से मेरे आत्म विश्वास में और बढ़ोतरी हुई तथा मैं स्कूल की एक्टिविटीज में और भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने लगा।
मेरे शिक्षक भी अब दो वर्गों में बंटे दिखाई देते थे।
कुछ तो कहते थे कि दिनों दिन तुम्हारी सफलताएं तुम्हारा नाम कर रही हैं। तुम विद्यालय का नाम भी रोशन कर रहे हो। पढ़ाई के साथ इन सब गतिविधियों में भी दक्षता हासिल करना बहुत अच्छी बात है।
पर दूसरी तरफ कुछ शिक्षक ऐसे भी थे जो कहते - ये सब बहुत कर लिया, अब बोर्ड की परीक्षा है,गंभीरता से केवल पढ़ाई पर ध्यान दो,वरना अपना लक्ष्य कभी पूरा नहीं कर पाओगे।
जो शिक्षक मुझे प्रिय थे, वे वही थे, जो मेरी मनपसंद बातों का समर्थन करते थे।
मुझमें कुछ भी नहीं बदला।
स्कूल आते समय हमें अपनी कॉलोनी से यूनिवर्सिटी के कैंपस में से गुजरते हुए पैदल ही आना होता था। हम आठ दस का समूह बना कर एक साथ आते।
रास्ते में विश्वविद्यालय के किसी भी विभाग में घुस कर कूलर से पानी पीते। कुछ शरारती छात्र बगीचे से फल तोड़ते। हमारे रास्ते में वाइस चांसलर का बंगला पड़ता था। उसमें लगे अमरूद तोड़ने के लिए हमारे एक दो मित्र उसकी दीवार पर चढ़ जाते।
हम सब के मन में ये ख्याल भी रहता था कि स्कूल की पढ़ाई के बाद एक दिन हम भी इस विश्वविद्यालय में पढ़ने आयेंगे।
यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार का बेटा भी हमारी क्लास में ही पढ़ता था और मेरा अच्छा दोस्त था। उसकी और मेरी दोस्ती में एक बात ये भी थी कि उसकी बड़ी बहन बहुत अच्छी चित्रकार थीं और आते जाते मैं उनके घर पर रुक कर उनके बनाए चित्रों को भी देखा करता था।
मेरा दोस्त अरुण पत्रमित्र बनाने का भी बहुत शौकीन था। कई देशों में उसके पत्रमित्र थे, वह उनकी बातें बताया करता था।
लगातार तीसरे साल यूनाइटेड स्कूल्स ऑर्गनाइजेशन की प्रतियोगिताओं की सूचना आई। बहुत से मित्रों ने इसके चयन में किस्मत आजमाने की कोशिश की। डिबेट, चित्रकला, संगीत, भाषण, निबंध आदि में फ़िर सेंकड़ों छात्रों के बीच से सलेक्शन हुए। मेरा चयन फ़िर से हुआ।
इस बार नए छात्रों के दल के साथ फ़िर से हम लोग दिल्ली गए।सभी कार्यक्रम बहुत भव्यता के साथ दिल्ली के विज्ञान भवन में संपन्न हुए।
कॉन्वेंट स्कूल के बच्चों को देख कर शुरू शुरू में जो हीनता की भावना हम लोगों में आ जाया करती थी वह धीरे धीरे अब समाप्त हो गई थी क्योंकि मैं कई साल से यहां आ रहा था और उनके तौर तरीकों से परिचित हो रहा था।
जिस हॉस्टल में लड़के ठहरे हुए थे उसके सामने ही एक छोटे भवन में लड़कियों को ठहराया गया था।
एक दिन सुबह शायद उस भवन में पानी आने की कुछ समस्या हो गई। सुबह सुबह दो लड़कियां खाली बाल्टियां लेकर हमारे हॉस्टल में पानी भरने आईं। पानी लेकर जब वे जा रही थीं तो बाल्टियां कुछ भारी हो जाने से उनसे उठ नहीं रही थीं। वे थक कर बार बार बाल्टी नीचे रखतीं।
तभी हमारे कमरे की खिड़की से एक लड़के के ज़ोर ज़ोर से गाना गाने की आवाज़ आई, वो गा रहा था- गोरे हाथों पे ना जुलम करो, हाज़िर है ये बंदा हुकुम करो... तुम्हारी कंवारी कलाई पे दाग ना लगे...
सब लड़के भीतर से बैठे बैठे मुंह छिपा कर हंस रहे थे। तभी एक लड़की पलट कर भीतर आई और बोली - भैया, प्लीज़, बाल्टी रखवा कर आ जाओ ना।
गाने वाला लड़का सकपका गया। उसे कोई उत्तर न देते बना, चुपचाप लड़कियों के साथ उनकी बाल्टी उठा कर रखवाने चला गया।
जब लौटा तो उसकी हालत खराब थी। लड़के हंस हंस कर अब उसे छेड़ रहे थे। उस दिन से सबने उस लड़के का नाम भैया ही रख दिया। हम लोग जितने दिन वहां रहे,सब उसे भैया ही कहते रहे।
लेकिन पंजाब के मोगा शहर से आया वो लड़का गाने का ज़बरदस्त शौक़ीन था। शाम को हम लोग खिड़की में खड़े थे तभी एक लड़की खुले बाल फैलाए सीढ़ियों से आती हुई दिखाई दी।
भैया ज़ोर ज़ोर से गाने लगा - तू मेरे सामने है, तेरी जुल्फें हैं खुली, तेरा आंचल है ढला, मैं भला होश में कैसे रहूं ...
तभी पीछे से हमारे कमरे का एक लड़का बोल पड़ा - अबे,चुप होजा, नहीं तो वो तेरे से चोटी करवाने को आ जाएगी।
अगले दिन वो प्रतियोगिता होनी थी जिसमें मुझे भाग लेना था।
(6)
आठवीं कक्षा का परिणाम भी एक दिन आ गया।
हमारे विद्यालय में छात्र संख्या बहुत होने के कारण आठवीं के भी बहुत सारे सेक्शन थे। मेरे अपने सेक्शन में तो सर्वाधिक अंक आए किन्तु मुझे ये नहीं पता चल पाया कि कुल मिलाकर मेरा कौन सा स्थान बना।
मेरी ये जानने में ज़्यादा दिलचस्पी भी नहीं थी क्योंकि मुझे ये पता चल गया था कि अन्य सेक्शंस में कुछ लड़कों के मुझसे भी अधिक अंक हैं।
स्कूल के वार्षिकोत्सव में एक और चित्रकला प्रतियोगिता के लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री के हाथों मुझे स्वर्ण पदक मिला। साथी,दोस्त और घरवाले भी समझ गए कि मेरी उपलब्धियां परीक्षा के अंकों से ज़्यादा दूसरी गतिविधियों में ही हैं।
दूसरे,अब नवीं कक्षा से तो सब कुछ बदल ही जाना था। मैथ्स के लड़कों को अलग होना था, बायोलॉजी के अलग।
मेरे लिए ये भी विचित्र था कि अन्य गतिविधियों में मेरे साथ रहकर मेरे आत्मीय मित्र बन चुके कुछ लड़के आर्ट्स और कॉमर्स में जाने की भी सोच रहे थे।
स्कूल में विज्ञान की कक्षाएं पहली शिफ्ट में,सुबह सुबह लगती थीं और कला या कॉमर्स की दोपहर को,इस कारण भी हम मित्रों के मिलने जुलने के नए समीकरण बने और काफ़ी बदलाव आया।
एक तरह से फ़िर से नए स्कूल में जाने जैसी स्थिति ही बन गई।
फिजिक्स केमिस्ट्री और बायोलॉजी नए विषयों के रूप में आ गए।
यहां आने के बाद कभी कभी मेरे मन में एक खास किस्म का अपराध बोध आता, कि हमारी क्लास में लोग इन्हीं विषयों पर ध्यान देते हैं और चित्रकला,डिबेट आदि को समय की बरबादी जैसा मानते हैं।
हिंदी जैसा विषय, जिसमें मुझे विशेष योग्यता हासिल थी,यहां किसी की प्राथमिकता में नहीं आता था और लड़के भाषाओं के नाम पर अंग्रेज़ी के प्रति ही ज़्यादा सजग रहते थे।
मैं ये नहीं स्वीकार कर पाता था कि मैं इस क्लास का अच्छा और तेज़ छात्र होते हुए भी जो कुछ चाहता या सोचता हूं, वह एकदम बेकार या फ़ालतू है।
लेकिन समय- समय पर मेरे पिता भी मुझे यही समझाया करते थे कि मैं अंग्रेज़ी पर अपनी पकड़ ढीली न पड़ने दूं। तब मुझे महसूस होता कि ये बाक़ी लड़के भी सही सोच रखते हैं, शायद इनके अभिभावक भी इन्हें इसी तरह की सलाह देते होंगे।
मैं अपने शौक़ और अभिरुचि में भाग लेता अवश्य था, किन्तु इनमें समय देने का मेरा उत्साह काफ़ी कम होता जा रहा था।
इस वर्ष फ़िर से यूनाइटेड स्कूल्स ऑर्गनाइजेशन की प्रतियोगिता का चयन का नोटिस आया।
इस बार स्पर्धा में भाग लेने वालों में विज्ञान के लड़के बहुत कम थे। कॉमर्स के भी ज़्यादा नहीं थे। ज़्यादा संख्या कला के छात्रों की ही थी।
लेकिन मैं इसमें भाग लेने से खुद को नहीं रोक पाया।
ढेरों छात्रों के बीच मेरा चयन फ़िर से हो गया।
हमारे साथ जाने वाले शिक्षक कला वर्ग के नागरिक शास्त्र के अध्यापक थे। उन्होंने मुझे साइंस का विद्यार्थी जान कर एक तरह से छात्रों के दल प्रमुख की अघोषित ज़िम्मेदारी दे दी।
हमारे ग्रुप में मुझसे बड़े, कक्षा दस और ग्यारह के छात्र भी थे,पर अध्यापक सारे निर्देश मुझे देकर, मेरे ही माध्यम से बाक़ी छात्रों को दिलवाते थे।
दिल्ली जाने के लिए लेखा विभाग से एडवांस राशि लेने के लिए उन्होंने एप्लीकेशन भी मुझसे ही लिखवाई। उन्हें ये अहसास था कि सब लड़कों में मैं ही अकेला ऐसा था जो दूसरी बार जा रहा था। वे मेरे अनुभव और भिज्ञता का लाभ उठा रहे थे।
मैंने अति आत्मविश्वास यानी ओवर कॉन्फिडेंस में आकर अर्जी अंग्रेज़ी में लिख दी।
पर मैंने गलती से या अज्ञानवश पत्र में ऑन द स्पॉट कॉम्पिटिशन को " इन द पॉट" कॉम्पिटिशन लिख दिया।
लड़के तो कुछ नहीं समझे पर टीचर और अकाउंट्स ऑफिसर हंसे। हमारे साथ जाने वाले अध्यापक जी ने पत्र में सुधार करते हुए धीरे से मुझे कहा- अबे गधे, हम पॉट में नहीं, स्पॉट पर जाएंगे।
मुझे बहुत शर्मिंदगी उठानी पड़ी।
दिल्ली में हमारा ये तीन दिन का प्रवास पिछली बार की ही तरह बहुत अच्छा रहा।
देश के कौने- कौने से आए बहुत से विद्यार्थियों से परिचय हुआ। यहां मैंने देखा कि नामी गिरामी इंग्लिश स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी भी कुछ मामलों में आम छात्रों जैसे ही हैं। खासकर लड़कियों के प्रति व्यवहार और आकर्षण को लेकर उनमें भी अजीब तरह की रुचि है।
मुझे ये बात बहुत ही रहस्य भरी लगती थी कि कुछ लड़कों में लड़कियों के प्रति जंगली बर्ताव करने की वृत्ति क्यों होती है। वे दूर से लड़कियों को देखते ही असहज हो जाते हैं, और उन पर कोई टिप्पणी करते हुए उनके समीप आना भी चाहते हैं।
कभी कभी ऐसा भी लगता कि कुछ लड़कियां स्वयं ऐसी उद्दंडता के लिए लड़कों को उकसाती हैं।
लेकिन लड़के- लड़कियों के आपसी संबंध में एक रहस्य हर समय नज़र आता।
एक दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होने से पहले हम सभी पंडाल में एक घेरा बना कर बैठे थे। एक लड़की अपनी छोटी सी डायरी लेकर वहां आई और हम सब से कहने लगी कि वह कोई सर्वे कर रही है और हम सब से कोई सवाल पूछना चाहती है।
उसका सवाल था कि जब लड़के किसी लड़की को छेड़ते हैं तो उन्हें कैसा लगता है?
दूसरा सवाल लड़कियों से था कि यदि आपको कोई सड़क पर छेड़े या आप पर भद्दे कमेंट्स करे तो आपको कैसा लगता है।
मैं ध्यान देकर सुनने लगा कि लोग उसकी बात का क्या उत्तर दे रहे हैं। प्रायः सब कह रहे थे कि उन्हें अच्छा नहीं लगता पर मैं जानता था कि वे झूठ बोल रहे हैं, क्योंकि उनके व्यवहार से ऐसा नहीं लगता था।
मुझे विचित्र अनुभूति हुई जब एक लड़की ने इस प्रश्न के जवाब में कहा- जिस दिन सड़क पर मुझे कोई भी छेड़ने, घूर कर देखने या फिकरे कसने वाला नहीं मिला, मैं घर आकर अपना आइना फोड़ दूंगी।
लड़के- लड़की के बीच संबंध को लेकर मेरा रहस्य और भी गहरा गया। मुझे लगने लगा कि शायद लड़की को देख कर लड़कों का विचलित होना दिखावटी है और केवल इसीलिए है क्योंकि उन्हें आपस में साथ साथ रहने या मिलने से रोका जाता है। पर शायद दोनों ही वास्तव में एक दूसरे से मिलना चाहते हैं।
मेरा एक दोस्त कहता था कि मैंने कभी किसी लड़की को निर्वस्त्र देखा नहीं है इसीलिए मैं इस रिश्ते को नहीं समझता। पर मैं ये भी नहीं समझता था कि उसने किसी लड़की को बिना कपड़ों के क्यों देखा? इससे क्या होता है?
एक दूसरे को निर्वस्त्र देख कर क्या होता है !
निर्वस्त्र क्यों देखते हैं? यदि सब एक दूसरे को निर्वस्त्र ही देखना चाहते हैं तो हम कपड़े पहनते ही क्यों हैं?
दिल्ली में एक हॉस्टल में हमें ठहराने की व्यवस्था की गई थी। एक बड़े कक्ष में लाइन से आठ दस बिस्तर लगा कर हम लोग लेटे हुए थे। मेरे मित्र ने दोपहर की घटना का ज़िक्र करते हुए मुझसे पूछा - अच्छा, तूने किसी लड़के को निर्वस्त्र देखा है?
- अरे पर क्यों? नंगा देखने से क्या होता है? मैंने पूछा।
वह उपेक्षा से मुंह फेर कर सो गया।
उस बार भी अखिल भारतीय प्रतियोगिता में मुझे कोई पुरस्कार नहीं मिला। लेकिन कुछ श्रेष्ठ चित्रों को प्रोत्साहन प्रमाणपत्र मिला, उनमें मेरा भी नाम था।
बायोलॉजी की क्लास में धीरे- धीरे मैंने मनुष्य शरीर की रचना के बारे में पढ़ा और मुझे थोड़ी सी जानकारी मनुष्य के प्रजनन अंगों की भी हुई। प्रजनन संस्थान में स्त्री पुरुष युग्म भी पढ़ाया गया और धीरे- धीरे अब तक देखी- सुनी कई बातों के मतलब समझ में आने लगे।
अब कला या वाणिज्य के पुराने मित्र मिलते तो ये देख- सुन कर दंग रह जाते कि वे चटकारे ले लेकर जो बातें गुप्त रूप से आपस में किया करते थे, वो बाकायदा चित्र बना- बना कर शिक्षक द्वारा हमें पढ़ाई जा रही हैं।
लड़के और लड़की के शरीर के बारे में इस तरह की बातें सुनकर कभी- कभी लगता था कि जैसे प्यास में पानी पीने, भूख में खाना खाने या खुजली होने पर खुजाने पर जैसी अनुभूति होती है,वैसी ही किसी लड़की को ध्यान से देखने पर भी होती है।
यदि मैं अपने किसी दोस्त को किसी लड़की की ओर ध्यान से देखते हुए पाता था तो मुझे लड़की के बारे में, उसके शरीर की बनावट के बारे में दिलचस्पी हो जाती थी।
एक विचित्र बात और थी। जिस तरह ज़्यादातर सबको कुछ चीज़ों से घृणा या परेशानी होती है, मुझे उन से कोई कठिनाई नहीं होती थी। जैसे मुझे धूल और मिट्टी से कोई परहेज नहीं था।
कहीं मैदान में झाड़ू लगने पर जब धूल उड़ती है, उसकी गंध मुझे सुहाती थी।
यदि मेरा कोई दोस्त मुझे किसी लड़की को दिखा कर पूछता कि ये कैसी है,तो मैं उस लड़की का चेहरा ध्यान से देख कर बता देता था कि वह सुन्दर है या नहीं।
तात्पर्य ये कि मैं किसी की सुंदरता को उसके चेहरे की बनावट से ही आंका करता था।
किन्तु मुझे तब घोर आश्चर्य होता जब मेरे कई दोस्त लड़के ऐसी लड़कियों को सुन्दर कह देते जिनका चेहरा बिल्कुल भी आकर्षक नहीं होता था। हां,उनका शरीर भरा- भरा और पुष्ट होता जो मेरे विचार से सुंदरता का कोई मानदंड नहीं था।
मेरे एक दोस्त ने मुझे समझाया कि लड़की की सुंदरता उसके नैन नक्श से नहीं देखते,बल्कि उसकी छाती के उभारों से,और उसकी जांघों के पुष्ट होने से मानते हैं।
- क्यों? मैंने पूछा।
दोस्त बोला- उसे काम में वहीं से लिया जाता है,चेहरे मोहरे से नहीं।
मुझे उसकी ये बात बिल्कुल समझ में नहीं आई।
पर मैं एक ही लड़की को अलग - अलग समय पर अलग - अलग दोस्तों को दिखा कर इस बात की पुष्टि करने की कोशिश किया करता कि सुंदरता सब का निजी निर्णय है या इसके सार्वभौमिक मानदंड हैं!
ज़्यादातर लड़के चेहरे की तुलना में पुष्ट छातियों और पुष्ट जांघों को प्राथमिकता दिया करते।
मुझे कुछ ही दिनों में ये भी पता चला कि पतली कमर, पतले होठ, बड़ी आंखें, नुकीली अंगुलियों को भी सुंदरता के मानदंड माना जाता है।
छुट्टियों में मुझे पानी के किनारे घूमना पसंद था। कई बार मैं तालाबों के किनारे से बड़े- बड़े मेंढक पकड़ लिया करता था। मुझे ये भी पता चला कि डॉक्टरी की पढ़ाई में मेंढक को काट कर उसका अध्ययन कराया जाता है,तो मैं पकड़े गए मेंढकों को ध्यान से देख कर उनके चित्र बनाया करता था।
नवीं कक्षा में भी मेरे अपनी कक्षा में सर्वाधिक अंक आए।
मैं दसवीं में आ गया। मेरी गतिविधियां चाहे बाक़ी छात्रों की तुलना में कैसी भी हों,परीक्षा ही किसी विद्यार्थी के मूल्यांकन का अंतिम हथियार होती है। परीक्षा में मेरा स्थान बरकरार था और इसलिए मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा। मेरे हर प्रयास को मान्यता मिलती गई।
सावन की फुहार के साथ स्कूल का नया सत्र आरंभ हुआ।
इस साल भी कुछ नई बातों से मेरा वास्ता पड़ा।
मुझसे बड़ा भाई अपनी आगे की पढ़ाई करने के लिए शहर छोड़ कर बाहर चला गया। उसे एक अच्छे कॉलेज में हॉस्टल में एडमिशन मिल गया।
विद्यालय में मुझ पर बड़े भाई की किसी तरह की रोकटोक तो कभी नहीं रही थी, फ़िर भी ये बात मुझे और आत्मविश्वास दे गई कि अब विद्यालय में मेरी स्थिति किसी से कुछ पूछने बताने की नहीं रही। मुझ पर भरोसा कायम था, घरवालों का भी, शिक्षकों का भी और दोस्तों का भी।
पिछले कई सालों से मैंने कोई फ़िल्म नहीं देखी थी। फ़िल्म देखना छोड़ने से पहले मेरी देखी प्रमुख फ़िल्में थीं - दोस्ती, सांझ और सवेरा, मेरे महबूब, जानवर। इसके अलावा कुछ कला फ़िल्में तथा उद्देश्यपूर्ण फ़िल्में मैंने पहले और देखी थीं जो स्कूल में दिखाई गई थीं। इनमें हीरामोती फ़िल्म ने मुझे काफ़ी प्रभावित किया था।
घर में अख़बार के अलावा कुछ पत्रिकाएं भी आती थीं जिनमें फिल्मी पत्रिका माधुरी मैं विशेष चाव से पढ़ता था।
घर पर लगभग सभी लोगों के शिक्षा से जुड़े होने और पुस्तकालय आदि की सहूलियत होने के कारण मैंने अन्य बहुत सी किताबें भी अब तक पढ़ डाली थीं।
मेरे पिता अंग्रेज़ी के मेरे अभ्यास को बनाए रखने के लिए मुझे कई अच्छी किताबें लाकर भी देते थे और पढ़ने के लिए उकसाते भी थे।
कई मशहूर अंग्रेज़ी लेखकों की प्रसिद्ध किताबें मैंने पढ़ डाली थीं।
इन्हीं दिनों "माधुरी" पत्रिका ने पाठकों की पसंद और विशेषज्ञों की राय के आधार पर फ़िल्म क्षेत्र से "नव रत्न" चुनने का सिलसिला शुरू किया। फिल्में न देखते हुए भी मुझे इस पत्रिका से उस दौर के कई ट्रेंड्स मालूम पड़े।
अभिनेता राजेश खन्ना, जितेंद्र और अभिनेत्री साधना साल के सबसे लोकप्रिय सितारे चुने गए। इनमें से केवल साधना को ही मेरे महबूब फ़िल्म में मैंने पर्दे पर देखा था।
मैं दोस्तों की बातचीत से ही फ़िल्मों और कलाकारों के बारे में अपनी धारणा बनाता था।
इसी साल मेरा छोटा भाई भी मिडल स्तर की पढ़ाई गांव में पूरी करके वापस शहर आ गया,लेकिन उसका प्रवेश मेरे विद्यालय में न करा कर एक अन्य प्रतिष्ठित विद्यालय में कराया गया। इसका कारण केवल यही था कि वो विद्यालय पिछले कुछ सालों में तेज़ी से उभर कर शहर के प्रतिष्ठित विद्यालयों में स्थान बना चुका था।
मेरे बारे में भी मेरे पिता को राय दी गई कि मेरा भी स्कूल बदल दिया जाए।
मैंने एक अन्य बड़े और प्रतिष्ठित विद्यालय में प्रवेश फॉर्म भी भर दिया और उसकी चयन परीक्षा में मेरा दाखिला भी हो गया। पर अपने स्कूल से ट्रांसफर प्रमाणपत्र लेते समय वहां के प्रधानाचार्य जी ने ये कह कर मेरा आवेदन रद्द कर दिया कि अपने विद्यालय के अच्छे छात्रों को हम अकारण जाने नहीं देंगे। प्रधानाचार्य जी के आग्रह पर मैंने स्कूल बदलने का विचार बदल दिया।
मुझे इस बात से भी बल मिला कि इतने बड़े विद्यालय के प्रधानाचार्य ने मेरे पिता से मुझे स्कूल न छुड़वाने का अनुरोध किया।
इन बातों से मेरे आत्म विश्वास में और बढ़ोतरी हुई तथा मैं स्कूल की एक्टिविटीज में और भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने लगा।
मेरे शिक्षक भी अब दो वर्गों में बंटे दिखाई देते थे।
कुछ तो कहते थे कि दिनों दिन तुम्हारी सफलताएं तुम्हारा नाम कर रही हैं। तुम विद्यालय का नाम भी रोशन कर रहे हो। पढ़ाई के साथ इन सब गतिविधियों में भी दक्षता हासिल करना बहुत अच्छी बात है।
पर दूसरी तरफ कुछ शिक्षक ऐसे भी थे जो कहते - ये सब बहुत कर लिया, अब बोर्ड की परीक्षा है,गंभीरता से केवल पढ़ाई पर ध्यान दो,वरना अपना लक्ष्य कभी पूरा नहीं कर पाओगे।
जो शिक्षक मुझे प्रिय थे, वे वही थे, जो मेरी मनपसंद बातों का समर्थन करते थे।
मुझमें कुछ भी नहीं बदला।
स्कूल आते समय हमें अपनी कॉलोनी से यूनिवर्सिटी के कैंपस में से गुजरते हुए पैदल ही आना होता था। हम आठ दस का समूह बना कर एक साथ आते।
रास्ते में विश्वविद्यालय के किसी भी विभाग में घुस कर कूलर से पानी पीते। कुछ शरारती छात्र बगीचे से फल तोड़ते। हमारे रास्ते में वाइस चांसलर का बंगला पड़ता था। उसमें लगे अमरूद तोड़ने के लिए हमारे एक दो मित्र उसकी दीवार पर चढ़ जाते।
हम सब के मन में ये ख्याल भी रहता था कि स्कूल की पढ़ाई के बाद एक दिन हम भी इस विश्वविद्यालय में पढ़ने आयेंगे।
यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार का बेटा भी हमारी क्लास में ही पढ़ता था और मेरा अच्छा दोस्त था। उसकी और मेरी दोस्ती में एक बात ये भी थी कि उसकी बड़ी बहन बहुत अच्छी चित्रकार थीं और आते जाते मैं उनके घर पर रुक कर उनके बनाए चित्रों को भी देखा करता था।
मेरा दोस्त अरुण पत्रमित्र बनाने का भी बहुत शौकीन था। कई देशों में उसके पत्रमित्र थे, वह उनकी बातें बताया करता था।
लगातार तीसरे साल यूनाइटेड स्कूल्स ऑर्गनाइजेशन की प्रतियोगिताओं की सूचना आई। बहुत से मित्रों ने इसके चयन में किस्मत आजमाने की कोशिश की। डिबेट, चित्रकला, संगीत, भाषण, निबंध आदि में फ़िर सेंकड़ों छात्रों के बीच से सलेक्शन हुए। मेरा चयन फ़िर से हुआ।
इस बार नए छात्रों के दल के साथ फ़िर से हम लोग दिल्ली गए।सभी कार्यक्रम बहुत भव्यता के साथ दिल्ली के विज्ञान भवन में संपन्न हुए।
कॉन्वेंट स्कूल के बच्चों को देख कर शुरू शुरू में जो हीनता की भावना हम लोगों में आ जाया करती थी वह धीरे धीरे अब समाप्त हो गई थी क्योंकि मैं कई साल से यहां आ रहा था और उनके तौर तरीकों से परिचित हो रहा था।
जिस हॉस्टल में लड़के ठहरे हुए थे उसके सामने ही एक छोटे भवन में लड़कियों को ठहराया गया था।
एक दिन सुबह शायद उस भवन में पानी आने की कुछ समस्या हो गई। सुबह सुबह दो लड़कियां खाली बाल्टियां लेकर हमारे हॉस्टल में पानी भरने आईं। पानी लेकर जब वे जा रही थीं तो बाल्टियां कुछ भारी हो जाने से उनसे उठ नहीं रही थीं। वे थक कर बार बार बाल्टी नीचे रखतीं।
तभी हमारे कमरे की खिड़की से एक लड़के के ज़ोर ज़ोर से गाना गाने की आवाज़ आई, वो गा रहा था- गोरे हाथों पे ना जुलम करो, हाज़िर है ये बंदा हुकुम करो... तुम्हारी कंवारी कलाई पे दाग ना लगे...
सब लड़के भीतर से बैठे बैठे मुंह छिपा कर हंस रहे थे। तभी एक लड़की पलट कर भीतर आई और बोली - भैया, प्लीज़, बाल्टी रखवा कर आ जाओ ना।
गाने वाला लड़का सकपका गया। उसे कोई उत्तर न देते बना, चुपचाप लड़कियों के साथ उनकी बाल्टी उठा कर रखवाने चला गया।
जब लौटा तो उसकी हालत खराब थी। लड़के हंस हंस कर अब उसे छेड़ रहे थे। उस दिन से सबने उस लड़के का नाम भैया ही रख दिया। हम लोग जितने दिन वहां रहे,सब उसे भैया ही कहते रहे।
लेकिन पंजाब के मोगा शहर से आया वो लड़का गाने का ज़बरदस्त शौक़ीन था। शाम को हम लोग खिड़की में खड़े थे तभी एक लड़की खुले बाल फैलाए सीढ़ियों से आती हुई दिखाई दी।
भैया ज़ोर ज़ोर से गाने लगा - तू मेरे सामने है, तेरी जुल्फें हैं खुली, तेरा आंचल है ढला, मैं भला होश में कैसे रहूं ...
तभी पीछे से हमारे कमरे का एक लड़का बोल पड़ा - अबे,चुप होजा, नहीं तो वो तेरे से चोटी करवाने को आ जाएगी।
अगले दिन वो प्रतियोगिता होनी थी जिसमें मुझे भाग लेना था।