नीला आकाश
(1)
सारी धुंध छँट गयी थी। खुशी का ओर छोर नहीं था।
दोनों हाथ पैफलाये चक्राकार घूमते हुए वह पूरे आसमान को समेट लेना चाहती थी अपने अंक में।
गहरी साँस लेकर पी लेना चाहती थी उन्मुक्त हवाओं को।
आज़ादी का उजाला भर लेना चाहती थी अपनी आँखों में।
आने वाली खुशी को कैद कर बंद कर लेना चाहती थी मन के द्वार।
आस-पास से बेखबर, उन पलों बाँध लेना चाहती थी हमेशा के लिए।
आकाश के रंग में रंगा था उसका नाम भी, नीला। और आकाश! वह तो निर्निमेश निहार रहा था उसे।
नन्ही गुड़िया-सी किलकारी भरती हुई मानो आज़ाद हुई हो अरसे बाद किसी कैद से। और सही ही तो था, दड़बेनुमा कमरे की खिड़की के जंगले के पार टुकड़े-टुकड़े आसमान को ही अपना नसीब मान बैठी थी वह। भूल ही गयी थी कि यह इतना विस्तृत व विशाल है। सीमित दायरे की बंधक थी उसकी ज़िन्दगी। बाहर की दुनिया उसके लिए अजनबी हो गयी थी। आकाश ने ज़िन्दगी में आकर जैसे पर दे दिये थे उसे। धीरे-धीरे आकाश उसकी ज़िन्दगी ही बन गया था। उसके सपनों की दुनिया का राजकुमार!
इतने दिनों के साथ में आज आकाश ने उसे सबसे ज़्यादा खुश देखा था। दुख का कोहरा छँट चुका था और उस पार थी खिली-खिली नरम धूप। आकाश को अपनी कामयाबी पर पूरा भरोसा था और अब तो मन-ही-मन उसने इस सपफलता को ही अपने जीवन का मकसद बना लिया था।
इस सफलता की राह में कई बबूल से काँटे थे, कई दुर्गम पहाड़ थे पर कहते हैं न कि मन में विश्वास हो तो सारी कायनात आपका साथ देने लगती है। अंत भला तो सब भला, पिफर रास्ते की मुश्किलें भी विस्मृत होने लगती हैं। आकाश के ज़हन में एक-एक बात ताशा थी। हर दृश्य आईने की तरह सापफ था। उसे तो इस पथ पर अभी और, बहुत दूर तक चलना था।
जिस दिन उसने दिल्ली में कदम रखा था उस दिन से आज तक ज़िन्दगी ने कितनी ही करवटें ली थीं। नौकरी ने जन्मभूमि कर्नाटक से कर्मभूमि दिल्ली ला पटका था। पहली ही नौकरी थी। एक प्राइवेट कंपनी में टॉवर लगाने का काम करना था। कमरेनुमा घर में साथी था विवेक। वह किसी कॉलसेंटर में काम कर रहा था। आकाश की ड्यूटी प्रतिदिन दिन की व विवेक की सप्ताह के अंतर पर डे व नाईट शिफ्ट रहती। उसके साथ रूम शेयर करने के लिए एक ब्रोकर ने व्यवस्था करवायी थी। किसी भी बड़े शहर में कमरा लेना हो या फ्लैट लेना हो, ब्रोकरों से ही संपर्क करने का चलन हो गया है। मकान-मालिक भी उन्हीं के जरिये घर किराये पर उठाने को सुरक्षित समझते हैं। कागज़ी कार्यवाही ब्रोकर के जिम्मे डाल इस सिरदर्दी से भी छुट्टी मिल जाती है।
विवेक के लिए दिल्ली नयी नहीं थी, न ही अजनबी। दिल्ली का कोना- कोना उससे वाकिफ था। रूम शेयर करते-करते वे मन की बातें भी शेयर करने लगे थे।
वही सुबह जाना और शाम को आना पिफर भोजन बनाना, खाना और बचा टाईम नींद के हवाले। सप्ताह में दो दिन शनिवार व रविवार वीक एंड यानि छुट्टी होती। छुट्टी के दिन विवेक उसे दिल्ली दर्शन को ले जाता और किसी एक्स्पर्ट गाईड की तरह उस स्थान की पूरी जानकारी देता। विवेक के मस्त मौला होने का अंदाज़ा उसे अब तक लग चुका था। दो महीने में सभी दर्शनीय स्थलों से रूबरू हो चुका था वह।
उस दिन सुबह से ही अनमना था आकाश। विवेक ने उसके मन को पढ़ने की कोशिश करते हुए चुटकी ली, "किसकी याद में मजनूं बना हुआ है भाई या घर वालों की याद आ रही है?"
"घर वालों की याद तो रोज़ ही आती है यार, पर आज कुछ मन सा नहीं लग रहा।" गहरी साँस लेकर बेकसी के जाल में फिर उलझ गया वह।
"चल, तो आज शाम को ऐसी जगह घुमा कर लाते हैं अपने यार को कि तन और मन दोनों खुश हो जायेंगे।" विवेक ने पीछे से गले में हाथ डालकर कहा।
"मतलब...?" आकाश ने गरदन घुमाकर गिरफ्त से छिटकने की कोशिश की।
"अरे, तू चल तो सही, सर्प्राईज़ है यह।"
शाम को दोनों अजमेरी गेट के लिए मैट्रो में सवार थे।
अजमेरी गेट से लाहौरी गेट तक है जी बी रोड यानि गार्स्टिन बास्टियन रोड। इमारतें तो ऐसी जैसे सौ साल पुरानी हों। वहाँ दोनों ओर दुकानें थीं और हर दो दुकानों के बीच में संकरी-सी सीढ़ियाँ। सीढ़ियों पर कुछ नंबर पड़े हुए थे। उस सीढ़ी पर भी लिखा था कोठा नंबर-103। पढ़ते ही आकाश एक पल को ठिठका और अगले ही पल तेज़ी से वापस मुड़ा।
"अरे! कहाँ जा रहा है?" विवेक ने उसे पकड़ने की कोशिश की।
"ये कहाँ ले आया तू मुझे, पहले ही बता देता तो मैं आता ही नहीं तेरे साथ यहाँ।" गुस्सा उसकी नाक पर सवार था।
अब तक विवेक ने कौली भर ली थी उसकी और ज़बरदस्ती उससे एक बार चलने की गुज़ारिश करने लगा।
"छोड़ भी यार, मन बहलाने को यही बाकी रह गया था?" विवेक ने उसको कमर से कस कर पकड़ रखा था और वह स्वयं को छुड़ाने की असफल कोशिश कर रहा था।
इसी छीना-झपटी में उसकी नज़रें जा मिलीं खिड़की से झाँकती हुई बड़ी-बड़ी हिरनी सी आँखों से। न जाने कैसी तो कशिश थी उन आँखों में कि वह डूबने सा लगा, जैसी आकर्षक आँखें वैसा ही खींचता चेहरा भी। नैना थिर से एकटक निहारने लगे। छूटने की कोशिशें ढीली पड़ गयीं।
"चल ठीक है, नहीं जाना तो चल, वापस चलते हैं।" वह विवेक के साथ स्तब्ध-सा चलने लगा। नज़रें अब भी पीछे ही लगी थीं। उन आँखों के अतिरिक्त आसपास का हर दृश्य पोर्ट्रेट मोड में धुंधला गया था कुछ दूर जाकर एक कार के शोरदार हॉर्न से उसका ध्यान टूटा। रास्ते भर दोनों ने कोई बात नहीं की।
घर आ गया पर वो दो आँखें भी पीठ पर चिपकी चली आयीं, उनका नशा अब भी तारी था उस पर। रोज़ खाना निपटाकर मिनटों में नींद के आग़ोश में समा जाने वाले आकाश की आँखों से नींद गायब थी। वह छवि उसके नयनों में ऐसी गहरी पैठ बना चुकी थी कि हज़ारों प्रतिबिंब झिलमिलाने लगे।
‘क्या था वह? ऐसी मोहक, बोलती आँखें, क्या कहना चाह रही थीं, क्यों है इतनी बेचैनी जैसे वो पूर्णिमा का चाँद और मैं सागर की लहर। इसी उधेड़बुन में झटके से उठे उसके हाथ लाईट का स्विच दबा बैठे। वह पास ही मेज़ पर रखी मैगज़ीन उठाकर उस सूरत को दिमाग से झटकने की असफल कोशिश करने लगा। विवेक अपनी नाईट ड्यूटी पर जा चुका था अन्यथा खोद-खोदकर पूछता उसे इस हालत में देखकर। फिर भी चैन न मिला तो उसने आँखें बंद कर लीं, और न जाने कब सपनों के आग़ोश में जा समाया।
सुबह उठा तो रात ठीक से न सो पाने के कारण बदन टूट रहा था। बेमन से उठकर उसने चाय बनायी। गर्म-गर्म चाय पीकर कुछ राहत महसूस हुई तो वह ऑफिस जाने की तैयारी में जुट गया।
पर वह छवि तो जैसे परछाईं-सी चलती रही दिन भर उसके साथ। जैसे सदा साथ रहने की कसम खायी हो उसने।
इसी हालत में जब दो दिन गुज़र गये तो तीसरे दिन ऑफिस के बाद उसके कदम खुद-ब-खुद उसी ओर उठ गये। देर होने पर विवेक ने फोन कर पूछा तो उसने काम की अधिकता के कारण देर हो जाने का बहाना बना दिया।
कोठा नंबर एक सौ तीन उसके ज़हन में अब भी समाया था। उसी संकरी सीढ़ी को नापकर वह ऊपर पहुँचा। एक तीव्र गंध ने नथुनों को झिंझोड़ दिया, और पल भर को नाक-होंठ सिकुड़े। तभी उसका सामना हुआ एक लफंडर टाईप लड़के से जो वहाँ कुर्सी डाले बैठा था। और शायद सैक्स वर्करों के रेट तय कर रहा था। उसने सीधे-सीधे ही पूछ लिया।
"जी साब, बताइये कैसा माल पसंद करेंगे? माल के साथ कुछ पीने को भी चाहिए तो ब्रांड भी बताना पड़ेगा।" लगा जैसे हर कोई वहाँ इसी काम के लिए आता है और उसका रिकॉर्ड प्लेयर चल जाता है।
"उसने अपने आप को संभाला और कुछ संकोच से हकलाते हुए बोला, पहले... कुछ मा...ल... दिखाओ तो।"
उसने बैल बजायी और चार-पाँच लड़कियाँ उसके सामने हाजिर थीं। उसने सभी की आँखों में झाँककर देखा पर वह नहीं दिखी जिसके चुंबकीय आकर्षण में वह यहाँ तक खिंचा चला आया था, "और दिखाओ...।"
"अगले लेवल का पैसा ज़्यादा लगेगा साब।" उसकी आँखों में चमक थी।
"कोई बात नहीं, तुम दि...दिखाओ तो।"
उसके सामने फिर एक लाईन लगी थी।
‘ये क्या कर रहा है तू, अपने संस्कारों को भूल गया क्या।’ अंतर्मन से आवाज़ आयी। उसने माथा झटका और उस मृगनयनी को तुरंत पहचान लिया, "ये वाली...।"
अगले ही पल वह उसके सुपुर्द कर दी गयी। उसने जेब टटोली, वाजिब दाम चुकाये।
"साब एक घंटे का टैम मिलेगा आपको।"
"ठीक है, ठीक है।" उसने उतावलेपन से कहा और उसके पीछे-पीछे कमरे तक चला आया। मन की मुराद पूरी होने को थी। उसने उसे अंदर जाने का इशारा किया और खुद जाने कहाँ चली गयी।
बाहर की गंध की बनिस्बत अंदर कमरा लवेंडर की खुशबू से महक रहा था। कमरा क्या छोटी-सी कोठरी थी, वह विवेकशून्य-सा इधर-उधर ताकने लगा। एक कुर्सी, एक पलंग, पलंग की बगल में एक स्टूल के अतिरिक्त वहाँ कुछ नहीं था, जगह भी नहीं थी और शायद आवश्यकता भी कहाँ थी। अंतर्मन की आवाज़ें अब भी दस्तक दे रही थीं। उन्हें अनसुना कर, जो होगा देखा जायेगा सोच ही रहा था कि तभी उस लड़की ने अंदर प्रवेश किया। उसने हिचकिचाते हुए नज़रें उठाकर देखा।
बहुत खूबसूरत तो नहीं पर आकर्षक अवश्य थी। उसके आते ही एक और नशीली गंध-सी फैल गयी कोठरी में। वह उस गंध में डूबने लगा। गुलाबी ज़रीदार साड़ी, चोटी में गजरा, सहमी हुई, कमसिन-सी लड़की। मंझोला कद, गेहुँआ रंग, तीखे नैन नक्श, मासूम-सा चेहरा। आते ही उसने हाथ जोड़े और एक ओर खड़ी हो गयी।
आकाश को कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसे कोई अनुभव भी नहीं था। घर से बाहर पहली बार अकेला किसी शहर में रहने आया था। वह वैसे भी इन सबके खिलाफ था। पर उन आँखों का पीछा करते यहाँ तक पहुँच गया था। अब ओखली में सिर दे ही दिया है तो मूसल से क्या डरना, सोचकर उसने ही बात शुरू की।
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