Neela Aakash - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

नीला आकाश - 2

नीला आकाश

(2)

"क्या नाम है तुम्हारा?"

"जी, नी...ला" झिझकते हुए धीरे से कहा उसने।

"आओ बैठो।"

वह सिकुड़ी-सी पास रखी कुर्सी पर बैठ गयी।

"तुम्हें इस तरह शर्माते हुए देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है।"

"..." वह चुप रही।

इस पेशे के लोग और शर्म! किताबों, अखबारों में कई बार किस्से पढ़े- सुने थे, फिल्मों में कई बार देखा भी था, उसके दिमाग में सैक्स वर्कर की जो छवि बनी हुई थी वो एक बिन्दास औरत की ही थी। यहाँ तो सब उल्टा-पुल्टा हो रहा था। पहली बार तो वह आया था यहाँ, शर्माना तो उसे चाहिए था। "तुम यहीं रहती हो या कहीं बाहर से आयी हो?" उसने बात को आगे बढ़ाने के इरादे से पूछा।

"..." वह अब भी चुप थी। शायद कुछ भी बोलने से कतरा रही थी।

दोनों यूँ ही आमने-सामने बैठे थे। मौन संवाद की कड़ी ने बाँध रखा था उन्हें। आकाश को बहुत अजीब लग रहा था। वह उस इरादे से तो आया ही नहीं था जिस इरादे से लोग वहाँ आते थे। उसके औरों से अलग व्यवहार से नीला भी अचंभित थी। इतनी देर में दो-तीन बार ही आँख उठाकर देखा था उसने आकाश की ओर। यूँ ही एक-दूसरे को देखते कभी नज़रें चुराते समय कहाँ हवा बन उड़ गया पता ही नहीं चला। एक घंटा यूँ ही चुप्पी में बीत गया।

चलता हूँ कहकर वह बाहर निकल आया।

उस दिन आँखों के साथ उसका वजूद भी चला आया। घर पहुँचने में रात के बारह बज गये। वह बिना कुछ खाये-पिये ही लेट गया।

ये क्या हो रहा है मुझे? उसका खयाल मेरे मन मरुथल में नख्लिस्तान की तरह क्यों हरहरा रहा है? नीला की झील सी आँखों में गहरे, और गहरे उतरता चला जा रहा हूँ मैं, क्यों...क्यों...क्यों... प्रश्नों की बौछार उसके मन के द्वार पर दस्तक देने लगी। पर उसके पास इसका कोई उत्तर नहीं था।

किसी एक खयाल का दिल, दिमाग पर इस कदर हावी होना शेष शरीर को भी भुलावे में डाल देता है। भूख, प्यास, नींद भी उस खयाल की सुरंग में भटक जाते हैं। फिर यह अहसास तो गूँगे का गुड़ है।

अगले दिन भी ऑफिस में उसका मन नहीं लगा। वह खराब तबियत का बहाना बनाकर कुछ जल्दी ही घर आ गया। पर बेचैन को चैन कहाँ! उसके प्रति अपने दिल की आवाज़ को समझने की कोशिश में कन्फ्यूज़ होता जा रहा था वह।

‘तू क्या कर रहा है, किस गर्त में गिरने को आतुर है, ये तेरी मंज़िल नहीं है!’ चेतना चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थी पर दिमाग को एक ओर खदेड़ कर दिल फिर हावी होने लगा। दुनियादारी की बातें चुंबकीय आकर्षण के तले दब कर रह गयीं। ऑफिस जाने की तैयारी करता विवेक भी घर ही मिल गया। उससे भी तबियत का बहाना कर वह चादर ओढ़कर लेट गया ताकि उसके दिल का हाल चादर की चौहद्दी तक सिमटा रहे। वह दो बार वहाँ गया पर मौन संवाद ही हावी रहा। वह भी मुझे पागल समझती होगी। ऐसा ग्राहक भी पहले कभी नहीं मिला होगा उसे, सोचकर आकाश को अजीब सा महसूस होने लगा।

नीला को भी आश्चर्य हो रहा था उसके व्यवहार पर। यहाँ तो पेमेंट से दुगना वसूलने की फिराक में रहते हैं लोग। ये कैसा कस्टमर था। ऐसे व्यक्ति से उसका भी सामना पहली ही बार हो रहा था। इन सबसे अछूता एक अहसास उसके ज़हन पर भी दस्तक दे रहा था। शोर में भी उसी की आवाज़, भीड़ में उसी का चेहरा उसे दिखायी दे रहा था। उसके लिए यह विचित्र अहसास था।

अगले दो-तीन दिन इसी हालत में निकल गये। चौथे दिन उसकी बेचैनी का बहाव उसे ठेल कर फिर उन्हीं गलियों में ले आया। अब उसे इतना अजनबी -सा नहीं लगा। उसने फिर नीला के लिए ही कीमत अदा की और कुछ ही देर में दोनों एक बार फिर आमने-सामने थे। असमंजस से बाहर आकर उसने अपने दिल की बात कहनी चाही, "मैं कुछ अलग-सा महसूस कर रहा हूँ तुम्हारे लिए। दिन रात तुम्हारा खयाल दिल से जाता ही नहीं है। लगता है ये आग मुझे जलाकर ही छोड़ेगी।"

अचानक नीला ने उसकी ओर अचरज से देखा और बोली, "मेरे लिए ऐसे भाव मन में न लाइये। किस्मत ने जो राह मेरे लिए चुनी है, वह नर्क की राह है। इस जाल में जो एक बार फंस जाता है, वो यहीं उलझकर रह जाता है। मेरा कोई भविष्य नहीं है। यहाँ हर कोई केवल वर्तमान को जीता है।"

"मेरा कोई वश नहीं है अपने आप पर। मैं तो तुम्हारे आकर्षण के जाल में फंसता चला जा रहा हूँ। शायद मैं तुमसे प्रेम करने लगा हूँ।"

"हमें दिल नहीं केवल देह परोसने की इजाज़त है। आप बहुत अच्छे इंसान हैं, वर्ना यहाँ तो भूखे भेड़िए की तरह टूट पड़ते हैं लोग। आप प्लीज़ अपने पर कंट्रोल करिये और यहाँ फिर न आइयेगा।"

"बातों से तो तुम बहुत समझदार लगती हो, और पढ़ी-लिखी भी।"

"समझदार का तो पता नहीं पर हाँ, थोड़ा बहुत पढ़ी-लिखी अवश्य हूँ।"

"अच्छा ये बताओ, तुम यहाँ कैसे आयीं, अपनी मर्ज़ी से करती हो ये काम या...?"

"अपनी मर्ज़ी से कौन चुनता है इस घिनौने काम को!"

"फिर...?"

"..." वह चुप रही, पैरों की उँगलियों से ज़मीन कुरेदती रही।

"डरो नहीं, मुझसे खुल कर बात कर सकती हो, मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगा।"

उसने विश्वास भरी नज़रों से देखा और बताना शुरू किया, "मुझे लगा था कि मुझे अपहरण कर लाया गया है यहाँ, पर बाद में पता चला कि मेरी बुआ ने ही इस दलाल से मेरा सौदा कर लिया है, मेरे जैसी कई लड़कियाँ हैं जो जबरन लायी गयी हैं यहाँ।"

"बुआ ने...? और तुम्हारे माता-पिता...?" आकाश ने पूछा।

मेरे माता-पिता दोनों एक दुर्घटना में चल बसे। तब मैं पाँच साल की थी। मेरी बुआ ने ही पाला है मुझे। दो वक्त की रोटी के बदले ढेर सारा काम करना पड़ता था। जब मैं सोलह साल की हुई तो यहाँ पहुँचा दी गयी। शायद बुआ मेरी शादी के खर्च से बचना चाहती थी। मजबूरी में और लोकलाज के डर से पाल रही थी मुझे। हो सकता है मुझसे छुटकारा पाने के लिए मेरा सौदा करके वहाँ मेरे अपहरण की खबर ही फैला दी गयी हो।"

"ओह..."

"तुम्हें बहुत गुस्सा आया होगा।"

"बंधकों को गुस्सा होने का अधिकार कहाँ होता है। मेरी ज़िन्दगी तो पहले भी बंधक ही थी और आज भी है, बस मालिक और काम बदल गया है। सच कहूँ तो इस दड़बे जैसी गंदी जगह में मेरा दम घुटता है।"

"तुमने कभी विरोध करने की कोशिश नहीं की?"

"इनकी बात नहीं मानने का तो सवाल ही नहीं उठता। शुरू-शुरू में मैंने विद्रोह भी करके देख लिया। पर कुछ हासिल नहीं हुआ। ये तो वो दल-दल है, जिसमें से जो जितना बाहर निकलने की कोशिश करता है उतना ही और धँसता चला जाता है।" नीला ने अपने संकोच से काफी हद तक निजात पा ली थी। तभी दरवाज़े पर टकोर के साथ संवाद टूट गया।

आकाश को नीला के साथ समय बिताना, बातें करना भाने लगा। वह हर दूसरे-तीसरे दिन वहाँ जाने लगा। अबकी बार उसने जाकर नीला को थोड़ी देर के लिए बाहर ले जाने का इरादा बनाया पर कामयाब न हो सका। उसने फिर कोशिश करने की सोची।

कई मुलाकातों के बाद नीला को भी आकाश का इंतज़ार रहने लगा। वह उसके लिए रोज़ सज-संवर कर तैयार होती। पहले बलात् किया जाने वाला श्रॄंगार अब उसे अच्छा लगने लगा। उसके न आने पर बेचैन हो उठती। प्रेमाग्नि की लपटें दोनों को झुलसा रही थीं। आकाश के साथ बिताया समय उसके लिए संजीवनी का काम करता। आकाश ने दलाल से कहकर नीला को अपने लिए आरक्षित कर लिया था।

इसी तरह दो महीने बीत गये। अब दोनों के बीच संकोच का परदा हट चुका था। वे खुल कर बात करते पर देह अभी भी उनके मध्य नहीं थी। उनके मन में पल रहे प्रेम की किसी तीसरे को हवा भी नहीं लग पायी थी।

"चलो, यहाँ से भाग चलते हैं।" एक दिन आकाश ने प्रस्ताव रखा।

"यहाँ से बाहर निकलना इतना आसान भी नहीं है। बल्कि असंभव ही है।" नीला उदास हो गयी।

"क्यों...?"

"यहाँ हर तरफ पहरा रहता है, बचकर निकलने का कोई रास्ता नहीं है।"

"प्रेम की परिणति विवाह होती है, तो बताओ, मुझसे शादी करोगी?"

अचानक आये सवाल से नीला अचंभित थी। उसने तो मंझधार में अपनी जीवन नैय्या छोड़ दी थी जिसे शायद ही कभी किनारा मिलता। इस सवाल से उसकी निर्जीव हो चुकी कामनाएँ जाग उठीं।

"विवाह तो मेरे लिए नींद खुलने के बाद टूट जाने वाला सपना है।"

"इस सपने को मैं साकार करूँगा।" आकाश ने आश्वासन दिया।

"मत कोई उम्मीद जगाइये, वैसे हमें तो सपने देखने का हक भी नहीं है।" नीला के स्वर में उदासी घुली थी।

"आकाश का शून्य तुम्हीं भर सकती हो। सुना है न, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती, प्यार के लिए तो लोग उफनता दरिया भी पार कर जाते हैं, पहाड़ तक तोड़ सकते हैं।"

" सब सुनने में ही अच्छा लगता है, हकीकत बहुत कड़वी होती है।" नीला को यह असंभव नज़र आ रहा था।

उस दिन के बाद आकाश नीला को वहाँ से बाहर निकालने के तरीके ढूँढ़ने लगा।

आकाश में आये बदलाव को विवेक भी महसूस कर रहा था। एक दिन वह उसे पकड़कर बैठ गया, "क्या बात है! बदले-बदले से मेरे सरकार नज़र आते हैं, अपने यार को नहीं बतायेगा?"

"तुझे वहम हो रहा है, ऐसा कुछ नहीं है।"

"वहम तो नहीं है, प्रेमरोग के से लक्षण नज़र आ रहे हैं मुझे तो, रात को नींद में किसी नीला का नाम ले रहा था तू।"

चोरी पकड़ी जाने पर बगलें झाँकने के सिवा बचा ही क्या था। मरता क्या न करता, उसे नीला को वहाँ से निकालने में मदद की आवश्यकता भी थी ही, उसने शुरू से सारी बात विवेक को बतायी।

"अच्छा...! तो बात यहाँ तक पहुँच गयी और हमें भनक तक नहीं?" उसने कमर में चुटकी काटते हुए कहा।

"अब बता, तू मेरी कोई मदद कर सकता है?"

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