सत्या - 34 (अंतिम भाग) KAMAL KANT LAL द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सत्या - 34 (अंतिम भाग)

सत्या 34

घड़ी में पाँच बजकर बीस मिनट हो रहे थे. बड़ा बाबू की मेज़ पर संजय बैठा अपने सामान समेट रहा था. आधे से ज़्यादा लोग जा चुके थे. सत्या ने भी अपनी फाईलें समेटीं. जब अंतिम कर्मचारी भी चला गया तो सत्या के उदास चेहरे को देखकर संजय ने कहा, “तेरी उदासी हमसे देखी नहीं जाती.”

सत्या ने ग़मगीन स्वर में कहा, “अब पता चल रहा है कि बीस साल की सज़ा काटकर कोई मुक्त नहीं हो सकता. उम्रकैद का मतलब होता है ज़िंदगी भर की सज़ा.”

संजय ने कहा, “मीरा जी ठीक ही कह रही थीं. अब तुमको सबकुछ भूलकर मूव ऑन कर जाना चाहिए.”

“मूव ऑन? ...... ....... कहाँ?” सत्या ने इतनी लंबी साँस छोड़ी जैसे यह उसकी आख़िरी साँस हो.

दरवाज़े पर ज़ोर की दस्तक पड़ी. मीरा चौंक गई. अपने ख़्यालों से बाहर आने में उसे थोड़ा समय लगा. तब तक तीन-चार दस्तकें पड़ चुकी थीं. वह हड़बड़ाकर उठी और उसने दरवाज़ा खोला. एक आँधी की तरह खुशी घर में आई और उसने सवाल दागा, “चाचा को क्यों जाने दिया तुमलोगों ने? और चाचा भी हमलोगों को छोड़कर चले गए? एक पल में हमलोगों को पराया कर दिया..... रोहन, रोहन, ये क्या कर दिया तुमने?”

दूसरे कमरे से रोहन निकलकर आया, “दीदी, तुम आई हो?.... अगर चाचा की वकालत करने आई हो तो हम कुछ सुनने वाले नहीं हैं.”

“अरे निर्दयी, अहसान फरामोश. तुमसे तो बात करना भी एक गुनाह है.”

“तुम भी एक विलेन को हीरो बनाने की कोशिश मत करो,” रोहन ने भी उल्टा जवाब दिया.

मीरा ने बीच-बचाव किया, “अब जो हो गया सो हो गया. उसके लिए तुमलोग आपस में मत लड़ो. सत्या जी से हमको कोई शिकायत नहीं है. और तुमलोग भी सबकुछ भूल जाओ.”

“भूल जाएँ कि उन्होंने एक बाप से बढ़कर हमारी हर ज़रूरत पूरी की. हमको गाईड

किया. अपने पैरों पर खड़ा किया. हमारे पापा भी होते तो हमलोगों पर कभी-कभी नाराज़ हो जाते. लेकिन उनके पास तो नाराज़ होने का भी अधिकार नहीं था माँ. भूल जाएँ उन्हें? हमने उनको कष्ट दिया और उन्होंने कोई शिकायत नहीं की. चुपचाप सबकुछ सहते रहे. भूल जाएँ सबकुछ?”

इतनी देर तक कोशिश करके रोक कर रखे गए आँसू मीरा की आँखों से बाढ़ के पानी की तरह बह निकले. खुशी ने कहना जारी रखा, “ठीक है कि उनके हाथों हमारे पापा की जान गई. हम जान चुके हैं कि वह एक हादसा था. वो चाहते तो ख़ामोश रह सकते थे. अपने रास्ते चले जाते. हमें क्या पता चलता? लेकिन उन्होंने अपना गुनाह कुबूल किया. वापस आए और हमको अच्छी तरह संभाला. अपनी सारी ज़िंदगी और पास का सारा पैसा हमपर लुटा दिया.”

“तुम भूल रही हो कि वो एक मुज़रिम है,” रोहन की आवाज़ में अब वो आक्रोश नहीं झलक रहा था.

“मुज़रिम वो नहीं तुम हो. उन्होंने तो अपनी सज़ा पूरी कर ली है. अपनी ज़िंदगी के पूरे चौदह साल हमें दिए. तुमने उन्हें बार-बार यह अहसास दिलाया कि वो हमारे पिता नहीं हैं. फिर भी उन्होंने अपना फर्ज़ निभाया. जब भी तुमपर मुसीबत आई, तुम्हारे साथ खड़े रहे. तुम्हारी हर ज़िद को उन्होंने पूरी की. अब इसके बाद कौन सी सज़ा देना चाहते हो?.... क्या वो अपनी जान दे दें? तब जाकर तुम्हारे दिल में ठंढक पड़ेगी? बताओ रोहन?” खुशी फूट-फूट कर रोने लगी.

रोहन ने कुछ नहीं कहा. मीरा के घर से आती आवाज़े सुनकर सविता भी आ गई और खुशी और मीरा को चुप कराने लगी. रोहन सिर गड़ाए चुप-चाप खड़ा था. शायद पश्चाताप के आँसुओं से उसका भी हृदय भीग चुका था.

थोड़ी देर बाद जब रोना-धोना थमा तो हाथ-मुँह धोकर सब मंत्रणा करने बैठे. शंकर को भी बुला लिया गया. सविता ने झटपट सबके लिए चाय बनाई. चाय पीते हुए सविता ने सवाल किया, “खुशी बेटे, यह बात तो सही है कि हमलोगों को सत्या बाबू को यहाँ से जाने से रोकना चाहिए था. अब जो ग़लती हो गई उसे कैसे सुधारें?”

खुशी अब भावुकता से उबर चुकी थी. उसने माँ से पूछा, “माँ, चाचा के हमपर इतने अहसान हैं कि हमलोग ज़िंदगी भर भी कोशिश करें तो उसकी भरपाई नहीं कर पाएँगे......चाचा ने तो अपनी सारी ज़िंदगी हमारी देख भाल में लगा दी. अब हमारी

बारी है. तुमसे एक सवाल पूछते हैं. क्या तुम दादी की उनकी सारी उम्र देखभाल करोगी?”

सविता ने झट से कहा, “हाँ-हाँ, ज़रूर. हमें भी तो सत्या बाबू का ख़्याल रखना है. मीरा खुशी-खुशी दोनों का ख़्याल रखेगी. क्यों मीरा, करेगी ना ?”

मीरा ने हाँ नहीं कहा. लेकिन ना भी नहीं कहा. इधर सविता ने सवाल किया, “लेकिन क्या सत्या बाबू इस बात के लिए मान जाएँगे ?”

“मानेंगे क्यों नहीं? आख़िर हैं तो हमारे चाचा ही. और हम भी उनकी ही बेटी हैं. उनको मनाने का जिम्मा मेरा है,” खुशी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा.

निरंजन ने अब एक कार ले ली थी, जिसे वह भाड़े पर चलाता था. निरंजन की कार सत्या के घर के आगे आकर रुकी. कार से खुशी और शंकर ने उतर कर देखा, घर पर ताला लगा था. पड़ोसियों से पूछने पर पता चला कि कल रात ही तबियत ख़राब हो जाने के कारण सत्या को कंपनी के मेन अस्पताल में भरती कराया गया है.

सुनकर खुशी के तो आँसू निकलने लगे. सारे लोग बदहवास अस्पताल पहुँचे. संजय बाहर ही मिल गया. उसने बताया कि सत्या को आई. सी. यू. में रखा गया है. सब आई. सी. यू. की तरफ भागे.

खुशी ने रोते हुए पूछा, “क्या हो गया था चाचा को? उन्हें आ. सी. यू. में क्यों रखा गया है?”

संजय ने बताया, “कल रात अचानक उसके सीने में दर्द उठा. उसकी इच्छा के विरुद्ध हम जबर्दस्ती उसे यहाँ ले आए. लेकिन वह रास्ते में ही बेहोश हो चुका था. डॉक्टरों ने बताया उसे मैसिव हार्ट अटैक आया है और उसे सीधे आई. सी. यू. में भरती कर दिया. तब से वह कोमा में पड़ा है. डॉक्टरों का कहना है कि उसपर कोई दवा काम ही नहीं कर रही है.”

“हमको अभी मिलना है चाचा से. कुछ नहीं होगा उन्हें. हमको उनसे मिलाओ,” खुशी ने ज़िद की.

तभी एक डॉक्टर आई. सी. यू. से बाहर आया और उसने पूछा, “सत्यजीत पाल के परिवार से कौन हैं यहाँ?”

डॉक्टर का चेहरा देखते ही संजय समझ गया कि सत्या के प्राण-पखेरू ऊड़ चुके हैं. उसने अपनी आँखें बंद कर ली. आँसू की एक बूँद उसके गाल पर लुढ़क गई.

ख़बर सुनकर एक चित्कार उठा. खुशी संभाले नहीं संभल रही थी और मीरा तो ऐसे रो रही थी जैसे वह सत्या की विधवा हो. सभी रो रहे थे, सुबक रहे थे. रोहन मुड़ा और बेजान कदमों से चलता हुआ दूर एक बेंच पर सिर झुकाकर बैठ गया. फिर वह फूट-फूट कर रोने लगा, “चाचा, आपने तो हमको माफी माँगने का मौका भी नहीं दिया.”

और अंत

सत्या की माँ को मीरा ने संभाल लिया है. वे लोग उसी घर में रहते हैं जिसे सत्या ने कभी मीरा के नाम पर ख़रीदा था.

खुशी अपनी बेटी और पति के साथ बंगलोर में खुशी-खुशी रह रही है. साल में एक बार माँ को देखने आ जाती है. कभी मीरा भी सत्या की माँ के साथ खुशी से मिलने बंगलोर चली जाती है.

मॉडर्न बस्ती का नाम अब मॉडर्न कॉलोनी कर दिया गया है. अब यह शिक्षित और संपन्न लोगों की कॉलोनी है. लोग अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हो गए हैं. सविता अपने बच्चों को कभी-कभी सत्या के किस्से सुनाती है.

और रोहन...

कई साल हो गए रोहन घर नहीं आया है. सत्या के साथ उसने जो व्यवहार किया था, उस अपराध-बोध से मुक्ति की तलाश में वह लगातार नौकरियाँ बदल-बदल कर कभी इस देश तो कभी उस देश में भटकता रहता है.

लेखक की स्वीकारोक्ति

सत्या की कहानी का अंत ऐसा ही होना था.

मैं चाह कर भी उसकी सुखांत कहानी नहीं गढ़ सकता था.

-कमल कांत लाल