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योगिनी - 12

योगिनी

12

रात्रि के दो पहर बीत चुके हैं। मंदिर के अंदर एवं बाहर अंधकारमय शांति छाई हुई है- निशिदिवस बहने वाली बयार भी आज शांत है, बस साल के वृक्ष के तने की खोह में बसेरा बनाये हुए उल्ूाक की ‘घू.... घू.....’ की आवाज़ यदाकदा इस नीरवता को भंग कर देती है। मीता भी निश्चिंतता से गहन निद्रा में सो रही हे। इसके विपरीत उसके बगल में लेटे योगी के मन में एक झंझावात उठा हुआ है। बेचैनी के सहन की सीमा के पार हो जाने पर योगी निश्शब्द पलंग से उठता है और कमरे से बाहर आकर हाल में विराजमान भगवत-मूर्ति के समक्ष जलते दीपक के प्रकाश में निम्नलिखित पत्र लिखने लगता हैः

मीता! (प्रिये से सम्बोधित करने का अधिकार खो चुका हूं, अतः केवल मीता ही),

तुम जब अमेरिका से लौट आईं थीं, तब से तुमने कभी अकस्मात वहां चले जाने और फिर वापस आ जाने का कारण मुझे बताने की आवश्यकता नहीं समझी। इससे मुझे स्पष्ट हो गया था कि तुम्हारे जीवन में मेरा महत्व पहले जैसा नहीं रह गया है, परंतु तुम्हारे आत्मीयता के प्रदर्शन से मैं अपने मन को आश्वस्त कर लेता था कि तुम आकर्षण के एक झोंके में बहकर वहां चली गई होगी, एवं तद्जनित आत्मग्लानि के कारण उस विषय पर बात नहीं करना चाहती होगी। परंतु कल माइक के पुनरागमन पर तुम्हारे मुख पर उतर आये उत्फुल्लता के अतिरेक ने मुझे अपने मन को समझाने के लिये स्वयं को दिये जाने वाले आश्वासन की सच्चाई के सम्बंघ में आशंकित कर दिया था। फिर आज सायं वनभ्रमण के दौरान माइक से तुम्हारी आत्मीयता एवं उसके प्रति उफनते प्रेम को देखकर मेरे मन में शंका का कोई कारण नहीं बचा है और तुम्हारे जीवन में अपनी स्थिति की वास्तविकता का मुझे स्पष्ट ज्ञान हो गया है /क्षमा करना सायंकाल तुम्हारे एवं माइक के वन-भ्रमण के दौरान मैं तुम लोगों को छिपकर देख रहा था और यथासम्भव तुम्हारे बीच की बातें भी सुन रहा था/।

मैं आज रात ही आश्रम छोड़ कर जा रहा हूं- कहां एवं कब तक के लिये? यह भविष्य के गर्भ में है। जब तक तुम जागोगी मैं दूर निकल चुका होऊंगा। ईश्वर तुम्हें सुखी रखे।............भुवन’

ब्राम्हवेला में आंख खुलने पर मीता ने योगी को इधर उधर पुकारा और न दिखाई्र देने पर भगवतमूर्ति के पैरों पर दृष्टि पड़ने पर योगी द्वारा छोड़ा गया यह पत्र पाया। इसे पढ़कर मीता के पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक गई। योगी ही तो उसका सब कुछ था एवं अमेरिका से लौटने के उपरांत तो अपनी भूल का भान कर वह सदैव अपने को योगीमय बनाने का प्रयत्न करती रही थी। योगी के उसे छोड़कर चले जाने की बात जैसे जैसे उसके मन में उतर रही थी, वैसे वैसे उसके नेत्र अश्रुप्लावित हो रहे थे। योगी के मन को सही सही भांप पाने की अपनी अक्षमता पर वह अचम्भित भी थी।

तभी मंदिर के एक अनुचर ने आकर बताया कि साधकगण आ चुके हैं एवं आप दोनों के आगमन हेतु प्रतीक्षारत हैं। मीता किंकर्तव्यविमूढ़ हो रही थी, परंतु अपने को संयत कर बोली,

‘साधकों से कह दो कि आज प्राणायाम नहीं होगा। ऐसा लगता है कि योगी जी रात्रि मंे घोर तप हेतु हिमालय की ओर कहीं चले गये हैं। यह उनके स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से वांछनीय नहीं है। यदि किसी ने कहीं देखा हो तो बतायें। अन्यथा बस स्टेंड, आस पास के गांवों एवं अन्य सम्भावित स्थानों से पता लगायें कि वहां किसी ने उन्हें देखा तो नहीं है।’

अनुचर आश्चर्य से योगिनी की ओर देख रहा था, परंतु तभी परिस्थिति की गम्भीरता पर विचार कर मीता द्वारा बताई हुई बात साधकों को बताने चला गया। ्रअनेक साधकों के मुंह से अनायास निकल पड़ा,

‘योगी जी ने कभी ऐसा कुछ भी तो इंगित नहीं किया था और उनके व्यवहार से भी ऐसा अनुमान नहीं लगता था।’

योगी के अप्रत्याशित रूप से चले जाने पर सभी हतप्रभ थे। फिर बिना विलम्ब किये योगी का पता लगाने का प्रयत्न करने के उद्देश्य से वे वहां से चले गये। माइक अंदर आकर मीता से योगी के विषय मंे पूछने लगा कि वह कब सोये थे और उस समय योगी किस प्रकार की मनःथिति में थे। मीता ने कहा कि परसों सायं से कुछ अन्यमनस्क तो दिखाई दे रहे थे परंतु उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही थी जिससे किसी गहरे अंतद्र्वंद्व का आभास हो। माइक को योगी का अपने प्रति व्यवहार प्रारम्भ से ही तिरस्कारपूर्ण लग रहा था और वह योगी के समक्ष असहज भी हो जाता था। वह समझ गया कि हो न हो योगी के पलायन का कारण वही हेै। उसने मीता से स्पष्ट कहा,

‘मुझे लगता है कि योगी को मेरा यहां आना अच्छा नहीं लगा है। ऐसी स्थिति में वह मेरे यहां रहते हुए लौटेगा भी नहीं। अतः मैं आज ही यहां से चला जाउूंगा।’

मीता को माइक की बातों में छिपी वास्तविकता समझ में आ रही थी और वह केवल इतना बोली,

‘आई एम सौरी दैट यू हैव टु लीव सो सून।’

माइक जल्दी जल्दी अपना सामान इकट्ठा कर मीता से विदा लेकर अल्मोड़ा की बस पकड़ने के लिये बस स्टेंड चला आया।

मीता अपने अकेलेपन में फूट फूट कर रो पड़ी- उसे आशंका लग रही थी कि भुवन जिस अवसाद की मनःस्थिति में गया है, उसमें पता नहीं वह क्या कर बैठे और यह भी सम्भव है कि आहत-अहम् के वशीभूत हो कभी भी वापस न आये।

मीता की आशंका निर्मूल नहीं थी- भुवन चंद्र सचमुच ऐसे आवेश के वशीभूत होकर गया था कि वापसी की बात सोचने में भी अक्षम था; उसे तेा बस चलते चला जाना था- दूर, इतनी दूर कि कि मीता अथवा उससे सम्बंधित किसी प्रकार की स्मृति अथवा छवि भी मन में न आये। वह मानिला मंदिर से पर्वतीय वन के बीच बनी पगडंडियों के मार्ग से अपनी धुन में चला जा रहा था- उसे न अंधेरे में सांप-बिच्छू पर पैर पड़ जाने का ख़याल था और न किसी नरभक्षी के सामने आ जाने का डर; चलना और अधिक से अधिक दूर पहुंच जाना मात्र उसका लक्ष्य था। जब पर्वत पर नीचे को ढलान पर उतरना होता, तो वह दौड़ने लगता और फिर उूंचाई आने पर उसी झोंक मंे बढ़ता जाता था। सूर्य अधिक नहीं चढ़ पाया था, जब भुवन चंद्र हेड़ाखान के मंदिर के निकट पहुंच गया। यह मंदिर रानीखेत से लगभग छः किलोमीटर पहले चिलियानौला में एक रमणीक पहाड़ी पर 5500 फीट की उूंचाई पर स्थित है। यहां उन्नीसवीं शताब्दी में बाबा हेड़ाखान ने वर्षों तपस्या की थी। स्वामी योगानंद ने इन्हें क्रियायोग का ज्ञानी महावतार बाबा का नाम दिया था। फिर बीसवीं सदी में भी इस मंदिर के एक बाबा जी बाबा हेड़ाखान के नाम से पूजे जाते रहे हैं। वर्ष 1984 में उनकी मृत्यु के पश्चात अब केवल मूर्ति की पूजा होती है। आज सैकड़ों भक्तगण इस मंदिर पर प्रतिदिन आकर दर्शन, भजन, कीर्तन करते रहते हैं।

भुवन चंद्र इस मंदिर पर पहले भी कुछ दिन रुक चुका था। मंदिर के एक पुराने बाबा ने सड़क पर आत्मविस्मृति में भागते से भुवनचंद्र को देखकर पहचान लिया और साग्रह उूपर अपनी कुटिया में ले गया। प्रातःकालीन क्रियाओं से निवृत होकर भुवनचंद्र ने जब बाबा द्वारा प्रस्तुत प्रसाद खाया, तब वह अपने कल्पनालोक से वर्तमान में आने लगा। उसे अत्यधिक थकान का अनुभव हो रहा था और वह फ़र्श पर बिछी चटाई पर लुढ़क कर सो गया और सायंकाल बाबा के जगाने पर ही जागा। आरती के समय वह बाबा भुवनचंद्र को मंदिर के गर्भग्रह में ले गया। वहां घंटा-घड़ियाल का सुर सुनकर भुवनचंद्र का मन पुनः विचलित होने लगा- उसे आरती के समय अपने सामने खड़ी रहने वाली मीता की स्मृति गहराई से सताने लगी। उसने किसी तरह कुछ भोजन किया, परंतु भुवनचंद्र के मन केा मानिला, मीता और माइक कुरेदते रहे- वह जितना उन्हें भूलने का प्रयत्न करता, उतनी ही मन के घाव को कुरेदे जाने की टीस उसे होती। फिर इस अनुभूति में और अधिक रम जाने से वह उसी प्रकार अपने को नहीं रोक पाता जैसे पीठ में खुजली पड़ने पर खुजलाने वाला व्यक्ति यह जानते हुए भी कि नाखूनों से पीठ छिलती जा रही है, अपने को रोक नहीं पाता है।

जब मंदिर में निस्तब्धता छाने लगी, तब भुवनचंद्र चुपचाप मंदिर के प्रांगण से बाहर निकल आया और वन मार्ग से अल्मोड़ा की ओर चल दिया।

***

दूसरे दिन वह अल्मोड़ा पहुंचकर शिव के नारी रूप के त्रिपुर सुंदरी मंदिर में पहुंचकर विश्राम करना चाहता था, परंतु अल्मोड़ा आने से कुछ पहले ही क्लांत होकर सड़क किनारे के एक ढाबे की बगल में घास पर लेट गया। ढाबे वाला उसे घ्यान से देख राह था। सायंकाल जागने पर ढाबे वाले ने उससे पूछा,

‘बाबा, कहां जाना है?’

‘जहां शंकर बाबा ले जायें।’

ढाबे वाला इस रहस्यमय उत्तर से बडा़ प्रभावित हुआ। उसने उसे भोजन कराया और ढाबे पर रात्रि विश्राम का आग्रह किया, परंतु भुवनचंद्र यह कहकर आगे चल दिया कि शंकर बाबा की इच्छा अभी उसे विश्राम कराने की नहीं है।

मिरतौलिया के मार्ग से चलकर भुवनचंद्र प्रातः होते होते जटागंगाघाटी में स्थित जागेश्वर महादेव के मंदिर पहुंच गया। वहां नंदिनी एवं सुरभि के जलस्रोतों के संगम पर उसने स्नान-ध्यान किया। आज वह अपने को बहुत कुछ सहज अनुभव कर रहा था। यहां के प्राचीन मंदिर एवं अछूता प्राकृतिक वातावरण उसका मन मोह रहे थे। अन्य मंदिरों में दर्शनोपरांत उसने तरुण जागेश्वर /जागेश्वर महादेव/ के मंदिर में प्रवेश किया। इस मंदिर के द्वार पर द्वारपाल के रूप में केवल नंदी न होकर नंदी एवं स्कंदी दोनों खड़े थे, गर्भगृह में शिवलिंग अकेला होते हुए भी दो भागों में बंटा थाः बड़ा भाग शिव का एवं छोटा भाग पार्वती का प्रतीक था, तथा शिवलिंग के पीछे चंडा राजा दीपचंद एवं त्रिपालचंद की मूर्तियां विराजमान थीं। भुवनचंद्र ने घ्यानस्थ होकर देर तक इस मंदिर में पूजा की- इस बीच उसे अनुभूति होती रही कि एक शिवलिंग मे दो स्वरूपों की भांति उसके स्वयं में भी भुवन एवं मीता दोनों सिमटे हुए हैं। उसके मन में एक प्रकार का स्वांतःसंतोष घर कर रहा था। परिस्थिति एवं काल से विस्मृत होकर वह तब तक ध्यानस्थ बैठा रहा जब तक एक साधु उसे भोजन हेतु बुलाने नहीं आया।

भुवनचंद्र जागेश्वर की ईश्वरमयता एवं नीरवता से प्रभावित होकर वहीं रूक गया। निर्जनता बड़ी रोमांचक एवं मोहक होती है परंतु उसमें एक अवगुण भी होता है, और वह है दुखद स्मृतियों की तीक्ष्णता को द्विगुणित कर देना। भुवन के प्रथम दो-तीन दिन तो किसी तरह कट गये, परंतु चैथे दिवस की सायं होते ही मीता की याद और माइक के प्रति उसकी आसक्ति की कल्पना भुवनचंद्र के मन को ऐसे सालने लगे कि उसका मन उनसे और दूर चले जाने को छटपटाने लगा। सौभाग्यवश पांचवें दिन सन्यासियों एवं सन्यासिनियों की एक टोली वहां आयी, जिससे भुवनचंद्र की जानपहचान हो गई। यह समूह आदिकैलाश जा रहा था। भुवनचंद्र की वाणी, उसके योग के ज्ञान, एवं उसके तपोनिष्ठ व्यक्तित्व से वे सब अत्यधिक प्रभावित हुए एवं उन्होने यह जानकर कि योगी भुवनचंद्र का कोई ठिकाना विशेष नहीं है, उसे अपने साथ आदिकैलाश चलने का साग्रह निमंत्रण दे दिया। भुवनचंद्र को भी उनके साथ लग जाने में मीता से बहुत दूर चले जाने का एक अवसर दिखाई दिया और वह अगले दिन उनके साथ चल पड़ा।

***

सन्यासियों की टोली पिथौरागढ़ जनपद की विख्यात कंदरा पातालभुवनेश्वर के दर्शन करते हुए आदिकैलाश जा रही थी। जागेश्वर से पातालभुवनेश्वर का वनमार्ग अत्यंत दुरूह है क्योंकि सीधी खड़ी पर्वतीय चट्टानों को आच्छादित किये हुए घने वन से होकर जाता है। इस मार्ग में सांपों के अतिरिक्त बाघ एवं तेंदुए से सामना हो जाने की भी सम्भावना रहती है। अतः बस से यात्रा करना तय हुआ। बस काफ़ी खाली थी। एकांत पाने एवं अपने में मग्न रहने के उद्देश्य से भुवनचंद्र केवल दो व्यक्तियों के हेतु बनी खाली सीट पर जाकर बैठ गया। कुछ देर में एक अधेड़ आयु की संन्यासिनी ने उसी सीट के निकट खड़े होकर उससे खिड़की की ओर खिसकने का संकेत किया। यद्यपि भुवनचंद्र एकांत चाहता था तथापि यह देखकर कि दो व्यक्तियों के बैठने हेतु बनी सभी सीटों पर एक न एक व्यक्ति बैठ चुका है, वह शिष्टतापूर्वक खिड़की के निकट खिसक गया। भुवनचंद्र खिड़की के बाहर के दृश्य को देखने लगा, परंतु उसका मन न चाहते हुए भी मानिला के मंदिर की ओर भटक जाता था और वह मीता की यादों में खो जाता था- वह कभी सोचता कि मीता अब प्रातः की पूजा समाप्त कर मंदिर की व्यवस्था सम्बंधी निर्देश दे रही होगी, फिर तभी उसमें ईष्र्याभाव जाग उठता और विचार आता कि मीता माइक के साथ अमेरिका चली गई होगी, और फिर यह हृदयविदारक विचार असीम करुणा में परिवर्तित हो जाता और वह यह सोचकर दुखी हो जाता कि मेरी मीता किसी मुसीबत में न फंस गई हो। सन्यासिनी भुवनचंद्र को यदा कदा तिरछी निगाहों से देख लेती थी और उसके मन के अंतद्र्वंद्व को पढ़ने का प्रयत्न कर रही थी। उसे जब भुवनचंद्र के नेत्रों में अश्रु छलकते दिखाई दिये, तो उसने भुवनचंद्र से पूछ लिया,

‘योगी जी, कहां के रहने वाले हैं?’

यद्यपि भुवनचंद्र किसी प्रकार के वार्तालाप से बचना चाहता था, परंतु विवशतावश उसे कहना पड़ा,

‘मानिला, अल्मोड़ा’

सन्यासिनी यह उत्तर सुनकर अपनी सीट पर उछल सी पड़ी और अतीव प्रसन्नता का प्रदर्शन कर बोली,

‘तो क्या आप योगी भुवनचंद्र हैं?’

भुवनचंद्र ने उसकी ओर चकित होकर देखते हुए उत्तर दिया,

‘हां।’

सन्यासिनी उल्लास से रोमांचित होकर बोली,

‘इसीलिये मुझे प्रारम्भ से ही आप पहचाने से लग रहे थे, परंतु आप ने अपना चेहरा और बाना ऐसा बना रखा है कि इस दशा में मैं क्या सम्भवतः आप की मां भी आप केा न पहचान पायें।’

‘आप मुझे कैसे जानतीं हैं?’

‘सन्यासिनी का चोला धारण करने से पूर्व मेरा नाम सुमना उर्फ़ शायना था। सम्भवतः आप को याद आ जाये कि जब आप मानिला मंदिर के स्वामी बने थे तब मैं अपनी एक सहेली के साथ आप के यहां आई थी और फिर सहेली के वापस चले जाने पर वहीं रुक गई थी। इसका कारण यह था कि मेेरे पति सलमान, जिनसे मैने अपने घर वालों के विरोध के होते हुए प्रेम विवाह किया था, दूसरा निकाह करने जा रहे थे और शरियत के मुताबिक चार बीबियां रखना जायज़ बताते थे। इससे क्षुब्ध व दुखी होकर मैं अपने पति से पर्वतीय क्षेत्र की यात्रा के उपरांत एक सप्ताह में लौट आने की बात कहकर आई थी, पर पता नहीं अपनी उस समय की परिस्थिति के कारण अथवा अपनी किसी दुर्बलता के कारण मैं वहां आप में अपना भविष्य देखने लगी थी। आप अपने प्रति मेरे इस आंतरिक लगाव को नहीं समझ सके थे और मुझसे एक सामान्य भक्त जैसा व्यवहार करते रहे थे। मै यह सोचकर चुप बनी रही थी कि किसी न किसी दिन तो आप मेरे हृदय की बात समझ ही लेंगे, परंतु तभी मीता नाम की योगिनी वहां आ गई थी और मेरे लिये सब कुछ समाप्त हो गया था। दूसरे दिन मैं वहां से बिना किसी को कुछ बताये अपने पति के पास चली गई थी परंतु, जैसी आशंका थी, तब तक वहां भी मेरे लिये सब कुछ बदल चुका था। तब से मैं सन्यासिनी बनकर साधुओं की टोली में सम्मिलित होकर वन-पर्वत में भटक रही हूं। कहते हैं कि ये वन एवं पर्वत मनुष्य को माया-मोह से पिंड छुड़ाकर संतोष एवं परमानंद की स्थिति में पहुंचाते हैं, परंतु मुझे तो यहां आकर आज तक केवल पलायन की अनुभूति हुई है- न तो मुझे शांति मिली है और न मेरी सांसारिक आसक्ति में कमी आई है।’- आसक्ति में कमी न आने की बात कहते हुए सन्यासिनी भुवनचंद्र को प्रेमपूरित नेत्रों से देखने लगी थी, और भुवनचंद्र असहज हो गया था। विषय परिवर्तन के उद्देश्य से भुवनचंद्र बोल पड़ा था,

‘क्या आप पहले कभी पातालभुवनेश्वर गईं हैं? क्या है वहां? नाम तो बड़ा पौराणिक है।’

सुमना तो भुवनचंद्र से बात करते रहने का कोई बहाना चाहती ही थी, अतः बड़े मनोयोग से बताने लगी,

‘हां, मैं दो बार पहले वहां जा चुकी हूं। पिथौरागढ़ जनपद में यह पर्वत के गर्भ में एक बड़ी सी कंदरा है, जिसमें 33 करोड़ देवताओं का वास होना कहा जाता है। उसमें प्रवेश करने के लिये पर्वत में पतला सा दुरूह छेद है, जिसमें कठिनाई से एक व्यक्ति घुस पाता है। यदि कोई व्यक्ति हृदय से कमजो़र हो तो नीचे तक पहुंचने से पूर्व घबरा सकता है, अतः पूरी तरह आश्वस्त होने पर ही उसमें घुसना चाहिये- मुझ जैसे खाये पिये घर के व्यक्ति (यद्यपि सुमना मोटी नहीं थी, परंतु भरे हुए स्वस्थ बदन की थी) को विशेष ध्यान रखना चाहिये। परंतु एक बार नीचे पहुंचते ही ऐसा प्रतीत होने लगता हे कि आप किसी अन्य लोक में पारगमित कर दिये गये हों। बायीं ओर कुछ ही दूरी पर शेषनाग अपना विशाल फन फैलाये हुए भगवान विष्णु पर छाया किये हुए दिखाई देते हैं। शेषनाग के शरीर का शेष भाग नीचे धरती पर दूर तक कंदरा में फैला हुआ है। आगे चलकर अनेक अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां पर्वत में पृ्रकृति द्वारा गढ़ी हुइ्र्र दिखाइ्र्र देतीं हैं। सम्पूर्ण कंदरा एक देवलोक का प्रतिरूप प्रतीत होती है।’

भुवनचंद्र सुमना की बात ध्यान से सुन रहा था और पातालभुवनेश्वर में एक रहस्यलोक छिपे होने की कल्पना से अभिभूत हो रहा था। वह अपने कल्पनालोक में खोया हुआ सा एकटक उसके मुख की ओर देख रहा था और उसके चुप होने पर भी यथावत देखता रहा था, तब सुमना अपने नेत्रों को लज्जावनत करके बोली,

‘मीता आजकल कहां है?’

यह प्रश्न सुनकर भुवनचंद्र के हृदय मे एक कंपकंपी सी छूट गईः वह आश्चर्यचकित था कि इतनी देर तक वह मीता के विरह को कैसे भुला सका था। उसके मुख से अनायास निकल गया,

‘अपने मित्र माइक के साथ अमेरिका गई होगी।’

सुमना भी आश्चर्यचकित होकर इस आशा से भुवनचंद्र को देखती रही कि वह मीता के विषय में आगे कुछ और बोलेगा, परंतु योगी ने अपना मुंह बाहर की ओर घुमाकर ऐसा भाव धारण कर लिया जैसे कि बात पूर्ण हो चुकी है और उसे आगे कुछ नहीं कहना है। सुमना ने उस समय चुप रहना ही अच्छा समझा।

अपरान्ह में लगभग पांच बजे यह सन्यासी समूह पातालभुवनेश्वर पहुंच गया और सीधे कंदरा पर दर्शनार्थ आ गया। जब सब लोग एक एक करके कंदरा में उतरने लगे तो सुमना ने भुवनचंद्र को कहा कि वह पहले उतरे, तत्पश्चात वह स्वयं सावधानीपूर्वक उतरेगी। नीचे उतरकर भुवनचंद्र सन्यासिनी की प्रतीक्षा में खड़ा हो गया। सुमना पैर नीचे डालकर उतरने लगी और कुछ नीचे उतरने के पश्चात चिल्लाई,

‘धीरे से नीचे खींचिये, मुझे फंसाव का अनुभव हो रहा है’।

भुवनचंद्र ने नीचे सुमना की टांगों केा पकड़ कर उसे सहारा देकर उतार लिया। भुवनचंद्र को लगा कि सुमना इस दौरान उससे कुछ अधिक ही लिपट रही थी।

पातालभुवनेश्वर का दृष्य योगी को सुमना द्वारा वर्णित तथ्यों से कहीं अधिक रहस्यात्मक लगा। उस दौरान वह सुमना का साथ एवं मीता की स्मृति दोनों को भूल गया था।

सन्यासियों ने रात्रि विश्राम हेतु वहीं निकट के एक खाली खेत को चुना। ग्रीष्म ऋतु की रात्रि में झींगुर की चीं.......चीं....... एवं श्रगालों के रुदन की घ्वनि के अतिरिक्त चहुंओर शांति थी। आकाश इतना निर्मल था कि उसके एक एक तारे को गिना जा सकता था। सुमना ने सप्रयास अपनी चादर भुवनचंद्र के बगल में ही बिछाई थी, परंतु भुवनचंद्र आकाश के तारों में अपनी मीता को खोजता सा दूसरी ओर मुंह करके निद्रनिमग्न हो गया।

***

आगे धारचुला तक की यात्रा बस से थी और उसके पश्चात पंगु, सिरखा, गलगड, मालपा, बुधी, गुंजी, ओमपर्वत, कुटी, पार्वती ताल, जौलिंगकौंग से आदि-कैलाश की यात्रा दुरूह चढ़ाई के पर्वतीय पैदल मार्ग से थी, जिसे पूरा करने में दस दिवस लग गये। इस दौरान योगी श्रम से इतना क्लांत रहता था कि मीता की स्मृति आती तो थी, परंतु मस्तिष्क उसे रोके रहने अथवा उससे दुखित होने में असमर्थ रहता था। पर्वतीय चढ़ाई अत्यंत क्लांति देने वाली थी, तथापि प्रकृति की सुंदरता अपने चरम पर होने के कारण वह सह्य हो जाती थी। गुंजी से एक मार्ग कैलाश-मानसरोवर को भी जाता था और कुछ युवा सन्यासियों ने आदि-कैलाश से लौटकर वहां जाने की बात भी उठाई, जिस पर कतिपय अनुभवी सन्यासियों ने अति-शीत एवं प्राणहारक मार्ग की बात कहकर उन्हें सावधान करना चाहा परंतु उन्होने भगवान शंकर की कृपा से पार हो जाने की बात कहकर कैलाश पर्वत के दर्शन करने के अपने निश्चय को दोहराया। तब भुवनचंद्र ने यह बताकर उनके अविवेकी उल्लास का शमन कर दिया कि चीन का वीसा लिये बिना वहां नहीं जाया जा सकता है और यदि चीनियों ने पकड़कर जेल में बंद कर दिया, तो मृत्यु ही वहां से छुटकारा दिला पायेगी।

भुवनचंद्र को कठिनाइयों से जूझने का अनुभव था, अतः उसे मार्ग में कोई विशेष कश्ट नहीं हुआ, केवल इसके कि सुमना अवसर पाते ही उसके अति-निकट आने का सयास प्रयत्न करती थी और उस समय योगी के हृदय में मीता की याद और गहरी टीस देने लगती थी। अंत में आदि-कैलाश के चार हज़ार सात सौ सत्तर मीटर उूंचे हिमाच्छादित श्वेत शिखर को देखकर योगी अभिभूत हो गया- उसमें उसे साक्षात शंकर के दर्शन हो रहे थे। उसके उत्तर में कैलाश पर्वत, दक्षिण में गुर्ला मांधाता, पश्चिम में रक्षा ताल उसकी शोभा में चार चांद लगा रहे थेे। यहां आकर योगी को ऐसा लगा कि वह यहां तपोलीन होकर मीता की स्मृति को अवचेतन मन के किसी पहुंच के बाहर वाले कोने में डाल सकता है एवं अपना शेष जीवन यहीं बिता सकता है।

जीवन की वास्तविकता हमारी आशाओं एवं आकांक्षाओं को प्रायः दिवास्वप्न में परिवर्तित कर देती है। उसी रात्रि के अंधकार में जब योगी निद्रानिमग्न था, सुमना चुपचाप उसके बिस्तर में घुस आई। योगी की आंख खुलने पर उसने उसे दुत्कारते हुए कह दिया,

‘चलो हटो। सन्यासिनी के लिये यह बड़ा अशोभनीय आचरण है।’

प्रातःकाल जब सबकी आंख खुली, सन्यासिनी सुमना वहां नहीं दिखाई दी। सब अचम्भित थे कि सुमना क्यों और कहां चली गई है- केवल योगी भुवनचंद्र को उसके चले जाने के कारण का आभास हो रहा था और वह चिंता से व्यग्र हो रहा था। बहुत खोज करने पर भी सुमना का कोई पता नहीं चला। योगी भुवनचंद्र के मन में यह धारणा घर करने लगी कि सुमना अब इस संसार में नहीं है और इसके लिये वह स्वयं को अपराधी मानकर ग्लानिग्रस्त हो गया। इसके साथ ही उसके मन में यह अशुभ विचार भी आने लगा कि कहीं उसका ईर्ष्याजनित व्यवहार मीता के लिये भी किसी त्रासदी का कारण न बन जाये।

दूसरी प्रातः किसी के जागने के पूर्व योगी भुवनचंद्र मानिला के लिये चल पड़ा। मीता से मिलन की आस उसके पैरों में पंख लगाये हुई थी और मीता को मंदिर पर पाकर उसके अश्रु वर्षा ऋतु के झरने की भांति झर पड़े थे।

योगी के लौट आने पर हेमचंद्र चायवाला अब फिर मन ही मन मगन रहने लगा है।

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