दो अजनबी और वो आवाज़ - 10 Pallavi Saxena द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दो अजनबी और वो आवाज़ - 10

दो अजनबी और वो आवाज़

भाग-10

वैसे, मन तो मेरा भी अभी यही हो रहा है, कि मैं भी कहीं जाकर मर जाऊँ। लेकिन मैं ऐसा नहीं करूंगी। मैं इतनी कमजोर लड़की नहीं हूँ। सोचते-सोचते मैं वापस उस घर के निकट पहुँच जाती हूँ। जहां से में चली थी। कॉफी की वही मनमोहक महक मेरी साँसों में एक आशा की किरण सी जागा देती है। मैं भागकर उस घर में जाती हूँ और फिर एक बार (उस आवाज) को पुकारती हूँ। लेकिन इस बार भी, मुझे सामने से कोई जवाब नहीं आता। मैं वही सीढ़ियों पर बैठकर बे इंतहा रोने लगती हूँ। इस बार मेरा सारा गुस्सा (उस आवाज़) के लिए है। जिस पर मैंने भरोसा किया था। बहुत देर तक, वहाँ बैठकर रोने के बाद मैं सोचती हूँ, मैंने अपने आपको इस उम्मीद के कीड़े से क्यूँ कटवाया।

वह मेरा था ही कौन जो मेरी मदद करता। हम दोनों तो शुरू से ही एक दूजे के लिए “दो अजनबी” ही थे फिर मेरे पुकारने पर भला वह क्यूँ आता। मैं ही बेवकूफ थी, जो उससे दिल लगा बैठी, जो नज़र तक नहीं आता उससे कैसा प्यार, यदि वह मेरे साथ होता, तब भी वो मेरी मदद कैसे कर पाता। क्यूंकि वह तो सिर्फ एक आवाज़ है। सोचते सोचते मैंने अपने सारे आँसू पौंछ डाले और वहाँ से भी निकल गयी। अब मुझे भूख लग रही है मगर मेरे पास पैसे नहीं है। मैं चलते-चलते एक चौपाटी के पास आ पहुंची हूँ। वहाँ बन रहे तरह-तरह के खाने की महक मेरी भूख को बढ़ा रही है। मैं बहुत ही लालायित नज़रों से एक पाओ भाजी के ठेले की ओर देख रही हूँ। पहले तो मेरी “आँखों की भूख” देखते हुए उस दुकानदार ने मुझे कोई भिखारिन समझ कर मुझे वहाँ से भागा दिया। किन्तु मेरे कपड़े देखकर फिर उसे लगा शायद मैं अच्छे घर से हूँ। तो उसने मुझे एक प्लेट पाओ भाजी देनी चाहिए। मैंने कहा भी, कि मेरे पास उसे देने के लिए पैसे नहीं है, लेकिन मुझे बहुत भूख लगी है। उसने न जाने क्या सोचा और बोला कोई बात नहीं तुम यह खालो। पैसे फिर कभी दे देना। मैं समझूँगा एक प्लेट का मैंने भगवान को भोग लगा दिया। या दान कर दिया।

यह सुनते ही, मैंने उसके हाथ से लगभग प्लेट छीनते हुए ऐसे खाना शुरू किया, मानो मैं जन्मों की भूखी हूँ। बरसों से मैंने खाना नहीं खाया। मेरी ऐसी हालत देखते हुए शायद उसे भी मुझ पर दया आ गयी। और उसने भी मुझे पेट भर खिलाया। मैंने भी मन ही मन उससे बहुत दुआएं दी और उसका धन्यवाद किया। दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं। मगर संसार में अब भी इंसानियत ज़िंदा है। स पाओ भाजी वाले के प्रति कृतज्ञता का भाव लिए मैंने वहाँ से विदा ली। मेरी मंजिल कहाँ है और अब मुझे कहाँ जाना है। यह मुझे खुद भी पता नहीं है।

अब मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूँ, सड़क के किनारे चलते हुए मैं आगे क्या करना है यही सोच रही हूँ कि ठीक मेरे पीछे से आती हुई एक कार ने बहुत ज़ोर-ज़ोर से हॉर्न बजाना शुरू कर दिया। मैं उस आवाज़ से चौंक गयी। उस हॉर्न कि आवाज ने जैसे मेरी सोच की तंद्रा भंग कर दी थी।

मैंने पीछे बिना देखे ही उस गाड़ी को निकल जाने का रास्ता देते हुए वहीं रुक जाना उचित समझा और मैं सड़क से लगभग नीचे उतरकर एक कोने में खड़ी हो गयी। मगर वह अब भी पिप्पिया रहा था। मेरे कानों को वो आवाज खल रही थी। मैं उस वक़्त शांति चाहती थी। पर वो गाड़ी जैसे मेरे पीछे ही पड़ गयी थी। मैंने हारकर बिना कुछ सोचे समझे उस गाड़ी के पास जाकर चिल्लाना शुरू कर दिया। अंधे हो क्या....इतनी बड़ी, खाली पड़ी हुई लंबी सड़क तुम्हें दिखायी नहीं देती। जो इतनी ज़ोर-ज़ोर से हॉर्न पिंपियाये जा रहे हो। गाड़ी के शीशे चढ़े हुए हैं मुझे उस गाड़ी के चालक की शक्ल दिखायी नहीं दे रही है।

मैं बस गाड़ी के बाहर से ही उस पर चिल्ला रही हूँ। तभी उस गाड़ी ने मेरे ऊपर कुछ यूं धूल उड़ाई कि मैं कुछ देख ही ना पायी और जब देख सकी तो मैंने देखा कि यह तो वही गाड़ी है, जिसका मुझसे पहले से कोई नाता है, जिसमें बैठकर मैं अपना अब तक का सारा सफर तय करती आयी हूँ।

गाड़ी का दरवाजा अपने आप खुल जाता है। अंदर हमेशा कि तरह कोई नहीं है। फिर गाड़ी चला कौन रहा है, मैं समझ गयी (यह वही आवाज़ है), मैंने गाड़ी में बैठने से इनकार करते हुए गाड़ी का दरवाजा बंद कर दिया और आगे बढ़ गयी। गाड़ी मेरे पीछे-पीछे अब भी आ रही है। मैं फिर रुकी, मैंने गाड़ी की ओर पुनः देखा। गाड़ी ने फिर रेज़ दी, जैसे मुझे अंदर बैठ जाने के लिए फोर्स कर रहा हो कोई, थोड़ी दूर तक ऐसा चलता रहा। थक हारकर और सड़क पर हो रहे तमाशे को देखते हुए मैंने गाड़ी में बैठने का निश्चय किया और मैं चुपचाप उस गाड़ी में बैठ गयी।

मैं शांत चुप-चाप बैठी थी। गाड़ी चल रही है। मुझे इस बात से कोई सरोकार नहीं कि किस्मत अब मुझे कहाँ ले जाएगी। थोड़ी देर ऐसे ही चुप-चाप बैठे रहने के बाद (वही आवाज़) फिर एक बार आयी। चुप क्यूँ हो कुछ बोलती क्यूँ नहीं...!

यह सुनकर मुझे गुस्सा आ गया। मैंने लगभग चीखते हुए कहा। अब बचा क्या है बोलने के लिए....अब क्यूँ आये हो मेरी ज़िंदगी में दुबारा, शर्म नहीं आती तुम्हें ? तुम तो मुझे मरने के लिए छोड़कर जा चुके थे ना ? तो क्यूँ आये हो वापस। मर चुकी हूँ मैं, बस अपनी लाश अपने कंधों पर लिए चल रही हूँ। अब मेरी ज़िंदगी में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं, धोखे बाज़ हो तुम...सदा साथ रहोगे कहते हुए भी तुमने मेरा साथ नहीं दिया।

जब मुझे तुम्हारी सबसे ज्यादा जरूरत थी, तब भी तुम मेरे साथ नहीं थे। तो अब क्यूँ आये हो कहते कहते....लगभग मैंने रो रोकर अपना सारा गुस्सा, अपनी सारी भड़ास उस पर निकालना शुरू कर दी थी। वह कुछ न बोला, चुप-चाप मेरी सारी कड़वाहट को सुनता गया, पीता गया। जैसे समंदर सब कुछ अपने अंदर समेट कर भी शांत रहता है, ठीक वैसे ही, वह भी चुप रहा। मैं रोती रही...रोती रही....बहुत देर बाद वो बोला मुझे माफ कर दो प्रिय...!

मैं तुम्हारे काबिल नहीं, न कभी था। इसलिये अब तक तुमसे दूरी बनाए हुए था। मुझे नहीं पता था कि तुम भी मेरे लिए वही भावना रखती हो जो मैं तुम्हारे लिए महसूस करने लगा था। काबिल....तुम हो कौन, मेरा तुम से रिश्ता ही क्या है, जो भावना रखने की बात आयेगी। जिसका अपना कोई वजूद ही नहीं उससे कैसा रिश्ता। तुमने तो मुझसे इंसानियत तक का रिश्ता नहीं रखा कहते कहते मेरी पीड़ा मेरे आँखों से ज्वाला बन बह निकली और मेरा मन किया कि यदि अभी इस वक़्त वो मेरे सामने किसी इंसान कि तरह आ जाए तो मैं उसका गिरेबान पकड़ कर पुछूँ उससे एक बार कि क्यूँ नहीं आया वो उस वक़्त जब मुझे उसकी सबसे अधिक जरूरत थी। हाँ तुम जो सोच रही हो सच ही तो है। लेकिन मैं तुम्हें अभी बता नहीं सकता कि मैं उस रोज़ क्यूँ ना सका था। पर सच कहूँ ‘निशा’ तुम्हारे साथ रहते रहते, कब तुम्हारे प्रति मेरी भावनाएं बदल गयी, खुद मुझे भी पता न चला। या शायद मैं पहले से पसंद करता था तुम्हें पर कभी कह नहीं पाया। “दो अजनबियों” के बीच ऐसा भी कोई रिश्ता हो सकता है जिसे केवल वह दोनों ही समझ सकें, इस बात का एहसास मुझे अब जाकर हुआ। अब यह प्यार है या इंसानियत यह तुम्हें तय करना होगा क्यूंकि मेरी ओर से तो यह प्यार ही है जो मैं तुम्हारे लिए महसूस करता हूँ।

प्यार किसी भी दो लोगों के बीच हो सकता है प्रिय...वह गलत है या सही, यह वह उन दो प्यार करने वालों का निर्णय होना चाहिए। न कि इस समाज का, इस दुनिया का मुझे तुम से प्यार है मुझे तुम से यह कहने में कोई शर्म नहीं है। हाँ यदि तुम्हें मुझ से प्यार नहीं है, तो कोई बात नहीं। मगर मुझे इस बात का ज़िंदगी भर अफसोस रहेगा कि जब तुम्हें मेरी जरूरत थी मैं तुम्हारे करीब ना था। कहते हुए अब उसका भी गला रुँध सा गया था। मैं तो पहले से ही रुआसी हो ही रही थी। फिर यकायक मैंने उससे कहा मुझे दारू पीनी है।

यह सुनकर वह आश्चर्य से भर गया और उसने ज़ोर का ब्रेक लगाया कि मेरा सिर गाड़ी के सामने जा टकराया मैंने अपने बाएँ हाथ से अपना सर पकड़ लिया, मुझे चक्कर आने लगे हैं। गनीमत है कि खून नहीं आया था। पर अंदरूनी चोट तो थी ही।

उसने पहले माफी मांगी और फिर मुझे डांटते हुए बोला। मेरे साथ बैठने वाले को हमेशा सीट बेल्ट लगाकर ही बैठना चाहिए। मैंने मम्मी को भी कई बार समझाया है, या तुम लोग गाड़ी कि सीट में धंस कर बैठा करो मेरे साथ या फिर सीट बेल्ट लगाकर बैठा करो, मगर दोनों ही नहीं सुनते हो। अब देखा लग गयी न मेरे कारण चोट। मैंने भी ज़ोर से कहा तुझे समझ नहीं आता है क्या...मैंने बोला न, मुझे दारू पीनी है। नहीं ऐसी हालत में दारू पीना शायद ठीक नहीं होगा। नहीं....सब ठीक है, आज मैं पीकर ही दम लूँगी। उसने कहा अच्छा चल ठीक है। तू बियर पीले आज में तुझे विसकी नहीं पीने दूंगा। मैं मान गयी। पता नहीं क्यूँ उस वक़्त, मैं नशे में चूर हो जाना चाहती थी। जो भी मेरे साथ घटा शायद मैं वो सब कुछ भुला देना चाहती थी।

मेरी ज़िद के आगे उसकी एक न चली और हम एक जगह पहुंचे जहां हमारी ही तरह बहुत से जोड़े बैठकर दारू का आनंद ले रहे थे। लेकिन हम वहाँ अंदर नहीं जा सकते थे क्यूंकि मेरे पास पैसे नहीं थे और वह सिर्फ (एक आवाज) थी। जिसे मेरे अलावा और कोई सुन भी नहीं सकता था। सिगरेट देने वाले ने तो दया भाव दिखा दिया था लेकिन दारू देने वाले से ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। उसने बोला तुम यहीं रुको मैं लेकर आता हूँ, मैंने कहा तुम कैसे ला सकते हो तुम तो किसी को न दिखाई देते हो न सुनायी देते हो। उसने कहा तुम क्यूँ चिंता करती हो। मैं हूँ न....! मैं बस यूं गया और यूं आया। फिर न जाने उसने कैसे क्या किया कुछ ही देर बाद वहाँ का एक वेटर मेरे लिए दो बियर की बोतलें लेकर उपस्थित हो गया।

उस दिन न जाने मुझे क्या हो गया था। मैंने 3-4 बोतल बियर पी डाली। अब मैं पूरी तरह से नशे में चूर थी, मुझे बहुत जोरों की नींद आ रही थी। धीरे-धीरे मेरी आँखों के सामने पूरा अंधेरा छा गया। मैं उस रोज़ नींद में भी थी और जाग भी रही थी। नशे की हालत में ना जाने क्या-क्या बड़बड़ा रही थी।

उस नशे की हालत में भी मुझे ऐसा लग रहा था कि वो मुझे संभालने की कोशिश कर रहा है। मुझे थपकियाँ देकर सुला देना चाहता है। लेकिन मैं इतनी परेशान हूँ कि इतना नशा करने के बाद भी मुझे गहरी नींद नहीं आ रही है।

अगली सुबह जब मेरी नींद खुली, तो मैंने खुद को समंदर के किनारे सटी एक बोट के निकट पाया। मेरे चारों ओर मछवारों का जमघट लगा हुआ है। सभी मुझे घूर-घूरकर कुछ इस तरह देख रहे हैं जैसे मैं कोई इंसान नहीं बल्कि दूसरे गृह से आयी हुई कोई एलियन हूँ। होश में आते ही मेरे नाक में समुद्री मच्छी और झींगों की गंदी वाली महक भर गयी। जिससे सूंघकर मेरा जी मचलाने लगा और मैंने समुद्र के किनारे जाकर उलटी कर दी। वहाँ मौजूद सभी कोली लोगों को लगा कि मैं शायद माँ बनने वाली हूँ। सभी ने मुझे बिना जान पहचान के ही बड़े प्यार से मेरी बलाएँ ली और मेरा ध्यान रखना शुरू कर दिया।

मुझे कुछ समझ नहीं आया। यह लोग मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यूँ कर रहे हैं। मैं तो इन्हें जानती पहचानती तक नहीं...मैंने उन्हें भी समझाने कि बहुत कोशिश की किन्तु भाषा अलग होने के कारण हम एक दूसरे को अपनी बात सही ढंग से कभी समझा ही नहीं पाये।

कुछ दिनों बाद मुझे उस मच्छी की महक की आदत हो गयी। मैं उन लोगों के रंग में अब धीरे-धीरे रंग चली थी। हमेशा की तरह इस बार भी मैं अपना अतीत भूल चुकी थी। मुझे लग रहा था, अब यही मेरी ज़िंदगी है। उनकी तरह मैंने भी मछली बेचने और घर घर काम करना सीखना शुरू कर दिया था। आखिर ज़िंदा रहने के लिए कोई तो जरी या चाहिए। अब मेरे पास कुछ पैसे जमा होना भी शुरू हो चले थे।

एक दिन मुझे सही में यह एहसास होता है कि मैं माँ बनाने वाली हूँ। मुझे खुद पर यकीन नहीं होता। सभी लोग मुझे बधाई देते है। मेरी नज़र उतारते हैं। मुझे अपना ख्याल पहले से भी ज्यादा रखने की सलाह देते हैं। उन में से कुछ ऐसे भी हैं जो मेरे इस होने वाले बच्चे के बाप का नाम जानना चाहते हैं।

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