दो अजनबी और वो आवाज़ - 11 Pallavi Saxena द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

दो अजनबी और वो आवाज़ - 11

दो अजनबी और वो आवाज़

भाग-11

जिसका जवाब मेरे पास नहीं है। क्यूंकि मुझे अपने अतीत का कुछ याद ही नहीं है। वहाँ मौजूद कुछ औरते मुझ से इशारे में यह बात जाना चाहती है इसलिए कभी मांग दिखती है, तो कभी मंगल सूत्र, तो कभी बिछिये, जिसके जरिये वो यह जानने का प्रयास कर रही है कि मेरा पति कौन हैं, कहाँ रहता है, क्या करता है। वह जिंदा भी है या नहीं...ऐसे न जाने कितने सवाल हैं जो उनके मन में घूम रहे हैं। मेरे पास वाली एक बूढ़ी महिला उन सबका इशारा समझ गयी थी इसलिए उसने उन्हीं की भाषा में सबको यह कहकर समझा दिया की मेरा पति है पर उसने मुझे छोड़ दिया है और अब मैं अकेली हो गयी हूँ, इसलिए ज़िंदगी से तंग आकर मैंने आत्महत्या करने कि कोशिश की जो विफल रही और हमने उसे बचा लिया। अभी तो उस बुजुर्ग महिला ने सबको यह बात बताकर चुप करा दिया और सब उसकी बात मान भी गए। ऐसा शायद इसलिए हुआ क्यूंकि उनकी बिरादरी में शायद एक वही एक ऐसी महिला थी जो थोड़ी बहुत हिन्दी जानती समझती थी। बाकी सब के लिए तो हिन्दी भाषा जैसे “काला अक्षर भैंस बराबर” था।

अभी के लिए तो सभी के मन का कोतूहल शांत हो चुका था। मगर तब भी उनमें से ऐसे कुछ लोग शेष रह गए थे, जिन्हें मुझ पर अब भी संदेह था। मैं यह जानकर दुखी थी और यही सोचने में लगी थी कि आखिर यह बच्चा किस का हो सकता है। मुझे कुछ याद क्यूँ नहीं ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं माँ बनने वाली हूँ और मुझे ही यह पता नहीं कि मेरे होने वाले बच्चे का बाप कौन है। सोचते-सोचते मैं साहिल पर पहुँच गयी। शांत समंदर पर ढलते हुए सूरज की लालिमा लिए किरनें ऐसे पड़ रही है मानो सागर की उन लहरों पर किसी ने नारंगी ओढनी चढ़ा रखी है।

शाम का वक़्त है, सभी पंछी अपने-अपने घरोंदों की और लौट रहे है। जैसे जैसे शाम ढलती जा रही है, वैसे-वैसे ठहरे हुए समंदर की लहरों का शोर बढ़ता जा रहा है।

मैं शांत किसी ठगे हुए इंसान की भांति वहाँ लगी एक बड़ी सी नाऔ पर बैठी, शून्य में निहार रही हूँ। मैं एक बार फिर, अपने अतीत के पन्नों को पलट कर अपनी पूरी ज़िंदगी पढ़ लेना चाहती हूँ। अपने मन के उस समंदर में डूबकर, मैं अपने अस्तित्व के मोती चुन-चुनकर बीन लेना चाहती हूँ। ताकि मैं खुद को पहचान सकूँ। लेकिन मेरे पास ऐसा कोई जरिया नहीं है जिसके माध्यम से मैं अपने मन के समंदर में गोता भी लगा सकूँ। डुबना तो बहुत दूर की बात है। बहुत गहरी उदासी है....ऐसा लग रहा है मेरी आँखों का सारा पानी समंदर बन गया है।

जिसमें न में डूब पा रही हूँ, न उभर पा रही हूँ। मेरे जीवन की नईया बीच भंवर में गोते खा रही है, न मंजिल का पता है न रास्तों की कोई खबर...की अचानक एक बड़ी सी लहर आकर मुझे भिगोकर चली जाती है।

उस वक़्त मुझे ऐसा लगता है जैसे किसी ने पकड़कर मुझे ज़ोर से झँझोड़ दिया। जैसे मुझे किसी ने मुझे गहरी नींद से जागा दिया।

मैं भौंचक्की सी हो इधर-उधर देखने लगती हूँ। तब कहीं धुंधला सा वो हादसा मेरे ज़ेहन में उतरता हुआ सा दिखाई देता है। जैसे कोई सपना जो साफ दिखायी नहीं देता। कुछ-कुछ वैसा ही मैं अपने पेट पर अपने दोनों हाथ रखते हुए बिलख बिलख कर रोना शुरू कर देती हूँ।

मैं इस बच्चे को जन्म देना नहीं चाहती। क्या कहूँगी सबसे, दुनिया के दिखावे के लिए अगर मैंने अपनी मांग में सिंदूर और गले में मंगल सूत्र डाल भी लिया। तो मुझसे तो कोई नहीं पूछेगा कि तेरा पति कौन है। लेकिन जब यह बच्चा बड़ा हो जाएगा और दुनिया इससे पूछेगी कि तेरा बाप कौन है? तो यह क्या जवाब देगा। और वही सवाल जब यह मुझसे पूछेगा तब मैं इससे क्या जवाब दूँगी कि तू एक दरिंदे के पाप कि निशानी है। या फिर यह तू प्यार कि नहीं बल्कि तेरी माँ के बलात्कार का नतीजा है। नहीं...........! मैं इस बच्चे को जन्म नहीं दे सकती।

इन सवालों ने मुझे झँझोड़ कर रख दिया था। फिर मेरे अंदर से एक आवाज़ आयी। माँ इस सब में मेरी क्या गलती है। मेरे बाप के किए हुए पाप का फल मैं क्यूँ भोगूँ।

मैं मारना नहीं चाहता माँ, आगे तेरी मरज़ी। जैसा तू ठीक समझे, तेरे लिए मैं यह कुर्बानी भी देने को तैयार हूँ। पर तेरी आँखों में मेरे कारण आँसू हो, यह मैं कभी सपने में भी नहीं सोच सकता। इसलिए तू जो फैसला लेगी, मुझे मंजूर होगा। मैं और भी ज्यादा अपने दुखों से दुखी हो उठती हूँ। तभी कोई पीछे से आकर मेरे कंधे पर हाथ रखता है, और कहता है मैं हूँ ना...जैसे ही मैं मुड़कर देखती हूँ मुझे कोई नज़र नहीं आता। मैं भाग-भागकर यहाँ वहाँ उससे ढूँढने कि कोशिश भी करती हूँ मगर समंदर की लहरों के शोर में वो आवाज कहीं गुम हो जाती है।

मैं फिर पूछती हूँ तुम....तुम यहाँ क्या कर रहे हो। तुम्हें कैसे पता कि मैं यहाँ हूँ। ओह...अच्छा तो मैं तुम्हें अब तक याद हूँ। बाकी तो अब तक का सारा सभी कुछ भूल चुकी हो न तुम...ऐसा कहते हुए उसने मुझ पर सवालों के बाण चलना शुरू कर दिये।

मैं चुप-चाप उन सवालों का दर्द भी सहती रही। न जाने क्यूँ सहना अब मेरी फितरत बन गया है। फिर जब वो शांत हुआ, तब मैंने कहना शुरू किया। अब क्या बताऊँ तुम्हें एक तुम्हारे अलावा मुझे और कुछ भी याद ही नहीं है, न जाने तुम हीं कैसे याद हो बस, मुझे तुम्हें कुछ बताना था। पता है....मैं माँ बनने वाली हूँ। अरे वाह...यह तो बहुत अच्छी बात है। क्या खाक अच्छी बात है। तुम भी न बिना सोचे समझे कुछ भी कह देते हो।

क्यूँ अब क्या गलत कह दिया मैंने? अरे मुझे खुद नहीं पता कि इस बच्चे के पिता कौन है। मेरा मतलब, मुझे कुछ याद ही नहीं है। मेरी शादी कब हुई किस से हुई वगैरा-वगैरा...!

तुम तो हर वक़्त मेरे साथ थे न ? तुम्हें तो पता होगा। मुझे बताओ न प्लीज...मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ती हूँ, तुम्हारे पैर पड़ती हूँ। अरे...यह क्या कर रही हो। मुझे नहीं पता कुछ भी, मैं नहीं जनता। मुझे इस सब झंझट में मत फसाओ...याद करने कि कोशिश करो, कुछ तो याद होगा तुम्हें...अरे अगर इतनी ही अच्छी याददाश्त होती मेरी तो बात ही क्या थी।

हाँ यह भी बात सही है। वैसे याददाश्त तो मेरी भी खत्म पर है। मुझे भी कुछ याद नहीं रहता खासकर कुछ अच्छा। बुरा तो सभी को याद रहता है। याद करो पिछली बार मैं और तुम एक लंबे अंतराल के बाद मिले थे। जब तुमने मुझसे बहुत झगड़ा किया था। कि जब तुम्हें मेरी सबसे ज्यादा जरूरत थी तब मैं तुम्हारे करीब नहीं था वगैरा-वगैरा....कुछ याद आया बहुत सोचने पर भी मुझे कुछ याद नहीं आया। मैं फिर परेशान हो गयी। मेरी आँखों से फिर आँसू टपकने लगे। मैं अब अपनी ज़िंदगी से तंग आ चुकी हूँ। अब मैं और जीना नहीं चाहती। मैं मर जाना चाहती हूँ ....और मैं समंदर की तरफ भागना शुरू कर देती हूँ।

एक ज़ोर कि लहर आकर मुझे वापस किनारे पर छोड़ जाती है। मैं और उदास हो जाती हूँ। यह सोचकर कि मैं इतनी बुरी हूँ कि समंदर भी मुझे अपनी गोद में शरण नहीं देना चाहता। कि तभी वो बोला अरे ओ...पागल हो गयी हो क्या...? अपने नहीं तो कम से कम अपने होने वाले बच्चे विषय में तो सोचो...क्या सोचूँ उसे इस बेदर्द दुनिया में लाकर भी क्या फायदा जहां लोग उससे उसकी काबिलीयत जानने से पहले उससे, उसके पिता का नाम जानना चाहेंगे।

जो मुझे ही नहीं पता, तो मैं उसे क्या बताऊँगी। पहले मुझे बदचलन समझा जाएगा और फिर उसे नाजायज़। अचानक मेरा रोना जैसे दुनिया वालों के प्रति गहरे गुस्से में बदल गया था। एक तेज सा उभर आया था उस वक़्त मेरे चेहरे पर...वाह मेरी झाँसी की रानी क्या बात है...उसने जैसे मुझे शांत करने के लिए शब्द कहे थे। जिन्हें सुनकर मेरा चेहरा फिर से कमला गया। उसने फिर मेरे सामने प्रस्ताव रखा क्या तुम मेरे साथ....अभी वो अपनी बात पूरी कर भी नहीं पाया था कि पीछे से किसी ने टॉर्च कि रोशनी मुझ पर डालते हुए पूछा कौन हैं वहाँ....? क्या चल रहा है यहाँ...मैंने कहा कोई नहीं है मैं अकेली ही हूँ यहाँ...अच्छा मैं सब जानता हूँ। मुझे देखते ही भागा दिया होगा तूने अपने यार को, वरना एक अकेली लड़की यहाँ इतनी रात गए समंदर किनारे अकेली यहाँ क्या करेगी।

अरे ओ...! ज़बान संभालकर बात कर...सब एक जैसे नहीं होते। वो बिना मेरी कुछ सुने ही मुझे वहाँ से भगाने लगा चल-चल अभी अपने घर को जा...मैं क्या करती आ गयी अपने घर और सोचने लगी कि अब मेरा आगे क्या होगा। मैं इस बच्चे का क्या करूँ। इसी चिंता में उस रात मैं जरा भी ना सोयी। सुबह भी जल्दी उठकर मछली बेचने चली गयी। पर आज मेरे अंदर वो रोज़ वाला जोश खरोश नहीं था। मैं बस एक काम को काम समझ कर ही कर रही थी। इसलिए उस दिन मेरी कुछ खास कमाई न हो सकी। जितने मिले मैंने उतने ही लाकर रख दिये उस डिब्बे में जिसमें में पिछले कई दिनों से पैसे बचा रही थी।

फिर अचानक ही उन पैसों के डिब्बे को देखकर मेरे मन में खयाल आया इतने से पैसों से भला क्या होगा। जब यह बच्चा आ जाएगा तो खर्चे और बढ़ जाएंगे। तब उस बच्चे की परवरिश के लिए और पैसे कहाँ से आयेंगे। यही सब सोचते-सोचते मेरे मन में विचार आया की काश वो आवाज एक जीता जागता इंसान होती तो आज शायद हम एक होने के विषय में सोच तो सकते थे।

एक वही तो है, जो मेरे विषय में मुझसे ज्यादा जनता है। अभी मैं ऐसा सोच ही रही थी कि उसकी उपस्थिति ने मुझे डरा दिया। देखा मैंने कहा था न अपनी सोच बहुत मिलती हैं। फिर तेरे लिए तो कुछ भी....तू बस एक बार हाँ कह दे... मगर यह बच्चा...इसका क्या ? अरे फिर वही बात मैंने कहा ना... मुझे सिर्फ तू चाहिए...तेरा प्यार चाहिए एक बार नहीं सौ बार चाहिए...

मैंने उसे वही रोकते हुए कहा नहीं...! मुझे किसी का एहसान नहीं चाहिए। तुम मेरे बच्चे को अपनाकर यदि उसे एक पिता का प्यार नहीं दे सके तो उसकी तो ज़िंदगी खराब होगी ही साथ-साथ मेरी भी ज़िंदगी हमेशा के लिए खराब हो जाएगी। फिर मैं कहाँ जाऊँगी। पहले ही ज़िंदगी ने मुझे कम नहीं सताया है, एक और टेंशन झेलने की हिम्मत अब मुझ में नहीं है। वो हंसा....अरे पागल तू भूल गयी मैंने तुझे किसी के बारे में कुछ बताया था पहले...मुझे दत्तक पुत्र की आदत है। अच्छा फिर कहीं तुमने भेद भाव करना शुरू कर दिया तो मेरे और उसके बच्चे के साथ...देखो निशा शक की दवा तो हाकिम लुक़मान के पास भी नहीं थी। फिर भला मैं क्या चीज़ हूँ।

मेरी तरफ से कोई जबरदस्ती नहीं है। तुझे ठीक लगता है तो ठीक है, नहीं तो जाने दे...मैंने कहा इतनी सरल नहीं होती ज़िंदगी...फिर तुम्हारा तो कोई वजूद ही नहीं है। हम कैसे एक हो सकते हैं...! तुम हाँ तो करो बाकी सब मुझ पर छोड़ दो। मैं फिर उदास हो अपनी दुनिया में गुम हो गयी और मैंने उससे कहा नहीं...मुझे सोचने के लिए टाइम चाहिए। अब मैं असमंजस में हूँ। करूँ तो क्या करूँ। आखिर यह मेरी पूरी ज़िंदगी का सवाल है। उसके बाद मेरी कई रातें और कई दिन यह सोचने में गए। किन्तु मैं किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पायी। उसने फिर कहा सोच लो प्रिय अब बस कुछ महीने और, और फिर दिखने लगेगा कि तुम माँ बनने वाली हो। हाँ तो मैं जानती हूँ यह बात, तुम मुझे क्या बता रहे हो...अरे नहीं तुम समझी नहीं तुम्हें ही तो इन दुनिया वालों की फिक्र सबसे ज्यादा है न, बस इसलिए मैंने ऐसा कहा। मैं किसी को भी तुम्हारा दिल और दुखाने देना नहीं चाहता।

किस दुनिया की बात कर रहे हो तुम, मेरे आस पास की यह मछवारों की दुनिया में तो सब को पता है कि मैं माँ बने वाली हूँ। ओह ऐसा है क्या, तब तो ठीक है... नहीं तब भी कुछ ठीक नहीं इस बच्चे को लेकर भले ही अपने मुंह से कोई कुछ न कह रहा हो। मगर प्रश्न सभी कि आँखों में साफ देखे जा सकते है। देख भाई वो बोला, तेरे पास दो ही रास्ते हैं या तो तू गोली खाले और सारा मामला ही खतम कर, या फिर इस बच्चे को जन्म दे और अपनी ज़िंदगी के विषय में सोच कि तू आगे क्या, कैसे करने वाली है। जहां तक मेरा सवाल है मुझे कोई प्रोब्लम नहीं मैं हर तरह से तैयार हूँ। न जाने क्यूँ मेरे मन में रह रहकर यह विचार आ रहा है कि यह व्यक्ति मेरे बच्चे को एक पिता का प्यार कभी नहीं दे पायेगा।

मुझे भी इस स्थिति में अपनाकर यह मुझ पर सारी ज़िंदगी अपना एहसान ही जताएगा।

***