दो अजनबी और वो आवाज़ - 6 Pallavi Saxena द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दो अजनबी और वो आवाज़ - 6

दो अजनबी और वो आवाज़

भाग-6

और सुनो क्या नाम है तुम्हारा पत्तल लगा दिये हों...तो अब जरा थोड़ा लहसुन भून लो चुलेह पर, निम्मी का यूं मुझ पर रोब जमाना शायद मौसी से देखा नहीं गया और उन्होंने उसे ज़ोर से डांट लगते हुए कहा। अरे हाओ री.... बड़ी आयी कहीं की लाट साहब है क्या तू, जो इस पर हुक्म चलावे से, अरे...मेहमान से भी कोई काम करावे है के???

चल छोरी तू बैठ, मैं खाना परोसती हूँ तन्ने, कुछ ही देर में सभी को भोजन परोस दिया गया। अभी सब खाना खा ही रहे थे कि जोरदार आँधी आयी और सभी के खाने में रेत मिला गयी। वह तो अच्छा था कि तब तक सभी लोग लगभग खाना खा चुके थे। वरना उस रोज पूरे खाने कि बैंड बज जाती। तभी मौसी ने मुझे से कहा। अरी छोरी तू तो नए जमाने कि लागे से तन्ने पहले कभी खेत देखा है। मैंने कहा जी नहीं, गाँव का यह मेरा पहला अनुभव है। यह सुनकर मौसी बोली लो बताओ भला। तू चल मेरे साथ मैं तुझे अपने खेत दिखती हूँ। मेरे खेत न नहर के पास हैं तो वहाँ हरी सब्जियाँ उग जावे हैं। मारे बेटे को ना माह रे हाथ कि बनी सभी सब्जियाँ बड़ी घनी भावे से, कुछ ही देर में हम खेत में पहुँच जाते हैं। मैं बड़े ध्यान से खेत को निहार रही हूँ। क्यूंकि मैंने इससे पहले फिल्मों के अलावा कभी खेत देखा ही नहीं था। कि मौसी बोली “रे छोरी के देख रही है, चल भिंडी तोड़-तोड़कर मुझे देती जा”, मैं बड़े मजे से भिंडी तोड़कर एक टोकरी में इकट्ठा कर रही हूँ।

मन ही मन मुझे लग रहा है कि चलो मेरी परेशानियों का अंत तो हुआ। अब मुझे वापस पहले जैसे ज़िंदगी मिल गयी। अब बीते दिनों वाली ज़िंदगी से मुक्त हो गयी कि मौसी ने फिर कहा रे छोरी....इस बार मौसी की आवाज कुछ गूँजती हुई सी मेरे कानों में पड़ती है। मैं आशंका से भर उठती हूँ जैसे ही पलट कर देखती हूँ, पलक झपके ही सब गायब। मैं वापस खुद को उसी रेत के टीले पर बैठा पाती हूँ, जहां से चलकर मैं उस मौसी के खेत तक जा पहुंची थी। मुझे कुछ समझ नहीं आया कि यह सब क्या था। क्या मैं कोई सपना देख रही थी। हरे भरे खेत तो छोड़ो यहाँ तो दूर दूर तक रेगिस्तान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। मैं ज़ोर से चिल्लाई....आ...s...s पर सिवाय मुझे मेरी चीख के और कोई आवाज नहीं आयी। बहुत देर बाद एक गिद्ध की आवाज आयी तो आँखों पर हाथ रखते हुए मैंने आसमान की ओर देखा। सूरज ढलने वाला है। मैं घबरायी अब क्या होगा।

तन को तपा देने वाली सड़ी गर्मी के बाद, जब रेगिस्तान में रात होती है, तब वही पैर जला देने वाली रेत बर्फ सी ठंडी हो जाया करती है। किन्तु अभी मुझे ठंड की फिकर नहीं बल्कि इस बात की चिंता है कि एक लंबे अंतराल के बाद मिला उजाला फिर अंधेरे में तबदील न हो जाये कहीं। ऐसा न हो, कि अब की बार भी जो रात ढले, तो सवेरा होने का नाम ही न ले। कुछ ऐसी ही आशंकाओं से घिरा मेरा मन, मुझे कुछ अनहोनी होने के संकेत सा दे रहा है। मन ही मन डर से दिल काँप भी रहा है। सूरज के ढलने की गति, अब मेरे दिल की धडकनो से जैसे ताल मिला रही है। अचानक पैरों के नीचे की तपती हुई रेत, जो अब तक अंगारों पर चला रही थी अब ठंडी और मखमली हो चली है।

यह सब क्या हो रहा है। मैं कुछ समझ क्यूँ नहीं पा रही हूँ। उफ़्फ़....! मैं सच में पागल ही न हो जाऊँ कहीं। यह प्रकर्ति का कोई खेल है, या मेरे मन का कोई वहम है। मैं समझ नहीं पा रही हूँ। मैं अभी चल ही रही हूँ कि चाँद की मंद रोशनी में मुझे एक साया दिखाई देता है। मैं तुरंत पलटकर देखती हूँ, तो मुझे कोई नज़र नहीं आता। अभी रात शुरू हुई है, इसलिए शायद चांद की रोशनी अभी मंद मंद सी है। जैसे जैसे अंधेरा बढ़ेगा चाँद की रोशनी बढ़ती जाएगी। स्वयं को ऐसा दिलासा देते हुए, मैं फिर आगे चलती हूँ। अपने सामने नीचे रेत पर मुझे फिर वही साया दिखायी देता है। मैं वापस पलटकर पूछती हूँ कौन है....कौन है, जो मेरा पीछा कर रहा है हिम्मत है, तो सामने आओ। क्या यह तुम हो? मेरा इशारा उस आवाज की तरफ है, जो अब तक मेरे साथ थी। मैं चिल्लाई जब साथ ही नहीं देना था तुम्हें मेरा, तो मेरी ज़िंदगी में आए ही क्यूँ और जब मुझे आदत हो गयी तुम्हारी, तो छोड़कर चल दिये।

उस वक़्त मैं बहुत डरी हुई थी। सचमुच मुझे उस वक़्त किसी के साथ कि बेइंतेहा जरूरत थी। फिर चाहे वह आवाज ही क्यूँ न हो। क्यूंकि इतने दिनों में मुझे आदत हो गयी थी उसके साथ की हालांकि वह एक आवाज मात्र थी, वह जब भी साथ होती, तब कम से कम मुझे अकेले पन का एहसास तो नहीं होता था। लगता था कि यदि वो साथ है, तो डरने की कोई बात नहीं है। लेकिन अब, जब वो साथ नहीं है तो कितना सूना-सूना है मेरा जीवन, कितनी अजीब बात है ना कल तक जिस आवाज से मैं भाग रही थी। आज उसी आवाज की मुझे तलाश है। अभी मैं उसको याद कर ही रही हूँ कि उसने रेत को कुछ इस तरह उड़ाया जैसे किसी ने पूरी ताकत से एक फूँक मारी हो। सुनो निशा क्या तुमने मुझे याद किया? हाँ हाँ मैंने तुम्हें याद किया। कहाँ थे इतनी देर, पता है मैं कितना डर गयी थी।

अरे बड़ी डरपोक हो...! खैर छोड़ो यह बताओ अब क्या हुआ। बड़ी परेशान नज़र आरही हो। अरे यार यह क्या बात हुई। तुम मेरे चेहरे के सभी हाव भाव पढ़ने में सक्षम हो और एक मैं हूँ जो तुम्हें देख भी नहीं सकती। यह बहुत गलत बात है, बहुत ना इंसाफ़ी है। बात करते-करते हम साथ में आगे बढ़ रहे हैं। रात के साथ-साथ ठंड भी बढ़ रही है। मैं सिकुड़ी हुई अपने हाथों से अपने बाजुओं को सहलाती हुई बातें करते चल रही हूँ। दूर....बहुत दूर...मुझे एक पीली सी रोशनी दिखायी देती है। जिसे देखकर मेरी जान में जान आयी कि चलो कोई तो है। लेकिन चाँदनी रात में सुनसान बियाबान रेगिस्तान में कुत्तों का भौकने के साथ-साथ रोना आऊ.....ऊ किसी का भी दिल देहला देने के लिए काफी होता है। मैं चौंक जाती हूँ। मैं जल्द-से-जल्द उस पीली रोशनी के पास पहुँच जाना चाहती हूँ।

मुझे ऐसा लग रहा है कि वो पीली रोशनी या पीला बिन्दु आग ही है, और आग से सुरक्षित और कोई हथियार नहीं कि तभी चलते-चलते मेरे पैरों से कुछ सख्त सा टकराता है और मैं मुंह के बल गिरती हूँ। नर्म रेत में अचानक यह इतना सख़्त सा क्या है। जानने के कोतूहल से मैं टटोल कर देखने का प्रयास करती हूँ, तो क्या देखती हूँ मेरे हाथ में हड्डी है। जो उस चाँदनी रात में किसी तलवार की तरह चमक रही है। मैं ज़ोर से चीखकर उसे अपने से दूर फेंक देती हूँ। जहां जाकर वो हड्डी गिरती है, वहाँ ध्यान से देखने पर मुझे पूरा के पूरा हड्डियों का ढांचा दिखायी देता है। शायद किसी पशु का रहा होगा। जिसे देखकर मैं चीखते हुए डर कर वहाँ से भागने की कोशिश करती हूँ। अरे वाह...! निशा, (फिर वही आवाज)...मुर्गे और बकरे की हड्डियाँ चचोड़ते वक़्त तो तुझे पहले कभी डर नहीं लगा। फिर अब क्यूँ डर के मारे मरी जा रही है। हड्डी ही तो है।

उसकी बात मुझे सही लगती है। मैं रुककर जरा देर संभल कर, सोचकर कहती हूँ सच ही तो है जब पशु खाते समय कभी कलेजा नहीं काँपा। तो इन हड्डियों के ढांचे से भला मैं क्यूँ डरूँ। अरे सुन समाधान याद है तुझे, मैं जैसे बिना ही कुछ सोचे तपाक से बोल पड़ी हाँ...हाँ...क्यूँ याद नहीं होगा। एक वही तो था बेचारा, “अंधों में काणा राजा” कि जैसे एक बार फिर “देजाबू” हुआ मुझे एक मिनिट जैसे एकदम से मेरे दिमाग की बत्ती जली, तुम्हें कैसे पता, जरा देर सोचने के बाद मैं बोली....अरे कहीं तुम वो तो नहीं “प्रेम” के दोस्त जिसने ‘प्रेम’ को इस बारे में बताया था। हो न हो तुम वही हो। इसलिए तो तुम मुझे दिखायी नहीं देते। क्यूंकि तुम एक मृत आत्मा हो है ना...? तुम्हारा शारीरिक कोई वजूद है ही नहीं, इसलिए मैं सिर्फ तुम्हें सुन सकती हूँ, तुम्हारी हाजिरी को महसूस कर सकती हूँ। लेकिन तुम्हें छू नहीं सकती।

है न तुम वही हो न ?? आखिरकार मैंने तुम्हें पहचान ही लिया। तुम्हें याद है मैंने एक बार अपने भाई के हाथों तुम्हारे लिए पालक पनीर भी भेजा था। जो तुम्हें बेहद पसंद आया था? उसने ही तुम्हें मेरे विषय में सब कुछ बताया होगा ना। इसलिए तुम मुझे इतने करीब से जानते हो ? बस नाम याद नहीं आ रहा मुझे तुम्हारा...? क्या करूँ मेरी याददाश्त खतम पर जो है। सच बहुत अफसोस हुआ था हम दोनों को तुम्हारे विषय में जानकर। तुम यूं अकस्मात ही हम सब को छोड़कर चले जाओगे। यह हमने कभी सोचा नहीं था। मैं लगातार बोल रही हूँ। जैसे मैंने कोई जंग जीत ली। मैं एक पल के लिए भी उस आवाज के जवाब देने का इंतज़ार नहीं करना चाहती। मैं रुकूँ, उसके पहले ही उसने मुझे रोकते हुए कहा। जी नहीं....! मोहतरमा आप पूरी तरह से गलत हैं। मैं वो नहीं हूँ, जो आप मुझे समझ रही हैं। वह कोई और था मैं कोई और हूँ, नहीं...नहीं ऐसा हो ही नहीं सकता। मैं नहीं मानती, अब तुम मुझसे अपनी पहचान छिपा नहीं सकते। तुम्हारी आत्मा की शांति के लिए मैं क्या कर सकती हूँ। तुम बताओ मैं क्या कर सकती हूँ। जितना मेरे वश में होगा मैं सब करूंगी।

अरे अजीब पागल औरत हो तुम....मैंने कहा ना मैं वो नहीं हूँ, जो तुम समझ रही हो। अरे तुम हो कौन क्यूँ याद आकर भी याद नहीं आते। क्यूँ तुम्हारी आवाज मुझे जानी पहचानी सी लगती है। क्यूँ मेरी आँखों के आईने में चेहरा नहीं उतरता तुम्हारा, मैंने जैसे सवालों की बौछार कर दी थी उस पर, लेकिन यह क्या सिर्फ मेरी ही आवाज है। दूसरा और कोई शोर नहीं चारों और बस अंधेरा ही अंधेरा है और एक लंबी खामोशी। हवा के साथ हल्की सी रेत उड रही है। अब वह पीला सा दिखने वाला बिन्दु जो शायद आग का रहा होगा, अब मंद पड चला है। ठंड भी पहले की तुलना में अधिक बढ़ गयी है। मैंने अपने दुपट्टे को किसी लिहाफ की भांति ओढ़ लिया है। लेकिन यह काफी नहीं। मैं अब भी उस मंद पड़ रहे बिन्दु के निकट पहुँचना चाहती हूँ। क्यूंकि मुझे अब भी ऐसा लग रहा है कि हो न हो वहाँ कोई आग जलाकर बैठा है और वह पीला दिखायी देने वाला बिन्दु आग ही है। जो मुझे सुबह होने तक जीवित रख सकती है। मैं इस वक़्त ठंड से कपकपा रही हूँ कि (फिर वही आवाज) मुझसे कहती है।

अरे इतनी ठंड लग रही है तुझे आ चल, मेरे साथ दारू पीले। सारी ठंड भाग जाएगी तेरी, मैं कुछ बोलूँ, उससे पहले ही उसने कह दिया, हाँ...हाँ मैं जानता हूँ तू क्या कहना चाहती है। यही न कि मेरी सुई हमेशा दारू पर ही अटकी रहती है।

मैंने कोई जवाब नहीं दिया, शायद मैं उस वक़्त जवाब देने के हालत में ही नहीं थी। मैं केवल ठंड से बचना चाहती थी और उस वक़्त मेरा एकमात्र लक्ष था उस पीले बिन्दु तक पहुँचना। मगर यह क्या....मैं जैसे-जैसे मैं रास्ता तय करती जाती हूँ, वह पीला बिन्दु मेरी हदों से ओर दूर हुआ जाता है। मैंने अपने आप से सवाल किया। कहीं यह मेरा कोई सपना तो नहीं या फिर शायद यह मेरा कोई वहम हो, इसलिए मुझे ऐसा लग रहा हो। ऐसा सोचते हुए मैंने अपने आप को एक ज़ोर से एक चिकोटी काटी ऊई...माँ....मैं अपने दर्द से कराह उठी। पर मुझे इस बात का यकीन हो गया कि यह कोई सपना वपना नहीं है, बल्कि यह हकीकत ही है। मैं फिर चलने कि कोशिश करती हूँ और आखिरकार वहाँ उस पीले बिन्दु के निकट पहुँच ही जाती हूँ। वहाँ पहुँचकर मेरा दिल मुझसे कहता है,

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