दो अजनबी और वो आवाज़ - 9 Pallavi Saxena द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दो अजनबी और वो आवाज़ - 9

दो अजनबी और वो आवाज़

भाग-9

एक पल को मेरा भी मन किया कि मैं अपनी चाय छोड़कर, वहाँ जाकर कॉफी पी आऊँ। फिर दूजे ही पल यह ख्याल आया कि एक तो मेरे पास पहले से ही पैसे नहीं है, दूजा जिसका घर है उसके घर में चीजे यूं बर्बाद करना भी तो ठीक नहीं लगता। भले ही वह मामूली सी चाय ही क्यूँ न हो। ऐसा सोचकर मैं वापस अंदर जाकर अपनी चाय का कप अपने हाथों में लेकर चाय पीना शुरू कर देती हूँ। मेरी चाय अब तक ठंडी हो चुकी है। मगर मैंने उसे नज़र अंदाज़ करते हुये पी लिया। अब मुझे बेचैनी से किसी का इंतज़ार था, तो वह उस शख़्स का था जिसके के घर में, मैं उस वक़्त रह रही थी। सुबह से शाम होने को आयी, मगर उस घर में कोई नहीं आया।

मैंने निश्चय किया कि चलो मैं अब ज़रा बाहर घूमकर आती हूँ। मैं सीढ़ियों से नीचे उतरी और उस कॉफी शॉप के बगल से निकलते हुए, एक सुनसान रास्ते पर जा निकली। मुझे पता नहीं था, कि आगे जाकर वह रास्ता इतना सुनसान हो जाएगा। तब भी, अभी सूरज नहीं ढला है। मेरा मन किया वापस लौट जाने में ही भलाई है। लेकिन मैं रास्ता भटक गयी। फिर भी मैं वापस जाने कि कोशिश में हूँ। पर पूरे रास्ते मुझे एक भी इंसान नहीं मिला जिससे में पता पूछते हुए वापस उस घर तक पहुँच सकूँ। जहां से में निकली थी। मैं थक कर ज़रा देर सांस लेने के लिए एक स्ट्रीट लाइट के खंबे से टिककर, खड़ी हो जाती हूँ। तभी मेरे पीछे से दो हाथ आकर मुझ पर आक्रमण करते हैं और मेरा मुंह बंद कर देते हैं। ताकि मैं चिल्ला न सकूँ, शोर न मचा सकूँ।

सभी ने अपने मुंह पर नकाब पहना हुआ है। किसी का भी चेहरा नज़र नहीं आ रहा है। वह चार लोग हैं। मेरी आँखों पर भी पट्टी बंधी है और हाथ भी पीछे बंधे हुए हैं।

मुझे ऐसा लग रहा है, जैसा मेरा अपहरण हुआ है। मैं बहुत चीखने, चिल्लाने कि कोशिश कर रही हूँ। किन्तु मेरे मुंह पर टेप चिपका होने की वजह से, मैं कुछ बोल नहीं पा रही हूँ। उन चारों ने मुझे किसी दर दीली जगह पर लाकर पटक दिया है। जहां मिट्टी ही मिट्टी है। कि एक ने मेरी आँखों की पट्टी खोल दी है। चारों की आँखों में मुझे हवस साफ-साफ दिखायी दे रही है। एक ने मेरे ऊपर आकर मेरे कुर्ते कि बाहे फाड़ दी, दूजे ने सलवार....मैं डर के मारे रो रही हूँ अपनी आँखों से दया की भीख मांग रही हूँ। पर मेरी कोई सुनने को तैयार नहीं। उनमें से एक मेरे ऊपर आकर मेरा बदन नोच रहा है, पर मैं कुछ नहीं कर पा रही, सिवाय अपने आप को बचाने का नाकाम प्रयास करने के, मेरी छटपटाहट कि वजह से वो मुझे मारते हैं, पीटते है लेकिन मेरे साथ ज़बरदस्ती करना बंद नहीं करते।

उनमें से एक बोला....यह ऐसे नहीं मानेगी। इसके सारे कपड़े उतार दो, कहते हुए उन्होंने किसी जानवर की भांति मेरे तन से कपड़े हटा दिये और मैं रोती रही रोती रही....मन ही मन उस आवाज को याद करती रही जिसने कभी मुझसे यह कहा था कि उसके रहते मुझे किसी से डरने कि कोई जरूरत नहीं। वह हमेशा मेरे साथ है। मैं उस आवाज को याद कर करके रोये जा रही थी और भूखे कुत्तों कि तरह वह चार जानवर एक एक करके मेरा बदन नोचे जा रहे थे। मैं तड़प रही थी, मचल रही थी, किन्तु मेरी पीड़ा उन जानवरों को दिखायी दे रही थी, ना सुनाई दे रही थी।

जब उन चारों ने मिलकर मेरा सब कुछ मुझ से छीनकर मेरे शरीर से अपनी हवस की प्यास बुझा ली, तो मुझे वहीं मरने के लिए छोड़कर दारू की बोतलें ले वहाँ से रवाना हो गए। बिलकुल ऐसे जैसे कुछ हुआ ही नहीं। मैं वहीं पड़े-पड़े अपनी किस्मत को कोसते हुए आँसू बहाती रही, कि तभी एक आदमी ने आकर मेरे तन को ढकने के लिए एक चादर मुझ पर उढ़ा दी। मैं उस आदमी को देखकर फिर डर गयी। मुझे लगा, अब मुझे इस हालत में देखकर वह भी मेरे साथ वही वहशियाना हरकत करेगा जो अभी कुछ देर पहले व दरिंदे कर के गए।

लेकिन नहीं, उस आदमी ने पहले मेरे हाथ खोले फिर मेरे मुंह से टेप निकाला और कहा बेटी चलो मेरे साथ। मैं तुम्हें कुछ कपड़े देता हूँ। मैं शंका भारी निगाहों से उस आदमी को घूरती रही। और डर से कांपते हुए अपने आप को उस चादर में समेटती रही। मेरी ज़ुबान से कुछ नहीं निकल रहा था। पर आंखें मेरी पीड़ा ब्यान कर रही थी। अभी कुछ देर पहले जो कुछ भी मेरे साथ घटा, उसके बाद किसी पर भी विश्वास कर पाना मेरे लिए असंभव था। फिर भी उस आदमी के स्पर्श में दया और अपनत्व के भाव देख, मैं उसके साथ उसके बताए हुए स्थान पर चलने को राजी हो गयी। चलते-चलते मैं देख रही हूँ कि वह स्थान कोई आम स्थान नहीं बल्कि एक श्मशान घाट है। मेरे चारों और चिताएँ जल रही है और उनके बीच से एक चादर में लिपटी हुई घायल सी मैं किसी अबला नारी की भांति उसके पीछे पीछे चलती जा रही हूँ।

कुछ देर बाद एक झुग्गी नुमा घर के निकट आकर हम रुक गए। और उसने मुझे अंदर से एक साड़ी और उसके साथ का समान लाकर दिया और मुझ से कहा कि जाओ तुम अंदर जाकर यह कपड़े पहन लो। मैंने अंदर जाकर वो कपड़े पहन लिए और बाहर आ गयी। उसने मुझे पीने के लिए पानी दिया और किसी पिता की भांति, मेरे साथ व्यवहार किया। पूछा क्या तुम कुछ खाओगी। मैं एक गरीब आदमी हूँ। मेरे पास रूखी सुखी ही है, यदि तुम खाना चाहो तो खालो, मैंने उसकी बात सुनते हुए अपनी उस साड़ी पर नज़र डाली, जो उस वक़्त, उस आदमी ने मुझे पहन ने के लिए दी थी। उसे देखते हुए तो नहीं लग रहा था कि यह आदमी गरीब हो सकता है। मैं अभी इसी विषय में सोच ही रही थी कि वह आदमी उठा और एक लंबा सा बांस लेकर एक चिता को हिलाने लगा।

शायद वह उस चिता को जल्दी जला देना चाहता था। ताकि सुबह उस व्यक्ति के (जिसकी चिता जल रही है) परिजनों को उसकी आस्तियां एवं राख़ प्रदान कर सके।

तब शायद वह, यह समझ गया था कि मैं उस वक़्त उसकी दी हुई साड़ी के विषय में ही सोच रही हूँ। सो उसने उस चिता को हिलाते–हिलाते ही मुझसे कहा, यह साड़ी एक मृत महिला की है जो उसके परिजन उसके ऊपर उढ़ाकर लाये थे। एक पल के लिए मेरे मन में अजीब से भाव आये। फिर लगा ज़िंदा लोगों से तो यह मारे हुए लोग ही भले होते हैं। फिर उस आदमी का ध्यान मेरी ओर एक बार फिर गया और उसने मुझसे पूछा बेटी तुम्हें यहाँ डर तो नहीं लग रहा है ना ? मैंने कुछ देर सोचा और फिर कहा, बाबा “आज के जमाने में, मरे हुए लोगों से ज्यादा ज़िंदा इंसानों से डरने की जरूरत है, मुरदों से क्या डरना”। उसने भी मुसकुराकर हामी भर दी।

मैं फिर अपने दुखों में डूब गयी, यूं भी जिस किसी के साथ ऐसा वहशियाना व्यवहार होता है वह अंदर से टूट ही जाता है। ऐसा कुकृत्य करने वाले लोग, उस इंसान के जिस्म से ज्यादा उस इंसान की आत्मा को घायल करते है। उनका चंद लम्हों का सुख, किसी की पूरी ज़िंदगी बर्बाद कर देता है और उन दरिंदों को इस बात का एहसास तक नहीं होता.....

यही सब तो चल रहा है हमारे आस-पास, आज हर दूसरी लड़की इसी पीड़ा से तो गुज़र रही है। फिर चाहे उसके साथ बलात्कार हुआ हो, या फिर वह तेजाबी हमले का शिकार हुई हो, विडम्बना तो यही है कि आज हमारा समाज, हम लड़कियों को एक इंसान तक नहीं समझता। ऐसे में हमारी और भावनाओं को समझना तो नामुमकिन सी बात है। आज के समाज में हम औरते केवल के मास का लोथड़ा बनकर रह गए हैं। सिर्फ एक स्त्री देह, जिसकी हर भेड़िये को प्यास है।

सोचते-सोचते मेरी आँखों से आँसू बह निकले, मेरे अंदर कुछ टूट सा गया है। मेरा जिस्म ही नहीं बल्कि इस वक़्त मेरी आत्मा भी घायल है। ऐसे में मुझे तलाश है किसी ऐसे व्यक्ति कि जो मेरी हालत को समझ सके, मेरी आवाज़, मेरी हिम्मत बन सके। मुझे सहारा दे सके। मगर वहाँ कोई नहीं है, जो मेरे मन की यह पुकार, मेरी जरूरत को समझ सके, सुन सके और मैं रोते-रोते उस आवाज को अब भी याद कर रही हूँ।

तभी मेरे सर पर हाथ रखते हुए वह आदमी कहता है, बेटा मैं मानता हूँ तुम्हारे साथ जो कुछ भी हुआ वो बहुत गलत हुआ, बहुत बुरा हुआ। लेकिन मैं फिर भी तुमसे यही कहूँगा, जो हुआ उसे भूल जाओ और नए सिरे से अपनी ज़िंदगी शुरू करने के विषय में सोचो। उसी में तुम्हारी भलाई है। तुम कौन हो, कहाँ से आयी हो ? जहां से आयी हो, वही लौट जाओ। तुम्हारे घरवाले भी तुम्हारी चिंता करते होंगे। कहो तो मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ, तुम्हें छोड़ने। मैं दो पल के लिए असमंजस में पड़ गयी। मुझे खुद ही कुछ याद नहीं है तो मैं उन्हें क्या बताऊँ कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आयी हूँ। मैंने उन्हें यह कहते हुए मनाकर दिया कि नहीं आप चिंता न करें। मैं सुबह होते ही यहाँ से चली जाऊँगी।

उसने फिर कहा, देखो बेटा, तुम मेरे लिए मेरी बेटी समान हो। तुम मुझ पर विश्वास कर सकती हो। मैं तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा। अरे नहीं मेरे कहने का वो मतलब नहीं था...मैंने क्षमा भाव लिए हुए कहा।

ठीक है फिर कल सुबह आप मुझे उस कॉफी शॉप के पास छोड़ दीजिये, जिसके पास एक कॉलोनी सी बनी हुई है और उसी के पास से एक सुनसान रास्ता जो यहाँ को आता है बस वहीं तक आप मुझे छोड़ दीजिएगा। फिर आगे मैं खुद अपने आप चली जाऊँगी। कुछ देर सोचने के बाद वह बोला, ठीक है। सुबह चलते हैं, अभी रात बहुत हो चुकी है। तुम अंदर जाकर सो जाओ। मैं यहीं बाहर बैठता हूँ। वैसे भी मुझे इन चिताओं की रखवाली करनी है। नहीं तो जानवर आकर सब तहस नहस कर देते हैं।

मैं उसका कहा मानकर अंदर चली जाती हूँ और वहाँ पड़ी खाट पर लेट सोने का प्रयास करती हूँ। किन्तु उस रात मेरी आँखों में नींद कहाँ, मैं सारी रात रोती हूँ और (उस आवाज़) को याद करती हूँ। पर वो आवाज कहीं से नहीं आती। तब मुझे वो रात याद आती है, जब मैंने खुद ही (उस आवाज़) से कहा था कि यदि पूरी तरह मेरे साथ नहीं रह सकते, तो चले जाओ या फिर पूरी तरह मेरे साथ-साथ रहो। तो शायद उसने चले जाना ही उचित समझा होगा। सोचते-सोचते मेरी आँखों से पानी बह रहा है। जो एक चित्कार है मेरे मन की, एक असहनीय दर्द, एक कभी न भरने वाला जख्म एक मसल दिये जाने वाला भाव और समाज पर गुस्सा सब ने मिलकर बुरी तरह तोड़ दिया है मुझको।

मैं चीखना चाहती हूँ। लेकिन चीख नहीं पा रही हूँ। इसी सब में कब सुबह हो गयी मुझे पता ही नहीं चला। सुबह जब मैंने दरवाजा खोला, तो देखा बाहर कुछ लोगों की भीड़ इकट्ठी है। शायद यह वही लोग हैं जो अपने अपने प्रियजन की आस्तियां एवं राख़ लेने आये हुए थे। ताकि गंगा में विसर्जित कर अपने उस परिजन की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर सकें। पर मैं तो अंदर से ही मर गयी थी उस रात, और अब मुझे ऐसा लग रहा था की मैं खुद अपनी ही लाश का बोझ उठाए घूम रही हूँ।

ऐसे में उन बाबा को व्यस्त देख, मैंने बिना कुछ बोले खुद ही वहाँ से निकल जाना उचित समझा और अंदर से एक शॉल लेकर अपने आप को उसमें लपेटकर मैं चुप-चाप बिन बताये वहाँ से निकल गयी। पूरे रास्ते मेरे मन में एक ही सवाल चलता रहा कि मेरे साथ जो कुछ भी हुआ। उसमें मेरी क्या गलती थी। मैं क्यूँ सब से मुंह छिपाकर घूमूँ। मुंह वह लोग छिपाएँ जिन्होंने ने मेरे साथ यह घिनौना व्यवहार किया। सारी गलती इस समाज की ही है। जिसने पैदा होते ही लड़की के पाओ में सारे घर की इज्जत बांध दी और उस परिवार की इज्जत को उस नन्ही सी जान के शरीर से जोड़ दिया। कि शरीर खत्म तो सब खत्म....अब तुम्हें जीने का कोई अधिकार नहीं, जबकि परिवार की इज्ज़त लड़की की प्रतिभा उसके गुणों से होनी चाहिए। उसके शरीर से नहीं....जब तक यह समाज इस इज्जत नाम की चीज को औरत के शरीर से जोड़कर देखती रहेगी। तब तक हम औरतों के साथ यह बलात्कार नामक घिनौना अपराध होता रहेगा और मासूम बेकसूर लड़कियाँ मजबूर होकर अपनी जान देती रहेगी।

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