दो अजनबी और वो आवाज़ - 7 Pallavi Saxena द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दो अजनबी और वो आवाज़ - 7

दो अजनबी और वो आवाज़

भाग-7

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

पर यह क्या, जिस आग की तलाश में, मैं मर-मर के यहाँ तक पहुंची थी, वह आग तो ठंडी हो चुकी है। अब मेरा क्या होगा। मुझे ऐसा लग रहा था कि आज तो मेरी मौत पक्की है। सुबह होने तक निश्चित ही मैं ठंड से मर चुकी होंगी। किन्तु लकड़ियों में से हल्का-हल्का धुआँ अब भी निकल रहा है। मैं उस धुए से अपने हाथों को गरम करने कि नाकाम कोशिश करने लगती हूँ। मन में बहुत इच्छा है कि कहीं से एक माचिस मिल जाये तो काम बन जाएगा। आस-पास तलाश करने पर भी मुझे कोई माचिस नहीं मिलती। किन्तु उस स्थान से यह जरूर पता चलता है कि कुछ देर पहले, यहाँ इनसानों का जमावड़ा रहा होगा और हो न हो इस जानलेवा ठंड से बचने के लिए ही उन्होंने यहाँ यह अलाव जलाया होगा। उस हल्के-हल्के धूएँ से ज़रा ज़रा सी गर्मी पाकर यह सब सोचते हुए, मेरी आँख कब लग गयी। मुझे पता ही नहीं चला।

कुछ समय बीता होगा शायद, कितना मुझे नहीं पता कि मैं कितनी देर सोयी। लेकिन जब घुटन और खांसी से मेरी आँख खुली तो दृश्य पूरी तरह बदल चुका था। और जो मैंने देखा वह किसी भयावह दृश्य से कम नहीं था। मैंने देखा मेरे चारों ओर आग लगी हुई है। जिस से निकलते धूएँ के कारण मेरा सांस ले पाना मुश्किल हो रहा है। मारे खांसी के, मेरा बुरा हाल है। खाँस-खाँसकर मेरा गला छिल गया है। मेरे मुंह से सहायता मांगने हेतु भी मेरी आवाज, मेरे गले से निकलने को तैयार नहीं है। यूं भी मेरा गला बचपन से ऐसे ही खराब होता आया है। ऐसे मौके पर भी मुझे आज अपना बचपन याद आ रहा है। मुझे बचपन से ही पूजा में उपयोग में लायी जाने वाली सुगंधित अगरबत्ती तक से समस्या हो जाया करती थी। क्यूंकि उसका धुआँ मेरे गले को खराब कर दिया करता था। अभी भी मुझे ऐसा ही लग रहा है जैसे मेरे आस-पास किसी ने लाखों करोड़ों अगरबत्तियाँ एक साथ जला डाली हों। मैं परेशान हूँ, खाँस-खाँसकर मेरी आँखों से भी अब पानी आँसू बन बह निकला है।

कहते हैं आँसू बह जाने से दर्द कम हो जाता है। बड़े से बड़ी पीड़ा सहना आसान हो जाता है। लेकिन मेरे साथ कुछ अलग हुआ। आँसू बह जाने के कारण मेरी आँखें धूल गयी और अब मैं कुछ-कुछ साफ-साफ देख पा रही हूँ। उस धूएँ से आसमान में एक चेहरा उभर रहा है। एक ऐसा चेहरा जिसे देखकर मुझे ऐसा लग रहा है कि शायद मैं इसे जानती हूँ। लेकिन आसमान में सूरज की तेज रोशनी और धूएँ के कारण मुझे वह चेहरा साफ-साफ दिखायी नहीं दे रहा है। पर तब भी मेरे मन में उस चेहरे के प्रति यह भाव आ रहे हैं कि शायद यह व्यक्ति मुझे इस मुसीबत से बचाने के लिए ही यहाँ आया है। किन्तु यह क्या....? यह तो खुद ही किसी नशेड़ी, भंगेडी की तरह सिगरेट के कश लगा-लगाकर किसी सांड की तरह नाक से धुआँ छोड़ रहा है। जैसा अकसर शिव जी के भक्तों को गाँजे और चरस की चिलम फूंकते देखा है। ठीक वैसा ही तो वह चेहरा कर रहा है।

जैसे कोई जोगी अपनी ही धुन में मस्त बस नशे में चूर अपने विलुप्त जीवन का आनंद ले रहा हो। अभी इस वक़्त उसे मेरी पीड़ा दिखायी नहीं दे रही। हो सकता है, कि वह अपनी ही धुन में रमा होने के कारण, मेरे आस-पास का यह जलता हुआ इलाका उसे दिखायी ही न दे रहा हो। यदि सच में ऐसा हुआ तो इसमें आश्चर्य कि कोई बात न होगी। मुझे अत्यधिक धूएँ के कारण यह समझ नहीं आ रहा है कि यह व्यक्ति साक्षात मेरे सामने मौजूद है या फिर मुझे ही धूएँ से बनी उसकी आकृति नज़र आरही है। जैसे कभी-कभी बादलों में नज़र आती है, कभी कोई चिड़िया या किसी जानवर कि कोई शल्क, मुझे फिर एक बार अपने आप पर भरोसा न हुआ।

मैं ऊपर आसमान में हाथ उठाकर उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास कर रही हूँ। कि वह मेरी और देखे, तो मैं मदद के लिए अपना हाथ उसकी ओर बढ़ा सकूँ, क्यूंकि मैं यहाँ यूं, इस तरह तड़प-तड़प कर मरना नहीं चाहती। मैं पूरी कोशिश कर रही हूँ कि मैं उसे आवाज देकर अपनी ओर उसका ध्यान खींच सकूँ। लेकिन मेरा गला अंदर से इस कदर घायल हो चुका है कि लाख चाहने पर भी, मैं कुछ बोल नहीं पा रही हूँ। यहाँ तक, के बोलने कि कोशिश मैं ही मेरी आँखों से पानी किसी झरने के मानिंद बह रहा है। लेकिन मुंह से आवाज़ है कि निकलने को राजी ही नहीं।

मुझे देखकर शायद किसी को भी ऐसा लगे कि मैं बहुत रो रही हूँ। लेकिन मैं रो नहीं रही हूँ। मैं इतनी भी नाजुक, इतनी भी कमजोर नहीं हूँ कि महज गले की तकलीफ से रोने लग जाऊँ। मुझे मेरे पापा के शब्द याद आ रहे हैं। वह हमेशा कहा करते थे, अरे तुम तो मेरी बहादुर बेटी हो ना ? इतनी सी तकलीफ से भला बहादुर बच्चे थोड़ी न घबराते हैं। अपन दवा खाएंगे और अपना गला झट से ठीक हो जाएगा।

मैं अभी अपने पापा की बातों को याद कर ही रही हूँ कि क्या देखती हूँ, वह चेहरा उस धूएँ में गुम होने लगा है। मैं क्या करूँ कि वह मेरे लिए रुके, मेरी हालत को समझे, कि तभी मेरी नज़र मेरे पहने हुए दुपट्टे पर जाती है। मैं तुरंत ही अपना वह लाल दुपट्टा हवा में ऐसे लहराती हूँ, मानो वो व्यक्ति किसी विमान में बैठा हुआ कोई एक शख़्स है। जो किसी ऐसे टापू से गुज़र रहा है जहां से बाहर आने के लिए कोई भूमिगत मार्ग नहीं जाता। वहाँ से केवल हवाई सहायता से ही बाहर आया जा सकता है। और किसी हिन्दी पिचर की तरह वह मेरा लाल दुपट्टा देख मेरी मदद के लिए आ जाएगा।

ऐसा करते हुए मैं भाग रही हूँ, गिर रही हूँ, लड़खड़ा भी रही हूँ, मुझे यह भी पता नहीं है कि मैं किस पर चल रही हूँ। मेरे परों के नीचे क्या आ रहा है, क्या नहीं...मुझे कुछ पता ही नहीं है। क्यूंकि मेरा सारा ध्यान उस वक़्त ऊपर आसमान में उस चेहरे में अटका हुआ है। जिसे किसी कीमत पर मैं खोना नहीं चाहती। तभी मेरा पैर ज़ोर से किसी पत्थर नुमा चीज़ से टकराता है और मैं मुंह के बल गिरती हुई किसी दूसरे ही पत्थर से टकराकर बेहोश हो जाती हूँ।

बेहोशी में भी मुझे वो चेहरा अपनी आँखों से आहिस्ता-आहिस्ता ओझल होते हुए दिखायी दे रहा है। परंतु मैं उस समय खुद को इतना असहाय महसूस कर रही हूँ कि चाहकर भी उसे रोक नहीं पायी और अब धीरे-धीरे मेरी आँखों के सामने पुनः अँधेरा छा गया। जाने कितने घंटे बेहोश रहने के बाद जब मुझे होश आया, तो मैंने खुद को उसी कार के अंदर अकेला पाया। जो अब तक मुझे कई बार मिल चुकी थी। ना जाने क्या रिश्ता है मेरे और उस कार के बीच, जो मैं बार-बार उसी में आ बैठती हूँ। खैर कार में अंदर अब भी सिगरेट की गंध बाकी है। वो गंध न जाने क्यूँ मुझे अपनी ओर खींच रही है। उस सिगरेट की गंध ने मुझे कुछ यूं मदहोश करना शुरू कर दिया है कि अब मेरी भी सिगरेट पीने की इच्छा हो रही है।

जबकि आज से पहले मैंने कभी सिगरेट को हाथ तक नहीं लगाया है। तब भी न जाने क्यूँ आज मेरा मन उसकी सुगंध से मोहित हुआ जा रहा है। ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि कॉलेज के दिनों में फिल्मों के प्रभाव के कारण मेरे मन में भी एक बार सिगरेट पीने की इच्छा ने घर कर लिया था। “सिगरेट का वह सुनहेरी डब्बा जिसका ढक्कन लाल हुआ करता था और जिसके अंदर से सुनहेरी वर्क जैसे कागज में लिपटी तंबाकू की महक से लबरेज़, सिगरेट ऐसे निकला करती थी मानो कोई बड़ा सेलेब्रिटी अपनी सुनहेरी लक्स्जुरियस कार से उतरकर बाहर आ रहा हो”।

तभी शायद...शायद क्या, यकीनन मेरे अंदर सिगरेट पीने की इस ख्वाइश ने जन्म लिया। मगर बुरी आदत, या फिर यूं कह लीजिये कि जमाने के डर से कभी हिम्मत नहीं हुई मेरी, कि एक बार मैं भी पीकर देखूँ के सिगरेट पीने के बाद कैसा लगता है। फिर कोई ऐसा साथी भी तो ना मिला मुझे आज तक, कि जिसके साथ बिना किसी डर के, चिंता मुक्त होकर आँख बंद करके मैं भी उसके साथ सिगरेट का एक कश लगा सकूँ। “सो दिल के अरमा आँसुओं में ही बहते रहे”। कि फिर वही जानी पहचानी आवाज मेरे कानों में गूंज उठती है। क्या सोच रही हो, सिगरेट पीना चाहती हो क्या? मैं चौंक जाती हूँ। इसे भला मेरे मन की बात कैसे पता चली, कि मेरे मन में क्या है। मेरा चेहरे पर जैसे हजारों प्रश्न चिन्ह आ गये। इसे पहले का मुझे अभी कुछ याद नहीं है कि इससे पहले मैं कहाँ थी, किस हाल में थी, क्या कर रही थी, मुझे कुछ भी याद नहीं है।

इस वक़्त मेरे दिमाग में एक ही घंटी बज रही है। जो यह कह रही है कि इसे कैसे पता चला कि मैं क्या सोच रही हूँ, मैं क्या चाहती हूँ, आखिर यह कौन है। यह जो कोई भी है यदि यह मुझे इतने करीब से जानता है, तो मेरे सामने आता क्यूँ नहीं....? मेरे चेहरे के भाव शायद उसने भाप लिए थे। यकायक वह ज़ोर से हंसा और बोला अरे यदि सिगरेट पीने का मन है तो है इसमें झिझक कैसी, खुलकर बोल दो ना। मुझे उसकी हंसी खल गयी। मैंने लगभग उसे डांटते हुए कहा “ए मिस्टर तुम जो कोई भी हो, तुम्हें यूं इस तरह दूसरों के मन की बातें जान लेने का कोई हक नहीं” मुझे कोई शौक नहीं है सिगरेट पीने का, यूं भी मैंने आज तक पहले भी कभी सिगरेट नहीं पी। तो अब भी यदि नहीं पियूँगी तो मर नहीं जाऊँगी। वैसे भी, मैं तुम्हारी तरह नहीं हूँ कि हर वक़्त मेरी सुई नशे पर ही अटकी रहे।

अरे....इसलिए तो कह रहा हूँ, यदि मन है तो पीलो। मैं किसी से नहीं कहूँगा।

जहां तक मेरी पसंद ना पसंद कि बात है, मैं सूखे नशे के खिलाफ हूँ। मेरी नज़र में सूखा नशा गीले नशे से ज्यादा नुकसानदायक होता है। अच्छा...तुम्हें कैसे पता ? मैंने तपाक से पूछ लिया। कैसे पता मतलब ? मैंने सब आजमाया हुआ है। आखिर अनुभव भी कोई चीज़ होती है। हाँ....! मैंने कब मना किया। वैसे मेरा मानना यह भी है कि जब दिल में कोई ख्वाइश जागे जो आसानी से पूरी कि जा सकती हो, तो उसे ज़रूर पूरा कर लेना चाहिए। क्या पता...कल हो न हो...! उसकी बात ज़रा मेरे समझ में आयी। किन्तु फिर भी मैं एक असमंजस में पड़ी कि पीऊँ या न पीऊँ ? कहीं ऐसा न हो जाये, कि मुझे सिगरेट का भी दारू जैसा नशा हो जाये। फिर कोई मेरा फ़ायदा उठा ले जाये तो। धत....! मैं भी क्या पागलों जैसा सोच रही हूँ। ऐसा थोड़ी न होता है कितने लोगों को तो देखा है मैंने, अपनी आँखों के सामने सिगरेट पीते हुए। फिर मैं क्यूँ इतना सब सोच रही हूँ।

वो फिर बोला मुझसे डर रही हो ? मैंने कहा नहीं रे...बुद्धू तुझसे कैसा डर। तू तो अब मेरी लाइफ लाइन बन गया है। मगर तुम नहीं जानते, यह जो कार से बहार कि दुनिया है ना यह बड़ी बेकार है, बहुत ही बकवास है। आज हम मंगल पर पहुँच गये मगर यह कभी दिखायी न देने वाले, दुनिया के चार लोग होते है ना, यह जमाने पर आज भी अपनी धाक जमाये बैठे है। ज़माना बड़ा खराब है भई,

खैर छोड़ो चलो आज ट्राय कर ही लेते हैं। मगर इस सुनसान बियाबान जंगल में सिगरेट मिलेगी कहाँ...! तभी कार से बहुत दूर.....एक लाल बिंदी किसी जुगनू की भांति टिम टिमाई तो उस चमक को देखकर एक पल के लिए मुझे मेरे बचपन के वो दिन याद आ गये। जब रात के अंधेरे में कभी-कभी आँख खुला करती थी। तब घर के ठीक सामने वाली बालकनी में खड़े एक अंकल जी अकसर सिगरेट फूंकते नज़र आ जाते थे।

उस वक़्त उस रात के गहरे काले अंधेरे में अपनी उन्नीनींदी आँखों से मुझे केवल उनकी जलती हुई उस सिगरेट का वह लाल बिन्दु ही दिखायी देता था। जो उन दिनों मुझे बहुत डरा देता था।

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