आघात
डॉ. कविता त्यागी
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पूजा को ससुराल गये पाँच महीने बीत चुके थे। इस समयान्तराल में उसने मात्र दो पत्र अपनी कुशलता की सूचना देने के लिए भेजे थे एक ससुराल पहुंँचने के तत्काल बाद तथा दूसरा उसके एक महीना पश्चात् । इनमें से पहले में तो केवल सकुशल यात्रा पूरी होने भर की सूचना थी, और दूसरे में अपने माता-पिता को सम्बोधित करते हुए लिखा था कि वह अपनी समस्याओं का समाधन स्वयं करने का प्रयास कर रही है । उसे पूर्ण विश्वास है कि वह अपने गृहस्थ-जीवन को सुख-शान्तिमय बनाने में सफलता प्राप्त कर सकती है। अतः किसी भी बात के लिए उसकी चिन्ता न करें, न ही पत्र-व्यवहार करने की आवश्यकता समझें ! जब आवश्यकता होगी, वह स्वयं पत्र भेजेगी ! पूजा के पत्र में उल्लेखित निर्देशों का पालन करते हुए कौशिक जी ने अपनी बेटी के साथ पत्र-व्यवहार बिल्कुल बन्द कर दिया । उसके दूसरे पत्र को पाने के पश्चात् वे प्रतिदिन-प्रतिक्षण प्रतीक्षा करते थे कि किसी भी माध्यम से उन्हें बेटी की कुशलता का समाचार मिल जाए ! पूजा की माँ रमा भी बेटी की चिन्ता से बेहाल होकर निरन्तर आँसू बहाती रहती थी और कौशिक जी से बार-बार निवेदन करती थी कि एक बार पूजा की ससुराल जाकर उसकी कुशल-क्षेम पूछ आएँ । ऐसा करना उचित प्रतीत नहीं होता, तो कम-से-कम उसके लिए पत्र ही लिख दें। कौशिक जी अपनी पत्नी रमा की प्रत्येक बात को सिर हिलाकर नकारते हुए कह देते -
‘‘नहीं, रमा ! हमारी बेटी नहीं चाहती है कि हम वहाँ जाएँ अथवा पत्र लिखे !"
‘‘पर क्यों?’’
‘‘क्योंकि उसकी सास और पति को लगता है कि हमें उनके घर की बातों में किसी प्रकार की रुचि नहीं लेनी चाहिए ! हमारी बेटी, पूजा अब परिपक्व है ! दृढ़ता और धैर्य के साथ वह अपनी गृहस्थी सम्हालने के लिए लगनशील है ! ऐसे में हमें उसको डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए ! समस्याओं और प्रतिकूल परिस्थितियों से ही व्यक्ति की प्रतिभा निखरती है !’’
‘‘मुझे तो डर है कि प्रतिभा को निखारने के चक्कर में मेरी बेटी अपनी जान से ही हाथ न धो बैठे!’’
‘‘कुछ समझ में नहीं आता, मैं क्या करूँ? पूजा की मुझे भी चिन्ता है ! प्रतिदिन डाकिया से पूछता हंँ कि पूजा का कोई पत्र है ? डाकिया का नहीं में उत्तर मिलते ही मैं बेचैन हो जाता हूँ ! बेबस और लाचार... !’’
रमा और कौशिक जी बेटी की चिन्ता में बेबस और लाचार होकर अपनी पीड़ा को एक-दूसरे के साथ बाँट रहे थे, तभी दरवाजे की घंटी बजी। कौशिकजी ने उठकर दरवाजा खोला, सामने चमेली बुआ खड़ी थी। कौशिक जी ने उन्हें सम्मान सहित अन्दर बुलाया और रमा के पास रखी हुई कुर्सी पर बैठने का आग्रह किया। रमा ने भी उन्हें देखते ही खड़ी होकर उनका स्वागत किया और चरण स्पर्श करने का उपक्रम करने के पश्चात् उनके गले से लगकर सिसकने लगी। सिसकती हुए रमा ने चमेली बुआ से कहा कि उसको अपनी बेटी पूजा की बहुत याद आ रही है और उसकी चिन्ता सता रही है। तत्पश्चात धीरे-धीरे रमा और कौशिक जी ने चमेली बुआ के समक्ष सारी स्थिति का यथातथ्य वर्णन कर दिया।
उन दोनों की बातें सुनकर चमेली बुआ ने बताया कि वह यहाँ पूजा की कुशल-क्षेम बताने के लिए ही आयी थी । वे दो दिन पूर्व किसी काम से नोएडा गयी थी । जहाँ वे गयी थी, वहाँ से कुछ दूरी पर ही रणवीर का निवास स्थान है । उनकी इच्छा हुई कि पूजा से भेंट करें, इसलिए तुरन्त रणवीर के घर पर चली गयीं। वे वहाँ पर विशेष रूप से पूजा से मिलने के लिए गयी थी, परन्तु उसकी सास ने पूजा को बाहर ही नहीं आने दिया। लगभग दो घंटे तक उनसे बातें करते रहने के पश्चात् बहुत आग्रह करने पर ही पूजा को कमरे से बाहर बुलाया गया। चमेली बुआ ने बताया कि पूजा स्वयं भी बाहर आकर उनसे मिलने की इच्छुक नहीं थी, क्यांकि वह नहीं चाहती थी कि उसकी दयनीय दशा के विषय में बुआ के माध्यम से उसके माता-पिता को कोई सूचना मिले। पूजा का स्वास्थ्य इतना गिर चुका है कि वह ठीक प्रकार से खड़ी होने में भी कष्ट का अनुभव करती है । इस स्थिति में भी घर के सभी कार्यों का दायित्व-निर्वाह वह अच्छी तरह करती है। पूजा की हालत बताते-बताते चमेली बुआ की आँखों से टप-टप आँसू टपकने लगे। रमा की तो रोते-रोते आँखे लाल हो गयीं। कौशिकजी न रो सकते थे, न ही पत्नी को सांत्वना दे पा रहे थे।
चमेली बुआ द्वारा बेटी की दशा की सूचना मिलने के पश्चात् कौशिक जी के परिवार की चिन्ता बढ़ गयी थी। दिन-रात उसी विषय पर चर्चा हो रही थी। समस्या के समाधन के लिए सभी अपना-अपना मत प्रस्तुत कर रहे थे कि अमुक उपाय अधिक उपयुक्त है अथवा अमुक उपाय करना अपेक्षाकृत अधिक उचित है। दो दिन तक इसी प्रकार चर्चा चलती रही, किन्तु समस्या का कोई समाधन ; कोई उपाय नहीं हो सका। तीसरे दिन, जब सभी दो दिन की चर्चा के पफलस्वरूप किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास कर रहे थे, अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई । कौशिक जी दरवाजा खोलने के लिए कमरे से बाहर आये । वापिस लौटकर जब उन्होंने कमरे में प्रवेश किया तो आश्चर्य से चकित होकर सब एक साथ उनकी ओर देखने लगे। कुछ क्षणों तक सबकी दृष्टि निर्निमेष उनकी ओर लगी रही, क्यांकि कमरे में उन्होंने अकेले प्रवेश नहीं किया था । उनके साथ पूजा भी कमरे में आयी थी । रमा को अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उनके समक्ष पूजा खड़ी है।
रमा अपनी आँखों को मलते हुए उठी और रोते हुए पूजा के पास तक आयी। बेटी को ऊपर से नीचे तक निहारते हुए उन्होंने उसके चेहरे को अपने दोनां हाथों में लेकर दुलारा और सीने से लगाकर फफक पड़ी। पूजा भी माँ के सीने से लगकर अलौकिक सुख का अनुभव कर रही थी। उसे ऐसा लग रहा था, जैसे वह तपती धूप से निकलकर शीतल छाँव में आ गयी है। कुछ क्षणोपरान्त वह माँ के सीने से हटकर चारपाई के ऊपर बैठते हुए बोली -
‘‘माँ, बहुत थक गयी हूँ ! मैं थोड़ी देर आराम करना चाहती हूँ !’’
कौशिक जी ने और रमा ने पूजा को दूसरे कमरे में जाकर आराम करने की अनुमति देकर संकेत में एक-दूसरे से कहा कि पूजा के साथ अभी कोई भी बात करना उचित नहीं हैं ! कुछ देर आराम करके वह प्रकृतिस्थ हो जायेगी, तब ही कुछ पूछना ठीक रहेगा !
पूजा वहाँ से उठकर चली गयी। उसके जाते ही रमा ने चिन्तित स्वर में कहा -
"‘मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है ! न तो उसके साथ ससुराल से कोई आया है, न वह अपने साथ कुछ सामान लेकर आयी है ! प्रियांश भी उसके साथ नहीं आया है ! मेरा दिल घबरा रहा है ! पता नहीं, क्या बात है?’’
‘‘कोई नई बात तो नहीं है ! पहले भी वह इस प्रकार आ चुकी है। आजकल उसकी परिस्थितियाँ कितनी विषम चल रही हैं, यह हम सब जानते हैं । प्रियांश को उन्होने इसके साथ भेजने से मना कर दिया होगा, इसलिए अकेली चली आयी है ! बाकी यथातथ्य तो वही बता सकती है !’’ कौशिक जी ने रमा को समझाने की मुद्रा में कहा।
‘‘आपने उससे पूछने ही नहीं दिया, वह बताती कैसे ?’’
‘‘रमा, थोड़ा-सा धैर्य रखो ! वह अब आ गयी है, आराम से धीरे-धीरे पूछ लेना !’’
रमा अपने पति की बातों से पूर्णतः सहमत थी, किन्तु अपनी व्यथा का शमन करने में असमर्थ थी । वह बार-बार उस स्थान तक जा रही थी, जहाँ पर पूजा विश्राम कर रही थी । वहाँ पर पूजा को मुँह ढककर चादर तानकर सोती हुई देखकर वापिस लौट आती थी। इस प्रकार वहाँ तक जाने और फिर लौटकर आने का उपक्रम वह दस-दस मिनट के अन्तराल से करती रही। लगभग एक घंटे पश्चात् रमा के धैर्य ने उसका साथ छोड़ दिया। वह इस बार पूजा के निकट जाकर वापिस नहीं लौटी, बल्कि पूजा को जगाने का निश्चय करके वहीं पर बैठ गयी। कुछ क्षणों तक निश्चय-अनिश्चय के सागर में हिलौरे लेती रहने के पश्चात् रमा ने धीरे-से पूजा की चादर को हटाया और सिर-माथे पर हाथ फेरकर दुलारने लगी। माँ के हाथ का स्पर्श पाते ही पूजा की आँखों से आँसुओं की धरा बह चली। रमा ने देखा कि पूजा की आँखें लाल हो गयी हैं। ऐसा प्रतीत होता था कि वह चादर ओढ़कर नींद का बहाना करके रो रही थी । शायद अपनी पीड़ा को आँखों के रास्ते बाहर निकाल रही थी, ताकि अपने परिवार के समक्ष अपनी पीड़ा को छिपाने की शक्ति बटोर सके। माँ जितना दुलारती जा रही थी, बेटी उतना ही रोती जा रही थी। दोनों के बीच मूक-वार्तालाप चलता रहा। उस मौन को तोड़ने की सामर्थ्य उनमें से किसी में नहीं थी । तभी कमरे में कौशिक जी का प्रवेश हुआ और उन्होंने वातावरण की निःशब्दता को भंग करते हुए कहा -
‘‘बेटी हम चाहते तो थे कि तुम्हें विश्राम करने दिया जाए, किन्तु हम इतना धैर्य नहीं रख पा रहे हैं कि....!’’
पिता को देखते ही पूजा उठकर खड़ी हो गयी। उसकी आँखों में पीड़ा और निराशा स्पष्ट देखी जा सकती थी। पिता ने सान्त्वना की मुद्रा में बेटी को बैठने का संकेत किया और स्वयं भी बैठ गये। कुछ क्षण तक गम्भीर वैचारिक मुद्रा में बैठे रहने के उपरान्त उन्होंने उस निस्तब्ध वातावरण को चीरते हुए कहा - ‘‘बेटी, वैसे तो तुम्हारी स्थिति का हमें भली-भाँति आभास है, परन्तु, मैं तेरे मुख से विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ कि...!’’
पूजा कुछ कहना चाहती थी या चुप रहना चाहती थी, इस विषय में वह स्वयं कुछ नहीं समझ पा रही थी। उसने अपनी इस द्वन्द्वात्मक स्थिति से उभरने के लिए गर्दन झुका ली और दृष्टि नीचे होते ही उसकी आँखों से पुनः अश्रुधारा बह चली। कौशिक जी बेटी की मूक वाणी को समझ सकते थे। यह बात पूजा अच्छी प्रकार जानती थी, किन्तु अपने बेटे प्रियांश के वियोग की तड़प तथा ससुराल में भोगे हुए कष्टों को अभिव्यक्त करने ; यथातथ्य बताने के लिए वह भी उतनी ही व्याकुल थी, जितने व्याकुल उसके माता-पिता सुनने के लिए थे । अतः पूजा ने बताना आरम्भ किया ।
पूजा ने बताया कि रणवीर ने उसे ले जाने के लगभग एक महीने तक उसके साथ यथोचित सन्तुलित मधुर व्यवहार किया था। उसके बाद उसका व्यवहार अत्यन्त उपेक्षापूर्ण और कटु होता गया। उसके व्यवहार-परिवर्तन का एक कारण यह था कि जाने के एक माह पश्चात् ही पूजा के स्वास्थ्य में अचानक गिरावट आने लगी । डॉक्टर से उसकी जाँच करायी गयी, तो जाँच से ज्ञात हुआ कि वह गर्भवती है। अतः डॉक्टर ने कहा कि उसे आराम और पौष्टिक आहार के साथ-साथ अतिरिक्त देख-रेख की आवश्यकता है। अपनी अस्वस्थता के कारण वह रणवीर को अध्कि समय नहीं दे पा रही थी। ऐसी स्थिति में जबकि उसको स्वयं की देखरेख के लिए किसी अन्य सहायक की आवश्यकता थी, रणवीर को समय देना अति कठिन था। इसका परिणाम यह हुआ कि रणवीर ने पूजा के आस-पास आना कम कर दिया और रणवीर की माँ ने इस अवसर का भरपूर लाभ उठाया। वह रणवीर की चाटुकारिता करते हुए उसे पूजा के विषय में ऐसी-ऐसी बातें कहतीं, जो वास्तविकता से कोसों दूर होती थीं और जिन्हें सुनते ही वह इतना भड़क उठता था कि अपनी पत्नी की शक्ल देखना भी उसको प्रिय न लगता था । जब रणवीर घर पर रहता था, उसकी माँ प्रियांश को पूजा के पास नहीं जाने देती थी । वे रणवीर के समक्ष यह प्रमाणित करने का प्रयास करती थी कि प्रियांश के सभी कार्य तथा दिन-भर उसकी देखभाल वे ही करती हैं, पूजा नहीं करती है। वे अपने इस प्रयास में सपफल भी हो रही थी । किन्तु पूजा सब कुछ जानते हुए भी कुछ नहीं कर सकती थी। एक ओर तो वह अस्वस्थ थी, दूसरी ओर उसे रणवीर का समर्थन प्राप्त नहीं था। इसके विपरीत रणवीर की माँ को बेटे का पूर्ण समर्थन प्राप्त था।
पूजा ने बताया कि उसकी सास प्रियांश को अपने साथ केवल तब तक रखती थी, जब तक रणवीर घर पर रहता था। रणवीर के जाते ही वे उसे पूजा के पास छोड़ देती थीं, ताकि पूजा आराम न कर सके। उनके छोटे-छोटे, किन्तु गम्भीर कुचक्रों की परिणति तब सामने आयी, जबकि उन्होंने पूजा से कहा कि रणवीर को उससे कोई लगाव नहीं है और वह उसको अपने साथ नहीं रखना चाहता और न ही उसके साथ अपना जीवन गुजारना चाहता है। वह तो उसको उसके मायके से लाना ही नहीं चाहता था, अपने बेटे प्रियांश को लाने के लिए उसकी माँ को भी साथ लाना पड़ा।
अपनी सास की बातों से पूजा हतप्रभ हो गयी थी। वह रणवीर के जीवन में और उसके हृदय में अपनी जगह और वास्तविक स्थिति का अनुमान लगाकर कभी नकरात्मक तो कभी सकारात्मक कल्पनाएँ करने लगी। प्रायः वह सकारात्मक कल्पनाएँ करके रणवीर के साथ अपने सम्बन्धें को दृढ़ और मधुर बनाने का प्रयास करती थी। अनेक बार उसे अपने प्रयास में सपफलता भी मिलती थी, लेकिन उसमें स्थायित्व का अभाव था। सप्ताह में दो दिन यदि रणवीर पूजा के मधर-व्यवहारों और उसके प्रयासों के फलस्वरूप उसकी ओर खिंचता था, तो चार दिन दूर भागता था। इस दूरी को बढ़ती देखकर चिन्तित पूजा पुनः अपने व्यवहारों का विश्लेषण करती थी और उन कारणों को ढूँढने का प्रयास करती थी, जो रणवीर को उससे दूर ले जाने के लिए उत्तरदायी थे । परन्तु, उसे ऐसा कोई कारण न सूझता था, जिसे दूर करके वह पति को अपने साथ बाँधकर रख सके।
एक दिन सामान्य वार्तालाप करते हुए, जो कि कभी भी पारस्परिक सम्बन्धों को दृढ़ता या विस्तार देने के लिए व्यावहारिक मधुरता-आत्मीयता प्रकट करने की दृष्टि से नहीं होता था, बल्कि प्रायः पूजा के प्रति अपने हृदय की कटुता व्यक्त करने के लिए ही होता था, पूजा की सास ने कहा कि उन्होंने ईश्वर से केवल एक पोते की इच्छा की थी, वह प्रियांश के रूप में उन्हें मिल चुका है। अतः अब प्रियांश के अतिरिक्त किसी बच्चे के जन्म की सूचना से उन्हें प्रसन्नता नहीं होगी। उन्होंने अपशब्द बोलते हुए पूजा को कहा कि इस नये युग में एक से अधिक बच्चे पैदा करना सभ्यता का प्रतीक नहीं है। उसी समय वहाँ पर रणवीर का आगमन हुआ और माँ का समर्थन करते हुए उसने पूजा की ओर हेय दृष्टि से देखते हुए कहा कि उसकी माँ सदैव उचित ही कहती हैं । उस दिन के पश्चात् रणवीर प्रतिदिन पूजा के साथ पहले की अपेक्षा और अधिक कटु व्यवहार करके उसको गर्भपात करने के लिए विवश करने लगा।
चूँकि पूजा अब तक अपने गर्भस्थ शिशु के साथ मातृत्व के बन्धन में बंध चुकी थी, इसलिए वह दुनिया में आने से पहले ही अपने बच्चे की हत्या करने के विषय में सोच भी नहीं सकती थी। रणवीर का पूरा परिवार कहता था कि गर्भस्थ शिशु कन्या हो सकती है, इसलिए पूजा का गर्भपात कराना ही ठीक रहेगा। वैसे भी, एक बेटा हो ही चुका है, दूसरे बच्चे की आवश्यकता नहीं है।
इसके विपरीत पूजा को कन्या-शिशु को जन्म देने की कल्पना करने पर सुखद अनुभूति होती थी । वह अपनी भावी कन्या-शिशु में अपनी छवि की कल्पना करती थी। उस छवि की कल्पना, जब वह एक आदर्श और सबकी चहेती बेटी के रूप में अपने पिता के घर थी। यद्यपि अपनी प्रथम सन्तान के रूप में पूजा ने ईश्वर से पुत्र-प्राप्ति की प्रार्थना की थी, किन्तु अब वह एक बेटी की माँ होने का गौरव प्राप्त करना चाहती थी।
डॉ. कविता त्यागी
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