आघात - 14 Dr kavita Tyagi द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

आघात - 14

आघात

डॉ. कविता त्यागी

14

चार-पाँच महीने पश्चात् एक दिन एक अप्रत्याशित घटना घटी । उस दिन अचानक किसी पूर्व सूचना के बिना पूजा और रणवीर घर पर आ पहुँचे । पूजा इतनी दुर्बल हो गयी थी कि उसको प्रथम दृष्ट्या पहचानना कठिन था । घर के सभी लोग यह सोचकर प्रसन्न थे कि दुर्बल ही सही, वह आ गयी, यही क्या कम है ! उसे देखकर उन सबको ऐसा लग रहा था कि प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष करके उसका जीवित रहना ही हम सबके लिए जहाँ गौरव और प्रसन्नता का विषय है, वहीं स्वयं पूजा के लिए उसकी वीरता और साहस का परिचायक है । रमा ने तो बेटी को देखते ही बाँहों में भर लिया और इस प्रकार कसकर सीने से लगा लिया कि उनकी बेटी को वापिस कोई छीनकर न ले जाए । बेटी को सीने से लगाए हुए वह विक्षिप्त-सी होकर कभी रोने लगती थी और अगले ही क्षण हँसने लगती थी । उनकी आँखों से जैसे गंगा-यमुना की अविरल धारा बह रही थी, जिसमें बेटी के घर लौटकर आने की प्रसन्नता और उसके अत्यधिक दुर्बल होने की व्यथा मिलकर एकरूप हो गयी थी । कौशिक जी तथा यश के चित्त की प्रसन्नता रमा की प्रसन्नता के सापेक्ष गौण प्रतीत हो रही थी । वे सभी रमा के समीप खड़े होकर चुपचाप उसकी प्रसन्नता का अनुभव करके आनन्दित हो रहे थे । साथ ही पूजा के दुर्बल शरीर को देखकर बार-बार खिन्न हो उठते थे । व्यथा और प्रसन्नता का आवेग इतना प्रबल था कि उन सभी की आँखों से निरन्तर आँसू छलक रहे थे और बार-बार होंठो पर मुस्कान के साथ प्रसन्नता झलक पड़ती थी ।

उस समय पूजा सबसे अधिक प्रसन्न दिखाई दे रही थी । ऐसा प्रतीत होता था कि प्रसन्नता के उन क्षणों को वह सम्पूर्णता के साथ जीना चाहती थी । आँसुओं में डूबी हुई उसकी आँखें मानो मूक वाणी में कह रही थी कि इन क्षणों में वह ब्रह्माण्ड के सभी सुखों को पा लेना चाहती है और इस सुख के क्षण में उसको कोई भी बाधा उसे स्वीकार्य नहीं है । कुछ क्षणों तक माँ के सीने से लगे रहने के पश्चात् जब उसको अपने समीप खड़े हुए पिता का स्मरण हुआ, तब वह कौशिक जी के सीने से लिपट गयी । अपने सीने से बेटी को लिपटा पाते ही कौशिक जी का वात्सल्य उमड़ पड़ा । जिस भाव को वे अभी तक संयम धरण करके दबाने का प्रयास कर रहे थे, वह अब तीव्र वेग से आँखों से बहते हुए आँसुओं के साथ वाणी में पफूटकर अभिव्यक्त हुआ -

‘‘पगली, रुलाकर ही छोड़ेगी ! चल चुप हो ! अब रोने का समय नहीं है, हँसने का समय है !’’

वातावरण धीरे-धीरे सामान्य होने लगा था । उस वातावरण को और भी हल्का-फुल्का बनाने के क्रम में यश ने मुस्कराकर कहा -

‘‘पूजा दीदी, हम भी तुमसे बातें करने के लिए अधीर हो रहे हैं !’’ यश की बात सुनकर पूजा तुरन्त उसकी ओर मुड़ी तो कौशिक जी ने उसके सिर पर हाथ रखकर बैठने का संकेत करते हुए कहा -

‘‘बहुत बहादुर है, मेरी पूजा बिटिया !’’ पिता का संकेत पाकर पूजा एक चारपाई पर बैठ गयी, और उसके बैठते ही घर के सभी लोग उसको घेरकर बैठ गये ।

अभी तक पूजा के अतिरिक्त सबके मनःमस्तिष्क में प्रसन्नता का केवल एक ही कारण था - बहुत समय के अन्तराल से पूजा का ससुराल से मायके वापिस आना । प्रसन्नता के साथ-साथ उसकी दुर्बलता और उसकी विषम परिस्थितियों को लेकर सभी का चित्त व्यथित था । सभी को लगता था कि वह अपनी विषम-प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण इतनी दुर्बल हो गयी है । परन्तु, पूजा की आँखों में उसकी प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति कोई शिकायत या आक्रोश दिखाई नहीं दे रहा था । उसकी आँखों में प्रसन्नता थी । यह प्रसन्नता केवल माता-पिता और भाई-बहन या सखी-सहेलियों से भेंट करने मात्र की प्रसन्नता प्रतीत नहीं होती थी । कौशिक जी और रमा उसकी इस प्रसन्नता से आश्चर्यचकित थे । उनका अनुमान था कि शायद पूजा की ससुराल में परिस्थिति सामान्य हो गयी है । संभवतः रणवीर के परिवार ने देर से ही सही, पूजा की सद्गुणी प्रकृति को भली-भाँति परख-समझकर सम्मान तथा स्नेहपूर्वक स्वीकार कर लिया है । इस आशय को आत्मसात करके रमा और कौशिक जी ने कई बार एक-दूसरे की आँखों में झाँका और अपने-अपने मतों का आदान-प्रदान करके सन्तुष्ट-प्रसन्न- प्रपफुल्लित हो रहे थे।

कुछ समय तक परिवार के सभी लोग परस्पर बातें करते रहे । बातें करते-करते यथोचित अवसर पाकर पूजा ने संयमित और शिष्ट शब्दों का प्रयोग करते हुए बताया कि वह माँ बनने वाली है । इस दशा में कुछ आवश्यक जाँच कराने के लिए वह डाॅक्टर के पास आयी थी । घर निकली ही थी, तो यहाँ माता-पिता तथा भाई-बहन से मिलने के लिए भी चली आयी । पूजा ने यह भी बताया कि इस समय यहाँ वह केवल अपनी इच्छा से मिलने के लिए नहीं आयी है, बल्कि उसकी सास ने भेजा है, ताकि उसके मायके वाले प्रसव के पश्चात् की जाने वाली रस्मों में दिये जाने वाले धन-उपहार आदि की चिन्ता और उसका प्रबन्ध करना अभी से आरम्भ कर दें । बेटी की बातें सुनकर रमा और कौशिक जी की उन आशाओं और कल्पनाओं पर निराशा का तुषारपात-सा हो गया, जो उन्होंने कुछ क्षण पूर्व अपनी बेटी के प्रपफुल्ल हाव-भाव देख कर की थी । पूजा ने तुरन्त अपने माता-पिता की आन्तरिक दशा और उनके मन की शंका का अनुमान लगाते हुए बताया कि अब ससुराल में उसके साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं होता है, परन्तु घर के सभी कार्य अभी भी उसको ही करने पड़ते हैं, जिससे उसे बहुत थकान हो जाती है । अतः कुछ दिन वह अपने पिता के घर में रहकर स्वास्थ्य-लाभ लेना चाहती है, जहाँ उसे विश्राम तो मिलेगा ही, उसका चित्त भी प्रसन्न रहेगा ।

पूजा के इस प्रस्ताव का सभी ने स्वागत किया । वे सभी चाहते थे कि पूजा कुछ समय तक वहीं पर उनके साथ रहे । उसके विवाह के पश्चात् आज तक एक भी अवसर ऐसा नहीं आया था, जबकि पूजा चौबीस घंटे भी अपने मायके वालों के साथ रह सकी हो । अतः इस अवसर को कोई भी गँवाना नही चाहता था । परन्तु, अगले ही क्षण पूजा ने शंकाग्रस्त स्वर में कहा -

‘‘पिताजी ! इसके लिए आपको अपने दामाद को सहमत करना पडे़गा ! उनकी सहमति के बिना मेरा यहाँ रहना संभव नहीं हो सकेगा !’’

‘‘लेकिन, तम्हें तुम्हारी सास ने यहाँ भेजा है ना ? फिर रणवीर से सहमति.... ?

‘‘हाँ, भेजा तो है उन्होंने, पर उन्होंने प्रातः शीघ्र ही लौट आने के लिए कहा है !’’

‘‘क्या ?’’ सबके मुँह से एक साथ निकल पड़ा, जैसे कि उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था ।

पूजा का उत्तर सुनते ही पूजा को साथ रखने का सबका सपना टूट

गया । घर के सभी लोग जानते थे कि रणवीर अपनी माँ की आज्ञा के बिना पूजा को उसके मायके में कदापि न छोडे़गा । यह भी निश्चित था कि रणवीर के परिवार को अब पूजा की सेवाओं को भोगने की आदत बन चुकी है, इसलिए उसकी सास रणवीर को इस बात की अनुमति नहीं देगी कि वह पूजा को कुछ दिन के लिए उसके मायके में छोड़ आये ।

सब कुछ जानते-बूझते हुए भी आशा की एक नन्ही-सी किरण खोजने के बहाने कौशिक जी ने रणवीर के समक्ष अपना प्रस्ताव रख ही दिया कि वह कुछ दिनों के लिए पूजा को यहाँ छोड़ दें । अपना प्रस्ताव प्रस्तुत करके कौशिक जी आशा-निराशा के भावों के साथ उत्सुक होकर रणवीर के चेहरे के भाव पढ़ने लगे । कुछ क्षण मौन रहने के बाद रणवीर ने वही उत्तर दिया, जिसका अनुमान परिवार के सभी सदस्य पहले ही लगा चुके थे -

‘‘आप जानते ही हैं कि माँ तो प्रायः बीमार रहती हैं । वैसे भी, आयु को देखते हुए अब उनकी काम करने की अवस्था नहीं है, बल्कि आराम करने की है । बहनें अभी छोटी हैं, उन्हें विद्यालय भी जाना होता है । इसलिए घर में पूजा की बहुत आवश्यकता है । पूजा को ऐसी स्थिति में यहाँ छोड़ना संभव है या नहीं, आप समझ सकते हैं ! इससे अधिक कुछ कहना.... !’’

‘‘दामाद बाबू, पूजा का स्वास्थ्य ठीक नहीं है ! वह बहुत दुर्बल भी हो गयी है ! हमारा विचार है कि कुछ दिन विश्राम करेगी और तनावमुक्त रहेगी, तो उसका मन भी प्रसन्न रहेगा और स्वास्थ्य भी अच्छा हो जायेगा !’’

कौशिक जी के पुनर्निवेदन को सुनकर रणवीर का पारा चढ़ गया । वह आवेशमयी स्वर में बोला -

‘‘आप हम पर अप्रत्यक्षत रूप से यह आरोप लगा रहे हैं कि हम पूजा के स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखते हैं और उसको कष्ट देते हैं ?’’

‘‘नहीं दामाद जी ! हम जो कुछ कह रहे हैं, वह आरोप नहीं हैं, कटु सत्य हैं ! आप इस सत्य को आज तक देखकर भी अनदेखा करते रहे हैं, और आज भी ऐसा ही कर रहे हैं ! ’’ कौशिक जी के संयम का बाँध टूटा, तो रणवीर का आवेश भी और अधिक बढ़ गया -

‘‘आप फिर आरोप लगा रहे हैं ! आप मुझसे बड़े हैं, इसलिए मैं कुछ बोल नहीं रहा हूँ ! पर इसका यह अर्थ मत लगाइये कि आप मुझ पर और मेरे परिवार पर कुछ भी आरोप लगायेंगे, और मैं मौन धारण करके सबकुछ सुनता-सहता रहूँगा !’’

‘‘पूजा की इस दशा को देखकर भी आपको किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता है ?’’

कौशिक जी का प्रबल तर्क सुनकर रणवीर चुप हो गया । कुछ क्षणों तक वह निर्निमेष कौशिक जी की ओर घूरता रहा । तत्पश्चात् पहले की अपेक्षा दुगने आवेश में अपनी सफाई देते हुए बोला -

‘‘आपको हमारे ऊपर आरोप लगाने से पहले अपनी बेटी से वास्तविकता ज्ञात कर लेनी चाहिए थी ! पूजा का स्वास्थ्य ठीक नहीं होना आपके इस आरोप को प्रमाणित नहीं करता है कि हम उसकी ठीक प्रकार से देखभाल नहीं करते हैं ! या उसे कोई कष्ट देते हैं !... आज उसको कोई विशेष समस्या नहीं थी, फिर भी, मैं केवल उसके कहने पर उसको डाॅक्टर के पास परामर्श और जाँच कराने के लिए लेकर गया था ! केवल पूजा को प्रसन्न रखने के लिए आज मैंने हजारों रुपये खर्च किये है, जबकि डाॅक्टर के अनुसार भी पूजा बिल्कुल स्वस्थ है और मेरी माँ ने भी मुझसे यही कहा था । हाँ, गर्भावस्था होने के कारण वह थोड़ी-सी दुर्बल अवश्य हो गयी है, जिसकी पूर्ति दवाइयों से नहीं, समय पर खाने-पीने से होगी ! वह ठीक प्रकार से खाती-पीती नहीं है, तो इसमें हमारा क्या दोष है ?... वह ठीक प्रकार और ठीक समय पर भोजन करे, यह बात आपको पूजा को समझानी चाहिए, क्योंकि हमारी कही हुई किसी बात को मानने में तो वह अपना अपमान समझती है !’’ इतना कहकर रणवीर ने उपेक्षापूर्ण मुद्रा में अपनी दृष्टि फेर ली ।

रणवीर के इतने लम्बे व्याख्यान को सुनकर और उसके आवेशित- असन्तुलित भावों की अभिव्यक्ति देखकर कौशिक जी ने कुछ भी कहना उचित नहीं समझा । उस बोझिल वातावरण से मुक्त होने के लिए वे वहाँ से उठकर बाहर की ओर चल दिये ।

अगले दिन प्रातः पूजा को विदा करने की तैयारियाँ होने लगी । रमा रोते-रोते पूजा को विदा करने की तैयारियों में लगी हुई थी, जबकि पूजा इस बार अधिक दुखी नहीं थी । वह बार-बार अपनी माँ को सांत्वना दे रही थी कि वह शीघ्र ही पुनः मिलने के लिए आयेगी । उस समय पूजा की आँखों में देखकर उसके हृदयस्थ भावों को प्रेरणा ने समझा था । वह ससुराल जाने की इच्छा न होते हुए भी इसलिए जा रही थी, क्योंकि उसका वहाँ जाना अवश्यम्भावी था । उस समय अपने व्यवहार से पूजा बिल्कुल सामान्य लग रही थी, परन्तु इस सामान्य व्यवहार का कारण केवल उसका मानसिक रूप से परिपक्व होना था । वह जानती थी कि उसको दुखी देखकर उसके माता-पिता और भाई-बहन की चिन्ता और अधिक बढ़ जायेगी ।

विदा होने के समय तक पूजा अपने व्यवहार को सामान्य रखने का प्रयास करती रही । किन्तु, बहुत प्रयास करने पर भी अपने कृत्रिम व्यवहार पर से उसका नियन्त्रण तब छूट गया, जब वह विदा होकर दहलीज से बाहर पैर रखने लगी । वह फफक-फफक कर रोने लगी । कुछ क्षणोपरान्त संयत होकर बोली -

‘‘आप सब ईश्वर से प्रार्थना करना कि मैं पुत्र को जन्म दूँ ! वहाँ पर परिवार के सभी सदस्य मुझसे पुत्र को जन्म देने की अपेक्षा रखते हैं, जोकि मेरे वश की बात बिल्कुल भी नहीं है ! यदि मेरे गर्भ से बेटी ने जन्म लिया तो.... !’’ अपना अन्तिम वाक्य अधूरा छोड़कर पूजा चुप हो गयी, जैसे वह अपने भविष्य को लेकर किसी भयावह सपने में गुम हो गयी हो !

उस करुण वातावरण में ही इस आशा-विश्वास के साथ कि वह निश्चित रूप से शीघ्र ही नन्हें शिशु के साथ सकुशल दोबारा यहाँ आयेगी, पूजा को शुभाशीष देकर ससुराल के लिए विदा कर दिया गया । उसकी विदाई के पश्चात् परिवार के सभी सदस्य चिन्ताकुल होकर उसके प्रसव काल की प्रतीक्षा करने लगे । प्रतीक्षारत प्रत्येक सदस्य के हृदय से प्रतिक्षण पूजा के लिए शुभकामनाएँ निकलती रहती थी कि वह सकुशल एक स्वस्थ पुत्र को जन्म दे और उस पर निरन्तर ईश्वर की कृपा बनी रहे ।

ससुराल पहुँचने के पश्चात् कई दिन तक पूजा का चित्त अशान्त रहा । उसका मन-पंछी बार-बार उड़ान भरकर मायके पहुँच जाता था । अपने चित्त की चंचलता के चलते वह चाहती थी कि अपने पति रणवीर से कुछ दिनों के लिए उसको मायके छोड़ आने का आग्रह करे । परन्तु, माता-पिता के द्वारा विदाई के समय दिये गये निर्देशों को याद करते ही उसके मन की दिशा बदल जाती थी । माता-पिता ने विदाई के समय पूजा को स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहने का निर्देश देते हुए गर्भावस्था में कम से कम यात्रा करने का विशेष आग्रह किया था । माता-पिता ने उसको प्रसव से पूर्व पुनः मायके आने की निषेधज्ञा जारी करते हुए कहा था कि ऐसी अवस्था में अधिक यात्रा करना उचित नहीं है, इसलिए उसकी बुआ चित्रा अब पहले की अपेक्षा कम-से-कम समय के अन्तराल से उसके पास जाकर पहले की ही तरह दोनों परिवारों के बीच संवाद का माध्यम बनी रहेंगी और यथासम्भव उसकी सहायता करती रहेंगी । अपने माता-पिता के निर्देशों और आज्ञाओं को ध्यान में रखते हुए पूजा ने अपने चित्त को शान्त करने का यथासम्भव प्रयास किया । उसने अपनी पारिवारिक परिस्थितियों को नियन्त्रण में रखने का भी अपनी सामर्थ्य-भर प्रयास किया और अपने प्रसव-काल की सुखद कल्पनाओं में विचरण करते हुए समय व्यतीत करने लगी ।

समय व्यतीत होता गया और यथासमय ईश्वर से की गयी प्रार्थना उसके भक्तों के मनोनुकूल प्रतिपफलित हो गयी । शुभ मुहुर्त में पूजा ने एक स्वस्थ-पुत्र को जन्म दिया । लेकिन, प्रसव के पश्चात् पूजा का स्वास्थ्य बिगड़ गया । आठ-दस दिन तक उसका स्वास्थ्य इतना खराब रहा कि न तो उसको अपनी सुध-बुध थी, न अपने नवजात शिशु की । इस दशा में वह अपने शिशु को स्तन-पान भी नहीं करा सकी, इसलिए स्वस्थ पैदा हुआ बच्चा भी दुर्बल होने लगा था ।

पूजा की बुआ चित्रा यद्यपि पूजा से भेंट करके उसके प्रसव काल से तीन-चार दिन पूर्व ही गयी थी, तथापि उन्हें उसके प्रसव की किसी निश्चित तिथि के विषय में ज्ञात नहीं था । चित्रा को पूजा के पुत्र-जन्म की सूचना उसके आठ दिन पश्चात् मिली । सूचना मिलते ही चित्रा ने रीति-रिवाज के अनुसार कुछ सामान की व्यवस्था की और तुरन्त ही पूजा की ससुराल की ओर प्रस्थान किया ।

पूजा की ससुराल पहुँचकर चित्रा ने पूजा और उसके शिशु की देखरेख में दिन-रात एक कर दिये । उसके अथक परिश्रम से देखरेख करने के फलस्वरूप शीघ्र ही पूजा का स्वास्थ्य पटरी पर लौटने लगा । प्रसूता और शिशु का स्वास्थ्य सुधार की दिशा में अग्रसर होते ही रणवीर की माँ ने जन्मोत्सव की तैयारियाँ आरम्भ कर दी ।

रणवीर के परिवार ने पुत्र-रत्न की प्राप्ति का उत्सव बहुत धूम-धाम से मनाया, किन्तु उसमें पुत्र-रत्न प्रदान करने वाली पूजा के प्रति श्रेय-प्रेय भावों का अभाव था । यहाँ तक कि पूजा के स्वास्थ्य-लाभ के लिए दिन-रात उसकी सेवा-सुश्रुषा करने वाली उसकी बुआ चित्रा के प्रति भी उनका उपेक्षापूर्ण और तिरस्कारपूर्ण व्यवहार ही था । इसके विपरीत पूजा के मायके की ओर से आने वाले एवं अतिथियों द्वारा दिये जाने वाले आशीर्वाद-स्वरूप उपहार तथा धनराशि के प्रति लोभमय-आतिथ्य-भाव का पूरा प्रदर्शन हो रहा था ।

जन्मोत्सव के अवसर पर मायके की ओर से रस्मों का निर्वाह करके लौटने पर यश ने बताया था - ‘‘उन लोगों को बुआजी का वहाँ रहना बहुत अखरता है, क्योंकि बुआ जी के वहाँ रहते हुए वे पूजा के साथ कुछ भी ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहते, जिससे वे लोग बुआजी की दृष्टि में निकृष्ट-प्रकृति के सिद्ध हो जाएँ । बुआ जी के लिए वे बहुत-सी ऐसी-ऐसी बातें व्यंग्य करके कहते हैं, जिनसे बुआ जी को वहाँ रहना कठिन हो जाता है । परन्तु बुआ जी ने पूजा की ससुराल वालों से स्पष्ट कह दिया कि वे तब तक वहीं रहेंगी, जब तक कि पूजा पूर्ण रूप से स्वस्थ न हो जाए ।’’

लगभग एक महीने में पूजा के स्वास्थ्य में इतना सुधर हो गया था कि वह अपनी तथा अपने नवजात शिशु की भली-भाँति देखभाल कर सके । जब पूजा के स्वास्थ्य में तीव्र गति से सुधर होने लगा, तब उसकी बुआ चित्रा निश्चिन्त होकर अपनी ससुराल लौट गयी । बुआ के जाने के पश्चात् पूजा को अकेलापन अनुभव होने लगा । उसको बार-बार मायके की याद सताने लगी । अपने मन की दशा को रणवीर के समक्ष प्रकट करते हुए उसने अपने मायके चलने का आग्रह किया, तो रणवीर ने अपनी माँ से अनुमति लेकर चलने का आश्वासन दिया । धीरे-धीरे दो महीने बीत गये ।

तीन महीने के नन्हें-से बेटे प्रियांश को लेकर पूजा पहली बार मायके में आयी । वह भी उस शुभ घड़ी में जबकि उसके भाई का सगाई-समारोह था । पूजा के विवाह के पश्चात् यह प्रथम अवसर था, जबकि घर में सभी प्रसन्नचित् थे । किसी के मनःमस्तिष्क में लेशमात्र भी क्लेश नहीं था । चिन्ता के बादल छँट चुके थे । ऐसा प्रतीत होता था कि पूजा और रणवीर के सम्बन्धों को उनके नन्हें-शिशु प्रियांश ने एक नया जीवन प्रदान कर दिया था । वह उन दोनों के मध्य एक दृढ़सूत्र के रूप में स्थापित हो चुका था । वह तीन माह का प्रियांश न केवल पूजा और रणवीर के मध्य, बल्कि दोनों परिवारों के मध्य मधुर सम्बन्धों का आधार बनकर अवतरित हुआ लगता था । प्रियांश के रूप में पूजा को एक अमूल्य उपहार देने के लिए पूरे परिवार ने ईश्वर का धन्यवाद करते हुए प्रार्थना की कि प्रियांश चिरायु हो तथा यशस्वी बनें।

पाँच दिन में यश की सगाई और विवाह सम्पन्न हो गये । विवाह सम्पन्न होते ही छठे दिन पूजा और प्रियांश को लेकर रणवीर अपने घर लौट गया । जब तक पूजा अपनी माँ के घर पर रही थी, वैवाहिक कार्यों की व्यस्तता होने के बावजूद सभी लोग प्रियांश के साथ खेलने का समय निकाल ही लेते थे । लेकिन उसके जाते ही घर में एक सूनापन-सा छा गया । प्रेरणा, जिसका सारा समय प्रियांश के साथ खेलने में और पूजा के साथ प्रियांश के सभी छोटे-छोटे कार्य करने में व्यतीत होता था, अब पूरा दिन उसको भार-स्वरूप प्रतीत होता था, जिसे ढोना एक कठिन कार्य था । उसके अतिरिक्त घर के अन्य सभी सदस्यों को प्रियांश की अनुपस्थिति में जीना सीखने में एक सप्ताह से भी अधिक समय लगा । उन सभी ने अपने मन को समझा लिया था कि पूजा पर अब रणवीर का अधिकार है और प्रियांश उन्हीं का बेटा है, इसलिए उसका मोह करना उचित नहीं है ।

डॉ. कविता त्यागी

tyagi.kavita1972@gmail.com