आघात - 11 Dr kavita Tyagi द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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आघात - 11

आघात

डॉ. कविता त्यागी

11

शाम के लगभग तीन बजे पूजा ने मुस्कुराते हुए प्रेरणा से कहा -

‘‘पिन्नु ! जा, जरा देेखकर तो आ, तेरे जीजा जी जाग चुके हैं या अभी तक सो रहें हैं ?... तूने तो अपने जीजा जी से बातें ही नहीं की हैं ! उनसे नाराज है क्या ?’’

पूजा की बात सुनकर प्रेरणा उठी और बाहर की ओर चल दी, जहाँ मुख्य द्वार से सटे हुए अतिथि कक्ष में रणवीर सो रहा था । प्रेरणा का अुनमान था कि पूजा दीदी माँ से कुछ बातें करना चाहती हैं, इसलिये उसे वहाँ से कहीं अलग भेजना चाहती है, जहाँ माँ और पूजा दीदी बैठी हैं । अतः वह बिना किसी प्रतिवाद के वहाँ से चली गयी । वह अब माँ और पूजा दीदी के बीच होने वाली बातों में विघ्न नहीं डालना चाहती थी ।

जब वह उस कमरे में पहुँची, जहाँ पर रणवीर सो रहा था, तब उसने देखा, उसके जीजाजी न केवल जाग चुके थे, बल्कि खड़े हुए कौशिक जी से चलने की अनुमति मांँग रहे थे । कौशिक जी उनसे एक दिन रुककर जाने का आग्रह कर रहे थे और रणवीर रुकने में असमर्थता व्यक्त करते हुए कौशिक जी को विश्वास दिलाने का प्रयास कर रहा था कि उसे घर पर अति आवश्यक कार्य है, इसलिये रुकना संभव नही होगा । प्रेरणा दूर खड़ी हुई यह सब दृश्य देख-सुन रही थी । कौशिक जी और रणवीर की दृष्टि अभी तक उसके ऊपर नहीं पड़ी थी । प्रेरणा ने अब कमरे के अन्दर जाना उचित नहीं समझा और उल्टे पाँव लौट गयी ।

वापिस लौटकर प्रेरणा ने देखा, पूजा माँ से बातें कर रही थी, जैसा कि उसका पहले से ही अनुमान था । प्रेरणा को देखते ही पूजा ने बातें करना बंद कर दिया और वात्सल्य भाव से उसको अपने पास बिठाते हुए बोली-

‘‘क्या हुआ पिन्नु, बड़ी शीघ्र आ गयी ? तेरे जीजा जी उठे नहीं हैं क्या अभी ?’’

पूजा के प्रश्न के उत्तरस्वरूप उसने कमरे में जो देखा-सुना और अनुभव किया था, उस दृश्य का आँखों देखा वर्णन कर दिया । अपनी बात समाप्त करने के पश्चात् प्रेरणा ने देखा कि पूजा के चेहरे पर चिन्ता की रेखाऐं गहरी होती जा रही हैं और वह तत्क्षण भयातुर-सी होकर माँ से बोली -

‘‘माँ, मुझे आज ही, अभी इनके साथ जाना होगा ! यदि मैं आज इनके साथ नहीं गयी, तो बात और अधिक बिगड़ जायेगी !... और हाँ, मैने जो भी बातें आपके साथ की हैं, उन्हें किसी से मत कहना !... पिताजी से भी नहीं ।’’

‘‘परन्तु बेटी, तुम्हारे पिताजी को... !’’

‘‘माँ, प्लीज, किसी को भी नही !’’

‘‘पर क्यों ?’’

‘‘क्योंकि पिताजी को यह बातें सुनकर बहुत दुःख होगा ! यदि पिताजी को आपने कुछ बताया, तो पिताजी इस विषय में इनसे अवश्य बात करेंगे ! इन्हें यह बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगेगा कि मैंने आपसे इनकी शिकायत की है या इनके परिवार से सम्बन्धित कोई बात आपको बतायी है ! वैसे भी, इससे कुछ लाभ तो होने वाला नहीं है । पिताजी इन्हें कुछ कहेंगे, तो ये मुझसे नाराज होकर मुझे परेशान करेंगे ! फिर पिताजी और अधिक दुखी होंगे या इन पर क्रोध करेंगे ! इसलिए मैं नहीं चाहती हूँ, मुझे लेकर किसी को भी कोई परेशानी हो !... अब मैं जल्दी से तैयार हो जाती हूँ !’’

‘‘लेकिन बेटी,... ऐसे कैसे जा सकती है तू ? तेरे पिताजी को तो अभी तक तेरी कुशल-क्षेम पूछने का भी अवकाश नहीं मिला है !’’ माँ ने दुखी होकर कहा ।

‘‘नहीं माँ ! जब तक सम्भव हो सकेगा, पिताजी को मैं अपनी समस्याओं से दूर ही रखना चाहूँगी ! मैं अपने कष्टों को उनके समक्ष प्रकट करके उन्हें कष्ट नहीं देना चाहती हूँ ! पिताजी से बातें करूँगी, तो मैं अपने भावों को छिपा नहीं सकूँगी !’’

पूजा की बात समाप्त नहीं हुई थी, तभी कौशिक जी आ गये और बोले -

‘‘रमा, दामाद जी अभी जाना चाहते हैं ! हम तो कह रह थे कि एक-दो दिन रुककर जाएँ, परन्तु वे अभी शीघ्र ही जाने का आग्रह कर रहे हैं ! कह रहे हैं, घर में उन्हें कोई अत्यावश्यक कार्य है !... कार्य के प्रति लापरवाही करके भी रुकना उचित नहीं है, इसलिए हमने उन्हें रोकने के लिए अधिक आग्रह नहीं किया !’’

‘‘पिताजी जब से हम आये हैं, आप अपने दामाद से ही बातें कर रहे है, बेटी को तो जैसे भूल ही गये हैं !’’ पूजा ने बाल-सुलभ उलाहना देने की मुद्रा में कहा ।

पूजा को आभास हो रहा था कि रणवीर ने उसको अपने साथ ले जाने के बारे में कौशिक जी से कुछ नहीं कहा है, लेकिन फिर भी, उसे रणवीर के साथ जाना ही पड़ेगा ! उसका चित्त व्यथित था कि अपने पिता से कुछ समय बैठकर बातें भी नहीं कर सकी, इसलिए उनसे उलाहने भरे लहजे में बातें करके स्वयं ही अपने दोष-परिहार का प्रयास कर रही थी । कौशिक जी अपनी बेटी के उपालम्भ का अर्थ नहीं समझ पाये थे । वे अपनी स्वाभाविक मुद्रा में बोले -

‘‘बिटिया, पहले दामाद जी को विदा तो कर दें, उसके बाद तसल्ली से बैठकर आपके साथ बातें करेंगे ! हमने उनसे कह दिया है कि पूजा को हम कुछ दिन अपने पास रखना चाहते हैं !’’

कौशिक जी के आत्मविश्वासपूर्ण शब्दों को सुनकर रमा ने उनकी ओर आशा भरी दृष्टि से देखकर कहा-

‘‘तो क्या दामाद जी ने आपका आग्रह मान लिया है ?’’ पूजा की माँ उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी, जैसे पपीहा बारिश की प्रतीक्षा करता है ।

‘‘शायद मान ही गये हैं !... उन्होंने हाँ या ना में कोई उत्तर नहीं

दिया !’’

‘‘नहीं पिताजी ! उन्होंने हाँ या ना में उत्तर इसलिए नहीं दिया, क्योंकि वे शायद आपका आग्रह टालना उचित नहीं मानते ! परन्तु... !’’

पूजा के मुख से परन्तु शब्द को सुनकर कौशिक जी सोचने लगे कि शायद उन्होंने रणवीर के मौन का गलत अर्थ निकाल लिया है । वे असमंजस में पड़ गये.। उन्होंने रमा की ओर दृष्टि डाली, तो पाया कि उसका चेहरा भाव-विहीन और उदास था । यह देखकर कौशिक जी चिन्तातुर स्वर में बोले -

‘‘परन्तु क्या ?’’

‘‘परन्तु, पिताजी, मुझे आज ही इनके साथ जाना होगा ! वरना, मम्मी जी बहुत नाराज हो जायेंगी ! वे तो मुझे भेजना ही नहीं चाहती थी ! इनके बहुत आग्रह करने पर ही उन्होंने मुझे यहाँ इस शर्त पर भेजा है कि ये मुझे आज ही अपने साथ वापिस लेकर जायेंगे । इन्होंने चलने से पहले ही मुझसे यह वचन ले लिया था कि मैं इनके बिना कहे ही अपना दायित्व मानकर इनके साथ लौट जाऊँगी ! अन्यथा की स्थिति मे ये भविष्य में कभी भी मुझे यहाँ लेकर नहीं आयेंगे !’’

‘‘ठीक है बेटी ! मुझे प्रसन्नता है कि मेरी बेटी अपनी गृहस्थी को चलाने में निपुण होती जा रही है ! बस, इसी प्रकार अपने परिवार वालों को प्रसन्न रखना !’’

‘‘पिताजी ! मैं उन्हें प्रसन्न रख सकूँगी या नहीं, यह तो ईश्वर के अधीन है, परन्तु मैं अपने प्रयास में कोई कमी नहीं छोडूँगी !’’

कौशिक जी बेटी के पास आने के क्षण-भर पहले तक यही सोच रहे थे कि उनका दामाद बेटे से भी बढ़कर आज्ञाकारी है और उनकी बेटी ससुराल में स्वर्ग से भी अधिक सुखी है । परन्तु अब उन्होंने अनुभव किया कि उनकी बेटी ससुराल में जाकर सुखी कम तथा समझदार अधिक हो गयी है । उन्होंने यह भी अनुभव किया कि ससुराल वालों को उसके सुख की अपेक्षा अपने सुख की चिन्ता अधिक है । यदि ऐसा न होता, तो पूजा को कुछ दिन यहाँ रहने की अनुमति देने में उन्हें आपत्ति न होती !... बेटी का विवाह करते समय क्या-क्या सोचा था रणवीर के विषय में और उसके परिवार वालों के विषय में ! लेकिन आज... ? सोचते-सोचते कौशिक जी की आँखें भर आयी । कुछ क्षण सोचते रहे, फिर धीमें स्वर में एक-एक शब्द को चबाते हुए वे दृढ़ता के साथ बोले -

‘‘एक बात सदैव याद रखना बेटी, यह घर विवाह से पहले भी तुम्हारा अपना था, और भविष्य में भी तुम्हारा अपना ही रहेगा !... मैंने तुम्हारा विवाह किया था - तुम्हारी सुख-सम्पन्न गृहस्थी बसाने के लिए ! सामाजिक व्यवस्था का निर्वाह करने के लिए हम तुम्हारा बलिदान नहीं देेंगे ! तुम्हारी सासू माँ हो या तुम्हारा पति या अन्य कोई, तुम उन्हें उसी सीमा तक प्रसन्न रखने का प्रयास करोगी, जहाँ तक तुम्हें तुम्हारे जीवन को सुचारू रूप से जीने में कठिनाई न हो ; एक यथोचित सीमा से अधिक शारीरिक-मानसिक कष्ट न भोगना पड़े ! मैं नहीं चाहता हूँ कि तुम ससुराल में तुम इस सीमा तक शारीरिक और मानसिक यातनाएँ सहन करती रहो कि अन्त में जीने की सामर्थ्य ही खो बैठो !’’

पूजा अब तक अपने भावों को दबाकर रखे हुए थी । पिता की बातों को सुनकर उसकी आँखों से आँसू बहने लगे और गला रुँध गया । कुछ क्षणों तक अपना सन्तुलन बनाने का प्रयास करने के पश्चात वह आँखे पोंछती हुई बोली-

‘‘पिताजी, आपका प्यार और आशीर्वाद ही मुझे शक्ति देता है ! बस, आप मुझे आशीर्वाद दीजिये कि मैं दोनों परिवारों के मान-सम्मान और परस्पर सम्बन्धों को सहेज कर रख सकूँ !’’ कहते हुए पूजा अपने पिताजी के सीने से लिपटकर रोने लगी । पिता जी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा -

‘‘बेटी, मैं और मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ हैं ! कभी भी तुम अपने आपको अकेली मत समझना !’’

डॉ. कविता त्यागी

tyagi.kavita1972@gmail.com