सर्दियों का खिला हुआ समां था, जोरदार ठण्ड मे अमृत समान धुप अपने चरम ताप पर थी। खेती मे किसान जी तोड़ मेहनत कर रहे थे। उनकी औरते भी गीत गुनगुना कर अपने पतियों का उत्साह बढ़ाते हुए उनका हाथ बटा रही थी।
दूर तक फैली धुप मे चमकती फसले किसानो के दिलो को ख़ुशी से गुद गुदा रही हैं। पिछले दो वर्षो मे जो सूखा पड़ा और उसके कारण होने वाली मृत्यु का सारा शोक विलाप इस वर्ष की भारी ऊपज के निचे दब गया। किसान अपना दुख भूल कर सुख के आनंद मे डूबे हुए अपने काम मे व्यस्त थे।
तभी वहां पर राजा उतरा प्रताब सिंह की बग्गी आई।
जो भी किसान बग्गी को देखता उसका मुख मलिन हो जाता, लोगो के प्राण सुख से जाते, कियोंकि राजा उतरा की बग्गी के आने का उद्देश्य वहाँ मौजूद प्रत्येक व्यक्ति जानता था और वो था लगान, राजा के साथ उनके दोनों पुत्र चंद्र देव और अजय भी थे।
किसान राजा सहाब को झुक झुक कर प्रणाम करते जा रहे थे। और औरते खुद को घूँघट की आड़ मे ढकती जा रही थी।
राजा के लिए ये आदर सत्कार कोई उपकार नहीं, बल्की उसका अधिकार था। यदि कोई स्वम की इच्छा से राजा को आदर ना दे तो उसको दंड देकर ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाता।
राजा का खुद पर अहंकार इतना अधिक था के उसके चेहरे से साफ साफ दिखाई देता। अब एक जगह राजा जी की बग्गी जा कर रुक्की और राजा की बग्गी के पीछे घोड़े पर आता मुंशी, उतर कर एक मुनादी सुनाने लगा।
मुंशी " ये आदेश हमारे दयावान राजा उतरा प्रताब सिंह की ओर से लागु किया गया हैं। पिछले दो वर्षो से पड़े सूखे को मध्य नज़र रखते हुए हमारे राजा ने अपनी प्रजा पर दया दिखाई और लोगो को उचित समय आने पर अपना लगान भरने की मोहलत दी,
अब जब वो उचित समय आ गया हैं। तो प्रजा का भी कर्तव्य हैं। के वो अपने तीन वर्षो के लगान की पूर्ति कर अपने उच्च नागरिक होने का प्रमाण दे।
किसानो के बिच से एक गरीब किसान निकल कर आगे आया और बोला " मालिक दया करो यदि हम तीन वर्षो का लगान इकठ्ठा भरने लगे तो हमारी हड्डिया तक बिक जाएंगी
मुंशी " राजा सहाब ने ये निर्णय सोच समझ के लिया हैं। और वैसे भी जब आप सबकी हालत खस्ता थी तो राजा सहाब ने ही सबकी भरपूर सहायता की थी या नहीं और अब ज़ब लौटाने की बारी आई तो रोना पीटना शुरू कर दिया। ये सब नहीं चलेगा, अब चाहे मरो या मारो हम कुछ नहीं जानते।
इन सब बातो को एक किसान की बेटी सुन रही थी, दिखने मे वो अत्यंत रूपवती थी और बुद्धि मे अपने रूप से भी बड़ कर।
उससे ये अन्याय बर्दाश्त नहीं हुआ और वो तेज़ कटार के जैसे मैदान मे उतर पड़ी उसका नाम चन्द्रिका था।
चन्द्रिका " क्षमा कीजियेगा मालिक मगर मुझसे अब और देखा नहीं जाता, मैं आपसे जानना चाहती हुँ। क्या अपनी प्रजा का पालन पोषण करना एक राजा का कर्तव्य नहीं हैं। क्या राजा को अपने विचार न्याय के तराजू मे तोलकर व्यक्त नहीं करने चाहिए।
एक सच्चा राजा वो होता हैं। जो भगवान राम की भांति अपने कष्टों को अनदेखा कर प्रजा के सुख की चिंता करें ना की रावण के जैसे अपने स्वार्थ और लोभ को महत्व देने वाला भक्षक बने।
यदि प्रजा भूक से मर जाये तो कैसा राजा और कैसा राज्य रह जायेगा बोलिये। क्या कोई उत्तर हैं आपके पास?..
चन्द्रिका के भाषण ने किसानो के भीतर बगावत की चिंगारी सुलगा दी। उनके भीतर अन्याय से लड़ने की शक्ति पैदा कर दी और ये सब राजा उतरा प्रताब सिंह को किसानो की आँखों मे साफ दिख रहा था। राजा शातिर था उसको इतना समझ मे आ गया के इस समय कुछ भी बोलना उस पर भारी पड़ेगा तो उसने चन्द्रिका के आगे झूठा ढोंग किया।
राजा " बेटी आज तुमने मुझे समझा दिया के असली राजा का जन्म लोगो के हित और कल्याण के लिए होता हैं। मैं वचन देता हुँ। मैं इस बारे मे अच्छे से विचार करके नया नियम लागु करूँगा।
राजा की इस बात ने सब को अपने लपेटे मे ले लिया। सारा पासा पलट गया यहाँ तक की चन्द्रिका भी राजा के चकमे मे आ गई। अचानक चारो ओर राजा की जय जय कार होने लगी, और राजा मुँह पर मुस्कान और दिल मे बदले की भावना लिए वहाँ से चल दिया।
चंद्र देव पर चन्द्रिका के प्रेम का नशा सा चढ़ गया वो रात भर सोया नहीं केवल चन्द्रिका के बारे मे ही सोचता रहा।
वही राजा को भी आज चन्द्रिका के कारण रात भर नींद नहीं आई, लेकिन राजा को नींद ना आने का कारण प्रेम भाव नहीं बल्की अपमान का कड़वा अनुभव था। ज़ब ज़ब राजा उस घटना का स्मरण करता तब तब उसके सीने पर साँप से लौटने लगते।
अगले दिन प्रात काल चंद्र एक चरवाहे का भैस बना कर। साथ मे बकरियों का एक रेवङ ले कर, सीधा चन्द्रिका के खेतो मे घुस गया और सारी बकरियों को उन ताजी फसलों के ऊपर छोड़ दिया। उस समय तो जैसे बकरियों के लिए दावत सी हो गई थी वो फुर्ती से उन फसल को खाने मे जुट गई।
ज़ब चन्द्रिका की नज़र अपने खेत पर पड़ी तो वो आग बबूला हो कर भागती हुई अपने खेत मे आ गई।
वो झट पट बकरियों से अपने खेत की रक्षा के लिए भीड़ गई। पर सब व्यर्थ जाता आख़िर उस नाजुक अप्सरा मे इतना बल कहाँ।
चंद्र एक और खड़ा इस दृश्य का भर पुर आनंद ले रहा था साथ ही मन मे चन्द्रिका के हौसले की प्रशंसा भी करता के एक निर्बल कन्या होकर भी उसके अन्दर हार ना मानने की गज़ब क्षमता हैं। चन्द्रिका गिरती पडती चोट खाती पर बकरियों को खदेड़ने का हर सम्भव प्रयास करती,
अंत में ज़ब चंद्र को ये मजाक अधिक होता जान पड़ा। तो वो चन्द्रिका की सहायता करते हुए सारी बकरियों को खेत से बहार एक पेड़ से बांध देता हैं। चन्द्रिका चंद्र देव को धन्यवाद कर के बोली " पता नहीं किस कमीने का काम हैं। अगर वो मुझे मिल गया तो गेहूँ की तरह पीस डालू, वो तो भला हो भगवान का के आपको सही समय पर भेज दिया नहीं तो सारी फसल का सत्या नाश हो जाता।
चंद्र देव थोड़ा झिझकते हुए बोला " माफ़ी दीजियेगा मालकिन ई बकरियां हमार हैं।
चन्द्रिका चौक कर बोली " तुम्हारी.....???
चंद्र " जी हमरी।
वैसे चन्द्रिका जैसी तेज़ तर्रार युवती सामने वाले के कानो में से खून निकाल दे इतनी क्षमता रखती थी। पर चंद्र देव की शक्ल ने उसको दुविधा में डाल दिया उसको वो चेहरा जाना पहचाना लगा। पर उसको ये याद नहीं आया के एक दिन पहले ही राजा की बग्गी में उसको देखा था। इसकी एक बड़ी वजह ये भी थी के कल चंद्र राजाओं के भैस में था और आज एक मामूली चरवाहे के रूप में,
चन्द्रिका अपने दिमाग़ पर बेहद ज़ोर डालकर याद करने का प्रयास करती हैं। लेकिन उसको याद नहीं आता और वो बोली " मैंने आपको पहले कही देखा हैं।
चंद्र देव " का कहवत हो मालकिन हम ई गाऊँ में पहली बेर आया हैं। आपको कोनो भूल होवत हैं।
इतना बोल कर भेद खुल जाने के भय से चंद्र देव चुपके से खिसक लिया और चन्द्रिका अपनी ही उलझन में उलझी वहाँ मूर्ति के समान खड़ी रह गई।
अगले दिन तक चन्द्रिका को याद आ गया के चरवाहे को उसने कहाँ देखा था और ये चरवाहा युवराज चन्द्र देव सिंह था अब चन्द्रिका को इसमें किसी राजनितिक साजिश का संदेह हुआ। सत्य का भान तो दूर दूर तक उसके दिमाग़ में नहीं आया, उसने तय किया के बिना किसी को बताय इस साजिश को बेनक़ाब कर दिखाएगी।
अब प्रत्येक दिन चंद्र चरवाहे के रूप में मिलने आता और ये सोचता के चन्द्रिका को उसकी असलियत का ज्ञान नहीं हैं। वही चन्द्रिका जान बुझ कर अनजान बनने का अभिनय करती और चंद्र की गतिविधियों में बारीकी से ध्यान देती इसी प्रकार कुछ दिन में दोनों को एक दूसरे के दिलो का हाल मालूम हो चूका था
चन्द्रिका अपनी सोच पर शर्मिंदा थी और अबतक चन्द्रिका को भी चंद्र से प्रेम हो गया था वो जान चुकी थी के चंद्र उससे सच्चा प्रेम करता हैं। किन्तु दोनों के मन में एक भय सदैव बना रहता। जिस दिन राजा को पता चला उस दिन अनर्थ हो जायेगा। और एक दिन राजा को पता चल ही गया लेकिन राजा की प्रतिक्रिया उन दोनों की सोच से विपरीत निकली। उसने प्रसन्नता से ये विवहा स्वीकार कर लिया और एक उचित मोहरत देख कर अपने दोनों पुत्रो का विवहा एक ही दिन तय भी कर दिया।
जिस प्रकार हाथी के दाँत दिखाने के ओर, खाने के ओर, होते हैं। ठीक उसी तरह से राजा उतरा प्रताब सिंह की दिखाने की नीति कुछ और अपनाने की नीति कुछ ओर ही होती थी।
उसने प्रकट में तो लोगो को विश्वास दिला दिया के उसको इस विवहा से कोई आपत्ति नहीं हैं। किन्तु पीछे से ठीक विवहा से कुछ देर पहले बड़ी चालाकी से चन्द्रिका का अपहरण करवा कर उसको अपनी हवेली के तेखाने में जिन्दा दफ़न करवा दिया। और इसकी कानो कान किसी को खबर ना होने दी।
वही मंडप में बैठा चंद्र केवल प्रतीक्षा करता रहा और मोहरत निकल जाने के डर से अजय का अकेले ही विवहा करवाना पड़ा।
थोड़ी देर बाद किसी ने मंडप में ये अफवाह फैला दी के चन्द्रिका राजा द्वारा दिए भेट के जेवरों को लेकर किसी गैरमर्द के साथ भाग गई।
जब ये बात चंद्र के कानो तक पहुंची तो उसको अपना कलेजा निकलता मालूम पड़ा उसकी आत्मा ने उसको चन्द्रिका से प्रेम करने के लिए धिक्कारना शुरू कर दिया। तभी राजा अपने पुत्र को झूठा दिलासा देने के लिए उसके पास आ कर बोला " बेटा दिल छोटा मत करो, जो होता हैं। अच्छे के लिए होता हैं। यदि उस कुलटा से तुम्हारा विवहा सम्पन्न हो जाता तो वो हमें मुँह दिखाने लायक भी ना छोड़ती इसलिये मैं इन छोटी जात वालों पर कभी विश्वास नहीं करता।
ना जाने क्यों चंद्र को अपने पिता की बातें काँटों समान लग रही थी उसको अपने पक्ष में कही बातें भी विपक्ष में कहने जितनी चुभ रही थी। शायद इसलिये के वो चन्द्रिका से सच्चा प्रेम करता था और उसके दोखा देने पर भी उसकी बुराई सुनना उसके लिए असहनीय था। और वो अपने पिता की बातो के पूरा होने से पहले ही वहाँ से सीधा अपने कक्ष में जा बैठा। जहाँ वो फुट फुट कर रोया और सत्य से अज्ञात चन्द्रिका को दोषी मान बैठा।
विवहा के दो तीन दिन तक चंद्र देव सिंह अपने कक्ष से बाहर नहीं आया, नौकरो को उसको बुला लाने के लिए भेजा पर वो ना आया, प्रियजनो द्वारा बुलाने का भी उस पर कोई प्रभाव ना पड़ा यहाँ तक की उसके पिता ने भी उसको खूब बुलाया परन्तु वो नहीं आया।
मगर एक दिन उसने स्वप्न में चन्द्रिका को देखा। जिसमे वो उदास बैठी रो रही थी चंद्र देव ने दौड़ कर उसको अपनी बाजुओं में जकड़ लिया मगर चन्द्रिका ने उसको पीछे धकेलते हुए कहाँ " मुझे तुम से ये आशा ना थी के सत्य को जानने का प्रयास भी ना करके तुम मुझे दोषी मानोगे।
बस इसके बाद चन्द्रिका अदृश्य हो गई और चंद्र देव उसको पुकारता पुकारता जाग गया। वो पसीने में लत पत था। उसको खुद की सोच से घृणा हो रही थी।
अगले दिन वो अपने कक्ष से बहार आया। उसको बहार आते देख सब प्रसन्न हो गये। चंद्र देव ने पहले स्नान किया फिर पूजा पाठ और भोजन कर, गांव के लिए निकल पड़ा।
उसने चन्द्रिका के बारे में पूछ ताछ की, उसको कड़ी मेहनत करने पर केवल इतना पता चला के उसको हवेली से कोई लेने आया था पर कौन ये नहीं मालूम चल पाया।
अब चंद्र की समझ में सब कुछ स्पष्ट हो गया, वो जान गया इसके पीछे उसके पिता ने ही कोई षड्यंत्र रचा था पर उसको अब भी चन्द्रिका के जीवित होने का विश्वास था
मगर कुछ दिनों में उसका ये विश्वास भी टूट गया और एक रात क्रोध में आ कर वो अपने पिता के कक्ष में उसकी हत्या करने के लिए पंहुचा,
चंद्र देव चाहता तो अपने पिता को नींद में ही परलोक वासी बना सकता था पर चंद्र ने ऐसा नहीं किया, कियोंकि अब भी उसको कही ना कही लग रहा था के उसका पिता निर्दोष हो सकता हैं। चंद्र के मनो भाव उसके नियंत्रण से बहार थे। कभी वो पिता को निर्दोष मानता तो कभी वो उनको दोषी मानता, इसी कश्मकश में उलझा हुआ चंद्र एक धार दार खंजर लेकर अपने पिता की छाती पर बैठ गया और उसके बैठते ही राजा की आंखे खुल गई उस समय उसको अपनी छाती पर बैठा व्यक्ति अपना पुत्र नहीं बल्की आँखों में बदले की आग लिए अपना काल लगा। राजा भयभीत हो गया और बड़े ही करुणा भरे स्वर में बोला " बेटा ये तुमको क्या हुआ हैं।
चंद्र अपने पिता की गर्दन से खंजर को चिपका कर बोला " मैं जानता हुँ। मेरी प्रियतमा कभी भी मेरे साथ विश्वास घात नहीं कर सकती,
इसलिए मुझे जानना हैं। तुमने उसके साथ क्या किया
राजा " तुम्हे हो क्या गया हैं। भला मैं उसके साथ क्यों गलत करूंगा जबकि मैं तो खुद चाहता था के चन्द्रिका हमारे घर की बहुं बने, और तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो,
जिन हाथो ने तुम्हें पाला पोसा, इतना स्नेह दिया, निर्बल से बलशाली बनाया, उन हाथो से तुम्हारे लिए कुछ भी अनुचित हो सकता हैं।
इतना बोल कर राजा का गला भर आया और अंत में उसी रूद्र कंठ से वो बोला " यदि अब भी तुम्हारा चित संतुष्ट ना हुआ हो और अब भी तुम्हें मैं दोषी लगता हुँ। तो छीन लो मुझसे ये जीवन और मुक्त करो मुझको इस मायावी संसार से, यदि मेरे प्राण हरण करके तुम्हें संतुष्टि मिलती हो तो मेरे लिए इससे बड़ कर और क्या होगा,
चन्द्रिका के वियोग ने चंद्र को भीतर तक से तोड़ दिया था और अब उसके पिता ने उसके मन मैं खुद के प्रति अपमान भर दिया, चंद्र को लगा के धिक्कार हैं। मुझ पर जो मैं अपने देवता समान पिता पर ऐसी घिनौनी लांछन लगा रहा था वो अपने पिता के ऊपर से हट कर उनके चरणों मे जा गिरा और फुट फुट कर रोते हुआ क्षमा याचना करने लगा।
तभी चंद्र की पिट पर किसी ने खंजर से जोरदार वार किया। ज़ब चंद्र देव ने किसी प्रकार अपना सर उठा कर उप्पर देखा, तो वो वार करने वाला और कोई नहीं उसका पिता ही निकला, चंद्र के पिता ने अगला वार उसकी छाती मे किया और चंद्र के कानो के पास जा कर बोला " कुत्ते, नीच, तू अपने पिता के ही प्राण निकालने के लिए आ गया, वो भी उस छिनाल के लिए जिसको मैंने अपने तेखाने मे जिन्दा चुनवा दिया था। पता हैं। उसकी दर्द भरी चीखे मुझे कितना आंनद दे रही थी। इतना जितना इस समय तेरा वध करने पर मुझे मिल रहा हैं।
और सुन आज से सारी दुनिया तुझपर थूके गी कियोंकि मे सब को बताऊंगा के कैसे तूने मुझे मारने का प्रयास किया और अपने बचाओ मे मुझे तेरा वध करना पड़ा जिसका दुख मेरे लिए अपार पीड़ा दायक था।
इतना बोल कर वो दुष्ट कपटी राजा एक और वार कर के चंद्र की आँखे बंद कर देता हैं।
और अगले ही क्षण अविनाश एक लम्बी सांस खींच कर अपने बिस्तर पर जाग जाता हैं। इस अनुभव से अविनाश ऐसे हाफ रहा था जैसे कोई गोता खोर एक लम्बे और गहरे गोता लगाने के बाद बहार आ कर हाफने लगता हैं।
अविनाश को सब कुछ याद आ गया उसका रोम रोम अपने पुनर्जन्म की भावनाओं से भर उठा। उसके भीतर एक साथ कई भावनाओं का सैलाब सा उठने लगा।
वो गुम सुम सा खोया हुआ अपने कक्ष से बहार निकला तो उसको अपने सामने खड़ी वो चन्द्रिका नाम की नौकरानी दिखी,
अविनाश की नज़र नौकरानी चन्द्रिका पर पड़ी, उसका रंग रूप उसके नैन नक्श पूर्वजन्म की चन्द्रिका से बिल्कुन भिन्न थे किन्तु अविनाश को उसके अंग अंग से चन्द्रिका की मोहक सुगंध आ रही थी उसका हृदय सामने खड़ी चन्द्रिका के लिए झट पटा रहा था उसने दौड़ कर चन्द्रिका को अपनी मजबूत बाहो मे जकड़ लिया।
चन्द्रिका ने भी अपने हाथो से अविनाश को जकड़ लिया, दोनों की आँखो से प्रेम मिलाप के आंसू बहने लगे।
अविनाश " अब मैं तुम्हे अपने से दूर कभी ना जाने दूंगा। अब और अधिक वियोग पीड़ा की सहनशक्ति मुझमें नहीं हैं। चन्द्रिका
चन्द्रिका " मेरे लिए भी तुमसे बिछड़ने का दुख और नहीं सहा जाता किंतु विधि के विधान का निर्णय ही अंतिम निर्णय होता हैं।
अविनाश "मतलब??
चन्द्रिका " जिस प्रकार से तुम्हारा दूसरा जन्म हुआ हैं। उस तरह से दूसरे जन्म का सौभाग्य मेरे भाग्य मे नहीं लिखा था।
अविनाश " आख़िर तुम कहना क्या चाहती हो, मेरी समझ मे कुछ नहीं आ रहा हैं। तुम्हें मैं अपने सामने जीवित देखता हुँ। क्या ये मेरा भ्रम हैं। क्या ये वास्तविकता नहीं हैं।
चन्द्रिका " जो तुम्हें दिखाई दे रहा हैं। वो वास्तव मैं हुँ। किन्तु ये शरीर मेरा हिस्सा नहीं, केवल तुमसे मिलने का एक साधन हैं। जिसके भीतर कुछ समय के लिए मेरी आत्मा ने शरण ली हैं।
मेरी मृत्यु पश्चात् मेरा अंतिम संस्कार नहीं किया गया, जिसके कारण मैं बदले और क्रोध की भावना से भरी इस लोक मे भटकती हुई एक प्रेत आत्मा बन कर रह गई। मगर अब मुझे तुम मुक्त करोगे।
इससे बड़ कर सौभाग्य की बात मेरे लिए और क्या होगी की मुझे मेरे प्रेम द्वारा मोक्ष मिलेगा।
इन बातो से अविनाश को जिस सत्य का आभास हुआ उसकी कल्पना मात्र से उसका दिल देहल उठा और वो दया और प्रेम के मिले जुले स्वर मे बोला " मेरे लिए मेरी मृत्यु से अबतक की यात्रा एक नींद समान थी जिसकी तुलना मे वर्षो तक असहाय प्रेत रूप मे तुमने निरंतर प्रेम वियोग के दुख का अकेले भार उठाया।
इस दुख भरी अवधि के कष्टों की कल्पना भी मेरे लिए दर्दनाक हैं। और अब तुम्हे थोड़े समय प्रेम सुख भोगने का अवसर स्वयं ईश्वर ने दिया हैं। तो तुम क्यों कर इसका त्याग करने पर तुली हो।
मैं तुम्हे कैसे जाने दे सकता हुँ। मेरे लिए ये करना असम्भ हैं। ठीक उतना ही जितना एक भक्त के लिए अपने ईश्वर की मूर्ति तोड़ना।
चन्द्रिका " मेरे कारण तुम एक बार मारे गये हो। अब मैं ये दोबारा होने नहीं देना चाहती, पहले मे असहाय थी निर्बल थी सब कुछ मेरे बस से बहार था किंतु इस बार मैं इसको रोक सकती हुँ। ईश्वर ने मुझे तुम्हारी रक्षा का एक अवसर प्रदान किया हैं। जिसे मे व्यर्थ नहीं होने दूंगी।
अविनाश " कैसी मृत्यु कैसा अवसर मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा ये तुम क्या कह रही हो, भला मेरी जान को किस्से खतरा है।
चन्द्रिका " इस हवेली मे मेरे अतिरिक्त एक और आत्मा हैं। जो मुझसे भी अधिक बलवान हैं। उस प्रेत ने अपनी हत्या के समय तुम्हारे वंश का सर्वनाश कर देने की सौंगंध खाई थी जिसको पूरा करने के लिए वो कुछ भी कर सकता है।
अविनाश " क्या...? कौन हैं। वो, किसकी बात कर रही हो,
चन्द्रिका इससे आगे कुछ और बोलती के वहाँ पर किसी ने अविनाश के सर पर किसी भारी वस्तु से वार कर उसको मूर्छित कर दिया, चन्द्रिका बुरी तरह से घबरा कर अविनाश को जगाने की कोशिश करने लगी तभी उस वार करने वाले ने चन्द्रिका के ऊपर भी हमला कर दिया।...........
अजाब सिंह को यादव और उसकी पत्नी ने सारी घटना विस्तारपूर्वक बता दी, पर अजाब एक ऐसी न्याय व्यवस्था का नौकर था जहाँ अफवाहों और भुत प्रेत के लिए कोई स्थान नहीं,
वो तो केवल तर्क और सबूतों के आधार पर ही चलता हैं। और इस समय सभी तर्क सारे सबूत यादव के विरोध मे थे।
इसलिए अजाब को विवश हो कर यादव को हिरासत मे लेना पड़ा इस पूरी कारवाही मे एक पूरा दिन ढल गया।
अगले दिन प्रातकाल अजाब दिलबाग और अविनाश के लिए उस हवेली की ओर निकल गया,
अपने घर से निकलते समय से लेकर हवेली पहुंचने तक अजाब दिलबाग को लगा तार कॉल करता रहा मगर दिलबाग का फोन सिर्फ रिंग करता, उसको कोई उठाता नहीं।
हवेली पर पहुँच कर अजाब सिंह ने हवेली के अन्दर और बहार दूर दूर तक खौफनाक सन्नाटा पाया, वो बड़ी सावधानी से हवेली के भीतर दीवार को फाँद कर घुस गया, अजाब नहीं चाहता था के किसी को उसके आने का पता चले इसलिए वो बड़े ही धीमी गति मे अपने कदम बढ़ाता जा रहा था तभी उसके पैरों के निचे किसी चीज़ के आने से कट की आवाज हुई।
इस आवाज से विचलित हो कर कुछ क्षण के लिए अजाब रुका फिर धीरे से अपने पैर को उठाते हुए उसके निचे गिरी चीज़ को अपने हाथो से उठाया, जिसे देख कर अजाब का खून सुख सा गया,
कियोकि अजाब के पैरों के निचे आई चीज़ दिलबाग सिंह का फ़ोन था,
केवल फोन मिलने से अजाब इतना अधिक गभीर नहीं होता जितना अब था उसको तो वो फोन खून से सना हुआ मिला था, अजाब ने एक बार पुष्टि करने के लिए अपनी जेब से अपना फोन निकाल कर दिलबाग को कॉल की और वो कॉल उसको मिले फोन पर बजने लगी।
इन सब को देख कर अजाब को किसी अनहोनी की शंका हुई। और वो घबराते हुए आगे की ओर बड़ चला,