अजाब सिंह को जी तोड़ मेहनत करने के बाद ज्ञान चंद का पता चलता हैँ |
अजाब को ज्ञान चंद से भारी उम्मीदे थी उसको लगता था यही एक मात्र कड़ी हैँ | जो इस पहेली को सुलझा सकती हैँ |
मगर वहाँ पहुँच कर पता चला, के दो वर्ष पूर्व ही सेठ ज्ञान चंद का स्वर्ग वास हो गया हैँ |
इस दुखद समाचार ने अजाब को काफ़ी निराश कर दिया था, किन्तु इस निराशा के अंधकार मे भी अजाब को एक आशा की लौ नज़र आ गई,
जिस प्रकार से डूबते को तिनके का सहारा होता हैँ | ठीक उसी प्रकार से अजाब को वो तिनका ज्ञान चंद का बेटा फ़क़ीर चंद लगा,
और ये सोच कर के संभवत ज्ञान चंद के बेटे से भी कोई ऐहम जानकारी मिल सकती हैँ |
अजाब ने फ़क़ीर चंद से बातचीत शुरू कर दी,
अजाब " मुझे आपके पिता का दुख हैँ | लेकिन मैं जिस काम के लिए आया था हो सकता हैँ आप मेरी उसमे कुछ मदद कर सकते हो
फ़क़ीर चंद " मैं??.... भला मैं आपकी क्या मदद कर सकता हुँ सर
अजाब " हाँ आप.... क्या आप अपने पुराने घर के बारे मे कुछ बता सकते हैँ |
फ़क़ीर " कही आप हमारे पुश्तैनी घर के बारे मे बात तो नहीं कर रहे हो,
अजाब " हाँ वही घर... असल मे मुझे उसकी जानकारी चाहिए जिसको आपके पिता ने वो घर बेचा था,
फ़क़ीर " सर उस समय मे बहूत छोटा था इसलिए कुछ विशेष याद नहीं हैँ, हाँ एक बात तो पक्की हैँ |
के पिता जी को वो घर आपने प्राणो से भी अधिक प्रिय था वो उसको कभी नहीं बेचते यदि.....?
इतना बोल कर फ़क़ीर चंद रुक जाता हैँ, और उसकी बात को पूरा करने के लिए अजाब आगे बोल पडता हैँ |
अजाब " यदि उनको आर्थिक समस्या ना हुई होती,
फ़क़ीर " नहीं नहीं.... ऐसा नहीं था सर ईश्वर की कृपा से हमारा कारोबार हमेशा से दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की करता आया हैँ !
अजाब " तो उस घर को बेचने की क्या वज़ह थी??...
फ़क़ीर " सर यही तो मैं आज तक समझ नहीं पाया उन्होंने ऐसा क्यों...? किया...
हर बार उनसे पूछने पर वो बड़े ही भावुक हो कर कहने लगते थे एक मित्र के कर्ज और कर्तव्य से मुक्त होने के लिए मैंने ऐसा किया और इस पर मुझे गर्व हैँ |..
इतना बोलते ही फिर रोना शुरू कर देते इसलिए कुछ समय बाद हमने उनसे पूछना ही बंद कर दिया,
और उनको वो घर छोड़ने का ऐसा सदमा लगा, के उनको एक घातक बीमारी हो गई जिसको एक लम्बे समय तक भोगने के बाद दो वर्ष पूर्व उनका दिहंत हो गया,
अब अजाब का और कुछ पूछना व्यर्थ था इसलिए वो फ़क़ीर चंद से विदा लेकर वहाँ से रवाना हो गया,
पता नहीं अजाब को उसके सवालों के जवाब मिले थे या नहीं या इन बातो ने उसको और उलझा दिया था,
अजाब गुमसुम सा थाने मे पहुंच कर कांस्टेबल दिलबाग सिंह को आवाज़ लगाता हुआ अपने केबिन मे चला गया,
(दिलबाग सिंह वही कांस्टेबल हैँ ! जिसको अजाब ने सुभाष की खोज मे कुछ रोज पहले भेजा था, )
अजाब के केबिन मे दिलबाग सिंह की जगह नोखा राम घुसा और बोला " साहब दिलबाग सिंह तो उस दिन से थाने नहीं आया जिस दिन आपने उसको सुभाष की खोज खबर के लिए उस वीरान हवेली पर भेजा था,
अभी तक अजाब अपने काम मे इतना व्यस्त था के उसको दिलबाग की कोई सुध ही ना थी लेकिन अचानक मिली इस सुचना ने अजाब के सर से उस केस का भुत निकाल कर पटक दिया
अब अजाब की चिंता दिलबाग सिंह की ओर झुक गई, वो हड़बड़ाती जुबान मे बोला " क्या तुमने उसके घर किसी को नहीं भेजा क्या पता वो घर पर हो..?
नोखा "साहब उसकी घरवाली खुद कल रात थाने मे आई थी बिचारि बड़ी परेशान थी पर मैंने उसको समझा बुझा कर भेज दिया
इतना सुन अजाब के होश उड़ से गए थे वो एक पल कुछ सोच मे डूब जाता हैँ | फिर अचानक फुर्ती से अपना फ़ोन जेब से निकाल कर तुरंत दिलबाग को मिला दिया मगर उसका नंबर स्थाई रूप से सेवा से बाहर था, ये सब नोखा राम देख रहा था | और अजाब को कॉल करते देख तुरंत बोल पड़ा " हुजूर दिलबाग को कॉल करने का कोई लाभ नहीं हैँ | मैं सुबह से कोशिश कर रहा हुँ | मगर कोई फायदा नहीं हुआ............
अगले दिन अविनाश रात भर सो ना पाने के कारण संध्या समय मे उठता हैँ ! उसका बदन चूर चूर था,
भर पुर नींद लेने पर भी उसकी थकान नहीं उतरी थी, वो संध्या समय को देख कर बड़ा ही विचलित हो जाता हैँ ! और मन मे सोचता हैँ |
" ना जाने रात मेरे साथ क्या हो गया था जरूर इस घर मे प्रेत आत्माओ का वास हैँ | मुझे यहाँ और रुकना उचित नहीं लगता सुभाष को लेकर रात होने से पहले यहाँ से निकलना होगा, पर सुभाष जाने को राज़ी नहीं होगा और मैं बोलू भी तो क्या के इस हवेली मे भुत हैँ ! वो पहले ही इन बातो पर विश्वास नहीं करता, मगर मैं करू भी तो क्या उसको जान बुझ कर इस मौत की हवेली मे रहने भी नहीं दे सकता आखिर वो मेरा छोटा भाई हैँ ! जो भी हो मैं उसे ले चलूँगा उसे जाना ही होगा उसको मेरी बात माननी ही होंगी और मानेगा क्यों नहीं मैं उसका बड़ा भाई हुँ !
बस इसी प्रकार की बातें सोच अविनाश पुरे जोश के साथ सुभाष के पास चल दिया,
किन्तु सुभाष के नए नए आय रोब दार रूप के सामने आते ही अविनाश का जोश ठंडा पड़ गया
फिर भी अविनाश ने हिम्मत करके बोल ही दिया
" सुभाष मुझे लगता हैँ | तुम्हारा ये पागल पन बहुत हो गया अब हमें घर चलना चाहिए '
सुभाष मुस्कान संग ताने कस्ते हुए बोला
" कितने भोले हो आप इतना भी नहीं जानते के सदियों से हमारा असली घर यही हैँ और अब हमेशा के लिए यही रहेगा,
अविनाश चौक कर बोला
" मतलब....???
सुभाष फिर से बात को काट कर मजाकिया अंदाज़ मे बोला
" हाँ हाँ..... भाई आपके चेहरे का रंग देखने लायक हैँ ! मैं तो मज़ाक कर रहा था,
लेकिन ये बात पक्की हैँ ! के मैं इस हवेली के ऊपर लगे कलंक को मिटाये बगैर यहाँ से नहीं जाऊंगा,
अविनाश " कलंक कैसा कलंक?????
सुभाष " अरे यही की ये हवेली भूतिया हैँ ! कियोंकि इस कलंक को मिटाये बिना ये हवेली नहीं बिक सकती, तो जबतक मैं ये काम पूरा ना कर लू मैं कही नहीं जाऊंगा अगर आपको जाना हैँ | तो बेशक़ जा सकते हैँ |
अविनाश को जो शंका थी वो सच निकली, वो समझ गया के सुभाष को ले जाना बड़ा मुश्किल हैँ | बिना ये साबित किये के वास्तव मे भूतों का अस्तित्व होता हैँ बिलकुल असंभव हैँ!
अविनाश के लिए भय से भी बड़ कर भाई का प्रेम था, जिसके कारण उसको वहां रुकना पड़ा, और वो अपने भाई को इस नरभक्षक हवेली मे अकेला छोड़ के कैसे जा सकता था, मगर उसने तय कर लिया के सुभाष को सच का आइना जरूर दिखाएगा, भल्रे ही उसकी जान पर क्यों ना बन आये,
अविनाश को रुके हुए दो तीन दिन हो चुके थे इस बिच कोई खास घटना नहीं हुई हा अविनाश को कई बार चन्द्रिका की हरकते कुछ अजीब सी लगती थी पर इन बातो का भी उसपर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, इन हालातो मे अविनाश कभी ना रुकता यदि सवाल उसके भाई का ना होता | एक रात को हवेली मे सब अपने अपने कक्ष मे सोए हुए थे पर अविनाश को बड़ी बेचैनी सी थी उसको बहुत कोशिश करने पर भी नींद नहीं आ रही थी,
लगभग रात के 12 बजे अवि सिगरेट पिने के लिए खुले आँगन मे आ कर खड़ा हो गया,
चारों ओर ख़ामोशी का सम्राज्य छाया हुआ था वहां पर इतनी शांति थी के रात के कीड़ो मकोड़ो की सरसराहट किसी वन पशु की गरगराहट के जैसी खौफनाक लग रही थी तभी अविनाश की नज़र आँगन के दूसरी ओर फैली जंगली झाड़ियों पर पड़ी वो बिना हवा के ऐसे हिल रही थी जैसे कोई उसमे आ कर छुपा हो |
अविनाश की धड़कन तेज हो गई वो धीरे धीरे अपने कांपते पेरो से झाड़ियों की ओर बढ़ने लगा !
वो झाड़ी के काफ़ी नज़दीक पहुंच गया था अब अविनाश को झाड़ी के पीछे से किसी के फुसफुसाने की आवाजे आने लगी जिसको सुन अविनाश का दिल और भी तेज हो गया, वो एक पल के लिए रुक कर अपना हौसला मजबूत करता हैँ ! और जैसे ही वो झाड़ी के पीछे देखने वाला होता है | के पीछे से अविनाश के कंधे पर कोई हाथ रखता हैँ | (अविनाश का उस समय क्या हाल हुआ इसको शब्दों मे बया करना संभव नहीं हैँ !
हाँ उसकी प्रतिक्रिया किसी मृत को जीवित देखलेने वाले व्यक्ति के जैसी थी |)
अविनाश अपने पीछे रखे हाथ के खौफ से उछल पड़ा पर मुड़ते ही उसने एक लम्बी चैन की सांस ली कियोकि हाथ रखने वाला सुभाष था जिसे देख कर अविनाश बोला "
ओफ्फो सुभाष तुम ने तो मेरी जान ही निकाल दी...
ऐसे भी कोई करता हैँ भला....
लेकिन सुभाष तुम इस समय यहाँ क्या कर रहे हो,
सुभ " यही बात आपसे यहाँ पूछने आया हुँ |
अवि " कमरे मे मेरा दम सा घुट रहा था इसलिए नींद नहीं आ रही थी फिर सोचा बाहर खुले मे आ कर आराम मिलेगा, सो आ गया !
सुभाष " नींद तो मुझे भी नहीं आ रही, चलिए आपको कुछ दिलचस्प चीज दिखाता हुँ |
ये बोल कर सुभाष अविनाश को अपने पीछे आने का संकेत कर आगे बड़ गया, फिर हवेली का आधा चक्कर लगा कर पीछे के हिस्से मे लेजाता हैँ !
जहाँ पर एक बड़े तेखाने मे जाने का रास्ता था और सुभाष के पीछे पीछे अविनाश भी बेफिक्र हो कर उसके भीतर घुस जाता हैँ !.....