मंजूषा Pushp Saini द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मंजूषा

कहानी -- मंजूषा✍🏻

उसकी आँखें और मुस्कराहट हमेशा से इतनी रहस्यमयी नहीं थी लेकिन जबसे उनके कमरे में वह जड़ाऊ पिटारा आया था तब से वह खुद भी रहस्यमयी हो गई थी ।सभी जानते थे कि वह उस पिटारे को खोलकर नहीं दिखाएंगी क्योंकि वह सभी के इस आग्रह को ठुकरा चुकी थी ।यहाँ तक की जिन पोते-पोतियों पर वह इतना स्नेह लुटाती थी ,उनको भी उस पिटारे से दूर ही रहने को कहती ।वैसे भी नजदीक जाकर कोई कर भी क्या सकता था,उन्होनें उस पर ताला जो लगा रखा था वर्ना उनका रहस्य अभी तक रहस्य न रहता ।

वह तीन बेटों की माँ थी,अब यही उनकी पहचान थी ।कल्याणी की दुनियाँ पति और बच्चों में ही सिमटकर रहती थी ।कल्याणी के पति विष्णुकांत जल विभाग में कार्यरत थे ।उन्होनें तीनों बेटों को उच्चशिक्षा दिलवाई तथा उन्हें अपनी क्षमताओं के मुताबिक़ पद मिल गए ,फिर तीनों बेटों की शादी कराकर अपनी इस जिम्मेदारी को भी उन्होनें पूरा कर दिया था ।विष्णुकांत जहाँ प्रत्येक कार्यों में कल्याणी के साथ-साथ बेटे-बहुओं से सलाह-मशविरा करते तो दूसरी तरफ कल्याणी भी बहुओं को बेटियों जैसा स्नेह व सम्मान देती ।दोनों बुजुर्ग पोते-पोतियों के साथ व्यस्त रहते ।इसी तरह परिवार के साथ दिन हँसी-खुशी में गुजर रहे थे लेकिन एक दिन अचानक सड़क दुर्घटना में विष्णुकांत का देहान्त हो गया ।उसके बाद तो जैसे कल्याणी का जीवन ही बदल गया ।

उसने समय के साथ अपने आपको सम्भाला व फिर से बच्चों के साथ मन लगाने की कोशिश करने लगी लेकिन कल्याणी ने महसूस किया कि बेटे और बहुओं का व्यवहार अब बदल गया हैं ,न तो कोई उससे सलाह लेना पसंद करता और न ही बात करना, सब अपने-अपने काम में लगे रहते ।

वह प्रतिदिन सोचती कि उसके बेटे आॅफिस से आकर कुछ समय उसके पास बैठेंगे लेकिन वह उसके कमरे में झांकते तक नहीं थे ।

ऐसे ही अन्यमनसकता के साथ दिन बित रहे थे कि कल्याणी एक दिन अपने मायके से लौटी तो वहीं जड़ाऊ पिटारा उसके साथ था ।रंग-बिरंगी मीनाकारी से वह बहुत सुन्दर दिखता था ।कल्याणी ने वह पिटारा अपने कमरे में रखा और उसपर लगे ताले की चाबी हमेशा अपनी साड़ी के पल्लू से बांधकर रखती ।

एक दिन सभी बैठकर बातें कर रहे थे तब आदित्य ने कहा --"माँ ! आप बता क्यों नहीं देती उस बाक्स में क्या हैं" ?

कल्याणी --"वो बाक्स नहीं मंजूषा है " ।

सागर ने हैरानी से पूछा --" दादी माँ ये मंजूषा क्या होता है ?"

कल्याणी --"जिसमे हम पत्र वगैरह सम्भालकर रखते हैं या कोई कीमती वस्तु, उस पिटारे को हम मंजूषा कहते हैं " ।

छोटी बहु ने जिज्ञासावश पूछा --"तो क्या हैं उसमे ,पत्र या किमती वस्तु "?

मंझली बहु ने तपाक से कहा --" जब ताला लगा है तो कोई कीमती वस्तु ही होगी न "।

कल्याणी ने मुस्कुराते हुए कहा --"तुम ठीक कहतीं हो कीमती वस्तु ही है "।

सरगम ने मचलते हुए कहा --"दादी माँ ! क्या कीमती वस्तु है, वो आप किसे देंगी "?

कल्याणी ने कहा --"अक्सर लोग अपनी सबसे कीमती वस्तु उसे देते हैं जिसे वो सबसे ज्यादा प्यार करते हैं लेकिन मैं अपनी कीमती वस्तु उसे दूंगी जो मुझे प्यार करेगा ।आखिर मुझे अपने परिवार के सदस्यों से प्रेम और सम्मान के सिवा और चाहिए भी क्या "।

उस दिन के बाद घर के प्रत्येक सदस्यों का उनके प्रति व्यवहार व नजरिया ही बदल गया ।पहले जहाँ सब उनसे कटे-कटे रहते थे,वहीं अब सभी उनका ख्याल रखने लगे ।पहले तीनों बेटे आॅफिस से आते ही थकान का बहाना बनाकर अपने कमरों में चले जाते थे वहीं अब उनका हाल-चाल और जरुरते पूछने उनके पास जाते ।तीनों बहुओं में भी होड़ लगी रहती कि सबसे ज्यादा उन्हें कौन खुश रख पाए ।कोई उनकी पसंद का खाना बनाती,कभी उनसे कोई सलाह-मशविरा लेती तो कभी उनके साथ बैठकर पुरानी बातों व किस्से कहानियों का लुफ़्त उठाती ।

कई साल ऐसे ही खुशहाली में व्यतित करने के बाद एक दिन वह भी आया जो कल्याणी के जीवन का अंतिम दिन था ।क्रिया-कर्म करने के बाद जब सब रिश्तेदार चले गए तब बड़ी बहु ने कहा --"अब तो हमें उस पिटारे को खोलकर देख लेना चाहिए "।

सुधीर ने कहा --"हाँ, माँ भी यहीं चाहती थी कि क्रिया-कर्म के बाद उसे खोला जाए "।

सभी उस पिटारे के इर्द-गिर्द खड़े हो गए ।आदित्य ने वह पिटारा खोला तो सभी दंग रह गए ।उसमे एक पत्र रखा था जो कल्याणी ने परिवार के सदस्यों के लिए लिखा था ।

आदित्य पत्र पढ़ने लगा व सब ध्यानपूर्वक सुनने लगे ।

कल्याणी ने लिखा :-- मेरे बच्चों तुम इस मंजूषा के खुलने के बाद हैरान हो गए होंगे ।मैं जानती थी मेरे जीवन के चंद साल ही बाक़ी हैं उन्हें मैं अपने परिवार के साथ खुशहाली से बिताना चाहती थी लेकिन मेरी तरफ देखने का किसी के पास वक्त ही नहीं था ।मैं कुछ चाहती थी तो बस परिवार का साथ और प्यार लेकिन मैं अब एक अनचाही वस्तु बन गई थी,जिसकी किसी को जरूरत नहीं होती तब मैने कीमती वस्तु बनना जरूरी समझा ताकि तुम सब खुद ही मेरे करीब आ जाओं लेकिन रही तो मैं तब भी वस्तुमात्र ही ।जहाँ तक धन-दौलत की बात है वह सब तो तुम्हारे पिता जी जीते जी तुम सबको सौंपकर चले गए ,जिसे तुमने बड़े प्रेम से सहेजा भी ।एक मैं ही रह गई थी जिसे वह छोड़कर गए और किसी ने सहेजना जरूरी नहीं समझा ।वह परिवार परिवार नहीं कहलाता जहाँ प्रेम और अपनापन न हो और मैने वह मंजूषा की वजह से पा लिया ।मेरा आशीर्वाद तुम सबके साथ रहेगा ,तुम लोग हमेशा सुखी रहो ।
तुम्हारी माँ

पत्र सुनने के बाद सब एक-दूसरे के मुँह की तरफ ताक रहे थे ।वह कभी अपने आपको लज्जित महसूस करते तो कभी ठगा हुआ ।

पुष्प सैनी