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एक जिंदगी - दो चाहतें - 43

एक जिंदगी - दो चाहतें

विनीता राहुरीकर

अध्याय-43

सुबह अपने समय पर परम की आँख खुल गयी। आज उसे अर्जुन की याद आ गयी। छ: दिन हो गये थे परम को यहाँ आए पर उधर के कुछ हालचाल ही नहीं लिये थे उसने अभी सुबह के पाँच बजे थे। परम ने सेाचा सात बजे वह अर्जुन को फोन लगाएगा। अभी तो वह सो रहा होगा या फिर आफिस जाने की तैयारी कर रहा होगा। परम वॉशरूम में जाकर फे्रश हो आया। तनु अभी तक सो रही थी। परम उसके पास बैठ गया। उसके शरीर की बॉयोलॉजी आजकल हर पल बदलती रहती थी। कभी उसे रात में देर तक नींद नहीं आती तो कभी किसी दिन सुबह जल्दी उठ जाती है। उसका चेहरा भी रोज नया सा लगता। उसके अंदर पलने वाली जान अपने साथ ही जैसे अपनी माँ की भी नित नयी रचना कर रही थी।

छ: बजे तनु की नींद खुली। उसने मुस्कुराकर परम को देखा और दस मिनट उसकी छाती पर सिर रखकर लेटी रही।

''भूख नहीं लगी आज मेरे सोना को?" थोड़ी देर बाद परम ने पूछा।

''नहीं, कल रात में कितना तो खा लिया था। पेट अभी तक भरा हुआ है।" तनु ने जवाब दिया।

''चल उठकर मुँह हाथ धो ले मैं चाय बनाता हूँ तब तक।"

तनु उठ गयी। उठकर उसने चादरों को तह करके रखा और बिस्तर की चादर ठीक करके बाथरूम में चली गयी। जब वह नीचे पहुँची तब तक परम चाय बना चुका था।

''साथ में क्या खाओगी?" परम ने उसे पूछा।

''अभी तो कुछ मन नहीं है।" तनु बोली।

''खाली पेट तो चाय पीना ठीक नहीं जो मन हो थोड़ा बहुत ही सही खा लो।" परम ने एक प्लेट में थोड़े से मेवे निकाले, कुछ मल्टीगे्रन बिस्किट रखे और चाय की ट्रे लेकर बगीचे में आ गया।

सात बज गये थे। परम ने तनु से थोड़ी देर ताजी हवा में बैठे रहने को कहा ओर खुद अंदर आकर अर्जुन को फोन लगाया। जैसे ही अर्जुन ने फोन उठाया वह परम की आवाज सुनकर खुश हो गया। परम ने उससे पूछा कि वहाँ हालात कैसे हैं। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है कि नहीं।

''हाँ यहाँ सब ठीक-ठाक है सर। आप यहाँ की चिंता मत करिये आप बस भाभी का ध्यान रखिये। यहाँ अभी सब सिचुएशन नॉर्मल है। रोज की पेट्रोलिंग, ड्यूटी और रूटीन वर्क चल रहा है।" अर्जुन ने बताया।

''फिर भी हर समय चौकन्ना रहना। अनील, विक्रम, शमशेर को हमेशा साथ रखा करना। इन (-)" परम ने एक बुरी गाली मुँह से निकाली" कमीनों का कोई भरोसा नहीं है जाने कब घात लगाकर हमला कर दे अचानक से।"

''नहीं सर आप निश्चिंत रहिये। हम लोग चैबीस घण्टे अलर्ट हैं।" अर्जुन ने आश्वासन दिया।

उससे और दस पन्द्रह मिनट बात करके परम ने जल्दी ही दोबारा कॉल करने का कहकर फोन रख दिया।

परम बाहर जाकर फिर से तनु के पास बैठ गया। थोड़ी देर अर्जुन के बारे में बात करता रहा। फिर उसने पूछा ''बे्रकफास्ट में क्या खायेगा मेरा बच्चा?"

''उत्तपम।" तनु ने बताया।

''ओ हो आज मद्रासी खाना खाने का मन है मेडम का।" परम हँस दिया।

परसों ही वह उत्तपम के आटे का रेडीमेट पैकेट लाया था उसने इंस्ट्रक्शन पढ़े, सारी सब्जियाँ कांट-छांट कर तैयार की और दो गरमा-गरम उत्तपम बना लाया। नाश्ते के बाद दोनों ने घण्टे-डेढ़ घण्टे में खाना तैयार किया और ऊपर आ गये। नहा-धोकर परम ने फिर से एक कॉमेडी फिल्म लगा दी। वह चाहता था तनु ज्यादा से ज्यादा हँसे और खुश रहे।

बिरहा के दिन स्थायी नहीं रहते तो साथ भी हमेशा नहीं रहता। परम के छुट्टी के एक-एक दिन आगे बढ़ते जा रहे थे। अब रोज रात को वह अफसोस से भर जाता कि तनु के साथ का एक और दिन ढल गया। उसे बहुत अच्छा लगता था सुबह उठकर अपने हाथ से तनु के लिए चाय बे्रकफास्ट बनाना, उसके साथ मिलकर उसकी पसंद का खाना बनाना। कभी उसे सुबह के चार बजे ही भूख लग जाती तो परम नीचे भागता कार्नफ्लैक्स बनाने तो कभी उसे सारा दिन ही कुछ खाने का मन नहीं होता तो परम सारा दिन उसकी पसंद की चीजें पूछ-पूछ कर उसे मनाता रहता। तो कभी बाजार से झटपट कुछ लाकर खिलाता। रात में अपने उल्टे हाथ का तकिया बनाकर वह अपने सीने से उसका सिर सटाकर उसके बालों में हाथ फिराता हुआ सुलाता। दोनों कभी मॉल में घूमने जाते कभी फिल्म देखते। कभी तनु के माता-पिता के यहाँ जाते कभी चाचा-चाची के यहाँ।

ऐसे ही दिन सरकते गये और परम के जाने के दिन करीब आ गये। परम रात में गैलरी में खड़ा-खड़ा सोचता रहा कि इस बार तनु को छोड़कर जाना जानलेवा हो जायेगा। वह इस दौर में पूरे समय तनु के साथ रहना चाहता था। एक-एक पल अपने बच्चे के विकास को महसूस करना चाहता था। इस बार उसका सच में जाने का मन नहीं हो रहा था जरा भी। उसने भगवान से प्रार्थना की कि कम से कम अगली पोस्टिंग ऐसी जगह देना कि वह दो साल तो अपने पत्नी और बच्चे के साथ रह पाये।

परम को एक और भी चिंता थी। अगर वह तीन महीने बार फिर से छुट्टी पर आता है तो अपने बच्चे के जन्म के समय तनु के पास नहीं रह पायेगा। बच्चे के जन्म के दो महीने बाद ही आ पायेगा। इसका मतलब उसे बीच में छुट्टी लेने से बचना होगा और आगे इकठ्ठी छुट्टी ले पायेगा वह दो महिनों की। यही सब सोचकर वह और परेशान हो जाता। ऐसे हालात में वह बीच के पूरे पाँच महीनों तक तनु को देख नहीं पायेगा। वह जिस जगह पर हैं वहाँ तनु को किसी भी हालत में ले जाना असंभव है और इस हालत में तो उसका सफर करना भी ठीक नहीं और वो भी इतनी दूर।

परम के दिल में मरोड़ सी उठती। एक पुरुष अपने प्यार और फर्ज के बीच में कितना बेबस, कितना लाचार हो जाता है।

जाने के एक दिन पहले परम तनु को डॉक्टर के यहाँ ले गया ताकि अपने सामने उसका चेकअप करवा सके। सब कुछ नॉर्मल था। घर आकर उसने पैंकिंग की। इस बार अपनी पैकिंग के साथ उसे तनु की भी पैंकिंग करनी थी क्योंकि अपने जाने के दिन ही वह तनु को भरत विला पहुँचाकर जायेगा। सामान बेग में भरते हुए उसने कमरे पर नजर डाली। अब पता नहीं कितने महीनों तक वह अपने घर में अपने कमरे में रह नहीं पायेगा। परम की आँखें भीग गयीं। उसने चुपचाप शर्ट की बाँह से अपनी आँखें पोंछ ली।

''क्या हुआ जी।" तनु ने तड़पकर पूछा।

''कुछ नहीं।" परम ने भरे गले से जवाब दिया।

''इधर आओ मेरे पास।" तनु ने उसे अपने पास बुलाया और उसका सिर अपने सीने पर रखकर उसके बाल सहलाने लगी। परम बच्चों की तरह बिलखकर रो दिया।

''ये क्या ऐसे दिल छोटा नहीं करते। ये दिन भी बीत जायेंगे जी।" तनु उसे दिलासा देती रही।

दूसरे दिन वापस जाते हुए परम ने एक भरपूर नजर अपने घर को देखा और तनु के साथ कार में बैठ गया। भरत भाई का ड्रायवर उसे बस स्टेण्ड पर पहुँचाकर तनु को भरत विला ले गया। अपनी पत्नी से विदा लेकर एक फौजी ने वापस उस दुनिया के लिए यात्रा प्रारंभ कर दी जहाँ पल-पल पर सिर पर मौत मंडरा रही थी।

———

परम को वापस ड्यूटी ज्वाईन किये डेढ़ महीना बीत चुका था। अभी तक पूरे ईलाके में शांती थी। अर्जुन को अलबत्ता कभी-कभी कोफ्त होती थी। उसने जिस उद्देश्य की खातिर इतनी मेहनत की थी, यहाँ पोस्टिंग ली थी वह पूरा होते नहीं दिख रहा था। परम उसे समझाता कि अच्छा है कि सिर्फ अर्जुन के नाम की वजह से ही इतनी शांती छा गयी है और हालात सुधर गये।

रात में परम जब भी सोता उसे अपना बाँया हाथ खाली-खाली सा लगता। सीने के पास अजब सी बेचैनी सी होती। रात में कई बार वह चौंक कर जागता कि तनु कहाँ है, उसे कहीं भूख तो नहीं लगी। फिर ध्यान आता वह तो यहाँ है। तनु यहाँ-कहाँ और वह मायूस हो जाता। तब परम को फिर पूरी रात नींद ही नहीं लगती। वह तनु के बारे में ही सोचता रहता।

तनु को आजकल नींद ही नहीं आती है। कभी नींद लग भी जाती है तो जल्दी ही खुल जाती है।

इन दिनों लगभग उसकी पूरी रात किताबें पढ़ते हुए और पानी पीते हुए निकलती। कभी भरत भाई उसके साथ स्टडी में बैठते तो दोनों न्यूज या आर्टिकल पर काम करते। वीकली मैगजीन का सारा मटेरियल भरत भाई घर ले आते और तनु मैगजीन का पूरा काम घर से ही कर देती थी। परम उसे ज्यादा मेहनत करने से मना करता पर वह भी क्या करे। दिन बीताने का कुछ तो साधन चाहिये ही।

पन्द्रह बीस दिन और बीत गये। परम को छुट्टी जाने में बस पन्द्रह दिन बचे थे। परम उहापोह में पड़ा था कि क्या करे अभी छुट्टी ले या नहीं ले। तनु को देखने को भी मन बहुत बेचैन हो रहा था और बाद की स्थिति को देखते हुए अभी मन पर नियंत्रण करना भी जरूरी था। परम कुछ निर्णय ले पाता कि तभी एक दिन सुबह-सुबह उसके सोर्स ने पास के एक इलाके में कुछ संदेहास्पद गतिविधियों की सूचना दी। परम ने तुरंत अपनी यूनीट को तैयार किया और सर्च पर निकल पड़ा।

सारा ईलाका छान मारा लेकिन कुछ हाथ नहीं आया। तीसरे दिन फिर फोन आया।

इसके दो दिन बाद फिर दो फोन आये।

परम हर बार पूरी तत्परता से अपनी यूनिट को लेकर ईलाके में जाता, वहाँ के थाने में रिपोर्ट करता, सरपंच या मुखिया से बातें करता, गाँव में मुनादी होती, लोग इकठ्ठा होते घरो की तलाशी होती। पूरी फोर्स अपने कर्तव्य में जुट जाती।

लेकिन।

नतीजा हर बार वही होता। इस बार एक ही गाँव में दो बार सर्च हो गया और दोनंों ही बार कुछ भी नहीं मिला। निकलते हुए एक गाँव वाले ने फौजियों पर आक्षेप कर दिया कि इन लोगों को तो आदत हो गयी है हम लोगों पर शक करने की और हमें परेशान करने की। जब तब, कुछ काम तो होता नहीं है आ जाते हैं हमे परेशान करने।

अर्जुन का खून खौल गया। उसके हाथ अपनी रायफल पर कस गये। लेकिन उसने अपने-आप को जप्त कर लिया परम का भी माथा भन्ना गया। उसने मन ही मन गाली दी साला इन लोगों को तो कभी-कभी लगता है कि छोड़ ही देना चाहिए ये लोग इसी लायक है। हम इन लोगों की सुरक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डालते हैं, अपनी जानें तक कुर्बान कर देते हैं और ये लोग हमें ही कोसते हैं, गालियाँ देते हैं। अब भी इन लोगों को लगता है कि इनकी सारी परेशानियों की जड़ हम लोग ही हैं।

परम और अर्जुन के दिमाग में इस समय एक ही भुनभुनाहट चल रही थी। एक तो सुबह से भूखे-प्यासे सर्च पर निकलो, सारा दिन यहाँ-वहाँ की खाक छानों, पहले थानेदार के साथ फिर मुखिया या सरपंच के साथ और फिर गाँववालों के साथ और बहुत मेहनत के नतीजे में गाँव वालों की गालियाँ सुनों। रोज ही इनको सुबह से शाम हो जाती थी भूखे-प्यासे भटकते हुए।

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