राय साहब की चौथी बेटी - 3 Prabodh Kumar Govil द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राय साहब की चौथी बेटी - 3

राय साहब की चौथी बेटी

प्रबोध कुमार गोविल

3

एक न्यायाधीश का काम यही होता है कि समाज में व्यावहारिकता से और सर्व हिताय फ़ैसले हों। वहां भावुकता का प्रवेश न हो। क्योंकि ज़िन्दगी भावातिरेक में लिए गए फैसलों से कई बार रुक सी जाती है।

अम्मा को सारी बात अलग से समझाई गई। राय साहब की चौथी बेटी को अलग। और दोनों छोटे भाई- बहन को अलग।

लेकिन अम्मा को जैसे ही ये मालूम हुआ कि ये लड़के की दूसरी शादी है और इतना ही नहीं, बल्कि उसे पहली पत्नी से एक लड़का भी है, तो जैसे उन पर गाज गिरी। अम्मा हत्थे से ही उखड़ गईं। जज साहब को भी पल भर के लिए उनसे अमर्यादित भाषा तक सुननी पड़ी।

अम्मा लगभग दहाड़ कर बोलीं- आख़िर तुमने ये सोच भी कैसे लिया कि बच्ची का बाप ज़िंदा नहीं है तो मैं उसे कुएं में धकेल दूंगी? बाप न सही, मां तो है अभी! अनाथ बेसहारा नहीं है लड़की!

पर जज साहब का तो ऐसे आवेगों- आवेशों से रोज़ ही पाला पड़ता था। वे अच्छी तरह जानते थे कि अदालत में फ़ैसले जिरह से होते हैं, सारी ऊंच - नीच सोची जाती है। वादी- प्रतिवादी को बार - बार समझाया जाता है ताकि फ़ैसला सही हो।

जज साहब ने आसानी से हार नहीं मानी।

उन्होंने अम्मा को फ़िर समझाया- आज का समय तो आप देख ही रही हो, ऐसा अच्छा पढ़ा- लिखा लड़का अव्वल तो मिलेगा ही नहीं, और मिलेगा तो मां- बाप के मिजाज़ नहीं मिलेंगे। अपनी बिरादरी में तो मां- बाप के सौ नखरे उठाने पड़ते हैं तब जाकर ढंग के लड़के मिलते हैं। यहां तो बेचारा खुद चल कर आया था।

अनमनी सी अम्मा बोलीं- रिश्ते क्यों न मिलेंगे? क्या बिगाड़ा है मेरी लड़की ने किसी का? अगर दान- दहेज की ही बात है तो ये लंबी -चौड़ी कोठी पड़ी है, इसे क्या मैं अपनी छाती पे धर के ले जाऊंगी। इसे बेच- बाच के पैसा मुंह पर मारूंगी लालचियों के। लड़कों का अकाल थोड़े ही है!

कहने को तो कह गईं अम्मा, पर खुद ही अच्छी तरह जानती थीं कि उनकी ये बात कितनी खोखली है। कोई ये एक ही लड़की तो है नहीं कि इसका ब्याह हुआ, और गंगा नहाए। दो बच्चे और भी हैं।

फ़िर अम्मा की खुद की ज़िन्दगी भी तो है, जब तक देह है, तब तक तो समय काटना ही पड़ेगा।

फ़िर भी बुदबुदा कर बोलीं- सोच कर ही कलेजा मुंह को आता है, बेचारी मांग भरने के दिन से ही बालक पालने का बोझा कैसे उठाएगी? शादी की मेहंदी उतरने तक तो लड़कियों को ढंग से घूंघट तक निकालना नहीं आ पाता। किसी और के बच्चे को गोद में उठा कर कैसे... अम्मा से आगे कुछ नहीं बोला गया, गला रूंध गया और सुबक कर रो पड़ीं।

लेकिन जज साहब के तरकश में भी तीरों की कोई कमी नहीं थी। बोले- फ़िर अगर बेचारा कोई मुसीबत का मारा खुद मांग के ले जाएगा तो सारी उमर अहसान मानेगा। इतने बड़े कुनबे में एक बच्चे का क्या है, यूं ही पल जाएगा।

ननदों, दौरानियों, जेठानी से भरा घर है, पता भी नहीं चलेगा कि कब अपनी खुद की औलाद हुई और कब ये बेचारा भी बड़ा हुआ। फ़िर बिना मां के बच्चे तो बढ़ते भी जंगली बेल की तरह हैं। और सबसे बड़ी बात ये कि लड़की यहीं तुम्हारी नज़र के सामने रहेगी, इसी शहर में। चाहोगी तो रोज मिल लोगी।

आंखें पौंछती हुई अम्मा बोलीं- ये ही तो मुसीबत है, अपनी आंखों के सामने बेचारी को आठों पहर पिसते देखूंगी। अपना भाग्य ले के कहीं दूर चली जाती तो फ़िर भी सब्र कर लेती।

जज साहब ने समझाया - आप जी छोटा मत करो, लड़के को मैं अच्छी तरह जानता हूं, सचमुच हीरा है हीरा। वो तो किस्मत का मारा है जो बीस साल की उमर में साल भर के बेटे को छोड़ कर उसकी घरवाली चली गई। उसका भी ब्याह तो होगा ही आख़िर, कहीं न कहीं। बेटे को लेकर कहीं अनाथालयों में थोड़े ही मारा- मारा फिरेगा। ऐसा काबिल, पढ़ा- लिखा लड़का है।

इस रिश्ते के बाबत जब बड़ी बहनों ने सुना तो सन्न रह गईं। न निगलते बना, न उगलते। जिस बहन के रूप - रंग से रश्क करती थीं, उसका ये नसीब?

लेकिन ज़माना सबने देखा था। दुनिया के रंग- ढंग ख़ूब समझती थीं। अंदर से सबकी राय यही थी कि रिश्ता छोड़ने में बुद्धिमानी नहीं है। फ़िर आगे न जाने क्या हो? यहां करने वाला है ही कौन!

जो दामाद राय साहब के रुतबे के दौर में इस देहरी पर शान से तोरण मार कर गए थे, अब क्या कहते बेचारे! जो है, सो भगवान की मर्ज़ी।

अम्मा ने भी जोश- जोश में कह तो दिया था कि कोठी बेच कर इसके लिए अच्छा वर ढूंढेंगी, पर इस बात का मतलब तो सब जानते थे। दोनों छोटे भाई- बहन तो सुन कर ही दहल गए अम्मा का ये हल।

अब रही बात राय साहब की चौथी बेटी की खुद की अपनी इच्छा की, तो कोई भी समझदार लड़की अपना पीहर - मायका छोड़ने में ना- नुकर भला कब तक कर सकती है? और करे भी तो किस बिना पर? कल नए रिश्ते ढूंढने में किसी लड़के वाले ने ही ये कह दिया कि लड़की बिना बाप की है, यहां कमाने वाला कौन है, तो क्या होगा?

कौन सी उसकी कोई नौकरी या रोजगार है जिसके भरोसे बैठी रहेगी। राजी- बेराजी, उसने भी खामोशी ओढ़ ली।

और लो, चट मंगनी पट ब्याह!

राय साहब की चौथी बेटी चली गई अपनी ससुराल।

सारे मोहल्ले ने पिछली सब शादियों में धमकते बैंड- बाजे सुने थे, अबकी बार रोती शहनाइयां भी सुन लीं।

ब्याह की बंदनवार के फूल सूख कर क्या मुरझाए, अम्मा के चेहरे की रौनक भी चली गई।

शायद राय साहब के सिधारने के दिन भी उनका जी ऐसा न कलपा होगा, जैसा मन ही मन इस रात रोया।

जज साहब की गाड़ी भी अब जैसे ये रास्ता भूल ही गई हो, कई- कई दिन तक न दिखाई देती।

अब बेजान से घर में थकी- सिमटी सी अम्मा, खौफ खाई सहमी सी छोटी और दिशाहीन भटकता बेटा! बस।

आंगन में धूप भी आती, बरखा भी, हवा भी चलती और चिड़ियां भी चहचहाते - गाते चली ही आतीं, ज़िन्दगी चल पड़ी फ़िर से!

लेकिन जो बारात परमेश्वरी को विदा करा के यहां से ले गई, उसे इस सब से क्या। उसकी खुशियों में तो चार चांद लग गए।

लालाजी के भरे- पूरे परिवार में तो उजाले हो गए।

पांच भाइयों का घर, सबके ढेरों यार- दोस्त, और लालाजी के प्रिय, काबिल,सबसे ज़्यादा पढ़े- लिखे बेटे की ज़िन्दगी फ़िर से बस जाने का उल्लास! रौनकें ही रौनकें हो गईं।

परमेश्वरी की भावनाओं का ख़्याल करके कुछ समय तक छोटे से अपने पोते को लालाजी ने उसकी निगाहों के सामने तक न आने दिया। पूछने पर जवाब मिलता- अपनी बुआ के पास है, अपनी नानी के घर गया है, मौसी ले गई है...!

इस घर की अपनी शान ही निराली थी। गांव का घर और ज़मीन अब भी होने से यहां से वहां किसी न किसी का आना - जाना लगा ही रहता था।

व्यापार भी फ़ैला हुआ था, मगर लड़कों में से किसी की दिलचस्पी आढत के उस पुश्तैनी व्यापार में न थी। शहर में अा जाने से सभी तालीम पा गए थे और अब व्यापार की जिम्मेदारियां उठाने का मतलब था गांव में बने रहना, ग्रामीणों के संपर्क में रहना और चौबीस घंटे उलझे रहना। ये सब किसके बस का था?

कहने को लंबा- चौड़ा संयुक्त परिवार था, पर सपने तो सबके अपने- अपने अलग थे।

सभी परिवार के मुखिया को लालाजी कहते थे। गांव में भी और यहां शहर में भी। यहां तक कि घर में भी। घर की बहुएं तक उन्हें लालाजी ही पुकारतीं।

लालाजी का सबसे बड़ा लड़का ओवरसीयरी की परीक्षा पास करके सरकारी नौकरी में लग गया था।

कुछ बरस पहले उसका ब्याह धूमधाम से हुआ, मगर उसकी घरवाली किसी नामालूम सी बीमारी के बाद दुनिया से कूच कर गई थी।

अब चढ़ती उम्र का कामकाजी लड़का ज़िन्दगी भर इस तरह अकेला तो बैठाए रखा नहीं जा सकता था। जल्दी ही उसकी दूसरी शादी कर दी गई।

दूसरा लड़का था, परमेश्वरी का पति, जिसका अभी -अभी ब्याह हुआ और परमेश्वरी इस घर में आई।

इसकी कहानी भी बिल्कुल अपने बड़े भाई जैसी ही निकली। बीस साल की उम्र में जीवन संगिनी दुनिया छोड़ कर चली गई।

लेकिन इसका एक बेटा भी हो चुका था, जिसकी नई मां अब परमेश्वरी थी।

इस दूसरे लड़के का पढ़ने- लिखने में बहुत रुझान था। इसने अंग्रेज़ी में एम ए करने के साथ- साथ फर्स्ट क्लास फर्स्ट एल एल बी भी पास की थी।

ये लड़का ठेकेदारी कर रहा था।

परमेश्वरी इंजीनियर की बेटी थी, राय साहब इंजीनियर ही तो थे, सो ठेकेदारी के बाबत थोड़ा बहुत पिताजी से सुन - सुन कर वो भी जान गई थी।

उसे ये भी पता था कि ठेकेदारी लिखने- पढ़ने का न तो टाइम छोड़ती है और न ही जिगर।

परमेश्वरी को ये देख कर घना अचंभा होता था कि लालाजी ने अपने इस शहरी घर का नाम "जगदीश" भवन रख छोड़ा है। जगदीश तो लालाजी के दूसरे बेटे, अर्थात परमेश्वरी के पति का नाम ठहरा!

-अरे, अयोध्या या तो दशरथ की, या राम की ! भरत की कैसे हुई?

जाने दो, उसे क्या लेना- देना इस सब से। जैसे घर के और दस प्राणी, वैसी ही वो। रखा होगा लालाजी ने कुछ सोच कर ये नाम!

इस बात का गुमान क्या करना। एक "जगदीश" जगत पिता शंकर भी तो हैं, क्या पता लालाजी ने उनके नाम पर रख दिया हो।

इस घर में परमेश्वरी क्योंकि अपने पति की दूसरी ज़िन्दगी बन कर आई थी, इसलिए नई नवेली सबसे छोटी नहीं थी। उसकी दो दौरानियां भी थीं।

इतना ही नहीं, पति की एक छोटी बहन भी घर में थी। बड़ी तो ब्याह कर जा चुकी थी।

इस तरह घर में पांच हमउम्र सी सहेलियां थीं। घर उन सबकी आपसी चुहल- मज़ाक से गुलज़ार रहता। दिन अच्छे गुजरते।

लालाजी घर की मर्यादा और सबकी सुविधा का खूब ख़्याल रखते। किसी कमरे में घुसते, तो खांस- खखार कर।

बहुएं भी उनका उतना ही आदर और सम्मान करतीं, क्या मजाल जो उनके सामने किसी के सर से पल्ला सरक जाए। उनके सामने पलट कर कुछ बोलना तो जैसे किसी ने सीखा ही नहीं था।

लालाजी के एक और भाई का परिवार भी वहीं रहता था। एक तीसरे भाई का परिवार गांव में रहता था, मगर वहां आता - जाता रहता था।

अच्छा खासा भाई - चारा। मिला- जुला मन। मिले- जुले दिन।

घर में कोई तीज- त्यौहार होता तो मेला सा लग जाता।

जितने घर के लोग, उससे ज़्यादा बाहर के... दोस्त, कामगार, सहकर्मी।

लालाजी का तीसरा बेटा भी इंजीनियर बन कर सरकारी नौकरी में लग गया। और चौथा भी तन- मन से शहरी। उसे शहर में रहना भाता। कभी पढ़ने तो कभी नौकरी करने, कभी नौकरी ढूंढने, वो दिल्ली में रहना ही पसंद करता।

ऐसे में उनका गांव का व्यापार संभालने की न तो किसी में ललक दिखती और न ही क्षमता।

दूरदर्शी लालाजी को भी अब लगने लगा था कि व्यापार करने वाली शायद ये अब आख़िरी पीढ़ी ही है, आगे सब नौकरियां ही करेंगे।

लालाजी भी अब ज़्यादातर समय घर में बैठ कर अपने पोते- पोतियों के साथ खेलना ही पसंद करते।

इतने बड़े परिवार में हर साल - दो साल में किलकारियां गूंजती रहती थीं। किसी- किसी साल तो दो - तीन जापे होते।

कुछ तो वो ज़माना ही ऐसा था, और कुछ ग्रामीण पृष्ठभूमि के वो नव - शहरी लोग, वहां लड़कों को ही ज़्यादा अहमियत दी जाती। लड़कियों को दोयम दर्जे का समझा जाता।

यहां जब बड़े बेटे, तीसरे बेटे, चौथे बेटे, बेटी... सबके यहां पुत्रों की ही किलकारियां गूंजी, परमेश्वरी ने एक कन्या को जन्म दिया।

लालाजी कन्या को देख कर ख़ुश तो बहुत हुए पर उन्होंने ये भी साफ़ भांप लिया कि शायद परमेश्वरी के आंतरिक मनोबल में इससे कुछ कमी आई है।

परमेश्वरी तो खुद पांच बहनों में चौथी बेटी थी, उसे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ा पर शिक्षित, बुद्धिमती ये ज़रूर जान गई कि उसकी पुत्री को घर में वो स्वागत- सम्मान नहीं मिला, जो लड़कों को मिला।

लालाजी कहते थे कि ये कन्या बहुत विदुषी है इसे संस्कृत भाषा पढ़ाएंगे।

और परमेश्वरी का अंतर ये सुन कर भीग सा जाता था, क्योंकि घर में होने वाले पुत्रोत्सवों पर वो सुनती रही थी कि - इसे विलायत भेजेंगे, इसे डॉक्टर बनाएंगे, ये कलेक्टर बनेगा आदि आदि।

परमेश्वरी का जी उचाट सा होते जाने के कुछ और भी कारण थे।

इतने बड़े परिवार में सुबह सूरज उगने से लेकर रात के तारे गहराने तक रोटी, नाश्ता, खाना, पकवान, मिठाई, चाय, दूध, मेहमान के बहाने ज़िन्दगी का अधिकांश हिस्सा रसोई घर में काट देना उसे रास नहीं आ रहा था। बाक़ी सभी महिलाएं या तो अशिक्षित थीं या फ़िर थोड़ी बहुत पढ़ी -लिखी। कुछ तो नज़दीक के गांवों से थीं।

घर के दूसरे लड़के नौकरियों के लिए घर से निकल कर दूर पास आने - जाने लगे थे किन्तु उसे पति की ठेकेदारी के कारण वहीं बने रहने की विवशता थी।

यहां तक कि उसे अपने मायके तक की सुध ले पाने का अवकाश नहीं मिल पाता था।

फिर रात दिन की मेहनत से जो धन सम्पदा घर में आती वो संयुक्त परिवार में सभी की शामिल मिल्कियत होती। जबकि बाहर रहने वालों का अपना - अपना एक निजी जहान भी बन रहा था।

ऐसे में कॉलेज शिक्षा पाई युवती की हताशा स्वाभाविक थी। परमेश्वरी के मन ने भी छटपटाना शुरू किया!

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