राय साहब की चौथी बेटी - 7 Prabodh Kumar Govil द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राय साहब की चौथी बेटी - 7

राय साहब की चौथी बेटी

प्रबोध कुमार गोविल

7

मनुष्य में दो खूबियां हैं, एक तो ये कि वो समय के साथ सब कुछ भूल जाता है, और दूसरी ये, कि कितना ही समय बीत जाए वो कभी कुछ नहीं भूलता।

इसी से तो उसके जिगर में दो खंड बना रखे हैं कुदरत ने। एक चेतन और एक अवचेतन!

अम्मा को अपने अतीत से झाड़ पौंछ कर वो लम्हे फ़िर से निकाल कर लाने पड़े जब उनके पिता राय साहब गुज़र गए थे और एक छोटे भाई और एक छोटी बहन, साथ में अम्मा की ज़िम्मेदारी उन पर आ गई थी।

अब एक बेटे- एक बेटी में उन्हें वो ही दिन दिखाई दे रहे थे। एक बेटा और एक बेटी, साथ में खुद अपनी ज़िन्दगी।

जिस तरह राय साहब अपने बच्चों के भविष्य के लिए कुछ जमा जोड़ कर रख गए थे, वैसे ही वकील साहब भी बच्चों का बंदोबस्त कर ही गए थे।

पर केवल पूंजी ही सब कुछ थोड़े ही होती है, बच्चों का भविष्य सजाना, उनके रिश्ते जोड़ना, उनकी गृहस्थी जमवाना... ढेरों काम होते हैं। ढेरों फ़ैसले लेने पड़ते हैं।

कभी कभी अकेली बैठी अम्मा जब अपने पिछले दिनों के बाबत सोचने लग जाती थीं तो एक बात उनके कलेजे में तीर की तरह चुभती थी।

वकील साहब अभी - अभी रिटायर हुए थे, उन्हें सेवा में एक्सटेंशन भी मिला, और मिल रहा था, अपनी मर्ज़ी से ही नहीं लिया, बिल्कुल स्वस्थ थे, कोई अंदरुनी- बाहरी बीमारी भी नहीं, कोई चिंता और तनाव नहीं, उम्र भी ज़्यादा नहीं... फ़िर अकस्मात चले क्यों गए?

वैसे तो धर्मग्रंथों में लिखा है कि जन्म -मरण सब विधना के हाथ है, पर अम्मा ने केवल धर्मग्रंथों पर आंख मूंद कर भरोसा कब किया?

कहीं कोई कारण भी तो दिखे! तिल का ताड़ चाहे विधना की विधि में बन जाए, पर कहीं तिल दिखे तो!

और फिर सोचने पर दिख जाता। कुदरत अपनी मनमानी करती है पर कुछ निमित्त तो बनाती ही है।

अम्मा को भी निमित्त दिखा।

वकील साहब अपनी मौत से कुल डेढ़ महीने पहले अपने तीसरे बेटे की शादी करके चुके थे।

वकील साहब अपने इस बेटे को सबसे ज़्यादा चाहते थे। जो कुछ बड़े बेटों से न कह पाएं वो इससे कह कर बांट लेते थे।

जो छोटे से न कहना चाहें, कि अभी बहुत छोटा है, इससे कह लेते थे।

बल्कि कभी - कभी तो अगर किसी बात पर अम्मा से भी दिमाग़ न मिल पाए तो अपना पक्ष इसके सामने रख लेते थे।

उन्हें लगता था कि उनके मन की बात उनका यह बेटा समझ लेता है। उनका और उसका सोचने का तरीका अक्सर एक सा होता था। इस बात को उन्होंने कई बार आजमाया था।

एक बार सबसे बड़े बेटे की नौकरी में कुछ पेंच फंस गया था, तब वकील साहब ने अपने इसी तीसरे बेटे से सलाह- चर्चा भी की और खबर भी बांटी। जबकि अम्मा समेत घर के अन्य सभी लोगों से तमाम बात छिपाई गई थी।

एक बार उनके दूसरे बेटे के घर में पति- पत्नी के बीच किसी खटपट की खबरें आने पर उन्होंने इसी तीसरे बेटे को मध्यस्थ बनाया था।

सौ बात की एक बात ये, कि वकील साहब को अपने इस तीसरे बेटे पर हमेशा से ही बहुत भरोसा रहा था।

उन्हें लगता था कि ये ज़िन्दगी में सबसे ज़्यादा तरक्की करेगा और घर- परिवार के लिए सबसे ज़्यादा आत्मीय और मददगार साबित होगा।

लेकिन इसी तीसरे बेटे की शादी आनन - फानन में उनकी मौत से कुल डेढ़ महीने पहले ही हुई।

शादी होना कोई अजूबा नहीं था, पर जिन परिस्थितियों में और जिस तरह ये हुई, वो भी साधारण बात नहीं थी।

ये अपने आप में एक अजब कहानी थी।

अजब प्रेम की गजब कहानी।

वकील साहब के इस तीसरे बेटे ने प्रेम विवाह किया था। शायद ये इस परिवार ही नहीं, बल्कि पूरे खानदान में पहली लव मैरिज थी।

पहला झटका तो वकील साहब के मानस को यही लगा था कि उस बेटे ने अपने आप अकेले जाकर अपनी ज़िंदगी का फ़ैसला कर लिया जिसे वे अपने हर फ़ैसले में शामिल करते थे।

दूसरी बात ये थी कि ये बेटा शुरू से पढ़ने - लिखने में अच्छा भी था, और भविष्य में अपनी मेहनत से कोई ऊंचा कैरियर हासिल करने की महत्वाकांक्षा भी रखता था, किन्तु उसने अपना विवाह अपनी ज़िन्दगी में कोई बड़ी सफ़लता पाने से पहले ही उस समय कर लिया जब उसकी प्रेमिका एक प्रतियोगिता पास करके बड़ा पद हासिल कर चुकी थी।

और अब अपने से ज़्यादा काबिल, पढ़ी - लिखी, ऊंचे पद पर आसीन लड़की के साथ घर बसा लिया।

ये वो ज़माना था, जब लड़कियों को लड़कों के मुकाबले कुछ नहीं समझा जाता था।

शादी के बाद लड़की ही अपना घर छोड़ती थी।

लड़की ही नौकरी छोड़ती थी।

लड़की ही पराए घर में जाकर सबका खाना बनाने और सबकी देखभाल करने की ज़िम्मेदारी लेती थी, और लड़की ही दहेज में रुपया- पैसा- दान -दक्षिणा देती थी।

लड़की की ही जाति- धर्म बदल कर वो कर दिया जाता था जो पति का हो।

लड़के वाले लड़की वालों से ज़िन्दगी भर रुपया, गहना, मेवा- मिठाई लेते रह सकते थे मगर लड़की के माता- पिता का लड़की के ससुराल में पानी पीना भी गुनाह समझा जाता था।

अब ऐसे में अम्मा अर्थात राय साहब की चौथी बेटी को इस लड़के ने लाकर ऐसी बहू दे दी जो उससे ऊंची नौकरी, उससे ऊंचे नगर में करती थी, और लड़के को अपने साथ ले जाने के लिए योजना बना रही थी।

वकील साहब भी हतप्रभ थे, और अम्मा भी बेचैन!

वकील साहब ने किसी से कुछ न कहा। किससे कहते? और किसी से खफा होते तो इस बेटे से कहते थे। अब इसकी किससे कहते?

भीतर ही भीतर घुट कर उसकी शादी के डेढ़ महीने बाद दुनिया से चले गए।

उन्हें मालूम था कि उनकी मौत का दोष न खुद उन पर लगेगा, और न बेटे पर। क्योंकि उन्होंने आत्महत्या नहीं की थी बल्कि हार्ट अटैक से गए थे।

लड़के ने उन्हें ज़हर नहीं दिया था, केवल घोर अविश्वास दिया था। अवहेलना दी थी। अवज्ञा दी थी। और कोई हमला भी नहीं किया, केवल उनकी प्रतिष्ठा की दीवार को थोड़ा परे सरकाया था।

वो लड़े भी कहां? वो तो दुनिया से सीधे पलायन कर गए।

जाहिर है कि ऐसे में सब यही समझ- समझा लेते कि जन्म - मरण सब विधना के हाथ है।

लेकिन अम्मा ने बात को इतनी आसानी से नहीं पचाया था।

उन्होंने अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की थी कि ये खिचड़ी न पके।

जब पहली बार उन्हें पता चला कि उनका बेटा किसी लड़की से मिलता है तो उन्होंने पूरी पड़ताल और तहकीकात ही नहीं बल्कि पूरी दखलंदाज़ी की थी, कि लड़का किसी लड़की से क्यों मिले।

और जब उन्हें बेटे से उस लड़की की पूरी जानकारी मिली तो उनका पहला सवाल ये ही था कि क्या ये शादी के लिए तैयार है?

लड़के ने कहा- मना भी नहीं करेगी।

अम्मा बोलीं- इसके घर वाले मना कर देंगे।

- क्यों? लड़के ने पूछा।

- ये लड़की बड़ी अफ़सर है इसलिए। अम्मा ने अपना तजुर्बा जैसे रूपांतरित करके कहा।

- घर वाले इसकी कोई बात नहीं टालते। लड़का बोला।

- क्यों? अम्मा ने हैरानी से पूछा।

- लड़की बहुत समझदार, बुद्धिमान और बड़ी अफ़सर है इसलिए। बेटे ने मानो अम्मा का तर्क ही अम्मा को दिया।

- लेकिन तू टाल दे। अब अम्मा ने साफ़ कहा।

- क्यों? अब बेटे की बारी थी हैरान होने की।

अब अम्मा बेहद नर्म- मुलायम स्वर में मिश्री घोलते हुए बोलीं- बेटा, मैंने भी दुनिया देखी है, मैं तुझे कह रही हूं कि आज तक अपने से ज़्यादा कमाने वाली, पढ़ी - लिखी और काबिल लड़की के साथ दुनिया का कोई लड़का सुखी नहीं रहा।

बेटे ने कुछ शरारत से मुस्कराते हुए कहा - वाह ! फ़िर तो वर्ल्ड रिकॉर्ड भी बन जाएगा।

अम्मा खीज कर बोलीं- बात को मज़ाक में मत उड़ा। मेरी बात याद रखना, बाद में पछताएगा !

- मगर क्यों? मैं लड़की को तबसे जानता हूं जब वो आठ साल की थी। बेटे ने ज़ोर देकर कहा।

- तो क्या तब से... कैसी लड़की है। अम्मा बोलीं।

- हां, तब से, वो मेरे साथ स्कूल में पढ़ती थी, मैं उसका व्यवहार भी जानता हूं, स्वभाव भी जानता हूं, उसकी इच्छा भी जानता हूं। ऐसी लड़की हमारे समाज में ढूंढने से भी नहीं मिलेगी, कहीं नहीं मिलेगी।बेटे ने अब खुल कर लड़की की तरफदारी की।

अम्मा ने अब पैंतरा बदला, बोलीं- पर तू ये भी तो सोच, क्या तू शादी के लिए तैयार है? अभी तेरी उम्र ही क्या है? तेरे उस भाई की शादी अभी साल भर पहले हुई है जो तुझसे चार साल बड़ा है।

तू खुद कितने कॉम्पिटिशन की तैयारी कर रहा है, बिना कुछ परिणाम आए ही शादी कर लेगा? क्या कहेंगे तेरे दोस्त, टीचर, रिश्तेदार सब लोग?

अम्मा की इस बात ने बेटे को जैसे बांध दिया।

ये बात तो आपकी ठीक है, हम तो खुद अभी दो साल रुकना चाहते हैं, मगर लड़की के पिता का कहना है कि यदि शादी करनी ही है तो देर क्यों?

अम्मा ने तल्खी से कहा- उन्हें तुझ पर विश्वास नहीं है तो शादी कर क्यों रहे हैं? और कहीं कर दें।

- ओहो अम्मा, तुम तो उनसे दुश्मनों की तरह सुलूक करने लगीं, वो बेचारे तो इसलिए जल्दी कर रहे हैं कि लड़की को अभी हॉस्टल में रहना पड़ता है, शादी के बाद उसे सरकार की ओर से ही फ्लैट मिल जाएगा। फ़िर उसके पास घर के लोग भी आते - जाते रह सकते हैं। बेटे ने सफ़ाई दी।

तर्क - वितर्क से अम्मा को कोई हमदर्दी नहीं हुई,वो और भी तीखी होकर बोलीं- हां, अब मैं दुश्मन हो गई, वो "बेचारे" हो गए?

बेटा उन्हें कंधे से पकड़ कर हंसा और बोला - अच्छा बाबा लो, मैं उन्हें अभी जाकर कह देता हूं कि अभी हम आपका मान रखने के लिए केवल सगाई कर रहे हैं, शादी दो साल बाद करेंगे। अब तो खुश!

अम्मा कुछ न बोलीं।

और कुछ दिन बाद दोनों सगाई की सादा तथा शालीन रस्म अदा करवा कर अपने अपने ठीहे- ठिकाने चले गए। लड़का अपनी पोस्टिंग की जगह राजस्थान के एक छोटे से गांव में, और लड़की मुंबई !

लेकिन इसके बाद घटी वो बेहद नाटकीय घटना जिसने सारी बात का रंग ढंग ही बदल डाला।

वकील साहब, अम्मा, लड़की के पिता और लड़की की मां, किसी को भी ये पसंद नहीं आया कि अभी केवल सगाई की रस्म अदायगी ही हुई है पर लड़की लड़के की पोस्टिंग वाली जगह घूमने अा गई। उसी तरह लड़का भी एक बार मुंबई चला गया, जहां लड़की की तैनाती थी।

घरवालों की नाराज़गी और नापसंदगी के बारे में पता चलने पर लड़का और लड़की दोनों ने ही अपनी ओर से सबको समझाया कि हम एक दूसरे के ठिकाने पर एक बार अाए ज़रूर हैं लेकिन हमने अपनी और अपने परिवार की प्रतिष्ठा का पूरा ख़्याल रखते हुए संबंधों की कोई सीमा नहीं लांघी है, और मर्यादा का पूरा -पूरा ध्यान रखा है। किसी और के लिए नहीं, बल्कि अपने खुद के ज़मीर के लिए हम खुद ऐसी कोई मर्यादा हीनता पसंद नहीं करते।

बेटे ने कहा कि हम केवल इसलिए आए- गए हैं कि जिस परीक्षा की तैयारी मैं कर रहा हूं, उसके साक्षात्कार के लिए मुझे उसी शहर के सेंटर पर बुलाया गया था।

और ठीक इसी तरह लड़की ने भी एक नौकरी के आवेदन का इंटरव्यू वहां दिया था, और वो इसीलिए आई थी।

हमने अपने रुकने के इंतजाम अपने रिश्तेदारों या मित्रों के यहां इसी तरह किए कि हम अलग -अलग रह सकें जबकि हमारी सगाई हो चुकी थी।

बात आई - गई हो गई।

किन्तु कुछ दिन बाद एक अजीब सी घटना घटी, जिस पर शायद ही कोई विश्वास कर सके।

छुट्टी के दिन बेटा अपने फ्लैट में अकेला था। अचानक उसका एक ऑफिस का मित्र कहीं चलने के लिए उसे बुलाने आ गया। मित्र ने नीचे सड़क से ही बाइक का तेज़ हॉर्न बजा कर उसे जल्दी से चले आने का संकेत दिया।

नहा कर तौलिया लपेटे खड़े बेटे ने जल्दी से तैयार होने की गरज़ से अपनी कमीज़ पहनी और तत्काल पैंट भी पहन कर उसकी ज़िप को एक ज़ोरदार झटके से बंद किया।

बेटा दर्द से चीख कर ज़ोर से उछल पड़ा, क्योंकि ज़िप में उसकी चमड़ी फंस कर बुरी तरह ज़ख्मी हो गई। सब कपड़े खून से लथपथ हो गए।

नीचे खड़े मित्र ने कुछ देर इंतजार करके जब ऊपर आकर देखा तो उसके होश उड़ गए। उसे अपनी जल्दबाजी पर पश्चाताप हुआ।

ज़ख्म को भरने में कई दिन लग गए।

चमड़ी को जोड़ने के लिए एक डॉक्टर को कुछ स्टिचेज़ लगा कर छोटा सा ऑपरेशन भी करना पड़ा।

संयोग से एक दिन वकील साहब अपने संस्थान के किसी काम से अचानक वहां आ गए, और आधे घंटे का समय निकाल कर बेटे से मिलने उसके फ्लैट पर भी चले अाए। उन्हें उसकी चोट के बारे में कोई खबर नहीं थी।

बेटा आश्चर्यमिश्रित खुशी में ये नहीं देख पाया कि पिता ने मेज़ पर पड़ी दवाओं के साथ- साथ रखा हुआ डॉक्टर का पर्चा भी उठा कर पढ़ लिया है, जिसमें "बीमारी" के नाम की जगह लिखा हुआ है "पेन ड्यूरिंग इरेक्शन"!

गंभीर होकर पिता कुछ ही देर में लौट गए।

मुश्किल से एक सप्ताह बीता होगा कि घर से पत्र आया जिसमें लिखा था कि अगले महीने की एक तारीख को पंडित ने तुम्हारे विवाह का मुहूर्त निकाला है इसलिए छुट्टी लेकर तुरंत चले आओ।

यदि किसी पर पत्थर फेंके जाएं तो वह इधर- उधर झुक कर सिर बचाने की कोशिश कर सकता है, किसी से कोई जिरह की जाए तो वह दलील दे सकता है किन्तु यदि कोई कुछ सोच कर आपके सामने से खामोशी से निकल जाए तो आप क्या कर सकते हैं?

सोचने से तो न कोई घायल होता है और न बेगुनाह सिद्ध हो सकता है!

सोचने की आवाज़ भी तो नहीं होती।

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