राहबाज - 14 - अंतिम भाग Pritpal Kaur द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राहबाज - 14 - अंतिम भाग

निम्मी की राह्गिरी

(14)

शादी के बाद

खैर! जिस दिन अनुराग ने मुझसे शादी की बात की उसी हफ्ते वीकेंड पर अनुराग ने अपने घर में ये बात कह दी.

और ये सुनते ही उसके घर में तो बवाल ही हो गया था. अनुराग की उम्र बहुत कम थी. सिर्फ बीस साल के अनुराग के शादी करने के फैसले से उसके मम्मी पापा को उसकी फ़िक्र होनी ही थी. लेकिन अनुराग ने अपनी परिपक्व बातों और इरादों से बात संभाल भी ली.

और जल्दी ही उसने अपनी ज़िन्दगी भी संभाल ली. दो-तीन साल के अंदर वह इतना कमाने लगा था कि हमें लगा हम शादी कर लें तो वो मेरा खर्चा उठा सकेगा.

और फिर एक दिन शाम को अनुराग मेरे घर पर भी शादी के लिए बात करने आ गया. मैं तो डर के मारे काँप रही थी. लेकिन जल्दी जी मुझे एहसास हो गया कि अनुराग का बड़े घर का बेटा होने की वजह से मेरे पापा तो मानो उसके आगे बिछे जा रहे थे.

वे अनुराग के मम्मी पापा को जानते थे. मेरा पूरा परिवार अनुराग को जानता था लेकिन ये नहीं जानता था कि मेरा अनुराग से कोई रिश्ता है. अब जब पता लगा तो उन्होंने एकदम खुले दिल से इस रिश्ते का स्वागत किया.

मेरे पापा तो इतने जोश में आ गए कि अनुराग के सादे समारोह में शादी करने के प्रस्ताव को सिरे से ही नकार कर शादी धूम-धाम से करने का ऐलान कर दिया. अब इस ऐलान के चलते कितनी परेशानी अनुराग और उसके परिवार को हुयी ये अलग कहानी है.

कितनी बेइज़्ज़ती अनुराग के परिवार की हुयी और कितना मैंने इस मारे सहा वो मैं बयान ही नहीं कर सकती. बस दिल दुखता है आज तक. बहुत दुःख हुया था मुझे अनुराग की तकलीफ देख-देख कर. न तो वो अपने मम्मी पापा को कुछ कह पाने की स्थिति में था न मुझे. मेरे घर वालों को तो कुछ कहने का सवाल ही पैदा नहीं होता था.

वे तो समझ ही नहीं सकते थे. वे आज भी कहाँ समझ पाते हैं. उनके और अनुराग के जीवन स्तर में इतना अंतर है कि वे समझ ही नहीं पाते और बार बार अपने ही स्तर से अनुराग के साथ वयवहार करते हैं. जो वो चुपचाप बर्दाश्त कर लेता है.

मैं चाहती हूँ मुझे ही अनुराग कुछ कहे तो शायद मेरा दुःख कुछ कम हो. वो कुछ नहीं कहता और मैं अंदर ही अंदर घुटती हूँ. उस वक़्त भी मैंने कोशिश की कि मैं अपने घर वालों को समझा कर इस तरह की बेवकूफियां करने से रोकूँ लेकिन अनुराग ने मुझे रोक लिया. उसका कहना था कि उन्हें भी अपने अरमान पूरे करने का पूरा हक़ है. अपने घर में वे जैसा चाहें करें. उन्हें करने दो.

वैसे भी मैं अपने भाई और पापा लोग को कुछ भी नहीं कह सकती थी. मेरी परवरिश ही ऐसे हुयी है कि मैं किसी को कुछ भी नहीं कह सकती. बस अनुराग के साथ ऐसा रिश्ता है कि दिल की हर बात सिर्फ और सिर्फ उसी से कहती हूँ. अब तो इस उम्र में आकर मुझे लगत्ता है कि अनुराग मेरा पति, प्रेमी, शिक्षक, गुरु, पिता, दादा, बेटा सब वही है. वो एक इंसान है जो इस दुनिया में मुझे जिंदा रखे हुए है, संभाले हुए है. उसके बिना जीने की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती.

लेकिन धीरे-धीरे हमारे बीच कुछ दूरियां सी आ गयी हैं. मुझे वो वक़्त याद आता है जब हमारी शादी हुयी ही थी. शादी होते ही हम दोनों एक नए फ्लैट में आ गए थे, जो शादी से पहले ही अनुराग ने ले लिया था. और काफी सामान भी उसमें रख लिया था. मेरे दहेज़ में कुछ थोडा सा फर्नीचर मिला था जो कोनों में समा गया था और कुछ बर्तन जो रसोई में अनुराग की मम्मी ने खरीद कर रखे थे उन्हीं में घुल मिल गए थे.

लेकिन असली परेशानी तो शुरू हुयी थी जब शादी के बाद अनुराग ने दफ्तर जाना शुरू किया. अब तक तो हम दोनों कभी मेरे घर पर और कभी अनुराग के घर पर खाना खा रहे थे. सुबह का नाश्ता भी अनुराग के घर पर ही होता था. मम्मी के ऑफिस जाने से पहले हम वहां पहुँच जाते. वे नाश्ता बनवातीं और हम सब नाश्ता करते. फिर मम्मी-पापा दोनों अपने अपने दफ्तर चले जाते और हम अपने घर आ जाते.

अब जो अपने घर पर रहना था, काम पर जाना था तो मुझे याद आया कि मैं तो खाना बनाना जानती ही नहीं थी. हमारे घर में बहुत सादा बेसिक खाना बनता था जो माँ ही बना लेतीं. मुझे तो उन कामों में लगे रहना होता जिनसे चार पैसे घर में आते.

दूसरे माँ को शायद लगा कि बड़े घर में जा रही हूँ तो खाना बनाने की ज़हमत मुझे नहीं उठानी होगी सो शादी तय हो जाने के बाद भी जो काम मुझे सिखा देने चाहिए थे वे उन्होंने लापरवाही के चलते नहीं सिखाये. घर संभालने वगैरह की बात जहाँ तक है तो हमारे घर में कुछ ऐसा सलीका था ही नहीं कि मेरी माँ मुझे सिखातीं. ये सब तो मैंने अनुराग के घर में आ कर ही देखा था.

और अब मैं इस मुसीबत में आन पड़ी थी. मुझसे ज्यादा अनुराग मुसीबत में था. उसे काम पर जाना था. अनुराग सुबह उठ कर पहले दिन ऑफिस जाने को तैयार हुया तो मैं रसोई में खड़ी हो कर चाय बनाने के बारे में सोच रही थी. मुझे चाय के अलावा कुछ और बनाना नहीं आता था. सबसे बड़ी बात तो ये थी कि मुझे ये तक नहीं पता था कि अगली सुबह के नाश्ते का इंतजाम पहली रात को ही घर में कर के रखना होता है.

चाय और चीनी तो थी घर में. अनुराग की मम्मी ने सब कुछ डब्बों में भर कर रखा था. लेकिन दूध नहीं था फ्रिज में, न ब्रेड और न ही अंडे. मेरे घर में तो सुबह नाश्ते में चाय और कुछ जो भी रात का बचा हुआ हो वो खा लिया जाता था.

अनुराग ने पूछा क्या है खाने को तो मेरे पास कोई जवाब ही नहीं था. डरते डरते जब मैंने बताया कि दूध भी नहीं है तो वह चुपचाप बाहर निकला, स्कूटर स्टार्ट किया और पन्द्रह मिनट बाद दूध, ब्रेड, अंडे, बिस्कुट और रस्क वगैरह ले कर घर में घुसा और फ़ौरन रसोई में आ कर नाश्ता बनाने लगा. मुझसे बेहतर था वो नाश्ता बनाने में. उसने ही मुझे आमलेट बनाना सिखाया. ब्रेड को टोस्ट करना सिखाया तवे पर, अगर लाइट न हो या टोस्टर खराब हो जाये तो.

फिर माँ बेटे में कुछ बात ज़रूर हुयी होगी क्योंकि उस दिन दोपहर में मम्मी ने मुझे फ़ोन कर के अपने साथ लंच के लिये बुला लिया था. मेरे खाना पकाने या ना पकाने के बारे में कोई बात नहीं हुयी थी. बस उन्होंने एक नया इंतजाम किया और मुझे बताया कि दोपहर का खाना हम दोनों उनके साथ खाया करेंगे और शाम को मम्मी और पापा हमारे साथ हमारे घर पर डिनर किया करेंगे.

अब अनुराग की मम्मी शाम को चाय के बाद मेरे घर आ जातीं और उनकी निगरानी में मैं खाना बनाती. वे मुझे एक-एक बात समझातीं. उन्होंने एक बड़ी सुंदर सी नोटबुक भी मुझे गिफ्ट की और मैं एक एक चीज़ उसमें नोट करने लगी.

कई बार लगता था कि जैसे मैं उनके स्कूल की कोई छात्र ही हूँ. उसी तरह वे बड़े धैर्य से मुझे सिखाती. उन्होंने मुझे खाना प्लान करने से लेकर बाज़ार जा कर सामान खरीदने और फिर घर ला कर उसे संभालने और फिर खाने की तैयारी से ले कर खाना बनाने और परोसने के तरीके सब इस तरह सिखाये कि मैं एक तरह से खुद को नए सिरे से खोज पा रही थी.

मुझे लगता था जैसे मेरे जैसी अनगढ़ लडकी को मम्मी ने एक पूर्ण औरत बना दिया था. अनुराग की मम्मी मुझे इतना प्यार करतीं जैसे मैं उनकी अपनी जाई हूँ. कई बार तो अनुराग की बहन नीलिमा को शिकायत होने लगती कि जब से मैं घर में आयी हूँ मम्मी ज्यादा वक़्त मेरे साथ बिताती हैं.

ऐसे में उन्होंने एक और रास्ता निकाल लिया था. वे शाम को होम वर्क के बाद नीलिमा को भी आदेश देती कि वो मेरे घर आ जाये और हम तीनों ही मेरी रसोई में खाना बना रहे होते जब पापा और अनुराग एक-एक कर घर में दाखिल होते. ऐसे लगता था कि दो घरों में रह रहा एक परिवार नए सिरे से रिश्तों के नए धागे बाँध रहा था.

जैसे-जैसे मैं खाना बनाने में पारंगत होती गयी मम्मी और पापा का डिनर के लिए आना कम होता गया.

एक दिन ऐसा भी आ गया कि दो हफ्ते बीत जाने के बाद भी मैं और अनुराग हम दोनों ही थे डिनर पर. अलबत्ता लंच पर मेरा मम्मी के घर जाना अभी चल ही रहा था इसलिए मम्मी की कमी महसूस नहीं होती थी मुझे.

अनुराग ने पुछा, “आजकल तुम दिन में रोज़ जाती हो मम्मी के घर?”

“हाँ. तुम्हारी मम्मी न?”

“हाँ यार. मुझे पता है तुम अपनी मम्मी के घर तो महीने में एक दिन भी नहीं जाना चाहती.” वह हंस पडा था.

“सुनो. अब मम्मी ने तुम्हें खाना बनाना सिखा दिया है अब जब वो बुलाएँ तभी जाया करो.”

“क्यों?" मैं हैरान थी. मुझे तब इतनी समझ नहीं थी कि मैं अनुराग की गहरी बातों का मतलब समझ सकूं. वो तो खैर मैं अब भी कई बार नहीं समझ पाती. कई बार झुंझला भी उठता है. लेकिन फिर मुझे हैरान देख कर मुस्कुरा देता है.

“इसलिए मेरी जान कि ये सारा इंतजाम इसीलिये था ताकि तुम्हें मम्मी खाना बनाना सिखा दें. और घर संभालना भी. अब बचा-खुचा अपने आप भी सीख लो यार."

मैं क्या कहती? हैरान थी और चुप्पी साधे बैठी रही. इतना आदर और प्यार मुझे अनुराग के परिवार से मिल रहा था जिसकी ना तो मैंने उम्मीद की थी न कभी सोचा ही था.

“और सुनो मम्मी को भी अपना स्पेस चाहिए न. वे थकी हुयी आती हैं. उन्हें अब अपनी ज़िम्मेदारी से आज़ाद कर दो. उन्होंने इसी लिए तो मेरा अलग घर बना दिया ताकि हम लोग अपनी जिम्मदारी खुद उठायें और वे नीलिमा के साथ ज्यादा वक़्त बिता सकें. उसको मम्मी की ज्यादा ज़रुरत है. “

मैं ज्यादा कुछ तो नहीं समझ पाई थी लेकिन इतना ज़रूर समझ गयी थी कि अब मुझे अपना घर खुद संभलना होगा और मम्मी का मुंह हर बात के लिए देखना बंद करना होगा.

इस तरह हमारा दाम्पत्य एक दायित्व की तरह शुरू हुआ था. मैंने घर संभालना शुरू कर दिया था एक ज़िम्मेदार गृहणी की तरह और अनुराग ने पूरी तरह खुद को काम में डुबो दिया था. कई बार वो मुझ से भी अपने आय. टी. के काम के बारे में बात करता था लेकिन मैं कुछ ज़्यादा समझ नहीं पाती थी और "हाँ हूँ" के अलावा कुछ कह नहीं पाती थी. कई बार उसने कोशिश की मुझे समझाने की लेकिन मुझे दिलचस्पी ही नहीं थी. मैं तो अब पूरी तरह घर के काम में डूब गयी थी.

मुझे हर वक़्त अब घर का ख्याल रहता था. घर को साफ़-सुथरा रखने, सजाने, संवारने, तरह-तरह का खाना बनाने में मैं पूरी तरह डूब गयी थी. यहाँ तक कि अब कई बार ऐसा होता कि अनुराग घर पर होता, मेरी तरफ उम्मीद से देख रहा होता और मैं कपडे धो रही होती, या सफाई कर रही होती, या कपडे इस्त्री कर रही होती. कुछ नहीं तो रसोई में कोई नयी डिश बनाने में लगी होती.

मुझे ये पुरानी कहावत बड़ी पसंद थी कि मर्द के दिल का रास्ता उसके पेट से हो कर गुज़रता है. लेकिन अब समझ में आने लगा है कि दिल के रास्ते दिल में ही होते हैं. उन्हें इधर उधर ढूँढने से बात नहीं बनती. कम से कम अनुराग के साथ तो ऐसा ही था.

वो मुझसे दोस्ती और साथ की मांग करता था लेकिन मैं घर में डूबी देख ही नहीं पाती थी कि वो क्या चाहता है. सच तो ये था कि माता-पिता के घर में जिस तरह की तंगी मैंने अब तक देखी थी उसके बाद यहाँ का खुला-खुला माहौल मुझे बहुत अच्छा लगता था. एक दो बेडरूम का घर जिसमें एक बड़ा सा हॉल भी था, पूरा का पूरा मेरी मिलकियत थी. मैंने कभी ऐसी विलासिता का सपना भी नहीं लिया था.

मैं इस घर के ऐश और आराम में डूब सी गयी थी. मन से हर काम करती और जी भर कर जीती. इतना घर में डूब जाती कि अनुराग जैसे प्रेमी पति को भी मानो भुला देती. और फिर ऐसे ही एक दिन मुझे पता लगा कि मैं माँ बनने वाली हूँ.

ये जान कर तो मेरे और अनुराग के मानो पर ही लग गए. हमें लगा कि दुनिया जहान की खुशियाँ अब हमारे क़दमों में आ गिरेंगी. अरुण और उसके ढाई साल बाद नीलिमा भी आ गयी. और हमारा जीवन जैसे एक चक्कर घिनी बन गया. मेरा तो ख़ास तौर पर.

बच्चों की परवरिश, स्कूल और उनकी मांगों के बीच हम दोनों खपते चले गए. अनुराग के प्रति मेरा प्यार उसके लिए खाना बनाने और उसके कपड़ों का ध्यान रखने तक सिमट कर रह गया.

अब पिछले कुछ साल से जब से बच्चे किशोर हुए हैं उनके नखरे और आये दिन की इमोशनल उठा-पटक को सँभालते मुझे अनुराग की बहुत ज़रुरत पड़ती है तो मैंने देखा है कि अनुराग की तो एक अलग ही दुनिया बस गयी है. दोस्तों और काम की.

उसके पास वक़्त ही नहीं है हम सब के लिए. हालाँकि वो चाहता तो है हमारे साथ वक़्त बिताना लेकिन घर चलाने के लिए तो खूब सारा पैसा चाहिए. सो उसे कमाने के लिए अब वो सर से लेकर पैर तक कारोबार में डूब गया है. उसका सारा वक़्त उसी में गुज़रता है.

अब मुझे समझ आ रहा है कि मैं जैसे अनुराग को खो ही चुकी हूँ. कभी कभी लगता है कि जैसे हर शादी का आखिरकार यही हाल होता है. अपनी सहेलियों से बात करती हूँ तो सभी का यही कहना है कि मर्द लोग घर से बाहर रहना ही पसंद करते हैं. पैसे दे देते हैं और फिर चाहते हैं कि उन्हें परेशान ना किया जाए और सब कुछ हम औरतें ही संभाल लें.

ऐसे में कभी कभी मैं रूठ जाती हूँ अनुराग से अपनी बात मनवाने के लिए. हालाँकि वो मेरी सभी बातें मानता है लेकिन जब कभी मुझे उसका ज्यादा समय चाहिए होता है तो मैं रूठने का या बीमार पड़ने का बहाना कर के उसे खींच लाती हूँ.

लेकिन ये कुछ वक़्त के लिए ही हो पाता है. कुछ ही दिनों में अनुराग वापिस अपनी पहले वाली दिन-चर्या में गुम हो जाता है और मैं अपनी दिन चर्या में. जिसमें बच्चों से प्यार-मनुहार लड़ना झगड़ना शामिल है. जबकि अनुराग के लिए उसके दोस्त और काम में डूब जाना.

ये रूठना मनाना भी ज़रूरी होता है शादी को चलाने के लिए. मम्मी यही कहती है. मौसी जी भी ऐसा ही कहती हैं वे लोग अपने अपने पतियों से इसी तरह अपनी सारी बातें मनवाती हैं. इन पति लोगों से और पापा लोगों से इसी तरह प्यार मनुहार रूठ वूठ कर अपने सारे काम निकलवा लेने चाहियें. वर्ना शादी का तो हाल ये ही है. बस ठस्स हो जाती है. प्यार इश्क तो जाने कहाँ चला जाता है. बस अच्छे कपड़े पहन लो और अच्छा खाना खा लो. फिल्में देख लो. यही ज़िन्दगी है.

खाना बना लो बच्चे पाल लो. प्यार? बस भूल जाओ. शादी के बाद क्या होता है प्यार-व्यार? मैं ही बस कभी कभी बेवकूफों की तरह फ़िल्मी प्यार के बारे में सोचने लगती हूँ. नहीं सोचना चाहिए मुझे भी.

अभी उस दिन की बात है. अरुण की बत्तमीजी की वजह से परेशान थी मैं. अनुराग रात भर होटल में ठहरा था. उसकी मीटिंग और पार्टी देर तक चले तो वो वहीं रुक गया. सुबह देर से आया तो मैं घबरा गयी उसके न होने से. मेरा दिमाग खराब हो गया.

मैंने तो बस कैकेयी की तरह पाटिया पकड़ ली. सुना है इस तरह पति करीब आ जाता है. वो आया बहुत करीब आया. बहुत प्यार किया उसने मुझे. डॉक्टर के पास भी ले कर गया. अनुराग बहुत प्यार तो करता है मुझे आज भी. लेकिन अब सब कुछ पहले जैसा तो नहीं हो सकता न. मैं भी पता नहीं क्या क्या सोचती रहती हूँ.

उस दिन पूरी शाम हम चारों घूमते रहे, फिल्म भी देखी. लेकिन मुझे बार बार लगा जैसे अनुराग खोया-खोया सा है. उसके कई दिन बाद तक वो परेशान सा लगा. मेरे पूछने पर उसने हंस कर टाल दिया था. मैं भी इसे शादी का ही एक हिस्सा मान कर बात को बंद कर देती हूँ. क्या फायदा बात बढ़ाने से? कारोबार में कोई मुश्किल होगी. मुझे बता भी देगा तो मैं कोई मदद तो कर नहीं सकती. ऐसे ही ठीक है. न बताये.

और हम कर भी क्या सकते हैं? शादी भी तो बहुत ज़रूरी है. अब ये ऐसे हो जाती है धीरे धीरे तो ठीक है. यही ज़िन्दगी है न फिर. क्या किया जाए?

प्रितपाल कौर.