बेबस आंखें Dr Narendra Shukl द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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बेबस आंखें

बेबस आंखें

सब कुछ , देखती हैं आंखें -

प्रियतम का इंतज़ार करती प्रेमिका को

मीनार शिखर पर बांग देते हये पवित्र मौलवी को

भीख मांगते , मासूम बच्चों को

आत्महत्या करते गरीब अन्नदाताओं को

रोज़गारों के अभाव में , भीड़-तंत्र का हिस्सा बनते होनहारों को

सड़क पर कुचली , लावारिस लाश को

नगर की गडम - गडड स्थिति को

और

डर के मारे प्लायन करते लोगों को

आशीर्वाद के बहाने , कोमलांगियों को फांसते ढ़ोंगी पंडितों को

जाति व धर्म के नाम पर वोट मांगते नेताओं को

बेकसूरों पर कोड़़े बरसाती मदांध पुलिस को

ईमान का सौदा करते भ्रष्ट अधिकारियों को

मजबूरी में शरीर बेचती अबलाओं को ।

झूठी खबर चलाने वाले बिकाउ मीडिया को

सब कुछ निहारती हई , मूक बन गई हैं ये

जो कभी युगदष्टा कहलाती थीं

या कि -

स्ंजय बन , धतराष्ट्र को युद्ध का हाल सुनाती थीं

आज वही -

चुपचाप , बेजान पड़ी -

फिर किसी , अवतार की तलाश कर रही हैं ।

फिर किसी , अवतार की तलाश कर रही हैं ।

- डा़ नरेंद्र शुक्ल

भिखारी और नेता

निर्लज्ज भिखारी

चैराहे पर चीथड़े पहने

दयनीय अवस्था में भीख मांग रहा है -

अल्लाह के नाम पर

इस भूखे भिखारी को कुछ दे दो बाबा -

तुम्हारे बच्चे जियेंगे ।

दुआएं दिये जा रहा है ।

उससे कुछ दूर हटकर

उसी चैराहे पर

सुंदर , उज़ले , सफेद

मखमलीय अवस्था में

नेता भीख मांग रहा है -

भाइयो और बहनों -

अगर तुम देश का भला चाहते हो तो

बेरोज़गारी, अशिक्षा और भुखमरी की खातिर

नेहरु , गांधी , शास्त्री के लिये

सुभाष, भगतसिंह व पटेल की खातिर

हमारी घोड़ा - गाड़ी पर बैठो

यह चिन्ह आपका अपना है ।

और , मैं भी आपका अपना हूं ।

यह देश आपका अपना है ।

अपनो से दोस्ती करना सीखो ।

देश के विकास में भागीदार बनो ।

केवल -

एक ही रोटी दे दो बाबा ।

एक फटी कमीज़ ही माई ।

चार दिन से भूखे , इस नन्हें जीवट के लिये ।

दुधमुंहे बच्चे को गोद में उठाये

ठंड में कांपता ,

रिरिया रहा है ।

पिछली सरकार ने क्या किया है ?

राम - रहीम के नाम पर लड़वाया है ।

बेटे से बाप मरवाया है ।

सोना गिरवी पड़ा है ।

पैसे से घर भरा है ।

आटे , दाल और तेल व गैस की कीमतें बढ़ाईं हैं ।

भाई - भाई में आग लगवाई है ।

चारों ओर मासूमियत की चितायें जल रही है

बेरोज़गारी, अशिक्षा और भुखमरी निरंतर बढ़ रही है ।

दलाली , भ्रष्टाचार , अगवाही और बलात्कार आम है ।

सब तरफ अपना ही नाम है

समझा रहा था वह ।

जनता मूक खड़ी है ।

कभी भिखारी और कभी नेता को घूर रही है ।

भिखारी -

आंखों ही आंखों से कह रहा है -

समूचा भारत जल रहा है ।

सुनो -

तुम आज़ नेता हो

लेकिन ,

याद करो , कल मेरी ही तरह से थे ।

हम यहीं , इसी चैराहे पर साथ - साथ भीख मांगा करते थे।

आज़

फ़रक , केवल कटोरे और बंदूक का है ।

इसलिये -

दोस्ती की खातिर -

भैया , मुझे भी अपनी आवाज़ पहुंचाने दो ।

मुझे भी अपनी आवाज़ पहुंचाने दो ।

- डा़ नरेंद्र शुक्ल