प्रकृति मैम - विकल्पों की मौजूदगी Prabodh Kumar Govil द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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प्रकृति मैम - विकल्पों की मौजूदगी

15. विकल्पों की मौजूदगी
मेरे घर से थोड़ी ही दूर पर एक मकान में तीन लड़के रहते थे, जो कोल्हापुर में एम बी ए करने आए हुए थे।
मेरे सभी मित्र अब उनके कॉलेज में तीन महीने की छुट्टियां हो जाने के कारण अपने - अपने घर जा चुके थे।
मैं एक शाम खाना खाने के बाद अपनी कॉलोनी में अकेला ही टहल रहा था कि उन्हीं एम बी ए छात्रों में से एक लड़का मेरे पास आया। उसने अभिवादन करके अपना परिचय दिया। वो अपनी इंटर्नशिप के बारे में कुछ बात करना चाहता था जो उसे अपना फर्स्ट ईयर पूरा होने पर करनी थी।
उसके परिचय में एक छोटा सा जुमला ऐसा था कि क्षण भर में ही वो मेरे साथ अपनापन महसूस करता हुआ मेरे घर चला आया। वो जयपुर से था, और वहां जयपुर में मेरे घर से कुछ ही दूरी पर उसके माता- पिता रहते थे।
उसी शाम उसके बाक़ी मित्र भी उसके साथ मुझसे मिलने चले आए। मुझे ये जानकारी मिली कि वो तीनों ही राजस्थान के हैं।
मैं कभी भी इस विचार का नहीं रहा था कि केवल अपने शहर, अपनी संस्था, अपनी जाति - धर्म या अपने विचार के लोगों से ही मित्रता रखूं। मेरे लिए सब एक से होते थे। चाहे उनकी कुछ भी उम्र या हैसियत क्यों न हो!
हम अच्छे मित्र बन गए और रोज़ मिलने लगे। अब हम कभी - कभी खाने के लिए मैस में न जाकर घर पर ही खुद खाना बनाने के प्रयोग भी करते।
वो अपनी पढ़ाई की किताबें और होमवर्क भी कभी - कभी मेरे घर ले आते और हम सब मिलकर अपना - अपना काम भी करते। मैं अपना लेखन करता, वो अपनी पढ़ाई।
मेरे ऑफिस के करीब ही कोल्हापुर का एक मशहूर होटल था। एक दिन मुझे किसी से खबर मिली कि उसमें सुविख्यात मराठी एक्ट्रेस वर्षा उसगावकर आकर ठहरी है। वर्षा की एक हिंदी फ़िल्म भी आ चुकी थी इसलिए अब वो उत्तर भारत में भी एक जाना - माना नाम बन चुका था। वो किसी विज्ञापन फ़िल्म की शूटिंग के लिए आई थी।
मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब शाम को मुझसे एक व्यक्ति घर पर मिलने आया। उसने बताया कि उसने मेरा पता बैंक से लिया है। साथ ही उसने अपना परिचय ये कह कर दिया कि वो वर्षा उसगावकर के साथ आई फ़िल्म यूनिट का सदस्य है, जो सहायक निर्देशक होने के साथ - साथ लेखन के काम से जुड़ा हुआ है। उसने कहा कि हमारे डायरेक्टर ने फ़िल्म मैगज़ीन माधुरी में छपी आपकी कहानी पढ़ी थी,और बाद में मुंबई के टाइम्स ऑफ इंडिया ऑफिस से आपका पता लिया। माधुरी वहीं से निकलती थी।
उसका कहना था कि मराठी के वो प्रोड्यूसर अब कोई हिंदी फिल्म बनाने वाले हैं और आपको अपने साथ जोड़ना चाहते हैं।
मुझे बहुत खुशी हुई। पर मैंने उनसे कहा कि मैं एक बार अपने उच्च अधिकारियों से बात करने के बाद आपको कुछ बता पाऊंगा। मैंने उन्हें स्पष्ट बता दिया कि मैं मुंबई में ही अपना ट्रांसफ़र चाहता हूं। यदि ऐसा निकट भविष्य में हो गया तो मुझे आपके साथ जुड़ कर खुशी ही होगी, पर यदि ऐसा नहीं भी हो पाया तो मैं आपको अपनी कहानी दे दूंगा, जिस पर संवाद और पटकथा आप किसी और से लिखवा सकेंगे।
वो आश्वस्त हो गए और मेरा पता- संपर्क लेकर चले गए।
मैं अपने जीवन में आए ऐसे अवसरों पर अपनी नियति और नक्षत्रों की चाल पर सब कुछ छोड़ कर ही रह जाता था, और वक़्त का इंतजार करने में खो जाता था।
जब दिल्ली से पांच साल पूरे होने पर बाहर निकलने की आशंका की बात आई थी तब भी मेरे पास एक ऐसा अवसर आया था।
उस समय बिहार के एक प्रखर पत्रकार मुझसे मिलने मेरे कार्यालय में ही आए थे और उन्होंने एक सांसद महोदय द्वारा दिल्ली में शुरू की जा रही एक पॉलिटिकल मैगज़ीन से जुड़ने का ऑफर मुझे दिया था। उनका कहना था कि वो मुझे मिल रहे वेतन के साथ - साथ रहने के लिए निशुल्क फ्लैट भी मुझे दे सकेंगे।
पर घर में चर्चा के बाद मेरे सबसे बड़े भाई ने ये कह कर मुझसे स्पष्ट इनकार करने के लिए कह दिया था कि सांसद महोदय के भविष्य का क्या भरोसा? कल चुनाव हार गए तो उनके साथ तुम्हारे भी डेरे - तंबू उठ जाएंगे!
मैं जर्नलिस्ट वेलफेयर फाउंडेशन का पुरस्कार मिलने के बाद
दिल्ली के तुगलक़ रोड स्थित तत्कालीन केंद्रीय मंत्री कमल नाथ जी से भी मिला था। उन्होंने बहुत आत्मीयता से बात की थी और मुझसे कहा कि अभी तो मैं बैंक में हूं, पर यदि भविष्य में कभी बैंक छोड़ने का मन बने तो उनसे ज़रूर संपर्क करूं।
ये सब जीवन के ऐसे प्रमाणपत्र थे जो न तो मेरी जेब में थे, और न ही मैं किसी को दिखा सकता था। ये केवल मेरे दिमाग़ में रह कर मेरे मन को मज़बूत बनाते थे।
मेरे व्यक्तित्व में इनसे एक आत्मविश्वास छलकता रहता था।
मेरे नए तीनों मित्र अब गहरे मित्र बन गए थे। वे अक्सर मेरे पास आने लगे थे और हम सब रात को भी कभी - कभी एक साथ रुक जाते। शनिवार या किसी त्यौहार की छुट्टी में हम लोग ताश भी खेलते थे। हम ज़मीन पर बिस्तर बिछा लेते और दो बिस्तर पर चार आराम से सोते।
कोल्हापुर में गणेशोत्सव बहुत धूमधाम से मनाया जाता था। उन दिनों भी हम खूब घूमते। फ़िल्में भी देखते।
उस रात मैं अपने घर पर अकेला ही था। मैस में खाना खाकर मैं सड़क पर काफ़ी दूर तक टहल कर आया। फ़िर थोड़ी देर एक उपन्यास पढ़ा और बाद में लाइट बुझा कर सो गया।
मैं गहरी नींद में था कि अचानक मेरे दरवाज़े की घंटी ज़ोर से बजी। अब घंटी तो यंत्र ही थी, ज़ोर से तो क्या बजी होगी, हां, कुछ देर तक ज़रूर बजी। रात का नीरव सन्नाटा था,इसलिए आवाज़ कुछ कर्कश सी लगी। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा।
सबसे पहले ध्यान सामने दीवार पर टंगी घड़ी पर गया। इस समय रात को एक बजे कौन हो सकता है?
गर्मी होने के कारण मैं केवल चड्डी पहन कर तेज़ पंखे में सोया था, पहले सकपका कर मैं पायजामा पहनने की गरज़ से बाथरूम की ओर जाने लगा, क्योंकि पायजामा वहीं टंगा हुआ था। पर घंटी जिस घबराहट भरे स्वर में बजी थी,मुझे किसी इमर्जेंसी का अहसास हुआ। मैं ऐसे ही लगभग दौड़ कर दरवाज़े पर गया और मैंने दरवाज़ा खोल दिया।
सामने पसीने से लथपथ एक छोटा सा लड़का बिखरे हुए बालों और हवाइयां उड़ता चेहरा लिए खड़ा था। लड़के की उम्र लगभग अठारह उन्नीस साल होगी। लेकिन कद काठी से वो और भी छोटा दिखता था।
उसने एकदम से हाथ जोड़ कर कहा- भैया नमस्ते!
मैंने लड़के को पहले कभी कहीं देखा नहीं था, और मैं उसे पहचाना भी नहीं।
मैंने कुछ संकोच के साथ कहा- मैंने तुम्हें पहचाना नहीं..पर मेरी बात पूरी होने से पहले ही उसने झट दरवाज़ा बंद करते हुए कहा- जी भैया, मैं विवेकानंद का भाई हूं, अभी कर्नाटक से आ रहा हूं,उसने ही आपका पता दिया है, मैं सुबह सुबह वापस चला जाऊंगा।
अब मेरी हैरानी कुछ कम हुई, और मैं उसके लिए पीने का पानी लेने रसोई में जाने लगा।
लेकिन जितनी देर में रसोई के भीतर जाकर मैं मटके से पानी निकालता वह हड़बड़ा कर बोला - मुझे कुछ नहीं चाहिए,आप सो जाओ भैया। कहते- कहते उसने भी अपनी कमीज़ और पैंट उतार कर एक ओर कुर्सी पर लगभग फेंकी और मेरे बिस्तर पर छलांग सी लगा कर आ गया।
मैंने कहा- दूसरा गद्दा है, अलग बिछा दूं?
पर वो बोला- लाइट बंद कर लो भैया, सो जाओ, यहीं सो जायेंगे, आप परेशान मत हो।
लाइट बुझा कर मैं भी बिस्तर पर आ गया। वह काफ़ी घबराया हुआ सा लग रहा था, मेरे लेटते ही लगभग मुझसे लिपट गया।
उसने मेरी कमर के गिर्द अपना एक हाथ कस कर लपेटा और मुंह मेरे सीने पर चिपका कर किसी बच्चे की तरह सो गया।
वह कुछ कांप रहा था, और उसका माथा काफी गरम हो रहा था।
मैंने भी उसे अपने से लिपटाया और उसके बिखरे बालों में हाथ फेरने लगा।
मैंने धीरे से कहा- अरे, तुम्हारी तो तबियत खराब है, खाना खाया है? कोई दवा लोगे?
पर वो कुछ नहीं बोला, और बच्चे की तरह चिपक कर सोता रहा।
मैंने उसके बदन पर हाथ फेर कर उसे कुछ आराम पहुंचाने की कोशिश की, एक बार अपना मुंह उसके मुंह से सटा कर सूंघा भी, कि कहीं किसी नशे आदि के असर में तो नहीं है।
पर मुझे वो शराब पिए हुए नहीं लगा, अलबत्ता उसके मुंह से प्याज़ लहसुन की तेज़ गंध ज़रूर आ रही थी।
उसके पेट पर हाथ फेर कर मैंने ये अनुमान भी सहज ही लगा लिया कि वो भूखा नहीं है।
उसे बुखार था,और तेज़ पंखे में केवल चड्डी पहने ही सोया हुआ था, मैंने सोचा कि पंखा कुछ धीमा करूं, पर उसने मेरी कमर को इस तरह जकड़ रखा था कि मैं उठ न सका।
मैं भी सो गया। दो अजनबी, जो आधे घंटे पहले तक एक दूसरे को जानते तक न थे, अकेले कमरे में एक दूसरे से लिपट कर बेखबर सोए हुए थे।
नींद के आगोश में जाकर किसे कुछ याद रहता है!
सुबह करीब साढ़े पांच बजे जब मेरी आंख खुली तब बाहर हल्का अंधेरा ही था। मैंने एक बार पास में लेटे हुए उस लड़के के सिर पर हाथ लगा कर देखा कि उसे बुखार तो नहीं है!
पर मेरे हाथ लगाते ही वह उठ बैठा और ये कहते हुए बिस्तर से उठा कि- मैं जाऊंगा!
मैंने कहा- मैं चाय बना रहा हूं,पीकर चले जाना।
पर वो झटपट कपड़े पहनने लगा। बोला- नहीं भैया,मुझे जाना है,आप सो जाओ, अभी बहुत जल्दी है!
वह जूते पहन रहा था।
- अरे, तुम्हें लैट्रीन जाना हो,या हाथ मुंह धोना हो तो धो लो... मैं कहता ही रह गया, इतने में वो जूते के लेस बांध कर एकदम मेरे पैर छूने के लिए झुका, फ़िर दरवाज़ा खोल कर तीर की तरह बाहर निकल कर नीम अंधेरे में विलीन हो गया।
मैं हतप्रभ सा कुछ पल बैठा रहा, फ़िर चाय बनाने के लिए उठा।
उस दिन मैं अपने ऑफिस में भी अनमना सा रहा। ऑफिस में काम करने वाला लड़का राजगोलकर,जो कर्नाटक से आता था और मेरा बहुत ख्याल रखता था, मेरे पास आकर बैठ गया।
वह बोला- आज आप कुछ विचलित से दिख रहे हैं,लगता है आपको घर की याद आ रही है, मैं इस शनिवार को शाम को आपको अपने साथ अपने कमरे पर ले चलूंगा और हम साथ में खाना खायेंगे! मैं मुस्करा कर रह गया।
शाम को मैं अपने घर पहुंच कर चाय पी ही रहा था कि विवेकानंद के साथ उसके हॉस्टल में रहने वाला इंजीनियरिंग का छात्र मलप्पा आ गया। वह बोला- आपको पता है, परसों विवेक का भाई अभिषेक मैंगलोर से आ रहा था। उनका ट्रक ड्राइवर छुट्टी पर था तो वो खुद ही चला कर ला रहा था। उससे बेलगांव के पास एक्सीडेंट हो गया, शायद किसी की जान भी गई है। वो खुद भी लापता है,किसी को नहीं मालूम कहां गया!
मैंने मलप्पा को तो कुछ नहीं बताया पर खाना खाने के बाद रात को सोने के लिए उसे अपने पास ही रोक लिया। मैं अकेला नहीं रहना चाहता था उस दिन।
बीच में एक दिन किसी काम से मेरा पुणे जाना हुआ तो मैंने अपने एक उच्च अधिकारी से फ़िल्म यूनिट से हुई बात का ज़िक्र किया। वो कहने लगे कि इस तरह ऑफिस से बिना वेतन के लंबी छुट्टी लेकर उनसे जुड़ने की सलाह तो मैं नहीं दूंगा। कभी मुंबई में आपका ट्रांसफर हो जाए तो उनसे संपर्क कर लेना। अगर वो जल्दी में हैं तो कहानी उन्हें बेच दो। वैसे भी उनकी यूनिट से जुड़ कर उनके साथ आप कहां घूमते फिरोगे, मराठी फ़िल्मों वाले तो काम के पीछे दीवाने होते हैं।
उनकी बात सुन कर मैं कुछ झेंप गया। मुझे याद आया कि कुछ दिन पहले वो कोल्हापुर आए थे,तब शाम को मेरे ज़ोनल मैनेजर के साथ बाज़ार में मुझे मिल गए। मैं तब अपने जयपुर वाले दोस्तों के साथ पिक्चर देख कर लौट रहा था।
- कौन सी फ़िल्म देखी, ये पूछने पर मुझे कहना पड़ा- "दीवाना तेरे नाम का"! हम मिथुन चक्रवर्ती की यही फ़िल्म देख कर लौट रहे थे।
मैंने कोल्हापुर वापस लौट कर फ़िल्म यूनिट की बात अपने मन से निकाल ही दी।
इसी समय मेरे बैंक के एक साथी एक दिन घर आकर बोले- आपके घर के पास एक लॉ कॉलेज है जहां सुबह सात से साढ़े नौ तक क्लास होती है, मैं वहां लॉ ज्वॉइन कर रहा हूं।
मैंने सोचा, सुबह का समय तो आराम से मैं भी निकाल सकता हूं, मैंने भी उनके साथ जाकर लॉ में फर्स्ट सेमेस्टर में एडमिशन ले लिया और रोज़ कॉलेज जाने लगा।
मेरे पड़ोस में रहने वाले मेरे मकान मालिक ने मुझसे कहा- आख़िर आपके विद्यार्थी मित्रों ने आपको भी छात्र बना ही डाला!
मेरे मित्र राजगोलकर ने शनिवार को मुझे अपने कमरे पर ले जाकर जो पार्टी दी उसकी सबसे बड़ी खासियत ये थी कि उसके गोवा के दो मित्रों ने अपने हाथ से ही कमरे पर लज़ीज़ चिकन पकाया था। रात को मैं उसके पास ही ठहरा क्योंकि अगले दिन रविवार था और मुझे सुबह लॉ की क्लास में नहीं जाना था।
इस बीच मैंने निरीक्षण के चलते लगभग तीस - चालीस आसपास के शहर व गांव और भी देख लिए थे। गोवा में भी खूब घूमना हुआ। पणजी, वास्को, मडगांव और लगभग सभी बीच देख डाले, क्रूज़ पर भी यात्रा की, वहां का ट्रेडिशनल डांस भी देखा। वहां के प्रसिद्ध चर्च भी देखे। सातारा, सांगली, मिरज, बेलगांव के कई चक्कर लग गए। कभी - कभी कॉलेज से फ़्री होने पर मेरा कोई मित्र भी मेरे साथ में आ जाता तो रात को होटल में भी अकेले रहने से बच जाता।
लेकिन इस कार्यालयीन घुमक्कड़ी में कभी - कभी मेरी क्लास का नुक़सान ज़रूर होता था।
मैं भी जानता था कि मैं केवल यहां समय पास करने और एक नई डिग्री ले लेने के लालच में ही भर्ती हुआ हूं, अतः क्लास को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लेता था।
एक दिन रात को मेरे घर पर एम बी ए वाले तीनों मित्र मिले तो हम चारों ही बेतहाशा खुश थे। यद्यपि चारों की खुशी के कारण अलग - अलग थे।
मैं तो इसलिए खुश था कि इतनी छुट्टियां कर लेने के बावजूद भी सेमेस्टर से पहले होने वाले टेस्ट में मेरे कॉलेज में सर्वाधिक नंबर आए थे।
अंकुर इसलिए खुश था कि उसकी बहन की शादी तय हो जाने के कारण उसे अब दो सप्ताह के लिए घर जाने को मिल रहा था। बाक़ी दोनों की भोपाल में इंटर्नशिप की मंजूरी आ गई थी, जिसमें उन्हें अच्छा स्टाइपंड भी मिलना था।
हम चारों ने उस दिन बियर पी और खाने के बाद रात को देर तक ताश खेलने का कार्यक्रम बनाया। अगले दिन किसी त्यौहार की छुट्टी भी थी।
उस दिन हम कुछ अलग ही शरारत के मूड में उतर आए। हमने ताश में एक नया नियम बना लिया कि हर गेम में चारों में से जो हारता जाएगा उसे हरबार अपना कोई एक कपड़ा उतारना पड़ेगा।
अक्सर हम में से जो लड़का ज़्यादा हारता था उसने झट से उठ कर पायजामा भी पहन लिया। उसके आत्म विश्वास पर सब हंसने लगे।
उस दिन हुआ भी यही कि हम में से दो केवल अकेले अंडरवियर में रह गए पर उसके तीनों कपड़े उतर गए।
उसने खूब हील - हुज्जत की,पर भाई लोग पायजामा और बनियान के बाद उसकी चड्डी भी उतरवा कर ही माने। वो मेरा हाथ पकड़ कर उनसे बचाने की गुहार लगाता रहा, पर मैं भी नियम की दुहाई देकर चुप ही रहा।
खेल के बाद रात को तीन बजे हम सब ज़मीन पर ही बिस्तर फैला कर घोड़े बेच कर सोए।
मौज- मस्ती के हमारे ये दिन जल्दी ही किसी कोहरे की दीवार की तरह छंट गए।
मेरे भी कोल्हापुर से ट्रांसफर के आदेश आ गए और वो सब भी शहर छोड़ कर चले गए। मुझे अब मुंबई के पास ठाणे में तैनाती मिली थी।
मैं नई जगह जाने से पहले एक बार अपने घर भी गया।
इस बार मैं काफ़ी दिन के बाद घर गया था, क्योंकि कोल्हापुर दूर होने के कारण बार - बार जाना असुविधा जनक होता था। पर अब मुंबई के निकट ठाणे में ट्रांसफर हो जाने से मुझे ये संतोष हुआ कि अब घर जाना जल्दी जल्दी हो सकेगा।
मेरी बेटी अब चार - पांच साल की हो गई थी, और अब उसे इस बात पर समझ पैदा होने लगी थी कि मैं इतने लंबे समय के लिए बाहर क्यों जाता हूं, यहीं उन लोगों के साथ क्यों नहीं रहता।
एक दिन वो मेरी गोद में बैठी बैठी बोली - पापा आप अब कहीं मत जाना, यहीं हमारे साथ रहना।
मैंने कहा- मैं जाऊंगा नहीं तो पैसे कैसे मिलेंगे?
वो बोली- हम आपको पैसे दे देंगे, हमारे पास भी तो पैसे होते हैं!
मैं निरुत्तर हो गया।
कुछ सोच कर वो बोली - अच्छा पापा, आप ये बताओ कि आप वहां पर क्या काम करते हो?
मैंने कहा- बहुत सारा ऑफिस का काम!
वो बोली- ऐसे नहीं, आप पूरा बताओ, कि आप को ऑफिस में क्या क्या काम करना पड़ता है?
मैंने कहना शुरू किया- देखो,सबसे पहले मैं वहां जाता हूं। वहां जो मुझे नमस्ते करता है उसे मैं भी नमस्ते कर देता हूं। फ़िर कुर्सी पर बैठ जाता हूं, अगर कोई मुझसे मिलने आता है तो मैं उससे बात करता हूं। कभी- कभी चाय पीने लग जाता हूं, फ़िर कोई पत्रिका आती है तो उसे पढ़ने लग जाता हूं। अगर कोई अंकल मेरे पास कोई काग़ज़ रखते हैं तो उस पर साइन कर देता हूं। फिर खाना खाने चला जाता हूं। कभी डाक आती है तो उसे पढ़ने...
वो गौर से एकटक देखती हुई मेरी बात सुन रही थी, फ़िर उसने एकदम से मेरे पास आकर ज़ोर से एक चांटा मेरे गाल पर मारा, और बोली- ये सब आप यहां नहीं कर सकते?
मेरा एकदम हंसते- हंसते बुरा हाल हो गया।
मैं अपनी मां और पत्नी को उसकी पूरी बात बताने लगा। वो भी दोनों हंसने लग गईं। पर बेटी को समझ में नहीं आया कि इसमें हंसने की क्या बात है? वो उसी तरह गंभीर बनी रही और मुझसे बोली- ये सब करने के आपको कौन पैसे देता है वहां?
मैंने प्यार से उसे गोद में लेकर समझाया कि अब मेरा ऑफिस पास आ गया है, मैं अब जल्दी जल्दी थोड़े दिन में ही घर आ जाऊंगा।
वो आश्वस्त होकर बाहर खेलने चली गई। मेरा बेटा तो अभी केवल छः महीने का ही था।
घर से लौटते ही मैंने एक बार फ़िर अपना बोरिया- बिस्तर समेट लिया और कोल्हापुर छोड़ कर ठाणे के लिए रवाना हो गया। मैंने अपना ज़्यादातर सामान अपने मित्रों के बीच पहले ही बांट दिया था।
लौटते समय हरियाली और रास्ता देखता हुआ मैं एक बार फ़िर आसमान से गिर कर खजूर में अटकने जा रहा था... चारों ओर हरी - भरी वादियां गुनगुना रही थीं- "बस्ती - बस्ती परबत - परबत गाता जाए बंजारा, लेकर दिल का एकतारा !"