राय साहब की चौथी बेटी
प्रबोध कुमार गोविल
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कॉलेज की पूरी इमारत जगमगा रही थी। ईंटों से बनी बाउंड्री वॉल को रंगीन अबरियों और पन्नियों से सजाया गया था। आज इस पर पांव लटका कर लड़के बैठे हुए बेसिरपैर की बातें नहीं कर रहे थे, बल्कि लड़के तो सज- संवर कर भीतर पंडाल में थे और बाउंड्री पर जगह- जगह फूलों के गुलदस्ते खिलखिला रहे थे।
गोल गेट की शोभा अलग ही निराली थी, जिस पर शफ़्फ़ाक कपड़ों में सजे- धजे चंद लोग मुख्य अतिथि की अगवानी के लिए खड़े थे। मुख्य अतिथि माने चीफ़ गेस्ट!
ये आपको बताना इसलिए पड़ता है क्योंकि वो अंग्रेजों का ज़माना था। कॉलेज अपनी स्थापना के पच्चीस साल, यानी रजत जयंती मना रहा था। सिल्वर जुबली।
"सड़क और इमारत" महकमे के आला इंजीनियर साहब आज के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि अर्थात चीफ़ गेस्ट थे।
इस फंक्शन के आयोजन और चीफ़ गेस्ट के चयन में भी एक पेंच था।
कार्यक्रम तो बहुत पहले से ही तय था। बल्कि महीनों से इसकी तैयारियां चल रही थीं। लेकिन चीफ़ गेस्ट का सिलेक्शन अभी हाल ही में आनन- फानन में किया गया था।
दरअसल कॉलेज के प्रबंध मंडल ने तो अपनी मीटिंग में ये फ़ैसला किया था कि इस जलसे में शिरकत करने के लिए चीफ़ गेस्ट के तौर पर शहर के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट साहब को दावत दी जाएगी जो कि महकमे के कलेक्टर भी थे। लेकिन अभी अभी एक ऐसी घटना घट गई जिससे कॉलेज का ही नहीं, बल्कि तमाम इलाके का सिर गर्व से ऊंचा हो गया।
शहर के सड़क और इमारत महकमे के इंचार्ज इंजीनियर साहब को सरकार ने उनकी अपनी भलमनसाहत और सरकार की खिदमतदारी के चलते हाल ही में "राय बहादुर" का खिताब अता कर दिया। खिताब क्या, रुतबा था रुतबा।
इंजीनियर गुप्ता जी को गुप्ता जी तो कोई पहले भी नहीं कहता था, अब लोगों ने उन्हें "इंसाब" की जगह "रायसाहब" कहना शुरू कर दिया।
और सोने पे सुहागा ये कि बाबू गुलाब राय उर्फ़ गुप्ता जी, अर्थात राय साहब किसी ज़माने में इसी कॉलेज के छात्र रहे थे। उन्होंने इंजीनियरिंग की तालीम लेने से पहले इंटर यहीं से पास किया था।
ऐसे में भला उनसे बेहतर और माकूल चीफ़ गेस्ट और कौन हो सकता था? लिहाज़ा कलेक्टर साहब का नाम फ़िलहाल ख़ारिज करके राय साहब को इस आलीशान सिल्वर जुबली समारोह में बुलाया गया था।
पूरा का पूरा इलाका उनके नाम से वाक़िफ था, उनके दबदबे का कायल था। उनकी शख्सियत से आशना था, सो जलसे के जलाल में कहीं कोई कमी नहीं थी।
लड़के जोश में थे। चाहे रंग -बिरंगी पतलून- कमीज़ में हों, चाहे शफ़्फाक कुर्ते- पायजामें में, और चाहे सूफियाना रंगों के ज़हीन पंजाबी या पठान- सूट में। उमंग से लबरेज़ थे।
एक मज़ेदार बात और भी थी। चीफ़ गेस्ट राय साहब को कहीं दूर से नहीं आना था, कि कालेज की मोटर उन्हें लेने जाए, कोई प्रोफ़ेसर या स्टूडेंट लीडर उनकी खिदमत या अगवानी को जाए, उनकी कोठी तो कॉलेज के ठीक सामने ही थी।
सड़क के उस पार उनकी कोठी का बड़ा सा जंगला नुमा गेट और इस पार कॉलेज का मुख्य दरवाज़ा।
सो न तो इंतजार जैसा कुछ था, और न ट्रैफिक में देर- सवेर का कोई अंदेशा। इधर से कार्यक्रम की शुरुआत का इशारा भर जाना था और उधर से राय साहब को चहल कदमी करते हुए नमूदार हो जाना था।
रायसाहब ने इस बाबत अपना भी एक कारिंदा सड़क पर छोड़ रखा था जो उन्हें बुलावे की इत्तिला दे।
उधर राय साहब की कोठी की गहमा- गहमी भी कुछ कम न थी। कोठी के अहाते में बच्चों की चहल- पहल तो रोजाना की तरह कायम थी साथ में सड़क के इस पर से आता शोर -शराबा अलग, जो जलसे के जल्दी शुरू होने की पूर्व- सूचना सी सारे मोहल्ले को दे रहा था।
शामियाना तो रंगीनियों से गुलज़ार था ही, छत के बरामदे में प्रोफ़ेसर अंसारी को भाग दौड़ करते देखा जा सकता था जिन्होंने अंग्रेज़ी विभाग के चंद लड़कों को लेकर इस मौक़े के लिए ख़ास शेक्सपीयर के एक नाटक की तैयारी कराई थी।
राय साहब की कोठी के अहाते में छुपन- छुपाई खेलते बच्चों को इससे कोई सरोकार न था, कि क्या तो होता है कॉलेज, और क्या कॉलेज का सिल्वर जुबली जलसा।
उन्हें तो फिकर इस बात की रहती थी कि उन्हें पिदना न पड़े, और न ही कोई बच्चा उसे आउट करने से पहले उन्हें दे दे ढैया!
राय साहब के अहाते में खेलती इस मंडली में पूरे मोहल्ले के बच्चे शामिल होते थे क्योंकि उन्हें उस कोठी में अपने साथ का हमउम्र कोई न कोई बच्चा ज़रूर मिल जाता था।
ख़ुद राय साहब के पांच बेटियां थीं, चार लड़कियां और फ़िर उनसे छोटा उन बच्चियों का एक भाई भी। और उसके बाद फ़िर एक सबसे छोटी लड़की।
राय साहब की धर्मपत्नी एक घरेलू, धार्मिक किन्तु आधुनिक विचारों वाली महिला थीं।
थोड़ी ही देर में जब तैयार होकर राय साहब अपने काफ़िले के साथ कॉलेज के फंक्शन में जाने के लिए निकले तो बच्चे दो पल खेल रोक कर उन्हें सी ऑफ करने अपनी अपनी जगह खड़े हो गए। केवल बेटे ने और उनकी एक बेटी ने नज़दीक आकर साथ ले चलने का आग्रह किया।
बेटा तो छोटा सा था, ये नहीं समझता था कि पिता कहां जा रहे हैं, कितनी देर में आयेंगे, इसलिए उसे ये कह कर समझा दिया गया कि "काम से जा रहे हैं तुम यहीं खेलो" पर उससे बड़ी वाली बिटिया समझदार थी, उसे ये कह कर नहीं बहलाया जा सकता था कि काम से जा रहे हैं, क्योंकि वो सुबह उनके चाय पीते हुए ही उनके मुंह से सुन चुकी थी कि आज काम की छुट्टी है।
पिता ने झुक कर उसके कान में कहते हुए समझाया, बेटी, एक कार्यक्रम में जा रहे हैं।
बिटिया का मायूस चेहरा देख कर पिता के साथ चल रहे कॉलेज के एक शिक्षक बोल पड़े, इसे भी ले चलिए राय साहब, ज़िद कर रही है तो!
राय साहब ने कहा- अरे ले चलते, पर वहां लिटरेरी प्रोग्राम है, बोर हो जाएगी और तुम्हीं को बीच में उठ कर छोड़ने आना पड़ेगा।
कह कर हंसते हुए राय साहब अपने लश्कर के साथ निकल गए और बिटिया वापस आकर खेल में दत्तचित्त हो गई।
जो बेटी पल भर पहले पिता से उनके साथ जाने की ज़िद कर रही थी वही अब किसी बड़े समझदार बच्चे की तरह अपने अनमने से हुए छोटे भाई को समझाती हुई भीतर ले जा रही थी कि पिताजी लिटरेरी प्रोग्राम में गए हैं न, वहां बच्चे नहीं जाते। चल, घर चल, अम्मा बुला रही हैं।
बड़ी तीनों बहनों में से किसी को भी "लिटरेरी" का मतलब नहीं मालूम था, पूछने पर तीनों ने मुंह बिचका दिया। पता तो उसे भी नहीं था, पर अब ये पता चल गया था कि लिटरेरी प्रोग्राम में बच्चे बोर हो जाते हैं।
उसने शाम को अम्मा से पूछ लिया लिटरेरी का मतलब। अम्मा ने कहा- वो बड़ों का प्रोग्राम होता है, लिखने -पढ़ने की बात!
बिटिया को ये अच्छी तरह मालूम हो गया कि लिखने- पढ़ने की बात बड़ों की होती है, उससे बच्चों का कुछ लेना- देना नहीं होता।
अम्मा को भी काम के बीच में इससे ज़्यादा समझाने को और कुछ याद न आया।
ये भी एक अजीब सी बात थी कि राय साहब की बेटियों को पढ़ने लिखने में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी।
स्कूल तो ख़ैर था ही, पर घर में पढ़ाने के लिए भी जो मास्टर आता वो अम्मा से यही कहता था कि दूसरी और चौथी बिटिया का मन तो पढ़ने - लिखने में लगता है पर बाक़ी बच्चे तो बस धक्का मार हैं, स्कूल से आए, बस्ता फेंका और ऐसे बोझ उतार फेंकते हैं मानो कहीं पत्थर फोड़ने गए थे।
अम्मा अनमनी सी देखती रह जाती थीं। मानो उन्हें ये समझ में ही नहीं आता कि मास्टर की इस बात का भला जवाब क्या दिया जाए।
- अरे लड़कियां ही तो हैं, कौन सी कलेक्टरी करनी है इन्हें।
वो गुलाम भारत के ज़माने की बात थी। लोग तो लड़कों तक की पढ़ाई- लिखाई से बेफिकर थे। पढ़ें तो ठीक, न पढ़ें तो ठीक, करना तो वही है जो मरे ये फिरंगी चाहेंगे। और लड़कों को भी नौकरी कोई लियाकत-सलाहियत से थोड़े ही मिलेगी, अंग्रेजों के तलवे चाटने से मिलेगी। वो भी बाबूगिरी। क्लर्की ।
लेकिन राय साहब इन बातों को नहीं मानते थे। वो तो उल्टा इस बात से चिढ़ते कि "लड़कियों को पढ़ाओ मत।"
वो तो बच्चों को अच्छी से अच्छी तालीम दिलाना चाहते थे। अंग्रेजों की मिसाल देते कि देखो - उनकी लड़कियां भी कितनी काबिल होती हैं?
इसीलिए राय साहब ने अपनी दूसरी और चौथी बिटिया को शहर के नामी टीकाराम गर्ल्स स्कूल में दाखिल कराया जहां तमाम तालीम याफ्ता अफसरों के बच्चे पढ़ते थे और पूरे कॉन्वेंट पैटर्न की पढ़ाई थी।
बाक़ी बच्चे सरकारी स्कूलों में ही जाते रहे। तीसरी तो वहां भी बस चौथी पास करके घर बैठ गई।
बिटिया इतनी साफ़ दिल और ईमानदार, कि अपने आप कहती- मैं पास कहां हुई, मैं पास थोड़े ही हुई, वो तो पिताजी के डर से टीचर ने पास कर दिया।
और चौथी कक्षा के बाद वो घर में अम्मा की असिस्टेंट बन गई। रसोई में।
बेटे के पीछे अम्मा पड़ती थीं कि कुछ कर -धर ले तो इसे ढंग के स्कूल में दाखिल कराएं, पर बेटे का जी न तख्ती -सिलेट में, न कलम -कापी में!
राय साहब का बेटा नवाब साहब!
कोई कुछ भी कहे, कुछ भी समझे, पर राय साहब ने बच्चों के लालन पालन में कहीं कोई कोताही नहीं की।
अब ये तो बच्चों की अपनी अपनी कुव्वत ठहरी कि कौन अपनी ज़िंदगी की कैसी तैयारी कर ले।
अम्मा ने बच्चों को घर के कामकाज सिखाने में दिल लगाया और राय साहब ने उनके भविष्य के लिए जमा- जोड़ने में।
जबकि वो समय तो केवल लड़कों को प्यार से पढ़ाने लिखाने का था, लड़कियों के लिए तो बस ये समझा जाता था कि ये घर का काम- धंधा सीख कर जितनी जल्दी पराए घर जाए, बला टले।
और ससुराल या लड़के भी कोई डिग्री नौकरी की बिना पर तो मिलते नहीं थे उन दिनों, ये देख कर मिलते थे कि लड़की का रंग कैसा है, सिलाई- कढ़ाई, रोटी बनाना कैसा जानती है। घरेलू और सेवा- टहल वाली है कि नहीं। बच्चे पाल लेगी?
और सबसे बड़ी बात ये कि लड़की रुपया, दान- दहेज कैसा लाएगी, इसके बाप ने लक्ष्मी साध रखी है कि नहीं। अगर ये काबिलियत हो तो लड़की को सुशील, संस्कारवती, सुलक्षणी समझा जाता था। चाहे वो घर में आते ही सास- ससुर की बोलती बंद कर दे!
इस मामले में तो ख़ैर राय साहब का रुतबा था ही।
स्कूल की पढ़ाई पूरी होते न होते राय साहब की सबसे बड़ी लड़की की शादी एक बड़े प्रशासनिक अफ़सर से हो गई। राज्य की राजधानी में बड़ा बंगला, बड़ा ओहदा।
राय साहब की बिटिया का नाम जैसे सार्थक हो गया। उन्होंने बेटी का नाम रखा था राजेश्वरी। बेटी सचमुच राजेश्वरी ही बन गई। नाते रिश्तेदार सब रश्क करते इस बिटिया के नसीब से।
दामाद बेहद काबिल, और बिल्कुल अंग्रेजों वाले ठाठ -बाट का था। "प्रिविलेज क्लास" का, उसका रुआब रुतबा सिविल सेवा वाला जो ठहरा। बंगले की शान भी अजब निराली थी।
सारे शहर ने शादी की दावत में शिरकत की। कई बड़े - बड़े विलायती अफ़सर भी शादी में आए।
राय साहब की वाहवाही में तो पहले भी कोई कोर कसर बाकी नहीं थी, अब और फैलाव ही आ गया।
इसी खुमार और बयार में राय साहब को उनके एक और समधी ने भी ढूंढ लिया। उनकी दूसरी बेटी का विवाह भी एक अच्छे परिवार में हो गया। ये दामाद भी सरकारी सेवा में अच्छे पद पर था। ये दूसरी बेटी पढ़ने लिखने में रुचि रखती थी पर इसे ज़्यादा मौक़ा ही नहीं मिला। शादी कुछ कम उम्र में ही हो गई।
राय साहब बेहद खुली तबीयत के थे फ़िर भी ये कैसे भूल सकते थे कि उनके पांच बेटियां हैं। उनके मन को इतनी मोहलत भला कैसे मिलती कि घर बैठे कोई रिश्ता आए और वो अनदेखा कर दें?
फ़िर ये दामाद भी अच्छा खासा था, रुतबे में पहले से उन्नीस ही सही, पर संजीदगी में उससे कम न था। घर बार भी ठीक ठाक।
राय साहब की तीसरी बेटी पढ़ी लिखी न थी। रंग भी बाक़ी बहनों के मुकाबले कुछ दबता हुआ सा ही था।
लोग कहते कि बस किसी तरह राय साहब इस तीसरी का घर बसा दें, फ़िर तो उन्हें बिल्कुल निश्चिंत ही समझो।
चौथी बेटी तो गोरी -चिट्टी और पढ़ी- लिखी भी थी। कॉलेज की पढ़ाई छहों भाई बहनों में अकेली एक उसी ने ही की थी।
लोग कहा करते कि उसका ब्याह तो पलक झपकते ही ऐसे होगा कि कोई खूबसूरत काबिल लड़का खुद आकर राय साहब से मांग कर उसे ले जाएगा।
न जाने ज़माने की ऐसी बातों से बेचारी तीसरी बेटी पर क्या गुजरती होगी। वो अकेले में जाकर शीशा देखती और अपनी डील डौल, कद काठी पर हताश सी होकर रह जाती।
पढ़ी लिखी बिल्कुल न थी। इसलिए अपने नसीब को निहारने के अलावा और कोई चारा भी नहीं। लेकिन थी तो आख़िर राय साहब की बेटी। उसकी भी एक दिन धूमधाम से डोली उठी।
एक साधारण से परिवार का खुद्दार और काबिल सरकारी अफ़सर उसे भी ब्याह ले गया। ये तीसरी बेटी शादी के बाद राजस्थान के जयपुर शहर में चली आई।
लोग कहते थे कि क़िस्मत हो तो राय साहब जैसी!
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