रिश्तों की अहमियत आयुषी सिंह द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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रिश्तों की अहमियत

" चल यार निशी फाइनली आज का एग्जाम हुआ, सच में बहुत लेंथी था पेपर " हमने अपना हाथ झिटकते हुए कहा।

" हां मीरा तू ठीक कह रही है " निशी भी थकी हुई बोली।

" देख बे माना आज तू अपनी स्कूटी लेकर अाई है पर इसका मतलब यह नहीं कि तू इसे चींटी की तरह रेंगा कर चलाए, चला जल्दी और घर छोड़ हमें " हमने अपनी आदतानुसर निशी की प्यार भरी बेइज्जती करते हुए कहा।

" मीरा देख गोलगप्पे..... खाएगी ? " निशी की आवाज़ में खुशी कम लाचारगी ज्यादा थी।

" क्या चाहिए कमीनी क्यों इतनी चापलूसी कर रही है ? " हम समझ गए दाल में कुछ काला है और उसी बेइज्जती वाले अंदाज में पूछा उससे ।

" यार वो सब्ज़ी लाने को कहा था मम्मी ने " निशी ने हिचकिचा कर कहा क्योंकि जानती है वो हमें सब्ज़ी खरीदना बहुत खराब लगता है और हम चिढ़ जाते हैं साथ ही उसे डांटने भी लगते हैं। हम भी क्या करें इसे डांटना हमारी आदत बन चुकी है आखिर हमारी सबसे अच्छी दोस्त है तो जब प्यार करते हैं तो डांटने का हक भी तो हमें ही है। वैसे कम नहीं है यह भी जरा कुछ गड़बड़ कर तो दें हमें एक कि जगह हजार सुनाती है हुहहह ।

" क्या सोचने लगी चल खा ले जल्दी " निशी की आवाज़ से इसकी बुराई की काल्पनिक दुनिया से बाहर आए हम।

" हां फिर खरिदवाते हैं तुमको सब्जियां " हमने खिसियाकर कहा।

चल दिए हम मैडम को सब्ज़ी की खरीददारी करवाने। करीब पन्द्रह मिनट बरबाद करने के बाद सब्जियां लेकर हम दोनों लौट रहे थे कि तभी जाने कहां से एक गाय हमारी तरफ ही आ गई , गाय से हमारी सालों पुरानी दुश्मनी है तो हम डर कर एक ठेले की तरफ बढ़ रहे थे और उस ठेले से टकरा गए।

" अरे ई का कर दियो लाली , सारे के सारे आलू फैला दिए " एक आवाज़ हमारे कानों में पड़ी। पलट कर देखा तो वहीं ठेले वाले अंकल बोल रहे थे।

" गाय से बच रहे थे हम आपके आलू से ज्यादा जरूरी हमारा उससे बचना है " हम गुस्से में बोले।

" अरे ना लाली और बाकी आलू ना खराब है जाएं या वजह ते रोक रहो हतो " उन्होंने कहा।

" अच्छा बताइए कितने आलू खराब हुए , कितने पैसे हुए , अभी देते हैं " हम गुस्से में बोले जा रहे थे और निशी हमें समझाने की नाकाम कोशिश करने लगी , सब बेअसर।

" ना लाली जे मतलब ना था मेरो " वो ठेले वाले अंकल मायूसी से बोले ।

" नहीं आप पैसे बताइए अभी भरते हैं आपके नुकसान का पैसा " हमने फिर गुस्से में कहा।

" सॉरी अंकल " निशी ने उनसे कहा और हमें जबरदस्ती खींच कर ले गई स्कूटी तक।

" ये क्या है मीरा , क्या होता जा रहा है तुझे ? ये पैसे का घमंड , ये अकड़ , तू ऐसी तो नहीं थी क्यों अपने आप को वो बना रही है जो तू नहीं थी ? "

" क्योंकि ये दुनिया ही पैसे से चलती है निशी , पैसे के अलावा भावनाएं नजर कहां आती हैं लोगों को ? जब सबकुछ ही सिर्फ पैसों का है तो अब या तो हमें सब खरीदना है या अब हम अकेले ही सही पर कुछ भी झूठा और दिखावटी नहीं चाहिए अब हमें। तुझे तो पता है न सब फिर भी तू पूछ रही है। कितने लोग खड़े थे हमारे साथ जब हमारे दादाजी की मौत पर ताऊजी ने बंटवारा करने को कहा था ? कितने लोग खड़े थे हमारे साथ जब ताऊजी ने पापा से पूछा था कि दादू क्या छोड़ गए हैं और किसके लिए छोड़ गए हैं ? कितने लोग खड़े थे हमारे साथ जब ताऊजी ने कहा था कि पापा ने दादू के पैसे , उनका सबकुछ हड़प लिया ? कोई भी नहीं निशी उल्टे सबको अपना अपना हिस्सा चाहिए था । किसने पूछा उन हिस्सा मांगने वाले ताऊजी ताईजी से कि कब आए वो दादू दादी की सेवा करने , उनकी बीमारी में उन्हें सहारा देने , उनका सुख दुख बांटने..... कभी नहीं निशी , कभी नहीं । ताऊजी, ताईजी उनके दोनों बच्चे सब तो अच्छे पदों पर है लेकिन देख ना लालच रिश्तों से बड़ा ही रहा। स्नेह और आदर देने की जगह उल्टे दादू के जाने पर दोनों खुशियां मना रहे थे, कहीं होता है ऐसा निशी ? जब पापा ने , माँ ने , बिना एक पैसा लिए , निस्वार्थ भाव से दादू दादी की सेवा की तब भी बदले में क्या मिला उन्हें...... ये झूठे आरोप...... तो क्यों हम अच्छे बने रहें निशी और कब तक ? बोल कहां हैं रिश्तों में भावनाएं सबकुछ तो सिर्फ पैसों का है , आज भी ताऊजी ताईजी हमसे बात नहीं करते क्योंकि उन्हें कुछ नहीं मिला , क्या दादी को उनका हक न देकर उन्हें उनका हिस्सा देते ? न्याय और सच तो यह है कि दादू के बाद सबकुछ दादी का है....... जिसे ताऊजी और ताइजी स्वीकारना ही नहीं चाहते।
जब जहर अपने घोलते हैं न तो इंसान बहुत ज़हरीला बन जाता है निशी । अब भी कहेगी रिश्तों में भावनाएं होती हैं...... नहीं निशी , रिश्ते भी अब खरीदे जाते हैं इन सब्जियों की तरह " हमारे घाव एक बार फिर हरे हो गए थे और खामोश थी निशी शायद एक और कोशिश करने वाली थी हमें भावनाओं की , रिश्तों की अहमियत समझाने की...... एक नाकाम कोशिश।

आयुषी सिंह