ब्राह्मण की बेटी - 9 Sarat Chandra Chattopadhyay द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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ब्राह्मण की बेटी - 9

ब्राह्मण की बेटी

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 9

ज्ञानदा ने कमरे में आकर एक बार भीतर से दरवाजा बन्द किया, तो फिर खोली ही नहीं। दासी और बूढ़ा ससुर विमूढ़ बनकर दोपहर तक बैठे रहे। वे अपनी बहू की इस आनाकानी का कारण समझ ही नहीं पाये। फिर भी, उन्हे इस तरह खाली लौट जाना अच्छा नहीं लगा। उन्होंने दरवाजे के बाहर से काफी गन्दी और अशोभनीय बातें भी कही, झूठ आरोप भी लगाये। ज्ञानदा ने सब कुछ सुना, किन्तु किसी भी बात का उत्तर न दिया। इतना ही नहीं, ज्ञानदा ने अपने रोने की आवाज भी बाहर नहीं आने दी। बूढ़ा चकित था कि उसकी बहू कैसी औरत है? जिस सास ने इस औरत के विधवा होने पर भी इसे आज तक अपनी छाती से लगाये रखा है, वही सास अपनी बहू को देखने के लिए सांस रोके पड़ी है और बहू है कि उसे बूढ़िया की कोई चिन्ता ही नहीं है। बूढ़ा सोच नहीं पा रहा था कि वह बुढ़िया के पास जाकर क्या कहेगा। ज्ञानदा के न आने का क्या कारण बतायेगा।

मुखर्जी के प्रस्थान के समय गोलोक ने उन्हें विदा के रूप मे राह-खर्च देना चाहा, जिसे उन्होंन लेना स्वीकार नहीं किया। गोलोक ने ज्ञानदा के उनके साथ न जाने पर गहरा दुःख और आश्चर्य भी प्रकट किया।

बैठक में गोलोक को आया देखकर भट्टाचार्य ने उठकर उन्हें प्रणा किया, तो गोलोक ने केवल सिर हिला दिया।

फिर वह बोले, “हाँ तो बेटे, तुम्हें बुलावा भेजा था।”

मृत्युंजय भट्टाचार्य बोला, “जी हाँ, श्रीमान! सुनते ही आधा-अधूरा निगलकर दौ़ड़ा आया हूँ।”

गोलोक ने कहा, “सो तो ठीक है। तुम लोगों के विवाह-सम्बन्ध तो स्थिर करते हो, किन्तु गाँव और गाँव के लोगों की भी कुछ खबर रखते हो? तुम्हारो बाबा रामरतन शिरोमणि अवश्य इस विषय में आदर्श थे। सारे गाँव की सारी जानकारी उनकी अंगुलियों पर रहती थी।”

मृत्युजंय बुझे स्वर में बोला, “इसमें मेरा क्या अपराध है, मैं भी अपनी ओर से प्रयत्नशील रहता हूँ। अच्छा चटर्जी महाशय, आपने जगदधात्री ब्राह्मणी की लड़की की दुस्साहस की बात तो सुनी होगी। रासू बुआ के मुंह से हमने यह सब सुना है, तो मन करता है कि उन्हें चुल्हे मे झोंक दिया जाये।”

गोलोक ने आश्चर्य प्रकट करते पूछा, “ऐसा क्या कह दिया उसने जरा मैं भी तो सूनुं।”

“अच्छा, तो क्या आपको मालूम नहीं?”

“नहीं, बात क्या है?”

मृत्युजय बोला, “इधर आपका घर सूना है और उघर संध्या का कही जुगाड़ नहीं बैठा रहा। आप अपनी उदारता से उसका उद्धार करने को सहमत थे, किन्तु छोकरी ने बड़े ही क्रुद्ध स्वर में सबके सामने जो कहा, हमें तो वग दोहराते हुए भी लज्जा लगती है। बोली, “घाट के मुरदे के गले मे जूतों की माला अवश्य हाल दूंगी। हमने सुना है कि उसके माँ-बाप ने भी यह सब सुना ही नहीं है, अपितु लड़की की पीठ थपथपायी है।”

सुनकर गोलोक क्रोध से कांपने लगा, किन्तु क्षण-भर में ही अपने को संभालकर उसने सारी बात को हंसी में उड़ा दिया, बोला, “अरे, नासमझ छोकरी है उस मुंहट की बात का क्या बुरा मानना?”

मृत्युजय बोला, “उस मुंहफट की जबान खींच लेती चाहिए। उसे ऐसी छूट देकर ही तो आपने सिर पर चढ़ा लिया है, अन्यथा उसकी माँ नहीं जानती कि आपके द्वारा उसे अपनाने से प्रियनाथ की छप्पन पीढ़ियां तर जायेंगी। इस इलाके में उसका सम्मान कितना बढ़ जायेगा।”

प्रसन्न मन से गोलोस बोले, “भट्टाचार्य जी, गुस्से को थूक दो। यह अनाड़ी लड़की किसी के मान-सम्मान को क्या जाने? समय आने पर सब कुछ समझ जायेगी।”

मृत्युंजय ने पूछा. “क्या आपको रासू बूआ ने कुछ नहीं बताया?”

गोलोक बोले, “क्या आपनी लक्ष्मी को इतनी जल्दी भूलाना सम्भव है? अभी मैं किसी दूसरे विवाह के बारे में सोच ही कहां सकता हूँ, जो रासू बहिन से कुछ कहूंगा? मधुसूदन, रक्षा करो। तुम्हारा ही भरोसा है।”

अब मृत्युंजय के लिए कुछ पूछना संभव न रहा। वह गोलोक के पत्नी-प्रेम पर मुग्घ होकर प्रशंसापरक एवं प्रसन्न द्दष्टि से उसके चेहरे को देखता रह गया।

कुछ देर के बाद गोलोक बोले, “भट्टाचार्य, सच पूछो, तो मैंने कुछ याद रखना ही छोड़ दिया है। लोग दिन-रात मेरे सम्बन्ध में कुछ-न-कुछ कहते ही रहते हैं। वे क्या कहते हैं, इसकी भी चिंता छोड दी है। अब लोको मेरे पीछे पड़ जायें कि अमुक कन्या का उद्धार करो, आप नहीं करोगे, तो कौन करेगा-इन कथनों कि कितनी उपेक्षा करूं, आखिर इन्सान हूँ। उदासीनता बरतने पर कभी किसी के सामने मुंह से किसी के बारे मे स्वीकृति अथवा सहमति-जैसी किसी बात के निकल जाने को अस्वभाविक तो नहीं कहा जा सकता।”

सम्बन्ध जोड़ने की कला में कुशल मृत्युंजय ने संकेत समझने में भूल नहीं की। वह मधुर और विनम्र स्वर में बोला, “यदि ऐसा कुछ है तो मेरी प्रार्थना है कि आपको प्राणकृष्ण की लड़की को अपनाने से सहमत हो जाना चाहिए। लड़की रूप-गुण में साक्षात् लक्ष्मी है और उसकी आयु भी तेहर-चौदह के आस-पास है। हाँ, पिता अवश्य निर्धन हैं। आप निर्धन परिवार की लड़की के पुण्य-लाभ को हाथ से मत जाने दीजिये।”

मृत्युंजन को प्यार से झिड़कते हुए गोलोक बोले, “पण्ड़ित, लगता है कि तुम बौरा गये हो। क्या मुझे इस आयु में पुनःविवाह करना शोभा देता है? क्या लड़की चौदह की हो गयी है, उसकी शरीर का विकास तो काफी अच्छा है? सुना है, काफी आकर्षक युवती है।”

उत्साहित होकर मृत्युंजय ने कहा, “आपने ठीक ही सुना है। उसकी एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता यह भी है कि वह शान्त और संयत है। लगता है, मानो मुंह में जबान ही नहीं है।”

गोलोक बोले, “रूप-सौन्दर्य और गुण-शालीनता में मेरी लक्ष्मी की तुलना कौन लड़की करेगी? उसके सामने किसी दूसरी लड़की को देखने का मन नहीं करता, किन्तु क्या करू, किसी का दुःख भी तो मुझसे नहीं देखा जाता। अब जब तुम लड़की की तेरह-चौदह वर्ष की आयु बता रहे हो, तो निश्चित है कि वह पन्द्रह-सोलह की अवश्य होगी। तुम उसके पिता के दरिद्र और अभावग्रस्त होना भी बता रहे हो, सुनकर ह्दय द्रवित हो उठता है। ब्राह्मण की विपत्ति देखी नहीं जाती।”

मृत्युजंय बोला, “आपकी उदारता से कौन परिचित नहीं।?”

गोलोक बोले, “किसी कुलीन की कुलीतना की रक्षा की चिन्ता कोई कुलीन व्यक्ति ही कर सकता है। न करना भी कर्तव्या से पतित होने-जैसा पाप-कर्म है। इधर अबी पत्नी-वियोग के दुःख को भूला नहीं पाया आको आयु भी पचास को छूने लगी, किन्तु मन दूसरों के दुःख-संकट को अनदेखा करने को मानता ही नहीं। इसलिए मुंह से “न” नहीं निकलता।”

गोलोक के कथन के समर्थ में मृत्युंजय बार-बार सिर हिलाने लगा।

गहरी सांस लेकर गोलोक बोले, “कुलीन ब्राह्मणों के गाँव में समाज का मुखिया बनना भी कंटो का ताज पहनना है। दिन-भर दूसरों की चिन्ता में किस प्रकार खपना पड़ता है, इसे केवल मैं ही जानता हूँ। किसके पास भोजन नहीं, किसे तन ढकने को वस्त्र चाहिए, किस रोगी की औषधि-उपचार की मांग है-इन्हीं बातों में पूरा दिन चला जाता है। लगता है कि सारा जीवन इस प्रकार मरते-खपते ही बिताना पड़ेगा। अब तुम कहेत हो, प्राणकृष्ण बेचारे गरीब लड़की विवाह की आयु पार करने जा रही है। तेरह-चौदह की आयु तुम बताते हो, जबकि मुझे वह पन्द्र-सोलह से कम ही नहीं लगती। अच्छा, ठीक है, प्राणकृष्ण को एक बार मेरे पास भेजो, उसके लिए कुछ करता हूँ।”

उत्साहित हुए मृत्युंजय ने कहा, “उसे अभी आपके पास भेजता हूँ। भेजना क्या, अपने साथ लेकर आता हूँ।”

गोलोक बोले, “तुमने तो मुझे संकट में डाल दिया। मेरे मुंह से आज तक किसी की सहायता के लिए “न” तो निकलती ही नहीं। फिर गरीब ब्राह्मण, को “न” कैसे कही जायेगी? मधुसूदन, तुम्हीं रक्षा करो। मैं तो उसी तरह नाचता हूँ, जिस तरह तुम मुझे नचाना चाहते हो।”

किसी भूली बात के याद आ जाने पर जाते हुए मृत्युंजय को आवाज देकर गोलोक बोले, “मैं भी केसा भुलक्कड हूँ, जिस बात को कहने के लिए तुम्हें बुलाया था, वह तो मैं कहना भी भूल गया हूँ। कहना यह था कि आजकल थोड़ी तंगी चल रही है, अतः तुम अपने ब्याज का भुगतान...।”

करुण कण्ठ से मृत्युंजय बोला, “इस महीने, तो आप दया की भीख...।”

गोलोक बोले, “कोई बात नहीं, रहने दो। मैं किसी को कष्ट देकर एक पाई वसूल करना भी पाप समझता हूँ, किन्तु हाँ, बेटे, इसके बदले तुम्हें मेरा एक काम करना होगा।”

“आज्ञा कीजिये, मैं प्रस्तुत हूँ।”

गोलोक बोले, “सनातन हिन्दु धर्म की रक्षा करना और परम्परागत सामाजिक आचार-विचार की प्रतिष्ठा को बनाये रखना कोई बच्चों का खेल नहीं है। इस भार को उठाने बाले व्यक्ति को चौगन्ना और चार आँखों वाला बनकर रहना पड़ता है। जरा-सी भूल हुई कि अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती। प्रियनाथ की माँ के बारे में उन दिनों बहुत सारी उलटी-सीधी बातें सुनने को मिली थी। तुम्हे उसके गाँव जाकर सही बात की पक्की जानकारी गुप्त रूप से मुझ तक पहुंचानी होगी। तुम्हारे बाबा शिरोमणि इस मामले में सिद्धहस्त थे। वह उड़ती चिड़िया के पंख काट लेते थे। बड़े-से-बड़े मक्कार से भी उसके दिल की बात उगलवा लेते थे। बीत-तीस गाँवों के एक-एक आदमी को कच्चा चिठ्ठा उन्हें मालूम रहता था। तुम्हारे इन्हीं बाबा के बल पर भूपति चटर्जी का दस साल तक सामाजिक बहिष्कार जारी रखा और भाई साहब को गाँव छोड़ने पर विवश कर सका। तुम भी अपने बाबा के यश को आगे बढ़ा पाते, तो कुलभूषण कहलाते।”

अपने पूर्वजों के सामने अपनी हीनता की जानकारी मृत्युजंय के लिए सुखद न रही। वह बोला, “चटर्जी महाशय! मैं एक सप्ताह में ही घटना की सही जानकारी ला दूंगा। पाताल से बी सत्य को खोज कर ले आऊंगा।”

मृत्युंजय को उत्साहित करते हुए गोलोक बोले, “जुट जाने पर तुम्हारे लिए कुछ भी कठिन नहीं। मुझे तुम्हारी योग्यता पर पूरा भरोसा है। हाँ, एक बात की ध्यान रखना, किसी को भी इस बात की भनक नहीं पड़नी चाहिए। समाज के मान-सम्मान तथा मर्यादा-प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। हाँ, मैं तुम्हारा ब्याज ही नहीं, मूल भी छोड़ दूंगा। यदि तुम अपने कष्ट के बारे में बताते, तो मैं तकाजा ही न करता, किन्तु हाँ, जानकारी एकदम सच्ची होनी चाहिए।”

प्रसन्न होकर मृत्युंजय बोला, “आप ही निर्धनो के पालक एवं आश्रयदाता हैं। मैं आज ही चल देता हूँ और प्रमाणिक जानकारी लेकर आपकी सेवा में उपस्थित होता हूँ।”

चलने के उद्धत मृत्युंजय को रोककर गोलोक बोले, “मुझे किसी बात का श्रेय देने की आवश्यकता नहीं। धन्यवाद करना ही है, तो मधुसूदन का करो, जिनकी कृपा से मुझे कुछ शुभ करने की प्रेरणा मिलती है। मैं तो उनका दासानुदास हूँ, निमित्त मात्र हूँ। असली मालिक तो स्वयं वही है।” कहकर उन्होंने मधुसूदन को लक्ष्य कर सिर झुका दिया।

जा रहे मृत्युंजय को अपने समीप बुलाकर गोलोक बोले, “प्राणकृष्ण को भेजना न भूलना। उस ब्राह्मण का दुःख मुझसे सहा नहीं जा रहा।”

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