ब्राह्मण की बेटी
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
प्रकरण - 2
ठाकुर-घर से बाहर निकली जगदधात्री दालान में बैठकर कुछ सीने-परोने में मस्त लड़की को कुछ देर तक देखती रही और फिर बोली, “बिटिया, सवेरे-सवेरे यह क्या सी रही हो? दोपहर चढ आयी है, समय की सुध ही नहीं, कब नहाओ-धोओगी, पूजा-पाठ करोगी और फिर कब खाओ-पिओगी? अभी परसों तो तुमने रोग-निवृत होने पर खाना प्रारंभ किया है। इतना अधिक श्रम करोगी, तो दोबारा ज्वर से पीड़ित हो सकती हो।”
धागे को दांत से काटकर संध्या बोली, “माँ, अभी बाबू जी तो आये नहीं।”
“जानती हूँ, मुफ्त में लोगों का इलाज करने वाले तेरे बापू को समय को तथा अपन खाने-पीने का ध्यान ही कहां रहता है? तुम्हारा साथ देने को मैं तो हूँ। तुम्हे बाबू जी की प्रतीक्षा में भूखा मरने की कोई आवश्यकता नहीं।”
बिना उत्तर दिये संध्या पूर्ववत् काम करने लगी।
चिन्तित माँ ने पूछा, “क्या सी रही है, कुछ पता तो चले?”
अनिच्छा से अस्पष्ट स्वर में संध्या बोली, “कुछ नहीं, केवल दो बटन टांक रही थी।”
“पता है, पिता कि चिन्ता करने वाली बेटी जो ठहरी, इसीलिए मैं अपनी धोती की बात ही नहीं करती। पिता की किस कमीज का बटन टूट गया है, किस धोती का पल्लू फट गया है और किस कपड़े में दाग लग गया है तथा कौन-सा जूता गन्दा हो गया है, इन सबकी चिन्ता जितनी तू करती है, वैसी तो शायद किसी दूसरी लड़की का मिलना दर्लभ ही होगा, किन्तु मैं पूछती हूँ कि अपनी बाबू जी की देखभाल के अलावा तुझे और भी कुछ करने को है या नहीं?”
हंसती हुई संध्या बोली, “माँ, बापू तो इन सब त्रूटियों की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते।”
“ध्यान तो तब दें, जब उन्हें लोगों का मुफ्त इलाज करने से फूर्सत मिले। अच्छा, यह बता कि क्या दूले की पत्नी और पुत्री चली गयी है?”
“माँ, क्या उन्हें यह मुहल्ला छोड़कर जाना नहीं था?”
“किस समय गयीं, क्या लोगों को छूकर और उनकी जाति-धर्म आदि बिगाड़कर गयीं या नहीं? अरी, क्या तू उठेगी नहीं, जो फिर से सीने-परोने में जुट गयी है?”
“माँ, तुम चलो, मैं अभी आती हूँ।”
“इस बीमारी में भी तुम्हें जो ठीक लगे, वही कर। बेटी, मैं तो तुम्हें और तुम्हरे बाबु जी को कुछ कहना बेकार समझती हूँ। मैं तो इस घर से तंग आ चूकी हूँ और सास के पास काशी जाने की सोच रही हूँष।”
क्रोध से भरी जगदधात्री यह कहती हुई पीतल के कलश को उठाकर पीछे के तालाब से पानी भरने चल दी।
सिर झुकाकर संध्या हल्का-सा मुस्करा दी। माँ की बात का उसने उत्तर ही नहीं दिया। उसकी सिलाई समाप्त हो चुकी थी। अतः वह सई-धागा आदि समेटकर किसी डिब्बे में रख रही थी कि उसे पिता के आने का पता चला। घर में प्रवेश करते प्रियनाथ के एक हाथ में दवाइयों का बक्सा है और दूसरे हाथ में होम्योपैथिक दवाइयों से संबंधित पुस्तकें है। घर में घुसते ही वह उच्च स्वर में बोले, “बेटी, जरा दवा के बक्से को थामना। क्या करूं, क्या न करू, समझ में नहीं आता, मेरी तो जान ही मुसीबत में फसी है।”
झटपट उठ खड़ी हुई संध्या ने पिता के हाथ से पुस्तकें लेकर एक ओर रख दीं। बरामदे में पहेले से बिछी चटाई पर अपने पिता को बिठा दिया और पंख से हवा करने लगी। पिता के स्वस्थ हो जाने पर वह बोली, “बाबू जी, आज इतनी देर क्यों लगा दी?”
“देर, क्या कहती हो? मुझे तो नहाने-धोने के लिए भी फुर्सत नहीं मिलती। जिस रोगी के पास नहीं जाता, वही नाराज हो जाता है। असल में, रोगी का विश्वास हे कि प्रियनाथ की औषधि से ही उनका रोग निवृत्त हो सकता है। यह विश्वास भले ही सच्चा हो अथवा झूठा, किन्तु है तो सही, फिर प्रियनाथ मुखर्जी तो एक है, चार-छः तो नहीं, जो सबसे पास एक साथ जा सके। मैं अपने रोगियों से नन्द मित्रा के पास जाने को कहता हूँ। भले ही वह निपुण न हो, तो भी प्रैक्टिस करता है किन्तु सबका एक ही उत्तर होता है-मुखर्जी धन्वन्तरी को छोड़कर किसी दूसरे के पास भला कौन जाये? अब मैं उन्हें भला क्या कह सकता हूँ? मजे कि बात यह है कि नुस्खे को भी कोई रोगी याद नहीं करता। प्रतिदिन मुझे सभी रोगियों के लिए बार-बार सिर खपाना पड़ता है। नुस्खे को याद रखना भी तो आसान नहीं होता, अन्यथा सभी लोग डॉक्टर न बन जाते?”
संध्या बोली, “बाबू जी, सब ठीक है, अब कोट-कमीज उतारकर सहज को जाइये।”
“उतारता हूँ बेटी! पहले आज की बात तो सुना पट्ठे ने बिना सोचे-समझे रोगी को पल्सटिला दे डाला। प्रैक्टिस करने पर भी पट्ठे ने इस दवाई के प्रभाव के बारे में विचार नहीं किया, रोगी को मुझे संभालना पड़ा। अब पुस्तक देखकर तो इलाज नहीं किया जाता। कुछ कण्ठस्थ भी किया जाता है, कुछ बुद्धि और कुछ अनुभव से भी काम लिया जाता है। संध्या बेटी, जरा पुस्तक खोल, मैं तुझे पल्सटिला के संबंध में लिखा पढ़कर सुनाता हूँ।”
“बाबू जी, आपको सबह कण्ठस्थ है, पुस्कत खोलकर देखने की क्या आवश्यकता है? आपके खा-पी लेने के बाद ही मैं आपसे बात करूंगी।”
“कण्ठस्थ होने की तो ठीकत है, फिक भी पुस्तक दिखा तो सही।”
“नहीं, बहुत देर हो गयी है, पहले तेल-मालिश करा लो, नहीं तो माँ आकर बिगड़ेगी।” कहकर संध्या ने उचककर देखा कि माँ नहाकर आ तो नहीं रही है। इसके बाद पिता के मना करने पर भी वह प्याली में तेल लेकर उनके पैरों में लगाने लगी।
अपनी धुन में खोये मुखर्जी बाले, “बेटी, जरा रुक जाती, तो पुस्तक देख लेता।”
“वह बूढ़ा, संध्या देख लेना, वह हरगिज नहीं बचेगा और फिर मैं हरामजादे प्राण के जेल भिजवाकर रहूंगा। उस साले का काम ही मेरे रोगियों को बहकाना है। पांच के चाचा को मैंने सोच-समझकर औषधि दी और मेरे पीछे प्राण उसके पास पहुंचकर उससे बोला- देखूं, क्या औषधि दी है प्राणनाथ ने?”
संध्या ने क्रुद्ध होकर पूछा, “फिर क्या हुआ?”
प्रियनाथ अत्यन्त उतेजित स्वर में बोले, “साला, पाजी, हरामी, गधा, मेरी दी हुई दवा को गटागट पीकर बोला- यह दवा थोड़े ही है, यह तो पानी है। इससे रोग थोड़े मिटता है। अब मैं तुम्हें दवा देता हूँ, प्रियनाथ पीकर दिखाये। असल में उसने रोगी को कैस्टर आयल दे दिया था। रोगी ने मुझे ललकारा-आप प्राण की दवा पीकर तो दिखाओ?”
धबराई हुई संध्या ने पूछा, “कहीं आपने दवा पी तो नहीं ली?”
“नहीं बेटी, नहीं, किन्तु इस प्रण के कारण दोपहर तक भटकता रहा, किन्तु एक भी रोगी मेरे पास नहीं फटका। मैं इस साले पर अवश्य मुकदमा ठोकूंगा।”
क्रोध और दुःख के कारण संध्या की आँखे गीली हो गयीं। वह अपने भोले-भाले पिता को इस संसार के आघातों, उत्पातों और उपद्रवों से बचाना चाहती थी। अतः वह कोमल, मधुर और शांत स्वर में बोली, “बाबू जी, यदि रोगी आपकी दवा नहीं लेना चाहते, तो आपको इस गरमी में गली-गली भटकते फिरने की क्या आवश्यकता है? क्या आपको मालूम नहीं कि आपके घर पर न होने के कारण घर से कितने रोगी निराग लौट जाते है?”
संध्या के इस कथन में एक प्रतिशत भी सत्य नहीं था। गाँव के दीन-दुःखी घर पर दवा लेतने आते हैं, तो संध्या के पास ही आते हैं। उन्हें शायद प्रियनाथ के डॉक्टर होने की जानकारी ही नहीं होगी। हाँ, यह बात अलग है कि संध्या द्वारा दी गयी दवा अचूक सिद्ध होती है। सुनने में तो यहाँ तक आया ही रोगी प्रियनाथ के घर पर न होने की पक्की जानकारी के बाद ही संध्या के पास आते है, किन्तु पिता की प्रसन्नता के लिए उसे मिथ्या भाषण में कोई संकोच नहीं।
प्रियनाथ ने संध्या के कथन को सत्य मान लिया और परेशान होकर बोल, “हाँ, निराश लौट गये, कौन थे वे, क्या नाम था उनका, किस समय आये थे ओर किधर चले गये? क्या तुमने उन लोगों के उनका नाम-धाम कुछ पूछा था?”
अपने को लज्जित अनुभल करती हुई संध्या बोली, “बाबू जी, हमें किसी से उसका नाम-धाम पूछने की क्या आवश्यकता है? जिसे गरज हो, वह लौटकर आयेगा।”
“तुम लोगों की इस मुर्खता से तो मैं परेशान हो गया। यदि उनका नाम-धाम पूछ लिया होता, तो तुम लोगों की क्या हानि हो जाती? मैं अभी उनके पास पहुंच जाता और मेरी दवा की एक ही खुराक से उनका रोग दूर हो जाता।”
तेल मलने में लगी संध्या कुछ न बोली।
प्रियनाथ ने पूछा. “क्या वे फिर किसी समय आने को कह गये है?” “शायद शाम को आयें?”
“शायद, तुम अपनी गलती नहीं मानोगी। मान लो, बेचारे किसी कारण न आ सके और फिर विपिन के हत्थे चढ गये। बदमाश, पाजी प्राण भी तो मेरे रोगियौं को फंसाने में गला रहेता है? कहीं इन दोनों को तो टोह नहीं लग गयी? मुझे यह अच्छा नहीं लग रहा है। क्या घर में मुठ्ठी-भर चना-चबेना नहीं था? उन रोगियों को खाने को देकर रोक लिया होता। जब तक मैं स्पष्ट निर्देष न दूं, किसी को तब तक कुछ सूझता ही नहीं। कोई अपनी बुद्धि से काम लेता ही नहीं है। अरे, कौन झांक रहा है, भीतर चले आओ भाई! अरे राममय! यह क्या तुम तो लंगडा रहे हो?”
प्रियनाथ के स्नेह और सम्मान से प्रभावित एक अधेड़ आयु का किसान भीतर आंगन मैं आ उपस्थित हुआ। वह बड़ी बेपरवाही से बोसा, “डाक्टर साहब, मैं ठीक हूँ, कुछ नहीं हुआ।”
“तुम अपने लंगड़ाने को कुछ होना समझते ही नहीं। संध्या, तेल मलना छोड़। यह अर्निका का केस है। राममय! तुम्हें रोग कि गंभ्भीरता को समझना चाहिए।”
प्रियनाथ के पांव दिखाने के आदेश पर राममय ने करुण दृष्टि से संध्या की और देखते हुए कहा, “दीदी, कल गिर गया था और पैर में मोच आ गयी थी।”
संध्या की और देखकर प्रियनाथ बोले, “मैंने पहली दृष्टि में बता नहीं दिया था कि यह अर्निका का मामला है। अच्छा भाई,. बताओ कि तुम गिरे कैस?”
“दरवाजे के पास के पतनाले के ऊपर वाले तख्ते को लड़कों ने हटा दिया था, मुझे इसकी जानकारी नहीं थी, अनमना-सा उसमें गिर पड़ा और मोच आ गयी।”
प्रियनाथ अनमना शब्द को मानव-स्वभाव का अंग बताकर उसकी शास्त्रीय व्याख्या करने में जुट गया और फिर पूछा, “इसके बाद क्या हुआ?”
“महाराज, फिर क्या होना था, उसी समय से दर्द से बुरी तरह कराह रहा हूँ। धरती पर बैर नहीं रखा जा रहा है।”
संध्या बोली, “बाबू जी, बहुत देर हो गयी है। रोगी को अर्निका देकर चलता करो।”
प्रियनाथ बोले, “संध्या बेटी, धीरज रख, केस पूरी तरह समझने तो दे। नुस्खा निश्चित करना क्या मजाकसहै, जल्दबाजी की तो बदमान हो जाऊंगा। हाँ, भाई, इस समय दर्द कैसा है?”
“बड़े जोर की टीस उठाती है।”
“मैंने यह नहीं पूछा। मैं जानना चाहता हूँ कि किस ढंग का दर्द है-धिसने-जैसा, मलने-जैसा, सूई चुभने-जैसा या फिर बिच्छू के काटने-जैसा? कुनकुन करता है या झनझनाता है?”
“जी हाँ महाराज, झनझन करता है?”
“फिर क्या होता है?”
“फिर क्या होता है, दर्द के मारे बुरा हाल है।”
“क्या कहा, मरे जाते हो?”
“और नहीं तो क्या? लंगड़ाकर चलता हूँ। धरती पर पांव नहीं धरा जाता। यह मरना नहीं, तो क्या है? शैतान लड़के न बात सुनते हैं और न ही मनाही मानते हैं। उस तख्ते से खेलते हैं। किसी और दिन फिर से गिर गया, तो उठ नहीं पांऊंगा। अब बहुत पूछताछ होली, मझे काफी काम है। दवा दीजिये, ताकि मैं चलूं।”
संध्या बोली, “बाबू जी, दो बूंद अर्निका दे दूं।”
हंसकर प्रियनाथ ने कहा, “नहीं, बेटी, यह अर्निका का केस नहीं है, विपिन शायद यही दवा देता। यह तो एकोनाइट का केस है। इसे चार बूंद एकोनाइट दे दो।”
आश्चर्य से दोनों आँखें फड़कर संध्या बोली, “एकोनाइट।”
“हाँ, बेटी, इसे मरने का डर है, अतः मुझे यही दवा ठीक लगती है। महात्मा हेरिंग कहते है-रोगी का इलाज करना चाहिए। मृत्यु-भय को मिटाने की दवा एकोनाइट है। विपिन हरामजादा, इस अन्तर और गरहाई को क्या समझेगा? फिर भी हरामजादा अपने को कविराज समझता-मानता है। राममय, शीशी लेकर संध्या के साथ जाओ। इस दवा को दो-दो घण्टे के बाद केवल चार बार लेना। यदि प्राण दवा दिखाने को कहे, तो उसके हाथ में शीशी बिल्कुल न देना। यह बदमाष दवा पी जायेगा और खाली बोतल में दवा के नाम अरण्डी का तेल भर देगा।”
सनू. राममय को दवा देने के लिए खड़ी हुई संध्या पिता के मुंह से पेट में मरोड उठने की शिकायत सुनकर बोली, “लगता है कि आपने सारा कैस्टर औयल पी लिया है?”
“नहीं बेटी नहीं, पहले लोटा तो पक़ड़ा।”
संध्या ने दृढ स्वर में पूछा, “बाबू जी, आप सच-सच क्यों नहीं बताते?”
“अरी छो़ड़ इस बहस को, पहले लोटा पकड़ा।” लोटा उठाकर वह घर के पिछले दरवाजे से बाहर निकल गये।
राममय ने संध्या से दवा देने का अनुरोध किया। वह बोली, “जीजी, अपने पिताजी बाली दवा रहने दो, अभी आर्निका की दो बूंदे ही दे दो।”
संध्या बोली, “तुम क्या समझते हो कि मैं पिताजी से कुछ अधिक जानती हूँ?”
लज्जित होकर राममय बोला, “मैं यह नहीं कहता, किन्तु मुखर्जी बाबू की दवा तेज होती है। घर में बेटे को कल से दस्त लगे हैं, बाबू जी की दवा के लिए मैं जाते ही उसे भेज दूंगा।”
दुःखी स्वर में “अच्छा” कहकर संध्या राममय को बगल वाले कमरे में ले गयीय़।
ठाकुरद्वार के लिए तालाब से मटका भरकर लौटी जगदधात्री ने मटके को रखकर क्रुद्ध स्वर में आवाज दी, “संध्या, अरी ओ संध्या!”
कमरे से संध्या ने उत्तर दिया, “आती हूँ माँ।”
जगदधात्री बोली, “अरी, तेरे बाबू जी अभी तक लौट हैं या नहीं? नहीं लौटे, तो क्या आज भी ठाकुरजी की पूजा बन्द रहेगी।”
बाहर आकर संध्या बोली, “बाबू जी तो काफी देर से आ गये हैं।”
“तो फिर तालाब पर क्यों नहीं दिखे?”
संध्या अपने पिता के स्वभाव जानती थी कि वह दौड़कर किधर चले गये हैं, किन्तु सोचकर बोली, “हो सकता है कि वह आज नहाने के लिए नदी पर चले गये हों। काफी देर हो गयी है, अब तो लौटने वाले ही होंगे।”
जगदधात्री को विश्वास नहीं आया, वह और भी अधिक उतेजित हो उठी और क्रुद्ध स्वर में बोली, “तुम्हारे पिताजी से तो मैं बेहद परेशान और तंग आ चुकी हूँ। मेरी सहनशक्ति चुक गयी है। अब उन्हे कहो या तो वह कहीं चले जाये, नहीं तो मैं ही कही चलती बनूंगी। कितनी बार कहा था कि पूजारी जी आज नहीं आयेंगे। अतः जल्दी से आ जाइयेगा, किन्तु इनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। बेटी, सोच, अभी तक ठाकुरजी का स्नान नहीं हुआ। जानती है, इन्होंने कल क्या किया? विराट नाई का सारा ब्याज माफ कर दिया और मूल के चुकाता होने की रसीद लिख दी।”
घबराई हुई संध्या ने पूछा, “माँ, तुम्हें कैसे पता चाल?”
जगदधात्री बोली, “भौजाई के साथ तालाब पर नहाने आई विराट की बहिन ने बताया है।” हंसकर संध्या बोली, “माँ, सुना है कि भाई-बहिन में झगड़ा चल रहा है। तुम्हें भड़काने के लिए लड़की ने झूठ बोल दिया होगा।”
रुष्ट हुई जगदधात्री बोली, “संध्या, तू सभी मामलों में अपने पिता का बचाव क्यों करती है? सारी बात सुन, घर में किसी के बीमार होने की झूठी बात बोलकर विराट नाई तेरे पिता को बुला ले गया। इन्हे धन्वन्तरी कहकर इनकी खूब आवभगत की। जमींदार और दानवीर कर्ण, कलयुग का बलि कहकर इन्हे फुला-फुलाकर कुप्पा बना दिया। उसके मुंह से अपनी प्रशंसा सुनकर यह लोट-पोट होते जा रहे थे। बस,. उसने मौका देखकर विनती की, और फिर क्या था जोश में आकर इन्होंने उसका मनचाहा कर दिया। पति के ऐसे पागलपन को देखकर गले में गागर बांधकर नहीं में डूब मरने का मन करता है। आजकल तो इनकी बेपरवाही की हद हो गयी है। अब बेटी, तू ही बता कि इस स्थिति में मैं किस प्रकार घर गृहस्थी चला सकती हूँ?”
संध्या ने पूछा, “माँ विराट पर कितना ऋण था?”
“ठीक से तो मैं क्यां जानूं? फिर बी दस-बारह रुपये से कुछ अधिक ही होंग। इन्हें लुटाने में कुछ सोचना थोड़ा पड़ता है।”
इसी बीच गीली धोती पहने आकर प्रियनाथ संध्या से अंगोछा देने को चिल्लाने लगे। इसके साथ ही वह संध्या को किसी रोगी के लिए कोने में पड़ी एक विशेष औषधि लाने को भी कहने लगे।
धधकती आग की तरह क्रुद्ध जगदधात्री बोली, “मैं तुम्हारे इस बक्से को कू़ड़ेदान में फेंकती हूँ। ससुर के अन्न पर पलते हो और अपने को जमींदार कहते हो! तुम्हें तो शर्म से चुल्लु-भर पानी में डूब मरना चाहिए। विराट नाई का ऋण छोड़ने के लिए तुम्हें किसने कहा था? किसकी अनुमति से तुम दूले डोम को इधर बसाने को ले आये हो? क्या तुमने हाड़-माँस जलाने का पक्का इरादा कर रखा है? इससे अच्छा तो यह है कि या तो मुझे नदी में धक्का दे दो या फिर तुम इस धर से निकल जाओ। अब मैं तुम्हें सहन नहीं कर सकती।”
संध्या उच्च और तीखे स्वर में बोली, “माँ, क्या यह दोपहरी बातें करने का समय है? थोड़ा सोच-विचार तो कर लिया करो।”
जगदधात्री भी उसी तल्खी से बोली “क्या तेरा बाप कभी सवेरे दिखाई देता है? जब आता इसी समय है, तो फिर सच-झूठ इसी समय तो कहूंगी। अपने पिता को कह दे कि ठाकुर जी की पूजा करके कुछ खा-पी ले और फिर इस घर से चलता बने। मैंने इसे सारी उम्र बिठाकर खिलाने का ठेका नहं ले रखा है। मैंने बहुत सहा है, अब और नहीं सह सकती, बिल्कुल नहीं सह सकती।” कहती हुई जगदधात्री की आँखो से आँसू टपकने लगे और वह अपने कमरे में चली गयी।
प्रियनाथ अपनी सफाई में कहा, “क्या उस नाई के बच्चे से बहुत कहा कि जमींदार होने का मतलब इतने सारे रुपये छोड़ देना थोड़े होता है, किन्तु मेरी कौन सुनता है, वह तो मेरे पैरों से लिपट गया और छोड़ता ही नहीं था। मैंने भी सोचा कि जब बेचारे के पास पेट भरने के लिए दमड़ी तक नहीं है, तो फिर ऋण का भुगतान कहां से करेगा? मैं उसे अमुक औषधि...।”
रोती बिलखती संध्या ने कहा, “ बाबू जी, माँ से परामर्श किये बिना आप ऐसे निर्णय लेते ही क्यों हो?”
“मैं कुछ न करने का निश्चय करता तो हूँ, किन्तु जब देखता हूँ कि प्रियनाथ द्वारा कुछ किये बिना गाड़ी आगे सरकती ही नहीं, तो मेरे से मुकरदर्शक बने रहना नहीं हो सकता।”
पूरी बात सुने बिना संध्या वहाँ से चल दी। सूखी धोती और अंगोछा पिता को सौपती हुई बोली, “बाबू जी, अब और देर मत करो, जल्दी से ठाकुर जी की पूजा कर लो। मैं अभी आती हूँ।”
संध्या अपने कमरे में आ गयी और सिर पोंछते हुए प्रियनाथ ठाकुर जी के कमरे में चल दिये। इस बीच पेट में फिर ऐंठन की शियकाय करते हुए वह प्राण की दवा पीने के लिए पछताने लगे।
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