ब्राह्मण की बेटी - 11 Sarat Chandra Chattopadhyay द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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ब्राह्मण की बेटी - 11

ब्राह्मण की बेटी

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 11

जाड़े का मौसम होने से पहर रात बीतते ही गाँव में सन्नाटा छा गया था। ज्ञानदा अपने कमरे में टिमटिमाते दीये की रोशनी में धरती पर बैठी हुई थी। साथ बैठी रासमणि अपना हाथ हिलाकर ज्ञानदा को समझा-बूझा रही थी, “बेटी, मेरा कहना मान, दवा पी ले, न पीने की हठ मत कर। दवा पीने से तू फिर से पहले जैसी बन जाएगी, किसी को भनक तक न पड़ेगी।”

आँसू बहाती ज्ञानदा रुंधे कण्ठ से बोली, “जीजी, तुम भी अजीब हो, एक पाप के बाद दूसरा पाप करने को कह रही हो। इससे तो मुझे नरक में भी स्थान नहीं मिलेगा।”

डाटती हुई रासो बोली, “तो क्या इतने उज्जवल कुल को कलंकित करने पर तुम्हें स्वर्ग लाभ होगा? तुम्हें अब वही करना होगा जिसमें चटर्जी महाशय की और तेरी अपनी भलाई है। क्या तुम अपनी हठधर्मिता का परिणाम जानती हो? लोग तुम्हें कुलटा कहकर तुम पर तो थू-थू करेंगे ही, चटर्जी की प्रतिष्ठा और मान-मर्यादा भी मिट्टी में मिल जायेगी।”

हाथ जोड़कर ज्ञानदा बोली, “यह दवा मैं बिल्कुल नहीं खाऊंगी। मुझे लगता है कि तुम लोग मुझे विष देकर मुझसे छुटकारा पाने का विचार बना चुके हो?”

रासमणि चिढ़ाने के स्वर में बोली, “अब पता लगा की जीवन के प्रति मोह के कारण दवा नहीं खाती। जब यही सत्य है, तो फिर धर्म की दुहाई काहे को दे रही हो?”

ज्ञानदा बोली, “तुम लोग मुझे विषपान के लिए क्यों विवश कर रहे हो?”

“क्या तुम-जैसे निर्लज्ज कही विष से मरते है?”

फिर पल-भर में पासा पलट कोमल-मधुर स्वर में धूर्त रासमणि बोली, “तुम्हारा दिमाग खराब हो गया लगता है? तुम्हें विष देकर क्या हमें जेल में सड़ना है? रासो ब्राह्मणी तेरे प्राण लेगी-ऐसा तूने सोच बी कैसे लिया? मैं तो तेरे भले के लिए तेरे पेट मे पल रहे तेरे दुश्मन को निकाल बाहर फेंकने को कह रही थी। उसके बाद तू फिर से पवित्र जीवन जी या जीवन के सुख भोग, यह सब तुम्हारे ऊपर है, चाहे, तो तीर्थ में जाकर व्रत उपवास से जीवन सफल कर। इस बात का पता किसी को लगना ही नहीं है।”

सिर झुकाकर बैठी ज्ञानदा कुछ नहीं बोली। रासमणि ने साहस कर पूछा, “क्यो बहिन, दवाई लाऊं?”

सिर नची किया ज्ञानदा बोली, “मैंने दवा बिल्कुल नहीं लेनी है; क्योंकि मुझे पूरा यकीन है की दवा पी लेने पर मेरा अन्त निश्चित है।”

रासमणि उत्तेजित हो उठी और बोली, “ज्ञानदा, तेरा यह हठ तो संसार की सब स्त्रियों से एकदम न्यारा है। यदि दवा नहीं लेती तो फिर यहाँ से चलती बन। यदि पुरुष से एक गलती हो भी गयी, तो स्त्री को ऐसी हठधर्मिता शोभा नहीं देती। जो होना था वह तो हो लिया। यदि तू गर्भपात नहीं कराना चाहती, तो पचास रुपये लेकर काशी-वृन्दावन जैसे किसी तीर्थ पर चली जा। तेरे चले जाने पर उन पर तो कोई अंगूली नहीं उठाएगा। फिर रुपये भी तो थोड़े नहीं हैं। इतनी बड़ी राशि है कि क्या कहना?”

ज्ञानदा बोली, “दादी, मुझे रुपयों का कोई लालच नहीं। रुपयों का मुझे करना भी क्या है? तुम तीर्थ जाने की कहती हो, तो मेरा कही किसी से कोई परिचय ही नहीं है। जाऊं बी, तो किससे पास जाऊं?”

“यह तो तुम्हारा हम लोगों को परेशान करने का झूठा बहाना हुआ। तीर्थो पर जाने के लिए क्या किसी जान-पहचान की आवश्यकता होती है?”

ज्ञानदा बोली, “कल चटर्जी का प्राणकृष्ण की लड़की से विवाह होना है, इसलिए तुम मुझे आज ही घर से बाहर करना चाहती हो। मैं दूध पीती बच्ची नहीं हूँ, तुम्हारी चाल को भली प्रकार से जानती हूँ।”

कहती हुई वह बिलखने लगी और हाथ जोड़कर भगवान से विनती करती हुई कहने लगी, “प्रभो, तुम इजने लोगों का अपने यहाँ आश्रय देते हो, किन्तु मेरे लिए तुम्हारे द्वार क्यों बन्द है? प्रभो! बचपन से मैंने कभी कोई पाप नहीं किया, यह पाप भी मैंने अपनी इच्छा से नहीं किया, फिर भी, क्या मुझ असहाय से हुए इस पाप का सारा जिम्मा मुझ पर है? क्या मैं ही अकेली इसके लिए उत्तरदायी हूँ?”

भगवान के नाम पर ज्ञानदा द्वारा दी जा रही इस दुहाई से रासमणि का क्रोध सातवें आसमान पर जा पहुंचा। वह गरजती हुई बोली, “चुडैल, शाप देती है, झाडू मारकर यहाँ से निकाल बाहर करूंगी। तू क्या दूध पीती बच्ची है, जो तुझे परिणाम का पता नहीं था या फिर तुझसे बलात्कार किया गया है? यदि तू तैयार न होती, तो चटर्जी की क्या हिम्मत थी कि वह तुझे छू भी पाते। और इशारे करे, तो फिर मर्द को कैसे दोष दिया जा सकता है? अब बड़ी सती बनती है, जरा दर्पण में अपना चेहरा तो देख।”

ज्ञानदा इस आरोप का भला क्या उत्तर देती? वह चुपचाप आँसू बहाने लगी। रासमणि फिर कोमल कण्ठ से बोली, “देख, यदि तू केवट बहू की औषधि नहीं लेना चाहती तो न ले। क्या प्रियनाथ की औषधि ले सकेगी। वह तो भले आदमी हैं।”

ज्ञानदा बोली, “क्या वह दवा देंगे?”

“चटर्जी भैया इनकार तो नहीं कर सकेंगे? उन्हें बुलवा भेजा गया है, शायद आते ही होंगे। उनकी दवा का न लेना मुझसे नहीं देखा जा सकेगा।”

ज्ञानदा चुप थी, इससे उत्साहित होकर कुछ और कहने जा रही रासमणि जूतों की आवाज सुनकर चुपचाप आगन्तुक की बाट जोहने लगी।

प्रियनाथ करमे के भीतर आये, तो अंधेरा देखकर बोले, “अरे, यहाँ तो किसी को दिया-बत्ती जलाने तक की फूरसत नहीं हैं।” बगल की पुस्तके और हाथ के बक्से को नीचे रखते हुई बोले, “ज्ञानदा, आज तबियत कैसी है?”

ज्ञानदा को धरती पर बैठा दखकर वह बोली, “अरी, इस ठण्ड में नंगी धरती पर बैठना ठीक नहीं है। दवाई बदलनी पड़ेगी।” रासमणि को देखकर वह बोले, “मौसी, तुम कब आयी हो? तुम्हारी नातिन कल राह में मिल गयी थी, उसका स्वास्थ्य तो सामान्य नहीं लगता। मुझे तो मरने की भी फूरसत नहीं, मैं किस-किस की चिकित्सा करूं। मौसी, कल सवेरे घर पर अवश्य आना, लड़की का विवाह है न। कल तो मुझे बी घर पर रहना होगा, मरीजों की चिन्ता में अबी से धुला जा रहा हूँ। असल में लोग प्रियनाथ को छोड़कर विपिन-जैसे किसी दूसरे डाक्टर से चिकित्सा कराना ही नहीं चाहते? सोचता हूँ की यदि यही चलात रहा, तो ईन लोगों की आजीविका कैसे चलेगी? पंचू ग्वाला सर्दी का शिकार हो गया है, उसे देखने भी जाना है ज्ञानदा अपनी नब्ज दिखा।”

ज्ञानदा ने न हाथ आगे बढ़ाया और न ही कोई उत्तर दिया। रासमणि ने पूछा, “प्रियनाथ, तुम्हारी समझ में ज्ञानदा को कौन सा रोग है?”

ज्ञानदा के चेहरे पर देखते हुए प्रियनाथ ने कहा, “इसे अपच हो जाने से अम्ल-विकार हो गया है।”

रासमणि का इनकार में सिर हिलाना प्रियनाथ को अपने ज्ञान और अनुभव का प्रश्नचिह्न लगाने-जैसा अप्रिय प्रतीत हुआ। वह चिन्तित होकर बोले, “मेरे उपचार में सन्देह क्यो कर रही हो? क्या किसी अन्य डॉक्टर ने आकर कुछ और बता दिया है? जरा उसका नुस्खा अथवा दवा तो देखूं?”

रासमणि मुंहफट औरत है, उसे जो कहना होता है, एकदम बोल देती है, न भूमिका बांधने की चिन्ता करती है, न उचित-अनुचित का विवेक करती है, किन्तु आज उसे अपने स्वभाव के विपरीत सावधान होना पड़ा और वह बोली, “बेटा, किसी औक डॉक्टर को बुलाने जैसा कोई बात नहीं। तुम-जैसे धन्वन्तरी के सामने कोई वैध-डॉक्टर टिक ही कहां सकता है? चटर्जी भैया तो तुम्हें बहुत मानते है। वह तुम्हें छोड़कर और किसी को बुलाते ही नहीं हैं।”

फूलकर कुप्पा हुए प्रियनाथ बोले, “इधर के डॉक्टर तो मेरे सामने छोकरे हैं। इन अधकचरों को तो में दस साल तक पढ़ा सकता हूँ।”

बिलखती हुई रासमणि बोली, “बेटा, लड़की से एसी एक भूल हो गयी है, जिसे अपने विश्वास के आदमी के सिवाय दूसरे से कहा नहीं जा सकता।”

प्रियनाथ उत्तेजित होकर बोले, “मेरे रहते किसी और से कुछ कहने की आवश्यकता कहां है? हाँ, ठीक होने में थोड़ा समय अवश्य लग सकता है, किन्तु मेरी दवा की दो खुराकें काफी होती हैं, तीसरी की आवश्यकता ही नही पड़ती। क्यो ज्ञानदा! क्या मेरी दवा की दो बूंदों से तुम्हारा जी मचलाना ठीक हो गया था या नहीं?”

ज्ञानदा शर्म से मेरी जा रही थी। रासमणि बोली, “बेटे, ज्ञानदा को तेरे सिवाय किसी पर भरोसा ही नहीं है? तुम्हारी दवा को यह अमृत मानती है, किन्तु इसका रोग दूसरा है, अभागिनी का जी ही नहीं मचल रहा, इसे उल्टियां भी आ रही हैं।”

प्रियनाथ ने कहा, “उल्टियां, लो एक ही खुराक से रोक देता हूँ। अब घबराने की कोई बात नहीं।”

माथा पीटती हुई रासमणि बोली, “प्रियनाथ! क्या तुम बुद्ध हो, जो किसी संकेत को समझते ही नहीं हो? अरे, यह कुछ गलती कर बैठी है, ऐसी दवाई दो जिससे कलंक लगने से बच जाये?”

डॉक्टर के चेहरे को देखकर रासमणि को स्पष्ट हो गया कि इस बुद्ध को अबी तक ठीक से कुछ समझ नहीं आया। सारी बात साफ बताने के लिए वह प्रियनाथ को एक कोने में ले गयी और धीरे-धीरे उसके बारे में जो कुछ कहा, उसे सुनते ही वह बिदक उठा।

मौसी खुशामद करती हुई बोली, “बेटे, कोई ऐसी कारगर दवला दो कि जिससे गोलोक चटर्जी के उज्जवल चरित्र पर कलंक न लग सके। अरे, समाज के शिरोमणि तथा धर्मावतार गोलोक चटर्जी की रक्षा करतना क्या हमारा-तुम्हारा धर्म और कर्तव्य नहीं है।”

प्रियनाथ परेशान होकर बोला, “मौसी, यह मुझसे नहीं होगा। तुम किसी दसरे ड़ाक्टर को बुला लो।”

सुनकर चकित हुए रासमणि बोली, “प्रियनाथ! तुम यह क्या कह रहे हो? क्या यह बात किसी दूसरे से की जा सकती है? तुम अपने आदमी हो, ब्राह्मण हो, अपने धन्धे के धन्वन्तरी हो, तुम्हीं को उद्धार करना है।”

प्रियनाथ के मुंह खोलने से पहले ही चुपके से दरवाजा खोलकर गोलोक कमरे में आ पहुंचे और विनम्र स्वर से बोले, “यह लड़की दूसरों की दवा को विष मानती है। अब तुम्हारा ही सहारा है, तुम्हीं को इसका उद्धार करना है।”

प्रियनाथ बोला, “आप लोग किसी और डाक्टर को बुला लीजिये। मैं जोखम के काम नहीं करता। मुझे इस प्रकार के रोगों की और उनके उपचार की जानकारी नहीं है।” यह कहकर प्रियनाथ अपना बक्सा उठाकर चलने लगा।

गोलोक ने प्रियनाथ को पकड़कर रोने-जैसी आवाज में कहा, “प्रियनाथ यह बूढ़ा तेरे आगे हाथ जोड़कर अपने सम्मान को बचाने की विनती करता है। यदि मैं जानता कि तुम मेरी बात को नहीं रखोगे, तो मैं तुम्हें बुलाता ही नहीं। अब तो मेरा मान-सम्मान सब तुम्हारे हाथ मे हैं।”

अपना हाथ छुड़ाकर प्रियनाथ बोले, “आप मेरे लिए आदरणीय है, किन्तु फिर भी मैं जीवहत्या नहीं कर सकता। मेरी वैधक मुझे इसकी अनुमति नहीं देती। मैं परलोक में इसके लिए क्या उत्तर दूंगा? नहीं, यह मुझसे नहीं होगा।”

दरवाजे के पास खिसक गये गोलोक पलक झपकते ही दीन से दानव बन गये। एक क्षण पहले गिड़गिड़ाने वाले चटर्जी अब गरजने गले, “इतनी रात गये तुम एक सम्मानित व्यक्ति के घर किसलिए घुसे हो, मैं तुम्हें जेल भिजवाऊंगा।”

प्रियनाथ पहले तो घबरा गये, फिर संभलकर बोले, “वाह, बुलाकर पूछते हो कि किसलिए आया हूँ? डाक्टर के साथ ऐसा मजाक अच्छा नहीं होता।”

चिल्लाकर गोलोक बोले, “हरामजादे, पाजी, तुझे डाक्टरी कहां से आती है और तुझे इलाज के लिए कौन बुलाता है? लुच्चे, लफंगे, तू तो चोरों की तरह पिछवाडे के दरवाजे से भीतर घुसा है। रिश्ते का खयाल न होता, तो तुझे यही धरती में गाड देता।”

इसके बाद ज्ञानदा की और उन्मुख होकर वह बोले, “हरामजादी, कमीनी, अन्धा ससुर रो पीटकर चला गया और बूढ़ी सास मर रही है। मैंने खुशामद की, किन्तु यह कुतिया यहाँ से टलने का नाम ही नहीं लेती। अब क्या मुझे भ्रष्ट करके भी तुझे चैन नहीं पड़ा, जो आधी रात को इस जवान को बुलाकर पिछले दरवाजे से अन्दर घुसा लिया। सवेरा होते ही तेरा सिर मुंडवाकर गाँव से बाहर न निकाला, तो मेरा नाम भी गोलोक नहीं।”

ज्ञानदा को होश नहीं कि उसके सिर पर के कपड़ा कब खिसक गया। वह तो यह सारा तमाशा देखकर पत्थर बन गयी थी। गोलोक के दोनों रूप देखकर वह समझ नहीं पा रही थी कि इस नरपिशाच की वास्तविकता क्या है?

रासमणि को सम्बोधित करते हुए गोलोक ने कहा, “बहिन, इनका हाल तो तुमने अपनी आँखों से ही देख लिया है। दस गाँव के समाजों के सरपंच पर मिथ्या आरोप लगाते इस हरामजादी ने यह नहीं सोचा कि डायन भी चार घर छोड़ देती है। अरी, दूसरे का पाप मेरे सिर क्यों मढ़ती है?”

रासमणि ने कहा, “भैया, इसी को तो कलयुग कहते हैं।”

गोलोक बोला, “अब तू गवाह रहना।”

रासमणि बोली, “मैं तो फारिंग होकर ज्ञानदा की सुध लेने आयी थी। मुझे क्या मालूम कि इसने प्रियनाथ से समय बांध रखा है।”

ज्ञानदा चुपचाप फटी आँखों से सब देखती रही। प्रियनाथ स्तब्ध खड़ा था। गोलोक ने उसके हाथ की किताबों और बक्से को छीनकर सड़क पर फेंक दिया। इसके बाद उसे बी धक्का देकर घर से बाहर निकाल दिया। वह गरजते हुए और डांटते हुए बोले, “रामतनु बनर्जी का लिहाज कर रहा हूँ। तु उसका दामाद न होता, तो आज तू चार आदमियों के कन्धे पर सवार होकर घर जाता।”

यह कहकर गोलोक ने प्रियनाथ को जोर का एक और धक्का दिया।

इधर शोरगुल सुनकर नौकर भागे हुए इधर आ गये, तो उनके बीच में रास्ता बनाकर गोलोक चलता बना।

प्रियनाथ मुंह से एक शब्द भी न बोल सका। नौकर-चाकर तमाशा देखरर वापस चले गये। रासमणि भी अपने घर को चल दी। प्रियनाथ भी उदास चेहरा लिये सड़क पर पड़ी अपनी पुस्तकों और बक्से को उठाकर घर को चल दिये।

जड़मूर्ति बनी ज्ञानदा अकेली कमरे में चुपचाप बैठी रह गयी।

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