ब्राह्मण की बेटी - 1 Sarat Chandra Chattopadhyay द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

ब्राह्मण की बेटी - 1

ब्राह्मण की बेटी

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 1

मुहल्ले में घूमने-फिरने के बाद रासमणि अपनी नातिन के साथ घर लौट रही थी। गाँव की सड़क कम चौड़ी थी, उस सड़क के एक ओर बंधा पड़ा मेमना (बकरी का बच्चा) सो रहा था। उसे देखते ही बुढ़िया नातिन को चेतावनी देने के स्वर में सावधान करती हुई बोली ‘ऐ लड़की, कहीं आँख मींचकर चलती हुई मेमने की रस्सी लांधने की मूर्खता न कर बैठना। अरी, यह क्या, लांध गयी. तू भी हरामजादी बिना ध्यान दिये चल देती है। क्या तुझे रास्ते में बंधी बकरी दिखाई नहीं देती?’

नातिन बोली, ‘दादी, बकरी तो सो रही है।’

‘तो क्या, सो रही बकरी की रस्सी टापने में दोष नहीं लगता? तुझे क्या इतना भी मालूम नहीं कि मंगल और शनि के दिन रस्सी लांधने का परिणाम अनर्थ होता है।’

‘काहे का अनर्थ होता है? यह सब बेकार की बातें है।’

तिलमिला उठी दादी बोली. ‘ब्राह्मण के घर में जन्मी नौ-दस साल की ह्ष्ट-पुष्ट लड़की के पास बुद्धि का अभाव लगता है, इसीलिए वह इतना भी नहीं जानती कि मंगल और शनि के दिन बकरी की रस्सी को नहीं लांधना चाहिए, उल्टे मुझे समझाती है कि यह बेकार का वहम है। इन मरों की बकरी पालने के शौक के मारे तो लोगों का राह चलना दूभर हो गया है। सड़क के बीच बकरी को बांधने वाले भी कितने मूर्ख है? वे यह नहीं सोचते कि बेचारे बच्चे अनजाने में रस्सी लांध जाते हैं। क्या उन्हें बच्चों के हित का भी ध्यान नहीं आता? लगता है, जैसे उनके बच्चे हैं ही नहीं, तभी तो वे सोच-विचार नहीं कर पाते।’

अचानक रासो की नजर बकरी को हटाने जा रही दूले जाति की एक बाहर वर्षीय लड़की पर पड़ गयी। उस पर बरसती हुई बुढ़िया बोली, ‘अरी, तू कौन है? तू दूर हटकर क्यों नहीं चलती? कहीं मेरी नातिन से तेरा आँचल छू तो नहीं गया? लगता है कि तुझे ठीक से सुनाई-दिखाई नहीं देता।’

घबराई हुई दूले की लड़की धीमे स्वर में बोली, ‘दादी जी, में तो स्वयं आप लोगों से बचकर चल रही हूँ।’

‘तुझे इधर से गुजरने की अनुमति किसने दी है? यह बकरी भी शायद तेरी है। तुम कौन जात के हो और यहाँ किस प्रयोजन से आये हो?’

‘दादी जी, हम लोग दूले हैं।’ लड़की ने उत्तर दिया।

‘अरी, मेरी नातिन को कहीं छू तो नहीं दिया?’ बेचारी को असमय में स्नान करना पड़ेगा।’

नातिन बोली, ‘दादी, इसने मुझे नहीं छुआ है।’

रसमणि उतेजित स्वर में नातिन को डांटकर बोली, ‘क्या मैंने तुझसे कुछ पूछा है? मुझे इस लड़की का आँचल तुझसे छुआ लगा है। जा, घर में घुसने से पहले नदी में स्नान करके आ। इन नीच जाति बालों की संख्या में निरंतर हो रही वृद्धि के कारण उच्च जाति वालों का जीना हराम हो गया है।’ दूले की लड़की को डाटती हुई बुढ़िया बोली, ‘हरामजादी, अपने मुहल्ले से बकरी बांधने के लिए ब्राह्मणों के मुहल्ले में आने की बात तेरी समझ में नहीं आयी?’

डरी और लज्जित हुई लड़की ने मेमने को छाती से चिपकाकर कहा, ‘मैंने किसी को नहीं छुआ है।’

‘ठीक है किंतु इस मुहल्ले में तेरा आना कैसे हुआ?’

दूस किसी घर की ओर अंगुली का संकेत करते लड़की ने कहा, “मेरी नानी द्वारा मुझे और मेरी माँ को घर से निकाल देने पर उन महाराज जी ने अपने घर के पिछवाड़े हमे रहने को स्थान दिया हे।”

किसी भी कारण से किसी की दुर्गति के मामले में प्रसन्न होने वाली तथा रुची रखने वाली रासमणि प्रसन्न हो उठी और पूर कहनी को जानने की इच्छा से बोली, “तुम्हारी नानी ने तुम लोगों को कब निकाला?”

“परसों रात को।”

“तो क्या तू एककौडी दूले की छोकरी है? अरी, बताती क्यों नही? यह तो मैं जानती हूँ कि तेरे बाप के मरते ही तेरी बुढ़िया नानी ने तुम लोगों को ङर से चलता किया है। तुम छोटी जाति वालों का बेड़ा गर्क हो, अब क्या तुम लोग ब्राह्मण के मुहल्ले को भ्रष्ट करोगो? तुम लोगों का दिमाग खराब नहीं हो गाय? तुम्हारी माँ को कौन इस मुहल्ले में लाया है? ऐसी मुर्खता रामतनु के दामाद के सिवाय और किसी के द्वारा तो की नहीं जा सकती। साला घर-जमाई बनकर ससुर की सम्पति पर ऐश कर रहा है। पता नहीं साला क्या सोचकर भंगी-चमारों को इस मोहल्ले में ले आया है।”

इसके बाद रासमणि ने संध्या को आवाज दी, “बेटी संध्या, क्या घर में ही हो?”

खाली पड़ी धरती के उस ओर रामतनु के घर की खिड़कि है। उस खिड़की से बाह मुह निकालकर उन्नीस-बीस वर्ष की एक सुन्दर-सलोनी लड़की बोली, “कौन पुकार रहा है?” रासमणि को देखकर, “अरे, नानी है,” कहती हुई संध्या घर से बाहर आ गयी ओर बोली, “बात नानी, क्यों शोर मचा रही हो?”

रासमणि बोली, “बिटिया, तेरे नाना तो कुलीन ब्राह्मण थे। तेरे बाप को यह क्या सूझी जो ब्राह्मणों के मुहल्ले में शुद्रों को बसा दिया? क्या यह सब निन्दनीय कार्य नहीं है?”

इसके बाद अपने गाल पर हाथ रखकर हैरान प्रकट करती हुई नानी संध्या से बोली, “जरा अपनी माँ को इधर भेज। देखती हूँ कि जगद्धात्री इन्हें निकालने को सहमत होती है तो ठीक, नहीं तो चटर्जी भैया से जाकर गुहार लगाऊंगी। पता चलेगा कि नामी-गिरामी जमींदार भी कुछ करते हैं या नहीं?”

संध्या ने चकित भाव से पूछा, “नानी, किसे निकालने को परेशान हो रही हो?”

“अपनी माँ को बुला, उसके सामने सारी बात कहूंगी।” इसके बाद अपनी नातिन की ओर संकेत करती हुई रासमणि ने कहा, “यह लड़की मंगल के दिन बकरी की रस्की लांध गयी और दूले की लड़की से छू गयी।”

संध्या ने बुढ़िया की नातिन से पूछा, “क्या तुझे दूले की लड़की ने छू लिया था?”

सहमी हुई बुढ़िया के पास खड़ी दुले की लड़की ने उत्तर दिया, “दीदी मैंने किसी को नहीं छुआ।”

रासमणि की नातिन ने भी समर्थन में कहा, “मुझे किसी ने नहीं छुआ।”

क्रोध से उत्तेजित रासमणि दोनों को डांटती हुई बोली, “झूठ बोलते हुए तुम्हें शर्म नही आती? मैंने अपनी आँखों से देखा की दूले की लड़की का आँचल तुझसे छुआ है।”

नातिन बोली, “नहीं, नानी, वह मुझसे दूर थी।”

रासमणि बिगड़ उठी और चिल्लाकर बोली, “हरामजादी, झूठ बोलती है, जाओ, नदी में नहाकर आओ, घर चलने पर मैं तेरी खबर लेती हूँ।”

संध्या हंसकर बोली, “नानी, नहीं छुआ, तो असमय में बेचारी को क्यों नहाने पर विवश कर रही हो?”

जली-भूनी रासमणि बोली, “लड़की को नहाना ही पड़ेगा, किन्तु तेरे पिताजी ने अपने ही मुहल्ले में शुद्रों को बसाकर कौन-सा पूण्य कर्म किया है? धर-जमाई को अपनी मर्यादा में रहना चाहिए। उसके ऐसे कार्य का भला कौन समर्थन करेगा?”

अपने पिता के विरुद्ध बुढ़िया द्वारा लगाये जा रहे आरोपों से क्षुब्ध होकर संध्या तीव्र स्वर में बोली, “हम अपने घर में कुछ भी करें, हमें कौन रोक सकता है? मैं पूछती हुँ कि तुम्हें क्यो ईर्ष्या हो रही है?”

“किसे क्या कष्ट हो रहा है, यह देखना हो तो, मुझे चटर्जी बाबू को सारी बात बतानी होगी।”

संध्या बोली, “नानी, तुझे किसने रोका है? जिसे कहने को तेरा जी चाहे, कह दे। वह बड़े आदमी है, तो क्या हुआ? क्या हम किसी से उधार मांगकर खाते हैं?”

रासमणि आप से बाहर होकर बोली, “गेखो, इस छोटी-सी छोकरी की कितनी लम्बी जबान हैं। मैं गोलोक चटर्जी को कहने की बात कह रही थी। तुम लोगों ने शायद उनके महत्त्व को पहचाना नहीं।”

कोलाहल सुनकर जगद्धात्री बाहर आ गयी। उसे देखकर रासमणि अग्नज्वाला के समान धधकने लगी। अपनी चीख और चिल्लाहट से सारे मुहल्ले को सुनाती हुई रासमणि बोली, “जगद्धात्री, तुझे पता है कि तेरी लड़की के विचार कितने उच्च हैं? खूब पढ़ी-लिखी है न! कहती हे कि इस गोलोक चटर्जी की कोई परवाह नहीं है। क्या हम उनके बाप-दादा का दिया खाते हैं, जो हमारा दाना-पानी बन्द कर देंगे या हमें गाँव से बाहर निकलवा देंगे? हमने शुद्रों को इस मुहल्ले में स्थान देकर कुछ भी बुरा नहीं किया है। कोई बड़ा होगा, तो अपने लिए होगा! हमें अपने किये पर कोई पछतावा नहीं।”

कुपित और चकित हुई जगद् धात्री ने तीखे स्वर में लड़की से पूछा, “क्यों री, क्या तुने यह सब कहा है?”

संध्या बोली, “मेरे कहने का अभिप्राय किसी को अपमान करना नहीं था।”

हाथ मटकाती हुई रासमणि बोली, “तो क्या उनका सम्मान कर रही थी? अरी, कहा है, तो मुकरती क्यों है।”

अचानक रासमणि अपनी उग्रता छोड़कर मुदृ-स्वर में बोली, “जगद धात्री, मैंने तो शास्त्र की बात कही थी कि मेरी नातिन ने मंगल के दिन बकरी की रस्सी को लांधकर ठीक नहीं किया। इस पर संध्या ने पूछा, बीच सड़क पर किने बकरी बांध रखी थी? मैंने इसे बताया कि यह दूले की लड़की का काम था और उसी का आँचल मेरी नातिन को छु गया। मैं अपनी नातिन को नहाने को कह रही थी। मैं संध्या से बोली, बेटी, यदि तेरे बाबू जी इन दूले-डोमों को इस मुहल्ले मे न बसाते, तो यह अनर्थ क्यों होता? छोटी जात वालों को भला अचार-विचार का ध्यान कहां रहता है? बूढ़े गोलोक चटर्जी प्रायः उधर से आते-जाते हैं। उन्हें पता चलेगा, तो वह क्रुद्ध हो जायेंगा। जगद् धात्री, मैंने केवल इतना ही कहा, इस पर तेरी लड़की ने मुझे क्या-क्या नहीं सुनाया? खाली पीटने की कसर रह गयी है। क्या बड़ों के सामने लड़की का ऐसे असभ्य वचन मुंह से निकलना अच्छी बात है? क्या लड़कियों को यह शोभा देता है?”

माँ ने क्रुद्ध स्वर में बेटी से पूछा, “क्या तूने यह सब कहा है?” लड़की द्वारा इनकार किये जाने पर उत्तेजित माँ बोली, “तो क्या तुम्हारी नानी झूठ बोल रही है?”

रासमणि भी क्रोध से उबलने लगी और बोली, “ऐ छोकरी बोलते वक्त जो मुंह में आया, बोलती गयी है, और अब मुकरती है कि मैंने नहीं कहा। क्या मैं तुम्हारी शत्रु हूँ, जो तुम पर मिथ्या आरोप लगाऊंगी?”

संध्या धबरा गयी, फिर भी संभलकर बोली, “माँ तुझे अपनी बेटी पर विश्वास है, तो ठीक है, नहीं है, तो मैं क्या कर सकती हूँ? तुम्हारी दृष्टिमें नानी अधिक प्रामाणिक है, तो उसी की मानो।”

यह कहकर संध्या किसी अन्य प्रश्न को दागे जाने की आशंका से जल्दी से खुले दरवाजे से भीतर चली गयी। दोंनो महिलाएं लड़की के इस उपेक्षापूर्ण व्यवहार पर विस्मत हुई, एक-दूसरे का मुंह देखने लगी। इस बीच दूले की लड़की भी मौका देखकर मेंमने को छाती से चिपकाकर वहाँ से भाग खड़ी हुई।

जली-भूनी रासमणि कठोर शब्दों में बोली, “कहना अच्छा तो नहीं लगता, फिर भी कहे बिना रहा नहीं जाता। अब तो तूने अपनी आंखों से अपनी लड़की की करतूत देख ली। यदि कहीं ऐसी तेज न होती, तो क्या कुलीन परिवार की लड़की अभी तक कुंआरी बैठी रहती? इसकी आयुं की लड़कीयां तो चार-पाँच बच्चों की माँ बनी बैठी हैं।”

जगद् धात्री भला क्या उत्तर देती? उसकी चुप्पी से रासमणि भी शान्त हो गयी। फिर थोड़ी देर में बोली, “जगदधात्री, मैंने सुना है कि चक्रवर्ती का छोरा अब भी तेरे घर आता रहता है, तूने उसे छू़ट दे रखी है? क्या यह सब सत्य है?”

जगदधात्री चिन्ता और संकोच से मुंह न खोल सकी।

रासमणि बोली, “पुलिन की अम्मा ने जब मुझे यह सब कहा, तो मैं उससे लड़ पड़ी। मैंने कहा, हरिहर बनर्जी की नातिन और रामचन्द्र की लड़की जगदधात्री क्या कभी किसी शूद्र के छोकरे को अपने घर में घुसने दे सकती है? जगदधात्री तो कायस्थों के घर पैर रखने से घबराती है, कोई शूद्र लड़का उसके घर में घुसने का साहस कैसे कर सकता है?”

अपना हीत चाहने वाली तथा समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए प्रयत्नशीर इस बुढ़िया के सामने जगदधात्री भला कैसे मुंह खोलती? कोमल और धीमे स्वर में बोली, “मौसी, तुम तो जानती हो कि बचपन से उसका हमारे घर में आना-जाना है और वह मुझे चाची कहकर पुकारता है। तुम्हारी बात तो ठीक है, किन्तु एकदम रोकना भी तो अच्छा नहीं लगता, इसलिए वह कभी-कभ भूले-भटके, साल-छः महीने एक-आध बार ही आता है। फिर बिना माँ-बाप के अनाथ छोकरे पर दया भी आ जाती है, इसीलिए मुंह से न कहते नहीं बनता।”

सुनकर उफनती हुई रासमणि बोली, “जगदधात्री, मैं तो ऐसी दया और सहानुभूति का समर्थन नहीं करती। मैं तो इसे भर्त्सना-योग्य ही कहूंगी।”

क्रोध की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाने से रासमणि कांपने लगी थी। बड़े प्रयत्न से अपने को संभालने के उपरान्त वह बोली, “उस मनचले छोकरे को शायद तू भोला-भाला और मासूम समझती है? तुझे मालूम नहीं कि वह कितना बदमाश है। ऐसा पाजी पूरे इलाके में दूकरा नहीं होगा। चटर्जी बाबू ने छोरे को बुलाकर वजीफे का प्रलोभन छोड़कर शरीफ आदमी की तरह रहने के लिए खूब समझाया था। उन्होंने विलायत जाने की जिन न करने को बहुत कहा, किन्तु उसने उनकी कहां सुनी, बुढ़े का मजाक उड़ाता हुआ छोकरा बोला,“विलायत जाने से जाति भ्रष्ट होती है, तो हो जाये। मैं गोलोक की तरह भेड़-बकरीयों को विलायत भेजकर पैसा नहीं कमा सकता आर न ही मैं अपने समाज का शोषण कर सकता हूँ।” यह सब कहकर बुढ़िया बोली- गोलोक जैसे परम वैष्णव को खरी खोटी सुनाने वाले का तो मुंह नोच लेना चाहिए था। गोलोक सीधा आदमी है न, नहीं तो दो-चार जड़ दिये होते और बांह-बाजू तोड़ दिये होते।”

जगदधात्री बोली, “मौसी, मैंने तो अरुण को कभी किसी की निन्दा अथवा चुगली करते नहीं देखा।”

“तो क्या मैं और चटर्जी भैया झूठ बोलते है?”

“तुम लोग झूठ क्यो बोलने लगे? मैं तो लोगों की सामान्यतः किसी बात को बढ़-बढाकर कहने की प्रवृत्ति की बात कर रही थी।”

“जगदघात्री, क्या लोगों के पास केवल दूसरों की चर्चा करने का ही एक काम रह गया है, विलायत जाकर किसने कौन-सा किला फतहे कर लिया? वहाँ से किसानों की विध्याके सीख आने पर हंसी आती है। क्या अपने देश में किशान, नदी या खेती नहीं होती, जो इसे सीखने के लिए विलायत जाना आवश्यक था? अब उससे पूछो कि क्या वह हल चलायेगा? राम-राम ब्राह्मण जन्म को बेकार गंवाने से पहले उसकी मृत्यु क्यों नहीं हो गयी?”

जगदधात्री को अब यह चिन्ता सताने लगी कि मौसी की ऊंची आवाज को सुनकर तमाशा देखने की शौकीन मुहल्ले की स्त्रियों का कही जमघट न लग जाये। यह शान्त स्वर में अनुरोध करते हुए बोली, “मौसी, बाहर खड़ी थक गी होंगी। भीतर चलकर आराम से बैठो न।”

“नहीं काफी देर हो गयी हैं। अब बैठने का समय नहीं है। नातिन को नहलवाना भी तो है। हरामजादी दूले की छोकरी उसे छुकर भ्रष्ट जो कर गयी है।”

नातिन बोली, दीदी, जब तू बातें कर रही थी,. उसी बीच वह निकल गयी है, किन्तु उसने मुझे छुआ बिल्कुल नहीं।”

“फिर मुकर रही है, शैतान छोकरी। हाँ जगदधात्री, देखो, तुमसे कहे जा रही हूँ, अपने मुहल्ले में शुद्र को बसाना अच्छी नहीं। जमाई-राजा को बता देना।”

“मौसी, अवश्य कहूंगी। कहना भी क्या, इन्हे कल ही निकाल बाहर करती हूं। इनके रहने से अपने को भी कम परेशानी नहीं है। ये लोग रहेंगे तो ताल-तलाब का पानी बिगाड़ेगे, फिर शाम-सवेरे इनका दिखाई देना भी तो शुभ नहीं।”

प्रसन्न होकर बुढ़िया बोली, “बेटी अपनी जाति और अपने धर्म को बचाने के लिए इनका अलग रहना ही अच्छा है। आजकल के लड़के-लड़कियां इस बात को न समझें, तो क्या किया जा सकता है? उस दिन गोलोक चटर्जी मुझे कहने लगे कि संध्या का बात अपनी बेटी को पढ़ा-लिखा रहा है। रासो, इन्हें समझा, लड़कियां पढ़ने लिखने लगी, तो अनर्थ होते देर नहीं लगेगी”

डर से कांपती हुई जगदधात्री बोली, “क्या सचमुच चटर्जी मामा यह सब कह रहे थे?”

“अरी गाँव के मुखिया और समाज के प्रधान को तो यह सब कहना ही पड़ता है। अब मुझे ही देखो, मेरे काला अच्छर भैंस बराबर है, परन्तु फिर किस शास्त्र की जानकारी मुझे नहीं है? है कोई माई का लाल! जो यह कह सके कि रासमणि का एक भी कोई आचरण शास्त्र-मर्यादा के विरुद्ध है। इसे ही देख लो, लल्ली द्वारा बकरी की रस्सी को लांधते देखकर मैंने उसे टोका और कहा, अरी लड़की, मंगल के दिन तू यह कैसा अनर्थ कर रही है? क्या किसी पण्डित में मेरी बात को काटने का दम है? मैंने अपने माँ-बाप से यह सब सीखा है। हाँ, अपनी नयी रोशनी में पली लाड़ली से पूछो क्या उसे इस तरह की बातों की थोड़ी भी जानकारी है?”

जगदधात्री ने कहा, “मौसी, थोड़ी देर बैठोगी, तो लड़की को बुलाऊंगी।”

रासमणि देर हो जाने की बात कहकर नातिन को आगे करके चल दी, किन्तु दो-चार डग भरने के बाद लौट पड़ी और बोली, “जगदधाती, ऐसे श्रेष्ठ वर को हाथ से जाने दिया तूने?”

“मौसी, अभी हाथ में तो रखा हुआ है, किन्तु एक तो सम्पत्ति के नाम पर उसके पाक घर-द्वार कुछ भी नहीं है, दूसरे, उसकी आयु भी कुछ अधिक है।”

चकित होकर रासमणि बाली, “उसके पास घर-सम्पत्ति नहीं है, तो क्या हुआ? तुम्हारे पास तो सब कुछ है। तुम्हारा कोई लड़का तो है नहीं, लड़की भी यही एक है, फिर किसे देना है? इसी लड़की और दामाद को ही तो अपना सब कुछ देगी। कुलीन परिवार के लड़के की भी आयु कभी देखी जाती है? चालीस-बयालीस भी कोई आयु है क्या? तू जानती है न कि वय रसिकपुर के जयराम मुखर्जी का धेवता है, धेवता। जगदधात्रा, लड़के की उमर तो देख रहा हो, किन्तु क्या अपनी लड़की की उंमर पर भी ध्यान दिया है? यदि अब भी नाज-नखरा करती रहोगी, तो क्या लड़की कुंआरी नहीं रह जायेगी?”

जगदधात्री बोली, “मौसी, अकेले मेरे चाहने से क्या होता है? लड़की का बाप भी...।”

पूरी बात सुनने का धीरज न दिखाती हुई रासमणि बीच में बोल उठी, “लड़की का बाप क्यो नहीं मानेगा? जब उसका विवाह हुआ था तो उसके पास कौन-सी सम्पत्ति थी? फिर तुम्हारे घर में अरुन का आना-जाना, पूरा-पूरा दिन डटे रहना, सुना है कि हुक्का-पानी भी चलता है। जवान लड़की के घर में रहते ये लक्षण अच्छे नहीं। अच्छा घर-वर मिल जाने पर देर करना समझदारी नहीं। सोचकर देखो, तुम्हारी छोटी बुआ गुलाबी सारी आयु कुंआरी ही रह गयी न? तेरे बाप की दोनों बड़ी और मझली कुंआरी रह गयी। तेरे माँ-बाप ही काशी जाकर न रहने लगते, तो तुम्हारा विवाह कहां से होना था? काशीवास करती समधिन को ज्यों ही सही घर-वर मिल गये, त्यों ही उसने तुम्हारे हाथ पीले कर दिये। बीच में कोई टांग न अड़ाये, यह सोचकर उसने किसी को कानों-कान खबर नहीं होने दी। अब मानती है या नहीं, उसने अच्छा किया, नहीं तो कौन जाने, विवाह होता या न हता? अब, तू ज्यादा सोच-विचार मत करना जल्दी से लड़की को उसकी ससुराल पहुंचा दे।”

इसके बाद नातिन से बोली “चल बेटी, चल देर हो गयी है। जगदधात्री, और अधिक कहने के लिए अब मेरे पास समय नहीं है, किन्तु फिर भी तुम्हें सावधान करना अपना कर्तव्य समझती हूँ। देख, खिचतान से ज्यादा मलेजोल बढ़ाने, लड़की के साथ उसका हंसी-मजाक करने देने का परिणाम सुखद नहीं होगा। गाँव में बात फैल गयी, तो लड़का मिलना कठिन हो जायेगा। यह तो तुम भली प्रकार जानती हो कि लोगों को दूसरो के घर को फूंककर तमाशा देखना बहुत अच्छा लगता है।”

इस प्रकार बड़बड़ाती हुई रासमणि नातिन को आगे करके जा रही थी कि जगदधात्री ने उसे रुकने के लिए आवाज दी और बोली, “टोकरी-भर-बैंगन-लौकी आये है, दो-चार लेती जा। जरा रुक, मैं भीतर से लाती हूँ।”

जगदधात्री के भीतर जाने पर रासमणि बोल उठी, “अच्छा अभी से बैंगन आने लगे?” नातिन की ओर उन्मुख होकर रासमणि बोली, “अरी, खम्भे की तरह स्थिर खड़ी है, भाग के जा और बैगन लेकर आ। अच्छा, तब तक मैं धीरे-धीर चलती हूं, जल्दी से लौट के आ।”

-------------------------------------