एक जिंदगी - दो चाहतें - 17 Dr Vinita Rahurikar द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक जिंदगी - दो चाहतें - 17

एक जिंदगी - दो चाहतें

विनीता राहुरीकर

अध्याय-17

परम छुट्टी खत्म होने के तीन दिन पहले ही जयपुर चला आया। वाणी को घर पहुँचाया एक बैग में दो जोड़ी कपड़े रखे और हेडक्वार्टर जाने का बहाना बना कर अहमदाबाद चला आया। तनु की बेतरह याद आने लगी थी।

एक रेस्टॉरेन्ट में देर तक वह तनु का हाथ अपने हाथ में थामकर अपनी आँखों से लगाए बैठा रहा। तनु उसके सिर पर हाथ फेरती रही। इतनी परेशानियों के बीच भी उसके चेहरे पर एक सजह मुस्कान थी।

''कितना विश्वास करती है यह मुझ पर। रत्ती भर भी संदेह नहीं है इसे कि कहीं मैं इसे धोखा न दे दूँ या घर वालों के दबाव में आकर इसे छोड़ न दूँ। तनु के विश्वास से ही परम को बल मिलता। उसके विचारों को दृढ़ता मिलती वरना उम्र भर दूसरों के कहने पर चलने वाला परम अक्सर ही हालात के आगे अपने आपको बहुत कमजोर महसूस करने लगता।

जयपुर आकर परम को एक तो सुविधा हो गयी थी कि वह ऑफिस से जी भरकर तनु से बातें कर लेता था। उसी समय तनु के लिए भरत देसाई ने एक बहुत ही अच्छा रिश्ता ढूंढ निकाला। इनकार करने की कोई वजह दूर-दूर तक नहीं थी जब तनु ने यह कहा कि वह अभी शादी नहीं करना चहती तो वो लोग रुकने को भी तैयार हो गये। अब तनु को लाचार अपने पिता को बताना ही पड़ा कि उसे कोई और पसंद है।

''कोई बात नहीं बेटी। तुम्हारी खुशी मे ही हमारी खुशी है। मैं वही करूँगा जो तुम चाहोगी।" भरत भाई ने लाड़ से कहा ''कौन है वो?"

''वो फौज में है पिताजी।"

''यह तो बहुत ही गर्व की बात है।" भरत भाई मुस्कुराकर बोले।

''वो गुजराती नहीं है बंगाली है।" तनु ने स्पष्ट किया।

''मुझे कोई ऐतराज नहीं है। जो मेरी बेटी की पसंद वो मेरी भी पसंद।" भरत भाई ने शांत स्वर में कहा।

अब तनु के सामने सबसे मुश्किल घड़ी थी वो बड़ी हिम्मत जुटाकर झिझकते हुए बोली ''वो शादीशुदा है पिताजी"।

''तनु!" भरत भाई की आवाज में क्रोध का जरा सा भी पुट नहीं था लेकिन उन्हें घोर आश्चर्य हुआ आजादी और लाड़-प्यार में पली उनकी बुद्धिमान बेटी से उन्हें ऐसे जवाब की कतई उम्मीद नहीं थी। तनु भले ही कितने लाड़ में पली हो लेकिन वह जिद्दी या बिगड़ी हुई नहीं थी घर में हमेशा एक व्यवस्थित अनुशासनात्मक वातावरण रहा है और तनु ने आज तक कभी भी घर के संस्कारों का उल्लंघन नहीं किया।

और आज...।

तनु ने उन्हें पूरी बात बता दी। भरत भाई चुपचाप सुनते रहे। जब तनु की बात खत्म हुई तब उन्होंने गंभीर स्वर में बस इतना कहा -

''उसे जल्द से जल्द घर बुलाओ। मुझे उससे बात करनी है।"

और बीस दिन बाद परम भरत देसाई के भव्य ड्राईंगरूम में उनके सामने बैठा था। तनु की माँ और तनु भी पास ही एक सोफे पर बैठे थे। परम उनके विराट और प्रशस्त व्यक्तित्व के सामने बहुत असहज सा मजसूस कर रहा था। उनके चेहरे और स्वर में परम के प्रति जरा सा भी क्रोध नहीं था। यही बात परम को ग्लानी में डुबो रही थी। वे उसे भलाबुरा बोल देते तब भी उसे थोड़ा हल्का लगता लेकिन उस भले व्यक्ति के धैर्य और सुलझे हुए व्यक्तित्व के सामने परम अपनेआप में एक बोझ तले दबा बैठा था।

''मैंने अपनी बेटी को हमेशा अपना निर्णय लेेेने की स्वतंत्रता दी है। मैंने हमेशा उसकी इच्छाओं और भावनाओं का सम्मान किया है। आज भी करता हूँ। मुझे उसकी पसंद और निणर््य में कोई आपत्ती नहीं है।" भरत देसाई क्षण भर के लिए रूके और फिर बोले ''लेकिन एक पिता होने के नाते मैं अपनी बेटी के सम्मानजनक और सुरक्षित भविष्य के प्रति भी पूरी तरह से आश्वस्त होना चाहता हूँ।"

भरत भाई ने एक ही वाक्य में सारगर्भित बात कह दी थी। परम का मन उस व्यक्ति के सामने नतमस्तक हो गया, श्रद्धा से भर उठा। उनका जो सामाजिक रूतबा था, जो प्रतिष्ठा थी वो किसी से भी छिपी हुई नहीं थी। उसके बाद भी उन्होंने परम को लेकर इतना धैर्य रखा, उस पर विश्वास रखा। अंदर से एक पिता होने के नाते अभी उनके मन की हालत क्या होगी वह समझ रहा था। एक हाहाकार, एक तूफान उठ रहा होगा उनके मन में। अपनी इकलौती बेटी के भविष्य के प्रति कितना सशंकित होंगे वे अभी। उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी दांव पर लग जायेगी। आगे भी उन्हें अपने समाज में न जाने किन-किन परिस्थितियों और उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ेगा।

लेकिन वह व्यक्ति सब कुछ एक ओर रखकर सिर्फ बेटी की खुशी देख रहा है। परम ने मन ही मन उन्हें प्रणाम किया।

''मैं आपसे वादा करता हूँ सर आपकी बेटी मेरे जीवन में एक पत्नी के पूरे मान सम्मान के साथ रहेगी।"

परम दृढ़ स्वर में बोला।

***