Biraj Bahu - 14 books and stories free download online pdf in Hindi

बिराज बहू - 14

बिराज बहू

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

(14)

कई दिन बीत गए। बिराज हुगली अस्पताल में पड़ी हुई थी। साथ वाली औरत से जाना कि यह अस्पताल है। उसने अपनी बातों से याद करने की चेष्टा की। बहुत-कुछ बातें याद भी हो आई कि किस तरह उसके सतीत्व पर पति ने कटाक्ष किया था। पीड़ा और भूख से उसका टूटा व जर्जर शरीर निराधार आरोपों को सहन नहीं कर सका। अनेक दिनों से दुःख सहते-सहते वह पागल हो गई थी। घृणा और दंभ की मिली-जुली भावना के कारण उसने कह दिया कि उनका मुंह नहीं देखूंगी। मरने तो चली आई, पर वह मर नहीं सकी। फिर वह मानसिक दोष के कारण बजरे में चढ़ गई। नदी में कूद पड़ी और तैरकर किनारे आ गई। फिर एक घर के आगे चली गई। बस, इतना स्मरण था उसे। यह स्मरण नहीं कि उसे कौन लाया था। वह एक छिनाल है। पराये मर्द का सहारा लेकर वह घर से निकली है।

इसके आगे वह कुछ भी नहीं सोच पाती। वह सोचना भी नहीं चाहती। आहिस्ता-आहिस्ता वह अच्छी होने लगी, थोड़ा टहलने लगी, किंतु वह रात-दिन यह महसूस करती थी कि वह एक दर्दनाक घटना थी। उसको याद-भर करने से उसका शरी ठण्डा पड़ने लगता था और उसे चक्कर आने लगता था।

अगहन माह में एक स्त्री ने आकर कहा- “अब तुम स्वस्थ हो गई हो। यहाँ से जाना पड़ेगा।”

वह स्त्री अस्पताल की थी। उसने पूछा- “जो लोग तुम्हें यहाँ दाखिल करा गए थे, वे वापस नहीं आए। उनसे तुम्हारा कोई भी नाता-रिश्ता नहीं है क्या?”

“ना-ना... मैंने उन्हें तो देखा भी नहीं। वर्षा की एक रात मैं नदी में डूब गई थी। इसके बाद मुझे कुछ भी मालूम नहीं।”

“ओह! तो नदी में डूब गई थी! मगर तुम्हारा घऱ कहाँ है?” –उस स्त्री ने स्नेह से पूछा।

बिराज ने मामा के घर का नाम लेकर कहा- “मैं वहाँ जाऊंगी। वे मेरे घरवाले है।”

वह स्त्री आयु में उससे बड़ी थी। स्नेह से बोली- “बिटिया! वहाँ चली जाओ। परहेज से रहना! कुछ ही दिनों में अच्छी हो जाओगी।” वह स्त्री दयार्द्र हो उठी।

बिराज ने दर्द से विहंसकर कहा- “अब कहाँ अच्छी होऊंगी! यह आँख व हाथ ठीक नहीं हो सकते।”

रोग के बाद उसकी बाई आँख से दिखलाई देना बन्द हो गया था तथा उसका बायां हाथ भी बेकार हो गया था। उस स्त्री की आँखे भर आई, बोली- “कुछ नहीं कह सकते... अच्छा भी हो सकता है।”

दूसरे दिन वह कुछ खर्च और जाड़े के वस्त्र दे गई। प्रणाम करके जाते-जाते सहसा बिराज लौट आई, बोली- “अगर आपके पास कोई दर्पण हो तो दीजिए, मैं जरा अपना मुंह देखना चाहती हूँ।”

“हाँ-हाँ, अभी देती हूँ।”

स्त्री ने उसे एक दर्पण लाकर दे दिया। बिराज लोहे के पलंग पर वापस बैठ गई।

उसने जैसे ही दर्पण देखा, दर्द से कराह उठई। असीम वेदना से उसका रोम-रोम तड़प उठा। उसके लम्बे बाल सिर पर नहीं थे। चेहरा विकृत हो गया था। रग काला पड़ गया था। “है ईश्वर! आपने मुझे ऐसी सजै क्यों दी? हे दयामय! तुम्हें मुझे कुरुप बनाकर क्या मिल गया? मैं जब बीमार थी, तब मुझे अपने पति का मुंह साफ-साफ दिखाई देता था। मैंने जो कुछ किया, वह अचेतावस्था में किया। वे मेरा अपराध क्षमा नहीं करेंगे?” वह पश्चाताप की आग में जलती रही।

उसी वार्ड में एक और बीमार स्त्री थी। बिराज को इस तरह रोते देखकर उसके पास आई और पूछने लगी- “बहन! इस तरह क्यों रो रही हो?”

उफ! एक और ने बिराज से रोने का कारण पूछा। बिराज ने अपनी आँखें पोंछ लीं और तुरन्त ही वहाँ से चल पड़ी।

भीड़-ही-भीड़! शोरगुल! बिराज ने एक नए सिरे से अपनी यात्रा शुरु कर दी। एक नामालूम यात्रा। वह सोच में डूब गई। लम्बी सांसे लेन लगी। बिराज ने मन-ही-मन कहा- “है ईश्वर! शायद तुमने यह अच्छा ही किया अब कोई भी मेरी ओर आँख उठाकर देख नहीं पाएगा। वह कुरुप चेहरा और यह मन्द नयन-ज्योति कदाचित इसी यात्रा हेतु है। गाँव के लोग जानते है कि वह घर से भागनेवाली एक छिनाल है इसलिए वह गाँव की ओर तो नहीं जा सकती। ईश्वर! इस मूर्ख को ऐसी विषम स्थिति देना ही तेरा कल्याणकारी विधान है।”

और बिराज चलती ही गई।

***

दिन-पर-दिन बीतते जा रहे थे।

बिराज ने नौकरानी का काम करना चाहा, पर वह इतनी अशक्त हो गई थई कि चाहकर भी वह यह काम नहीं कर सकी। उसे कोई काम पर नहीं रखता था। हताश होकर उसने भीख मांगना शुरु कर दिया। भीख मांगकर वह पेड़ के नीचे खाना बना लेती और खाकर सो जाती थी। इस वर्तमान जीवन में अतीत का कोई चिह्न शेष नहीं था। उसे कोई नहीं पहचान सकता था। उसके कपड़े जगह-जगह से फटे हुए थे उसका कुंदन-सा तन आज माटी हो गया था। परंतु दो बातें उसे भूल नहीं पाती थी। पहली, आज भी ‘दो’ कहने के साथ उसका मुंह लज्जा से लाल हो जाता था। दूसरी बात यह थी उसे अपने घर से दूर जाकर मरना पड़ेगा उम्र भी उसकी केवल पच्चीस साल की थी। वह यह भी नहीं जानती थी कि कहाँ मरेगी। बस निरन्तर रास्ता तय करती जा रही थी। वह उस स्थान तक पहुंचना चाहती थी जहाँ उसका पति उसकी यह हालत ने देख पाए। उसने चाहे कैसी भी गलती की हो, पर उसका पति उसकी यह हालत धेकर दहाड़ मारकर रो पड़ेगा। यही बात भूल जाने के लिए वह निरन्तर भागती जा रही थी।

एक साल बीत गया था। वह साल-भर चलती रही, पर उसका गन्तव्य कहाँ था? वह कहाँ अपनी देह का विसर्जन करेगी?

आज वह दो दिनों से एक पेड़ के नीचे अशक्त-सी पड़ी है। रोग ने उसे दबोच लिया है- ज्वर, खांसी और छाती का दर्द! उसे बार-बार लग रहा था कि अस्पताल से अच्छी होकर वह कुछ सबल बन गई थी, पर अब लग रहा है कि वह अधिक दिनों तक नहीं टिक पाएगी। आज वह नयन मूंदे सोच रही थी कि उसी पेड़ के नीचे ही उसकी अन्तिम मंजिल है। क्या इसी गन्तव्य के लिए वह अविराम गति से चलती आई थी? अब क्या वह आगे नहीं चल पाएगी?

दिन बीत गया।

पेड़ की सबसे ऊंची चोटी पर सूर्य की किरण स्पर्श करके मिट गई। दूर से संध्याकालीन शंख-ध्वनि उसके कानों में पड़ी। उसकी मुंदी आंखों के सामने गृहस्थ जनों की मंगल मूर्तियां नाच उठीं। कौन इस समय क्या कर रही होगी, कौन दीया जला रही होगी, कौन आंचल डालकर प्रणाम कर रही होगी, कौन तुलसी के चबूतरे पर दीया जला रही होगी... नयन भर आए, वह रो पड़ी। उसे लगा कि न जाने कितने ही हजारों सालों से वह किसी घर में सान्ध्य-दीप नहीं जला पाई है। किसी के मुख-दर्शन करके भगवान से उसके लिए चिरायु व ऐश्वर्य की प्रार्थना नहीं कर सकी है।

इन्हीं सब बातों के कारण वह सो नहीं सकी। सारी रात आँखों में काट दी। उसे लगा कि कोई उसकी बन्द दृष्टि को खोलकर उसमें पवित्र माधुर्य भर गया है। अब पि से भेंट हो या न हो, पर एक पल के लिए भी उसे कोई उनसे अलग नहीं कर सकता। इस तरह उसे पाने की राह थी, चाह थी। फिर व्यर्थ ही वह इतने दिनों तक उसे अलग रहकर क्यों दुःख पाती रही? इस गलती के कारण वह वेदना से घिर गई। दुःख उसे दंश-पीड़ा देने लगे। उसे महसूस हुआ कि उसे उसका पति बुला रहा है। यह विश्वास था।

बिराज ने दृढ़तासे सोचा-यह ठीक है। क्या यह शरीर मेरा अपना है? उनकी आज्ञा के बिना इसे नष्ट करना क्या ठीक है? नहीं, इसे नष्ट करने का विचार तो वे ही कर सकतै है सभी बातें उनके चरणों में निवेदन करने के बाद ही मुक्ति मिलेगी।

बिराज लौट पड़ी।

उसका तन-मन आज हल्का हो गया था। उसके पांव मानो कठोर भूमि पर नहीं पड़ रहे थे। मन तृप्त था, उसमें जरा-सी ग्लानि नहीं। वह निरन्तर वही सोच रही थी कि यह उसकी कितनी बड़ी भूल थी। उसके सिर पर अहंकार कैसा लद गया था? यह कुरुप और कुत्सित मुख लिए और तो किसी का सामना करने में शर्म आई नहीं, पर जिनके समक्ष करने का अधिकार विधाता ने नौ साल की उम्र में दे दिया था, उनसे कैसी लाज?

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