बिराज बहू
शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
(6)
मागरा के गंज (बाजार) में पीतल के बर्तन ढालने के कई कारखाने थे। मुहल्ले की छोटी जाति की लड़कियां मिट्टी के सांचे बनाकर वहाँ बेचने जाती थी। बिराज ने भी दो दिनों में सांचा बनाना सीख लिया और वह शीघ्र ही बहुत अच्छे सांचे बनाने लगी। इसलिए व्यापारी खुद आकर उसके सांचे खरीदने लगे। इससे वह हर रोज आठ-दस आने कमा लेती थी, पर संकोच के मारे उसने पति को कुछ नहीं बताया।
नीलाम्बर के सो जाने के बाद यह कार्यक्रम काफी रात तक चलता था। एक रात बिराज काम करते-करते सो गई। नीलाम्बर की अचानक आँख खुल गई। बिराज को पलंग पर न पाकर वह बाहर निकला। बिराज के इधर-उधऱ सांचे पड़े हुए थे। उसके हाथ कीचड़ में सने थे वह शीत में गीली मिट्टी पर सोई हुई थी।
गत तीन दिनों से उनके संवाद (बोलचाल) नहीं हो रहा था। नीलाम्बर की आँखे छलछला आई। वह वहीं पर बैठ गया और बड़ी सावधानी से उसके सिर को अपनी गोद में रख लिया। बिराज सकपकाकर मजे से सोती रही। नीलाम्बर ने अपने बाएं हाथ से आँसू पोंछ लिए। उसने दीये को तेज कर दिया। पत्नी को अपलक देखने लगा। एक अव्यक्त व असीम पीड़ा उसके हृदय को मसोसने लगी। लापरवाही में एक अश्रु-बूंद बिराज की पलक पर टपक पड़ी। बिराज की आँखे खुल गई। वह हाथ फैलाकर पति से लिपट गई। उसकी गोद में ऐसे ही पड़ी रही। वह रोता रहा।
जब पौ फटी तो नीलाम्बर ने कहा- “भीतर चलो बिराज, ठण्ड में मत सोया करो।”
“चलो।”
प्रभात होने पर नीलाम्बर ने कहा- “बिराज! कुछ दिन तुम अपने मामा के यहाँ चली जाओ। मैं कलकत्ता जाकर कुछ कमाने का उपाय करुंगा।”
बिराज ने पूछा- “कब तक मुझे बुला लोगे?”
नीलाम्बर ने कहा- “चार-छः माह के भीतर ही तुम्हें बुला लूंगा।”
“ठीक है।”
दो दिन बाद बैलगाड़ी आई तो बिराज ने बीमारी का बहाना बना लिया और वह नहीं गई। दो दिन बाद फिर बैलगाड़ी आई तो उसने जाने के लिए साफ मनाही कर दी। नीलाम्बर ने कारण पूछा तो उसने कहा- “मैं इसलिए नहीं जाऊँगी क्योंकि मेरे पास न तो गहने है, न अच्छे कपड़े।”
नीलाम्बर इस पर खूब क्रोधित हो गया।
छोटी बहू मोहिनी ने उसे बुलाकर कहा- “दीदी! तुम्हें यहाँ से चले जाना चाहिए। जेठजी को मर्दों की तरह कमाने दो।”
“मैं नहीं जाऊंगी। सुबह जागते ही उनका मुंह देखे बिना ही नहीं रह सकती।”
बिराज जाने लगी तो मोहिनी ने फिर कहा- “दीदी! कुछ दिनों के लिए जाए बिना तुम्हारा काम नहीं चलेगा।”
बिराज के भीतर संदेह के अंकुल उगे। उसने पलभर रुककर कहा- “अब समझी, क्या सुन्दरी आई थी?”
“हाँ।”
बिराज बिफर गई, बोली- “एक कुत्ते के डर से क्या मैं घर छोड़ दूं?”
छोटी बहू ने कहा- “जब कुत्ता पागल हो जाता है तो उससे डरना ही पड़ता है।”
“मैं किसी भी शर्त पर नहीं जाऊंगी।” छोटी बहू का उत्तर सुने बिना ही वह भीतर चली गई, किंतु अब बिराज को डर लगने लगा था। तालाब में पानी बहुत कम था, फिर भी राजेन्द्र ने नया घाट बना लिया था।
एक दिन नीलाम्बर ने बिराज से कहा- “बिराज! नए जमींदार के ठाट-बाट देख रही हो।”
बिराज ने अरुचि से कहा- “देख रही हूँ।”
“दो-चार मछलियां रहने जितना पानी नहीं है, पर यह बंसी डाले दिन-भर बैठा रहता है। क्या पागल है?” नीलाम्बर हंस पड़ा, पर बिराज उसकी हंसी का साथ नहीं दे सकी।
नीलाम्बर ने फिर कहा- “परंतु यह ठीक नहीं है। उसके इस तरह बैठने से भले घर की लड़कियों व स्त्रियों को बड़ी असुविधा होगी।”
“पर हम करें क्या”?
नीलाम्बर कुछ उत्तेजित हो गया, बोला- “कल ही कचहरी जाकर कह आऊंगा। हमारे घर के सामने नहीं चलेगा।”
बिराज ड़र गई, बोली- “ना-ना! क्या तुम जमींदार से लड़ाई करोगे”?
“करुंगा... दुनिया देख रही है कि वह अत्याचार कर रहा है।” नीलाम्बर ने गुस्से में कहा।
“सुनो, लोग कहेंगे कि जिसके पास दो जून रोटी की व्यवस्था नहीं है, वह जमींदार के लड़के से लड़ेगा कैसे”?
नीलाम्बर बेहद आग-बबूला हो उठा, बोला- “तुम क्या मुझे कुत्ता-बिल्ली समझी हो जो बार-बार खाने का ताना दिया करती हो?”
बिराज की सहिष्णुता निरन्तर कष्ट उठाते-उठाते मर चुकी थी। वह भड़ककर बोली- “चिल्लाओ मत... तुम्हें नहीं पता कि दो वक्त खाना कैसे मिलता है। यह मैं जानती हूँ या अन्तर्यामी।” और वह तमककर भीतर चली गई।
नीलाम्बर के कानों में बिराज की आवाज बार-बार गूंज रही थी कि गृहस्थी कैसे चलती है।
वह चण्ड-मण्डप में बैठा अश्रु-प्रवाहित करता रहा। बार-बार भगवान से यही प्रार्थना करता रहा कि वह मेरी बिराज को मुझसे न छीने।
वह उठकर गया। बिराज दरवाजा बन्द किए सोई हुई थी। बार-बार दरवाजा खटखटाने के बाद भी उसने दरवाजा नहीं खोला।
“तुम मारोगे तो नहीं?” उसने भीतर से पूछा।
“दरवाजा खोलो।”
बिराज ने दरवाजा खोल दिया।
वह पलंग पर टूटा-सा गिर गया और रोने लगा। पति को इतना उदास उसने नहीं देखा था। सिरहाने बैठकर वह पति के आँसू पोंछने लगी।
उन दोनों के मन में क्या-क्या था, यह तो भगवान ही जानता था।
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