बिराज बहू - 8 Sarat Chandra Chattopadhyay द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बिराज बहू - 8

बिराज बहू

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

(8)

पता नहीं किस तरह सुन्दरी को घर जाने की वात नमक-मिर्च लगाकर बिराज के कानो में पड़ गई। पड़ोस की बुआ आई थी। उसने खूब आलोचना की। बिराज ने सबकुछ सुनकर गंभीर स्वर में कहा- “बुआ माँ! आपको उनका एक कान काच लेना चाहिए था!”

बुआ बुगड़कर बोली- “तुम जैसी बातूनी इस गाँव में नहीं है।”

बिराज ने नीलाम्बर को बुलाकर कहा- “सुन्दरी के यहाँ कब गए थे?”

नीलाम्बर ने डरते हुए उत्तर दिया- “काफी दिन हो गए हैं, पूंटी का समाचार पूछने गया था।”

“अब मत जाना। मैंन सुना है कि उसका चरित्र खराब है।”

नीलाम्बर चुप रहा।

***

सूर्यदेव रोज अस्त होते हैं और उदय होते हैं।

उस दिन कोई उत्सव था।

छोटी बहू मोहिनी छूपकर आई, बोली- “दीदी! आज उत्सव है, चलो आज नदी में डुबकी लगा आए।”

जब से जमींदार के बेटे राजेन्द्र कुमार ने घाट बनाया था, तब से उन्हें उधर जाने की मना ही हो गई थी।

“अभी कोई जगा ही नहीं है, जल्दी लौट आएंगे।”

दोनों देवरानी-जेठानी चल पड़ीं। वै जैसे ही नहाकर बाहर निकलीं, वैसे ही उदण्ड राजेन्द्र उनसे सामने था।दोनों सहम गईं मोहिनी झट बिराज के पीछे खड़ी हो गई। बिराज उसके मन का कलुष समझ गई। वह उसे जलती निगाह से देखने लगी।

राजेन्द्र की निगाहें झुक गईं।

बिराज भड़ककर बोली- “आपकी जमींदारी कितनी ही बड़ी क्यों न हो, आप जिस जगह पर खड़े है, वह मेरी जमीन है।” फिर उस पार के घाट की ओर संकेत करके बोली- “आप कितने हैं या तो इस घाट की एक-एक इंट जानती है या मैं जानती हूँ। लगता है कि आपके घर में माँ-बहन नहीं हैं। मैंने कई दिनों पहले आपको अपनी दासी से कहलवाया था कि यहाँ न आया करें।”

राजेन्द्र फिर भी मौन रहा।

बिराज ने फिर कहा-“आप मेरे पति को नहीं जानते। यदि जानते होते तो इधर न आते। दुबारा आने के पहले उन्हें अच्छी तरह जान लीजिएगा।”

बिराज घर के पास पहँची ही थी कि पीताम्बर ने पूछा- “भाभी! अभी-अभी तुम किससे बात कर रही थीं? कहीं वे जमींदार बाबू तो नहीं थे?”

बिराज की आँखें लाल हो गई। चेहरा तमतमा उठा बोली- “हाँ” और वह भतर चली गई।

भीतर जाने के उपरान्त बिराज बहू को छोटी बहू की चिन्ता हुई। थोड़ी देर में ही उस घर में मार-पीट शुरू हो गई।

नीलाम्बर उठकर हाथ-मुंह धो रहा था कि उसे तर्जन-गर्जन सुनाई पड़ा। वह लपककर बेड़े के पास गया। उसने लात मारकर उसे तोड़ डाला। वह क्रोध से पागल हो रहा था। बेड़ा टूटने की ध्वनि ने पीताम्बर का ध्यान भंग किया। देखा सामने साक्षात यमराज-सा नीलाम्बर खड़ा था।

नीलाम्बर ने जमीन पर पड़ी बहू से कहा- “डरने की कोई बात नहीं। तुम भीतर चली जाओ बेटी।”

बहू कांपती-डरती भीतर चली गई। नीलाम्बर ने बड़े ही संयत स्वर में कहा- “बहू के सामने तेरा अपमान नहीं करूंगा, पर यह मते भूलो कि जब तक मैं इस घर में हूँ, तब तक यह अत्याचार नहीं चलने दूंगा। उस पर हाथ उठाया तो मैं तेरा हाथ तोड़ दूंगा”

वह जाने लगा तो पीताम्बर ने कहा- “घर पर मारने तो चले आए, पर उसका कार‌ण भी जानते हो।”

“नहीं जानता और जानना भी नहीं चाहता।”

“लगता है, मुझे यह घर छोड़कर जाना पड़ेगा।”

नीलाम्बर ने पलभर उसकी ओर देखकर कहा- “मैं यह अच्छी तरहा जानता हूँ कि यह घर छोड़कर किसे जाना पड़ेगा और जब तक यह नहीं हो जाता तब तक धैर्य धारण करके बैठे रहो।”

पर वह नहीं बैठा। उसने नीलाम्बर से कहा- “आज तड़के भाभी व छोटी बहू नहाने गई थीं। वहाँ राजेन्द्र खड़ा था। बदनाम और चरित्रहीन! भाभी ने उससे आधे घण्टे तक बातचीत की।”

“क्या यह तुमने आँखों से देखा?”

पीताम्बर कुछ पीछे की ओर होकर बोला- “हाँ, मैंने आँखों से देखा।”

नीलाम्बर ने थोड़ी देर सोचकर कहा- “हाँ, यह तुमने कैसे जान लिया कि बात करना जरूरी नहीं है?”

पीताम्बर बोला- “यह तो मैं नहीं जान सका कि मेरा छोटी बहू को मारना-पीटना उचित था या नहीं, पर वह घाट छोटी बहू के लिए नहीं बनाया गया था।”

नीलाम्बर के तन-बदन में आग लग गई। वह क्रोधित होकर झपटा, फिर सहसा रुक गया। उसकी ओर घूरते हुए बोला- “तू जानवर हो गया है! मेरा छोटा भाई है, इसलिए तुम्हें शाप न देकरन क्षमा करता हूँ। मगर अपने बड़ों के लिए जो कुछ तुमने कहा है, उसके लिए भगवान तुम्हें क्षमा नहीं करेगा।” वह टूटा-टाटा-सा अपने घर के आंगन में घुस गया और टूटे बेड़े के सूत स्वयं बांधने लगा।

बिराज सबकुछ सुनकर लज्जा से भर गई। एक बार तो उसके मन में आया कि सारी बातें साफ कर दे, पर वह लज्जा के कार‌ण ऐसा नहीं कर सकी। उसे बार-बार लगा कि वह कैसे अपने पति को कहे कि एक पराया मर्द उसे ललचाई निगाहों से देखता है।

बेड़ा बांधकर नीलाम्बर बाहर चला गया।

***

कई दिन बीत गए। बिराज और नीलाम्बर में वार्तालाप नहीं हो सका। बिराज भीतर-ही-भीतर घुटने लगी। मगर आन्तरिक संघर्ष के कार‌ण वह ऐसा नहीं कर सकी।

उस दिन पूजा-पाठ करके नीलाम्बर उठने ही वाली था कि बिराज आंंधी की तरह आई और नीलाम्बर के समक्ष खड़ी होकर लम्बे-लम्बे सांस लेने लगी।

नीलाम्बर ने आश्चर्य से सिर ऊंचा किया, तब बिराज होंठ भींचकर कह उठी। “मैंने क्या दोष किया है कि तुम मुझसे बोलते नहीं, बोलो... बोलो...।”

नीलाम्बर हंस पड़ा, बोला- “वाह! यह भी खूब रही! तुम स्वयं भागती फिरती हो, मैं भला किससे बात करूंगा?”

“ठीक है, मैं भागती हूँ, पर तुम भी मझे बुला सकते थे!”

नीलाम्बर ने कहा- “जो व्यक्ति भागता फिरे, उसे पुकारना पाप है।”

“पाप... तो... तो तुमने छोटे बाबू की बातों पर विश्वास कर लिया है?” और क्रोध व पीड़ा के मारे सुबक पड़ी। फिर भर्राई आवाज में चीखकर बोली- “ओह! यह सब मिथ्या है... तुमने क्यों विश्वास किया?”

“नदी-तट पर तुमने राजेन्द्र से बातें नहीं की थीं?”

“की थीं।”

“तो क्या मैंने इतने-भर में विश्वास कर लिया?”

“फिर मुझे सजा क्यों नहीं देते?”

नीलाम्बर हंस पड़ा। उसकी निर्मल उज्ज्वल हंसी के बीच उसकी आकृति दीप्त हो उठी। दायां हाथ ऊंचा करके बोला- “जरा मेरे पास आओ... आओ मैं बचपन की तरह एक बार तुम्हारा कान फिर मल दूं।”

बिराज रो पड़ी। आज वह समझौता करना चाहती थी। वह समझती थी कि नीलाम्बर को उस पर बहुत विश्वास है।

“आज मैं दिनभर राजेन्द्र की प्रतीक्षा करता रहा।”

“क्यों?”

“उससे दो बातें किए बिना मैं अपने को दोषी समझूंगा।”

“ना... ना...।” भय और उत्तेजना से बिराज घिर गई, बोली- “अब इसे लेकर तुम एक शब्द भी नहीं बोलोगे।”

उसके नयनों के भावों से नीलाम्बर को बहुत ही भय हुआ, बोला- “एक पति होने के कार‌ण मेरा कर्तव्य है।”

बिराज बिना कुछ कहे-सुने बोल पड़ी- “पहले एक पति के दूसरे कर्तव्य तो करो फिर यह करना।”

“ठीक है।” वह चुप हो गया। थोड़ी देर बाध बोला- “बिराज! मैं बहुत ही निकम्मा हूँ।”

बिराज कुछ कहना चाहती थी, परंतु उसके मुंह से कुछ भी नहीं निकला। कई दिनों बाद आज अनुग्रह की जो कड़ी जुड़ने वाली थी उन दोनों दु:खी दम्पति के बीच, अचानक फिर छिन्न-भिन्न हो गई।

***