अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे...
भाग-10.
जंगल, रात में सोता नहीं है
“तुम्हे चेताया गया था, भागने की कोशिश मत करना।” एक डाकू बोला। वह हाथ मे धनुष-बाण लिये खड़ा था और उसका निशाना अपने बंदी यानि व्यापारी की ओर था। दूसरा डाकू हाथ मे नंगी तलवार लिये खड़ा था।
“यदि भागने की कोशिश करे तो जान से मार देना और प्रमाण स्वरूप उसका सिर साथ मे लेते आना; यही आदेश दिया गया था हमे। और यह भी कि हमने तुम्हे चेतावनी भी दे दी थी सो तुम्हे अब मरना ही होगा।” यह तलवार वाला डाकू बोला। वह तलवार ताने दो कदम आगे बढ़ा ही था कि व्यापारी ने उंगली मुंह पर रखकर उन्हे चुप रहने और साथ ही, नीचे घाटी की ओर देखने का इशारा किया।
“वहां क्या है?” वे दोनो एक साथ बोले। उन्हे कुछ समझ मे नही आरहा था कि व्यापारी उन्हे क्या दिखाना चाहता है।
“वह तो भेड़ियों का झुंड होगा।” वे बोले।
“हां, उन्हे कहीं हमारी भनक लग गई तो, हम मारे जायेंगे।” व्यापारी ने कहा।
“वे यहां तक नही पहुंच सकते।” एक डाकू बोला।
“लेकिन उससे तुम्हे क्या?” दूसरे डाकू ने कहा।
“शेरू उन्ही पर भौंक रहा था। इसी लिये मै यहां तक आया और उसे चुप कराने की कोशिश करने लगा।” व्यापारी बोला।
“यानि तुम यह कहना चाहते हो कि तुम भागने की कोशिश नही कर रहे थे?”
“यही तो मै कह रहा हूँ………।”
“लेकिन हम बार बार तुम्हारी बात क्यों माने?”
“इसलिये, कि तुम लोग बेवकूफ़ हो। तुम लोगों के सिर मे भूसा भरा है।” व्यापारी खीजकर बोला, “तुम्हे क्या लगता है, मुझे भागना हो तो मै नीचे घाटी मे कूद जाऊंगा? अपने मुखिया से यही कहोगे कि भागने के लिये वह घाटी में कूदने वाला था। इस कारण उसे मार दिया? और फ़िर वह तुम्हे जीवित छोड़ देगा? सज़ा नही देगा?”
वे दोनो फ़िर बेवकूफ़ों की तरह सिर खुजाने लगे।
अचानक एक पक्षी, धनुष से छूटे बाण की गति से उनके सामने ही धरति की ओर आया और मानो धरती को छू कर उसी गति से ऊपर आकाश की ओर उड़ गया। व्यापारी भौंचक रह गया।
“उल्लू!!” दोनो डाकू एक स्वर मे चीखे।
“लगता है उसे कोई शिकार मिला है।” एक डाकू बोला।
“नही, दूसरा बोला,” दूसरा डाकू बोला, “लगता है शिकार छूट गया; अन्यथा वह वृक्ष पर बैठता और भोजन का आनंद लेता।”
दोनो ने अर्थपूर्ण दृष्टि से व्यापारी की ओर देखा।
“तो जंगल रात मे सोता नही, बल्कि और अधिक सक्रिय हो जाता है।” वह बोला, “अत: तुम्हे चाहिये कि बारी बारी से एक व्यक्ति जागे और एक सोये। आखिर मेरी सुरक्षा तुम्हारा कर्तव्य है।”
“और तुम रात भर आराम से सोओ?”
“बिल्कुल! आखिर मेरी सुरक्षा तुम्हारा धर्म है।” व्यापारी बोला।
“नही, नही! तुम बहुत चालाक हो। हम तुम्हारी बात नही मानेंगे।” एक बोला।
“बिल्कुल, तीनो जन बारी बारी से जागेंगे। आखिर प्रश्न तो तीनो की सुरक्षा का है।”
थोड़े से वाद विवाद के बाद, व्यापारी सहमत हो गया। आखिर इसमे उसी का लाभ है।
वे अभी बात कर ही रहे थे कि एक हलकी हलकी ध्वनि ने उन सब के कान खड़े कर दिये । आने वाली ध्वनि मे एक लय थी। वे ध्यान से सुनने लगे………
“यह तो घोड़ों के टाप की आवाज़ है…” एक डाकू फ़ुसफ़ुसाया।
“देखो आवाज़ बढ़ रही है। वे इसी ओर आ रहे हैं।” दूसरा फ़ुसफ़ुसाया।
“वे !!? वे कौन?” व्यापारी ने पूछा।
“हमे क्या पता।” एक डाकू बोला।
“निकट आयेंगे तो पता चल ही जायेगा।” दूसरा बोला।
व्यापारी कौतूहल से उनकी ओर देखने लगा। शेरू इस अवस्था से सबसे अधिक उत्तेजित था। वह दुम हिलाता बारी बारी तीनो की ओर कौतूहल से देखता और उनके इर्द गिर्द घूमता जा रहा था।
धीरे धीरे ध्वनियां स्पष्ट होने लगी। अब घोड़ों की टाप के साथ, पदचाप और हथियारों की खनक भी सुनाई देने लगी। दोनो डाकुओं ने एक दूसरे की ओर देखा और उनके चेहरे का रंग उतरने लगा। व्यापारी समझ गया कि कुछ न कुछ ऐसा है जिससे वे डरते हैं। उसने बहुत ही धीमे स्वर मे पूछने की कोशिश की लेकिन दोनो ने उसके मुख पर हाथ रखकर उसे चुप करा दिया था। ध्वनियां आहटें जिस प्रकार एक ओर से आई थी, क्रमश: धीमी होती हुई दूसरी ओर चली गई। जब वे ध्वनियां नगण्य हो गईं तब दोनो डाकुओं ने कुछ राहत की सांस ली।
“वह क्या था?” व्यापारी ने पूछा।
“सरकारी सिपाही थे।” एक ने कहा।
“बीच जंगल मे?” व्यापारी ने पूछा।
दोनो ने कोई जवाब नही दिया।
“इतनी रात गये, वे कहां जाते होंगे?” व्यापारी ने पूछा।
“कहीं न कहीं धरपकड़ अथवा धावा बोलने जा रहे हैं।” एक ने कहा।
“कहीं तुम्हारे गिरोह पर धावा बोलने नहीं जा रहे?” व्यापारी ने शंका जताई।
“नही। यह रास्ता हमारे क्षेत्र की ओर नही जाता।” वह डाकू बोला।
“कहीं वे हमारी खोज मे तो नही?” दूसरा बोला।
“उन्हे हमारे बारे मे पता कैसे चला होगा?”
दोनो ने एक दूसरे की ओर देखा फ़िर वे संदेह भरी निगाह से व्यापारी की ओर देखने लगे। अचानक झपटकर एक डाकू ने अपनी तलवार व्यापारी के गले पर धर दी।
“यह क्या कर रहे हो?” व्यापारी बोला।
“तू कहीं गुप्तचर तो नहीं?” तलवार वाले डाकू ने कहा।
“कैसी बात करते हो? यदि मै गुप्तचर होता तो भी तुम्हारा बंदी हूँ । कोई इस हाल मे कैसे गुप्तचरी कर सकता है?” वह कातर स्वर मे बोला।
“वो हमे पता नही। तू कुछ भी कर सकता है। हमे तुझपर विश्वास नही।”
“किन्तु मै गुप्तचर नही हूँ।” व्यापारी ने विनती करते हुये कहा।
इस पर उनका क्रोध कुछ शान्त हुआ और उन्होने उसे छोड़ दिया।
“सचमुच तुम लोगो मे बुद्धि नाम की कोई वस्तु नही।” छुटते ही व्यापारी ने उन्हे धिक्कारते हुये कहा, “बात बात मे हथियार उठा लेते हो। तुम्हे और कुछ आता नही क्या।”
“हमे और कुछ नही आता।” एक डाकू ने कहा, “हमारा जीवन ही हथियार पर निर्भर है।”
“लेकिन बुद्धि का भी तो उपयोग करना चाहिये। यह क्या बिना बात हथियार निकाल लेते हो।” व्यापारी ने कहा, “सूत न कपास जुलाहो मे लट्ठम लट्ठ।”
“इस बात का क्या मतलब होता है?” एक डाकू ने सिर खुजाते हुये कहा।
“तुम्हे इसका अर्थ नही मालूम?” व्यापारी ने पूछा।
दोनो ने नही मे सिर हिलाया।
“ठीक है एक कहानी सुनो, तुम्हे इसका अर्थ समझ आ जायेगा…”
व्यापारी ने कहानी सुनानी शुरू की………
एक बार की बात है; एक गाँव मे किसानो के साथ जुलाहों की भी एक बस्ती आबाद थी। जुलाहे इस लिये कि उस गांव और आस पास के सभी गांव के किसान कपास की खेती किया करते थे। जुलाहे वह कपास किसानो से खरीद लिया करते। फ़िर अपने अपने घरों के सामने छप्परों के नीचे उनकी साफ़ सफ़ाई करके और गट्ठर बांधकर शहर ले जाते। शहर की अपनी दुकानो मे उन्हे साल भर के लिये जितनी आवश्यकता होती उतना रख लेते और फ़िर सारा कपास दूर मिलों मे लेजाकर बेच देते। इससे किसानो और जुलाहों दोनो की आवश्यक्ता पूरी हो जाती।
एक बार कपास की फ़सल बहुत ज़ोरदार हुई थी। किसानो के साथ साथ जुलाहों के चेहरे भी खिल उठे थे। जहां किसानो की बैठकों मे कपास की फ़सल को लेकर खूब चर्चे थे, वहीं जुलाहों की बैठकों मे भी इसके खूब चर्चे थे। वे हर बैठक मे यही बातें करते कि इस साल मै इतना कमाऊंगा, मैं उतना कमाऊंगा। एक नौजवान जुलाहा बोला, “इस बरस तो सबसे ज़्यादह कपास मै ही उठाऊंगा। इस बार सब से ज़्यादह कमाई मेरी ही होगी।”
उसका पड़ोसी बोला, “नही, मैने तो किसानो से सौदा भी तय कर रखा है। इस बरस मै ही सबसे ज़्यादह कपास मै ही खरीदूंगा और सब से ज़्यादह मै ही कमाऊंगा।”
“तू क्या खरीदेगा…” पहला जुलाहा बिगड़कर बोला, “तू तो मेरे आंगन से कपास चुरा लेता है।”
“तू अपना कपास ठीक से बांधकर नही रखता। वो तो उड़कर मेरे आंगन मे आजाता है।”
बढ़ते बढ़ते बात बहुत बढ़ गई। यहाँ तक की जुलाहों मे कुछ लोग पहले वाले जुलाहे का, तो कुछ लोग दूसरे वाले जुलाहे के समर्थन मे आ गये। उस नौजवान जुलाहे ने घोषणा कर दी कि, “यदि इस बार तू मेरे आंगन से कपास चुरायेगा तो मै तेरा सर फ़ोड़ दूंगा।”
इस पर दूसरे जुलाहे ने घोषणा की, “यदि इस बार तेरा कपास उड़कर मेरे अहाते मे आया तो मै तेरे कपास मे आग लगा दूंगा।”
“तू आग लगा कर देख!”
“तू सर फ़ोड़ कर देख।”
“समझ ले आग लगा दी। अब क्या कर लेगा तू?”
बस उस नौजवान जुलाहे ने आव देखा न ताव, लठ्ठ उठाकर पड़ोसी के सर पे दे मारा। इसके बाद जो आपस मे लट्ठ चले तो सारे जुलाहों के हाथ पैर और सिर खूब टूटे, खूब फ़ूटे।
दूसरे दिन पंचायत बैठी। आस पास के गांव से भी बड़े बुज़ुर्ग आये। तमाशा देखने वाले लोग भी आये। पंचों ने पूछा, “बताओ, किस बात पर इतना खून खराबा। किस बात पर इतना लट्ठम लट्ठ?”
नौजवान जुलाहे ने कहा, “इसने मेरे कपास के ढेर मे आग लगाई।”
दूसरे जुलाहे ने बताया, “इसका कपास उड़कर मेरे आंगन मे क्यों आया?”
“अरे, कौनसा कपास?” पंचों ने कहा, “सारा कपास तो अभी खेतों मे है।”
इसपर पंचायत मे खूब ठहाके लगे। सारे जुलाहों को भी अपनी गल्ती समझ आ गई थी। वे चुप चाप सिर झुकाये खड़े थे; लेकिन आस पास के सारे गांव वाले कह रहे थे- सूत न कपास; जुलाहो मे लट्ठम लट्ठ्।
कहानी सुनकर दोनो डाकू झेंपकर सिर खुजाने लगे।
व्यापारी ने अनुमान लगाया; शायद बात इनकी समझ मे आ गई है।
कह्ते है, बुद्धिहीन मित्र से बुद्धिमान शत्रु श्रेष्ठ होता है; किन्तु बुद्धिविहीन का बन्दी होने से बुरा क्या होता है? यह कहीं नही बताया गया। दोनो के कारण तो प्राण ही सांसत मे हैं। व्यापारी बेचारा इन्ही चिन्ताओं मे लीन था। कल रात की घटनाओं से उसके मन मे कुछ आशा जागी थी। किसी प्रकार राजा के सिपाहियों से सम्पर्क हो जाये तो मुक्ति सम्भव है। और भी कि यदि इन डाकुओं को पकड़ा दिया तो कुछ पारितोषिक भी सम्भव है। अरे, कम से कम अपने घर तो वापस लौट पाऊंगा। व्यापारी इसी प्रकार की चिन्ताओं मे खोया हुआ था। किन्तु वह जानता था, यह सब तभी सम्भव है जब उचित अवसर सामने हो। किन्तु तब तक उसकी कथावाचन की कला ही उसे जीवित रख सकती है। जिवित रहने का और कोई उपाय तो विदित नहीं।
ऐसा विचार कर, उसने अपनी मत्स्यकन्याओं के द्वीप की यात्रा वाली कथा पुन: सुनानी शुरू की…
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(जारी अगले भाग में...)
भाग-ग्यारह
"ठीक है, हमारे सैनिक किसी भी स्थिति का सामना करने हेतु तत्पर हैं। आप निश्चिंत होकर पोत को उस मार्ग पर ले चलें। वैसे भी वे हमारा ध्वज देख, हमसे दूर रहना ही उचित समझेंगे।" सैन्य-प्रमुख ने कहा।
(मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति।)