अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे
भाग-11.
एक और यात्रा
“तो, मत्स्यद्वीप से हमारे द्वीप के लिये वापसी की यात्रा का समय भी शीघ्र ही आ पहुंचा। एक जहाज़ तैयार था। साथ में मल्लाहों की अच्छी खासी संख्या और साथ ही मत्स्यद्वीप के सैनिकों की टुकड़ी भी उपस्थित थी। दानवों जैसे ऊंचे पूरे सैनिक, जिनके गज भर चौड़े कंधे और वृक्ष के तनो जैसी भारी भरकम भुजायें किसी भी शत्रु का दिल दहलाने की क्षमता रखते थे। साथ ही कुछ सहयोगी भी साथ किये गये थे।
“इतना सारा ताम झाम किसलिये?” मैंने गेरिक से पूछा; यह बात और है कि मेरी तरह वह भी हैरान था। मुझे गेरिक ने कोहनी मार कर चुप रहने का संकेत किया। हमारे पास ही हमारे सहयोगी के रूप में मत्स्यद्वीप का एक अधिकारी खड़ा हुआ था। गेरिक के कोहनी मारने का प्रयोजन मैं तो नहीं समझ पाया, लेकिन हमारी बातें उस सहायक ने सुन ली।
“यहां से थोड़ी दूर आगे जाने पर जलदस्युओ का क्षेत्र पड़ता है। यह सब तैयारी इस आशय से ही है, महामहिम।“ मैंने अपने आस पास देखा आखिर यह महामहिम का सम्बोधन किस के लिये उपयोग कर रहा है। वहां तो मेरे और गेरिक के सिवा कोई नहीं था। गेरिक ने मुझे फिर कोहनी मारी।
“क्या वे हमारे जलपोत पर हमला कर सकते हैं?” गेरिक ने शाही अंदाज़ में उस अधिकारी से प्रश्न किया।
“वे हमसे घबराते अवश्य हैं, किंतु बिना सुरक्षा के जलपोत को देख कर उनकी लार टपकने लगती है। अत: साथ में मत्स्यद्वीप की सेना की एक टुकड़ी होना आवश्यक है। यहां से गुज़रने वाले सभी व्यापारी जलपोतों को भी हम इसी प्रकार से सुरक्षा उपलब्ध कराते हैं।“ सहायक ने बताया।
“क्या उनसे आपकी सेना की मुठभेड़ होती रहती है।“ मैंने उत्सुकता से पूछा।
“हमारे साथ उनकी पुरानी शत्रुता है;” उसने बताया, “किंतु वे हमारे पराक्रम से अच्छी तरह परिचित हो चुके हैं, अत: अब हमसे टकराने का साहँस नहीं करते। फिर भी किसी जलपोत को इस राह से गुज़रते देख वे शक्ति परीक्षण की चेस्टा अवश्य करते हैं।”
हम अभी बातें कर ही रहे थे कि मेरा ध्यान तट पर स्थित लोगो की भीड़ पर गया। वह कन्या जिसकी पहले भी मैं चर्चा कर चुका था, और जो मेरे मन में समा चुकी थी; अथवा यह कहना अधिक उचित होगा कि मेरे रोम-रोम में समा चुकी थी। इस समय वह भी तट पर उपस्थित थी। सहसा मैंने उसे अपनी ओर हाथ उठाकर इशारा करते देखा। मेरा तो रोम रोम पुलकित हो उठा। मैंने भी उसकी ओर देख हाथ हिलाना चाहा; लेकिन मेरे आश्चर्य की सीमा न रही जब मेरे मित्र गेरिक ने कसकर मेरे हाथ को जकड़ लिया और आँखों से अपने पीछे देखने का इशारा किया। मैंने देखा हमारा वही सहायक जिससे अभी हम बात कर रहे थे, उसकी ओर हाथ हिलाकर इशारा कर रहा था।
“यह क्या? आप उस लड़की की तरफ हाथ से इशारे क्यों कर रहे थे?” मैंने उससे पूछा। हमारा जलयान चलने लगा था और तट से दूर चला जा रहा था। वह टकटकी लगाये तट की तरफ देख हाथ हिलाये जा रहा था। उसके चेहरे पर चिंता और उदासी की लकीरें स्पष्ट उभर आई थी। मेरे मित्र गेरिक के चेहरे पर मेरे लिये अप्रसन्नता के चिन्ह उभर आये। स्पष्ट था कि उसे मेरे प्रश्न सें अप्रसन्नता हुई थी।
मेरे प्रश्न पर हमारा सहायक जो शायद इस अभियान का नेतृत्व कर रहा था, मेरी ओर घूमा। उसकी आंखे तो साफ साफ कह रही थी- तुम्हे क्या करना है। किंतु उसने केवल इतना ही कहा, “वह मेरी पुत्री है।”
मैं हत्प्रभ रह गया। मुझे यूँ लगा मानो मुझे चोरी करते हुये रंगे हाथों दबोच लिया गया हो। अब मेरी उससे निगाह मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। घबराई हुई निगाहों से मैंने अपने मित्र गेरिक की ओर देखा; वह बड़े निर्विकार भाव से मुझे घूर रहा था।
हम बीच सागर में धीमी गती से किसी एक दिशा में बढ़े जा रहे थे। वैसे तो नीला सागर बिल्कुल शांत लग रहा था। लेकिन शांत रहना सागर की प्रवृत्ति नहीं होती। वह तो मन-मौजी होता है। और उसकी लहरें, वे कब अपना रूप बदल लेंगी, कोई नहीं जानता। जो लोग सागर को जानते हैं वे सागर की शांति से सतर्क रहते हैं। क्योंकि सागर की शांति उसकी गहराई की सूचक होती है। लेकिन सागर यहीं सबसे अधिक अशांत होता है। यहां सागर की सारी हलचल उसकी गहराई में चल रही होती है; किंतु जब यह हलचल सतह पर उभर आये तो सागर यहां अपने सबसे भयावह रूप में होता है।
सागर की हल्के हल्के तरंगित होती लहरों को देखकर मन में अजीब सी उदासीनता व्याप्त हो रही है। लगता है, जैसे हम लहरों के बीच फंसे हुये, बिल्कुल जड़ हो गये हैं। जड़ हो जाना कितना भयावह होता है? जलयान के चलने से जो सफेद फेन सागर की सतह पर उभर आता है, एक वही इस समय हमारे गतिमान होने का एकमात्र चिन्ह होता है। मैं अपना सम्बल बनाये रखने हेतु उसे ही निहार रहा हूँ। अन्यथा, यह उकताहट मेरे प्राण ही ले लेती।
हर ओर जहाँ तक दृष्टि जाती है, बस एक जैसा ही दृष्य उपस्थित है। नीली अथाह जलराशि और अनंत में, दृष्टि की सीमाओं पर, उपस्थित क्षितिज, एक धुंधली सी रेखा के रूप में नीले सागर को नीले आकाश से मिलाता हुआ। जैसे हम सब एक अनंत विस्तार वाले एक नीले मायावी व्यूव्ह में बंदी हों।
सागर के विपरीत मन अशांत है। हाँ बहुधा ऐसा ही होता है जब सागर शांत हो मन अशांत हो जाता है। सर के ऊपर नीले आकाश का समतल विस्तार और उसका दर्पण सा चमकीला स्वरूप मतिभ्रम उत्पन्न कर रहा है।
रह-रह कर इस नीले बंदीगृह में मुझे भ्रम हो जाता है, कि हम लोग उस मत्स्यकन्या की सागर जैसी नीले नयनो में बंदी हैँ। हाँ यह सच है यह नीला सागर, यह नीला आकाश, यह क्षितिज की असीमता और नीले सागर की गहराई, नीले आकाश की यह दिग्भ्रमित करने वाली चकाचौंध यह सब कुछ मुझे उसके नीले नयनों का स्मरण कराते है। आस पास की वातवरण पर छाई यह उदासीनता मुझे बरबस उसके उस उदास स्वरूप की याद दिला जाते हैं, जो हमारे जलयान को दूर जाते देख उसके मुखमंडल पर उभर आई थी।
इस सागर की तरंगित लहरों की तरह उसका धीरे धीरे हाथ हिलाना। सब सोचते हैं वह अपने पिता के लिये हाथ हिला रही थी; किंतु मैं अच्छी तरह जानता हूँ वह वास्तव में मुझे हाथ हिलाकर विदा कर रही थी। सब सोंचते हैं वह अपने पिता के लिये उदास थी किंतु मेरा मन कहता है, उसके मुखमंडल की यह उदासी मुझसे बिछोह के कारण और कभी न मिल सकने की आशंका के कारण थी। हाँ वह मुझसे प्रेम करती थी। और आज इस समय मुझे इस सत्य का भान हुआ है, कि मैं भी उससे प्रेम करता हूँ। अपने मन की अतल गहराईयों से प्रेम करता हूँ। और जिस प्रकार मैं उसके लिये उदास हूँ, वह भी मेरे लिये उदास है। वास्तव में सत्य तो यह है कि मुझसे कोसों दूर कहीं वह उदास है; इस कारण मैं उदास हूँ। उसका मन व्याकुल है इसी कारण मेरा मन व्याकुल हो रहा है।
सहसा मुझे भान हुआ है, कि हमारे मन किन्ही अदृश्य डोरियों से जुड़े हुये हैं। हाँ, हमारे हृदय आपस में एक हो चुके हैं। मेरी प्रियतमा! हमारे हृदय एक हो चुके हैं; और जब ये एक हैं हम दूर नहीं हो सकते। मेरी प्रियतमा! हम बिछड़ नहीं सकते। मेरी प्रतीक्षा करो मेरी प्रियतमा मैं आऊंगा। मैं वापस तुम्हारे पास आऊंगा मेरी प्रियतमा! मेरा विश्वास करो। मेरी प्रतीक्षा करो।
मन के इन उद्गारों ने मुझे बहुत ढाढस बंधाया और मैं जैसे एक प्रतिज्ञा के साथ वास्तविक जगत में लौट आया। मैंने जलयान पर चारों ओर दृष्टिपात किया.....
सभी अपने अपने काम में व्यस्त थे। हमारे प्रथम सहायक यानि इस अभियान के मुखिया, अभियान-सहायक और मेरी प्रियतमा के पिता, नाविकों तथा अन्य कर्मचारियों के साथ मंत्रणा में व्यस्त थे। मेरे मन में इच्छा बलवती हो रही थी, कि उन्हे किसी तरह प्रभावित करूँ; किंतु किस प्रकार? यह नहीं सूझ रहा था। किंतु यह कार्य था भी आवश्यक्। हमारे अभियान के द्वितीय सहायक अर्थात् सेना प्रमुख, अपनी सेना के साथ निरंतर वार्ता तथा आदेश, निर्देश आदि में व्यस्त थे। मेरा मित्र गेरिक उनके साथ कंधे से कंधा मिलाये हर कार्य में साथ-साथ था। एक मैं ही था जिसके पास कोई व्यस्तता न थी। न मेरी रूचि का कोई कार्य वहाँ था। सीधी सी बात है मैं ठहरा व्यापारी आदमी और मेरी रूचि व्यापार के कार्यों में ही हो सकती थी। यहाँ मेरी रूचि का कोई कार्य ही न था। अत: मैं यहाँ स्वयम् को बिल्कुल अवांछित सा अनुभव कर रहा था। लेकिन आज-कल मेरी रूचि में एक नई ही वस्तु जुड़ गई है; और वह है..... प्रेम। प्रेम से बढ्कर भी कोई कार्य हो सकता है क्या? भले ही यह प्रेम अच्छे अच्छों को बेकार बना देता है। किंतु अभी मेरे पास सबसे आवश्यक कार्य यही था, कि मैं अपने प्रेम को सफल बनाने हेतु कुछ करूँ। इस कार्य के लिये सबसे आसान मार्ग था कि कन्या के पिता को प्रभावित किया जाये। ठीक है मैंने भी इस कार्य के लिये कमर कस ली।
मैंने उस मत्स्य कन्या के पिता हमारे अभियान के प्रमुख को प्रभवित करने की ठानी। मैं उनके पास पहुंचा तो वे अपने कक्ष में एक टेबल पर झुके हुये, सामने फैले हुये एक समुद्री मनचित्र में उलझे हुये थे। मुझे देखते ही अपने पास बुलाया और उस मानचित्र में हमारे टापू की स्थिति बताने को कहने लगे। इस कार्य में भी मेरा ज्ञान और अनुभव नगण्य था; फिर भी और दूसरे कार्यो की अपेक्षा इस काम में कुछ सामान्य सी समझ तो रखता था। मैं उस मानचित्र से सिर खपाने लगा किंतु कुछ सफलता मिलने की आशा नहीं थी। पहली परीक्षा में ही अनुत्तीर्ण हो गया। मन ने धिक्कारा। मेरी उलझन देख प्रमुख ने मानचित्र पर उंगली फेरते हुये बताया “यह तूफान प्रभावित क्षेत्र है, यह मत्स्यद्वीप है और हम अभी इस स्थान पर है। इससे मुझे बड़ी सहजता हुई। मैंने तुरंत अनुमान लगाकर बता हमारे टापू की अनुमानित स्थिति बता दी। इससे मुझे बहुत राहत मिली। फिर भी वे कुछ प्रभावित तो नहीं दिखे। वैसे प्रभावित करने वाली कोई बात भी नहीं की थी मैंने। बस अपने टापू की स्थिति ही तो बताई है, समझो घर का पता बताया हो; और वो भी बड़ी कठिनाई के बाद। यह कोई प्रशंसनीय बात तो नहीं थी न।
मैं अभी वही ठहर कर उनकी कार्यविधी देख रहा था। शायद मेरे लिये कोई अवसर ही निकल आये। वे कुछ समय अपने में खोये से, अपने कक्ष में चक्कर लगाते रहे; फिर चंद लोगों को बुलवाया और मंत्रणा करने लगे। उन लोगों में नाविक दल के कुछ लोग और हमारे जलयान के द्वितीय सहायक अर्थात् सैन्य टुकड़ी के प्रमुख तथा मेरा मित्र गेरिक भी था। मैं तो पहले से ही उपस्थित था। मैं उनकी बातों को ध्यान पूर्वक समझने की चेष्टा कर रहा था। वे बता रहे थे कि, हमारे टापू पर पहुंचने के लिये जलयान को बाई ओर से लम्बा चक्कर लेकर चलना और टापू के दक्षिण तट पर अर्थात् पिछली ओर पहुंचना होगा। क्योंकि इस भूकम्पजनित, तुफान प्रभावित सागरीय क्षेत्र को पार करने का यही मार्ग है। और इसी मार्ग में जलदस्यु घात लगाये रहते हैं।
“ठीक है, हमारे सैनिक किसी भी स्थिति का सामना करने हेतु तत्पर हैं। आप निश्चिंत होकर पोत को उसी मार्ग पर ले चलें। वैसे भी वे हमारा ध्वज देख, हमसे दूर रहना ही उचित समझेंगे।“ सैन्य प्रमुख ने कहा।
“हाँ, आप सही कह रहे हैं, सेनानायक। वे हमें और हमारी शक्ति को भलीभांति जानते हैं और हमसे भयभीत रहते हैं, तथापि सतर्कता आवश्यक है।“ अभियान प्रमुख ने चेताया। इसके बाद कई निर्देश प्रसारित होने लगे।
शेष...
(भाग-12 संकट में प्राण)