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भवितव्य

भवितव्य:
शाम को कश्यप के यहाँ जाना हुआ। चाय पी रहे थे। मैंने कश्यप से पूछ लिया," आपकी उम्र कितनी हो गयी है?" वे बोले," अस्सी चल रहा है। दिसम्बर में अस्सी हो जायेंगे।" फिर वे अपनी बिमारियों के बारे में बताने लगे। सामने उनकी पत्नी उषा बैठी थी। वह बोल उठी," अब कितना बचने का है। अस्सी तो हो गये हैं।" वे पत्नी की बात अनसुना कर अपनी बिमारियों के बारे में बताते जाते हैं। तीनों बच्चे अलग-अलग रहते हैं।सबका अपना परिवार है।
मैंने उनसे नीरज के बारे में पूछा। वे बीस साल पहले मेरे पड़ोसी थे। मैं किराये में रहता था और वे शाम को अपने पोते को गोद में लिए घूमते मिल जाते थे।एक दिन बता रहे थे ," बेटा अच्छी नौकरी में मंबई में है। बेटी और दामाद डाक्टर हैं।"उनके चेहरे पर गर्व दिख रहा था,कहते हुए। दस साल पहले उनकी पत्नी का देहान्त हो गया था। कुछ समय बाद सुना कि वे अपना घर बेचकर बेटे के साथ चले गये हैं। घर बेचने का प्रस्ताव बेटे का था। पिता से बोला," आप अकेले क्या करोगे यहाँ, हमारे साथ ही रहो।" बेटे ने सब रुपये उनसे लेकर एक नया फ्लैट खरीद लिया। एक दिन बाजार में मिले तो बोले अपने कपड़े स्वयं धोता हूँ, वाशिंग मशीन में डालकर आया हूँ। कुछ उदास लगे। दस मिनट बातें होती रहीं। उसके बाद वे स्कूटर में बैठ कर चले गये। दो साल बाद पता चला की नीरज जी कैलाश सोसायटी में किराये पर रहते हैं। फिर तीन सा बाद सुना कि वे उज्जवल सोसायटी में किराये पर रहते हैं। भविष्य में वनवास मिल जायेगा उन्हें पता नहीं था।किसी को भी पता नही रहता है, भविष्य का। रामचन्द्र जी को पता नहीं था उनकी राजतिलक की तैयारियां चल रही थीं।वशिष्ठ जी जाने माने ऋषि और उनके कुलगुरु थे।
कश्यप ने बोला सुना है नीरज अपनी बेटी के यहाँ गये थे। और एक दिन सुबह स्विमिंग पूल में नहा रहे थे तो उसमें डूब गये और उनकी मृत्यु हो गयी। उनका इतना कहना था तो उनकी पत्नी बोली," नहाने नहीं गये थे। आत्महत्या की थी उन्होंने। झूठ क्यों बोल रहे हो? बयासी साल में कोई सुबह-सुबह स्विमिंग पूल में नहाने जाता है क्या?" कुछ देर माहौल गम्भीर और भावुक हो गया।
मैं सोचने लगा कैसे कश्यप जी पहाड़ की हवा और पानी को छोड़कर साठ साल पहले शहर में आये होंगे। संघर्ष करके घर बसाया होगा। बच्चों को पाला-पोषा,पढ़ाया-लिखाया होगा। हर क्षण में घुलते-मिलते रहे होंगे। हर दिशा का आनन्द बटोरा होगा। हर इच्छा-आकांक्षा को पूरा होते देखा होगा।कैसे सब फिर अतीत में चला गया होगा!वर्तमान एक भयंकर स्वप्न की तरह आगे खड़ा हो गया होगा। और स्विमिंग पूल में डुबकी लगा कर सभी विषादों से मुक्ति का रास्ता चुन लिया। लेकिन सब से बोला गया कि नहाने गये थे और डूब गये।
मैंने उन्हें दिल्ली की एक घटना सुनायी।पति-पत्नी सेवानिवृत्त होकर अपने घर में रहते थे। दोनों लगभग एक लाख रुपये प्रति माह पेंशन पाते थे। तीन शहरों में बहुत संपत्ति भी थी। उनके दो बेटे थे। एक बेटे ने मन पसंद शादी की थी लेकिन दो साल बाद उसका तलाक हो गया था। तलाक के बाद बहू ने किसी और से शादी कर ली थी। दूसरा बेटा कलकत्ता में था। एक दिन दोनों अपने घर में जले पाये गये। दोनों का अड़ोस-पड़ोस में मिलना-जुलना कम था। पत्नी का कहना था कि पति को किसी से निकटता और मिलना-जुलना पसंद नहीं है। आर्थिक रूप से परिवार बहुत संपन्न था।आसपास में खबर थी कि उन्होंने आत्महत्या की है।लेकिन ऐसा लगता था कि यह एक दुर्घटना थी,गैस सिलेंडर के कारण। दोनों रसोई घर में जले मिले। शरीर का बहुत कम हिस्सा मिला था,पूरे जल चुके थे दोनों।
फिर बातें लौट आती हैं पचास साल पहले के ग्रामीण जीवन पर। तब गाँवों आर्थिक रूप से कमजोर थे लेकिन मन बड़ा था। जिनके यहाँ खुमानी, संतरे आदि फल बहुत हो रहे होते थे, उनके बच्चे,युवक, युवतियां, महिलाएं,पुरुष दूर-दूर अपने रिश्तेदारों को देने जाते थे। सब्जियों का खुले मन से आदान-प्रदान होता था। घरों में ताले नहीं लगते थे।
दो दुखद घटनाओं की चर्चा से मन उदास हो गया था।घर आया। फेसबुक देखने लगा। मेरी दो पोस्टों पर टिप्पणियां आयी थीं। उन पोस्टों को फिर से पढ़ने लगा।
तब गांवों में साक्षरता बहुत कम थी।सन पैंसठ की बात होगी।उसका पति दिल्ली में नौकरी करता था।वह गांव में रहती थी।पढ़ी लिखी नहीं थी।यदि थोड़ी बहुत होगी भी तो चिट्ठी लिखने में असमर्थ थी।उसने एक दिन मुझसे कहा," देवर जी,एक चिट्ठी लिख दो, मेरी।" वह पत्र और कलम ले आयी। मैंने कलम और पत्र हाथ में लिये और पूछा क्या लिखूं। वह सोच में डूब गयी। फिर मैं बोला ,लिख दूँ," मेरे प्रेमी, प्राणनाथ।" यह सुनकर वह शरमा गयी।उसके गाल लाल हो गये।वह मुस्कुराते हुये बोली," हाँ, कुछ ऐसा ही लिख दो।" उन दिनों पति का नाम नहीं लिया जाता था।पता नहीं यह परंपरा कब शुरू हुयी? अब तो नाम लेना आम बात है। फिर घर की सब बातें चिट्ठी में लिखता गया और गांव की मोटी मोटी खबरें भी।अन्त में फिर पूछा लिख दूँ," तुम्हारी प्रियसी।" तो वह फिर शरमा गयी। इसबार जब गांव जाना हुआ तो उनके बारे में पूछताछ की। पता चला वह गंभीर रूप से बीमार है।चल फिर नहीं सकती है।बोल नहीं पाती है। इशारों में कुछ कहती है।मेरी आँखों में उसका खुशहाल अतीत जीवंत हो उठा।
आगे-
"हमारे जमाने की लड़कियां
बोलती नहीं थीं,
मन ही मन में
सुनती,सुनाती थीं।
आज वे हमारी तरह
बूढ़ी,बुजुर्ग हो गयी होंगी,
राजा-रानी की कहानियां
किसी न किसी को बताती,
अपने जमाने के द्वार खोल
खिलाड़ियों से झांकती,
खोया कुछ खोजती
सदाबहार बनी यादों को
काटती-छांटती,
साड़ी की तरह लपेट लेती होंगी।
पगडंडियां जो सड़क बन चुकी,
नदियां जो सिकुड़ चुकी,
वन जो कट चुके,
शहर जो घने हो गये,
सबको पकड़ती,
हमारे जमाने की लड़कियां
किसी न किसी को बताती होंगी।
हमारे जमाने की लड़कियां
बोलती नहीं थीं,
मन ही मन में
सुनती,सुनाती थीं।"
दूसरी पोस्ट थी-
चिट्ठी-पोस्ट कार्ड:
अपने पुराने कागज-पत्र देख रहा था।उसमें एक साथी का पोस्ट कार्ड मिला। थोड़ा उसे उलटया-पलटाया।धूल झाड़ी।अब तो चिट्ठी का दौर लगभग समाप्त हो चुका है। सभी बातें एस एम एस , व्हाइट एप्प , फेसबुक आदि पर होने लगी हैं।भावनाएं चिट्ठी जैसी तीव्र नहीं होती हैं।चिट्ठी में आप अपना दिल खोल देते थे।तब गाँवों में शिक्षा का प्रसार आज की तरह नहीं हुआ था।दूसरे से चिट्ठी लिखाई जाती थी।जैसे भाभी, देवर से। जब उनसे पूछा जाता कि,"सम्बोधन कैस करें?" तो उनके गाल लज्जा से गुलाबी हो जाते थे।लेकिन जब पति से झगड़ा करतीं थीं तो गुलाबी रंग गायब हो जाता था।बूढ़े माँ-बाप अपने परदेश गये बच्चों को छोटी-छोटी सी बातें भी लिखा करते थे। जो पहले-पहले अपनी जन्म भूमि छोड़कर जाता था उसे यादें अधिक सताती थीं।लिखा करते थे कि," जंगल में घास हरी-भरी हो चुकी होगी। काफल खूब हो रहे होंगे। हिसालू-कल्लमोड़ पक चुके होंगे आदि-आदि।" गाँव में फिर इन चिट्ठियों पर खूब चर्चा होती थी। और हँसी के फुव्वारे फूटा करते थे।
पोस्ट कार्ड लखनऊ से आया था।अक्षर मद्धिम हो चुके हैं।लेकिन भावनाएं स्पष्ट चमक रही हैं।हाथ पर लेता हूँ।दो विकल्प हैं या तो रद्दी में डाल दूँ, या फिर एक बार देखूँ कि क्या लिखा है? प्रथम दो-तीन पंक्तियाँ औपचारिक हैं। फिर लिखा है, बैंक की परीक्षा देने गया था, परीक्षा केंद्र में वे मिले थे।तुम्हारे बारे में पूछताछ हो रही थी।पढ़ते ही, मेरा आसमान लम्बा-चौड़ा हो गया।राहें सब बंद।न तो कोई पता था, न कोई संदेश।कोई किसी का पता तब कैसे लगा सकता था? आज की तरह संचार माध्यम तो थे नहीं।कहीं पढ़ा था कि," आज तो बहुत कुछ,फास्ट फूड की तरह हो गया है।" वैसे मैं सोचता हूँ उन्हें तब पता तो होगा कि," मैं कहाँ हूँ।" रूसी लेखक चेखोव की कहानी याद आ गयी कि," कैसे एक प्रेम पत्र नायक के नीरस जीवन में उत्साह का अद्भुत संचार कर देता है। वैसे वह प्रेम पत्र उसकी पत्नी द्वारा ही लिखा होता है,पर अनजान नाम से।और डाक से आता है।"

***महेश रौतेला

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