बाल रूप Sohail Saifi द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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बाल रूप

बाल रूप बड़ा ही चंचल और अस्थिर होता हैं भावनाओं की इस पड़ाव पर कोई एक दिशा नहीं होती क्षण भर मे माँ से रूठ जाता हैं और अगले ही क्षण माता की ममता का प्यासा कभी तो धीट हठी तो कभी परम दयालु जब हम स्वम के बाल काल के परम आनंद का पुनः आभास करते हैँ तो लगता हैँ वो काल किसी और ही संसार मे बिता था
भोजन करने की आवश्यकता तो ज्ञात होती थी किन्तु उसके आने की चिंता बनाने की चिंता का दूर दूर तक कोई ज्ञान ना था
यदि किसी मित्र के माता पिता ने उसको कोई उपहार या मनोरंजन पूर्ण खिलौना दिया हो तो उसकी लालसा अवश्य आती थी मगर माता पिता की खाली जेबो की रत्ती भर भी परवा ना होती



यदि मन चाही हर इच्छा पूरी करदे तो केवल एक मुस्कान दिखाते
वही कोई एक इच्छा भी अधूरी रहे जाती तो उनको पाने के लिये लाखो जतन कर जाते
रूठते तो बिन मौसम बरसात की भांति आंसू बहाते
उदासीनता का बेसुरा राग गाते
बात कुछ भी हो भोजन से भी दुश्मनी निभाते
भूके प्यासे एक कोने मे अनशन कर स्वयं को बैठाते
अगर कोई मानाने आजाये तो उनसे रूठते
और खुद से दूर भगाते
अगर ना आये कोई हमें देखने
तो फिर भोली सूरत मे आंसू भर सब को लुभाते
कोई तो मान लो मेरी यही इच्छा जताते
इस बाल काल मे बहुत सी घोर समस्या और विडम्बना होती हैँ जिनमे से एक ह्रदय कपकपा देने वाली समस्या थी विद्यालय से अध्यापक द्वारा छुट्टीयों का मिला कठोर कार्य
हम अक्सर सोचते यदि छुट्टीयों मे भी स्कूल का कार्य करना पड़े तो छुट्टी दी ही क्यों
खेर अभी लम्बी छुट्टीया हैँ बहोत समय हैँ कर लेंगे और इस प्रकार के भ्रम मे सारी छुट्टीया सटासट किसी रेल गड़ी की तरह हमारे सामने से निकल जाती और हम रेल गड़ी को देखने मे अंतिम समय तक मग्न रहते
और रेल के निकल जाने के बाद हमें रेल को छोड़ देने की भूल की गंभीरता का अनुभव होता उसके दुष्ट परिणाम का आभास होता तो अंतिम समय मे एक ही दिन के भीतर सारा कार्य समाप्त करने के अटल उदेश्य से भर बैठ कर लिखने लगते लिखने की गति इतनी अधिक होती के लगता बैलगाड़ी मे घोड़े बांध दिये हो जिनकी गति अधिक और संतुलन डगमगाया हुआ बिचारे अक्षरों की बड़ी दुर्गति होती पर हमारा लक्ष्य केवल दिया गया कार्य पूरा करने का होता हैँ किसीको लिखा समझ मे आये या ना आय हमारी बला से एक कठिन परिश्रम करने के पश्चात् घड़ी मे समय देखने की चेष्टा उत्पन्न होती हैँ
और जब घड़ी को देखते हैँ तो घोर आश्चर्य मे पड़ जाते हैँ केवल एक घंटा हुआ हैँ अब अपने कार्य को जाँचने की परम इच्छा जागरूक होती है तो एक ओर अचंभित कर जाने वाला दृश्य आँखो को दीखता हैँ अभी तक दो ही पन्ने पुरे हुए हैँ ये तो असम्भव कार्य हैँ अति असम्भव और आत्मा बल टूट जाता हैँ
फिर भयभीत करने वाली एक कल्पना शक्ति का विकास होता है जिसके कारण हम स्वयं के मस्तिष्क मे प्राण रक्षक बहनो का भव्य निर्माण करते और स्वयं द्वारा अध्यापक के पूछे जाने वाले सवालों के प्रहार से धाराशाही कर देते जब तक एक ठोस मजबूत और सबसे जरूरी नया बहाना ना बना ले चैन की नींद नहीं आती थी
अपने बहानो की भरी गठरी सर पर रख विद्यालय मे पहुंच अपने जैसे भाई बंधु के संग हो लेते
जब होनहार सहपाठी प्रसन्नता से अध्यापक द्वारा दिए कार्य की विद्यालय मे चर्चा करते हैं तो कार्य को मटर गस्ती करने के कारण भूल जाने वाले विधार्थी को एक भूकंप का झटका लगता हैं और उसको वो होनहार सहपाठी घोर शत्रु मालूम होता हैं और वही शत्रु परीक्षा के कठिन समय प्राण प्रिय लगता हैं यदि भाग्यवश कभी ये शत्रु सहपाठी परीक्षा मे आगे बैठ गया तो नालायको के ह्रदय मे उस का महत्व परम मित्र का स्थान ग्रहण कर लेता
परीक्षा समय मे परीक्षा क्षेत्र के भीतर
होनहार बालक निखठु बालक के लिये ऐसा प्रतीत होता हैं जैसे कुरुक्षेत्र मे अर्जुन को सारथी रूप मे श्री कृष्ण मिलगये हो
तूँ ही ज्ञान का दाता है¡
तूँ ही एक मात्र आशा है¡
तूँ लिख अपने उपदेश मैं तेरा अनुसरण करूँगा
केवल तेरे ही बताए मार्ग पर बिन रुके चलूँगा

मगर कभी कभी आगे बैठा होनहार बालक भगवान कृष्ण की तरहा दयावान नहीं होता
वो ज्ञान लेखी को अपनी दोनों भुजाओं से ढक लेता है



मुझे आज भी अच्छे से याद हैं जब हम सर्वोच्चतम उच्च शिक्षा विद्यालय मे भर्ती हुए थे तो हमारे लिये एक चुनौती ऐसी थी जिसे पूर्ण करने वाला हमारे बिच हिमालय पर्वत को लाँघने वाले से भी अधिक साहसी माना जाता वो चुनौती विद्यालय की समाप्ति घोषणा से पहले विद्यालय की सीमा को बिना किसी अध्यापक की दृष्टी मे आए लाँघ जाना
अजी किसी देश की सीमा को पार करने मे भी इतने अधिक साहस की आवश्यकता नहीं पडती होंगी जितनी विद्यालय की सीमा को लाँघ जाने के लिये एक विद्यार्थी को चाहिए

बालको के लिये देश की सीमा पर खड़े सैनिक इतना भयभीत नहीं कर सकते जितना प्राण घाती यमराज समान अध्यापक कर जाते थे उनके हाथो मे लहरा लहरा कर वार करती छड़ी यमराज के प्राण भक्षक पाक्षण से कम होती हैँ क्या नहीं होती
बाल युग मे नालायक बालक को यदि कोई वस्तु बंधुआ पढ़ाई से मुक्ति दिला दे तो वो सर्व प्रिय प्रतीत होता हैँ भले ही वो कष्ट दायक ज्वर ही कियो ना हो

एक बार हमारे बिच एक नया विद्यार्थी आया सब की
भांति उसकी अग्नि परीक्षा का क्रम भी आया
जब उसको इस परम्परा का पता चला तो उसने बड़े ताऊ मे कहाँ
तुम मुझे अकेले जाने की बात करते हो मैं पुरे विद्यालय को बिना किसी दंड के ले जा सकता हुँ तो हमने उसकी बातो का विश्वास ना किया तभी वो तप कर विद्यालय की पर्वत समान जीने को बिना रुके पार कर गया इस जीने पर हमारे पैर थर थर कंपने लगते थे हिर्दय सीने से निकल जाने को होता था
कुछे देर मे प्राथना स्थान मे एक जोर दार धमाका हुआ और ठीक एक मिनट के अंदर छुट्टी की घंटी बज गई
एक बार समुद्र की लहरों को रोकना सम्भव हो सकता है मगर छुट्टी की बेल सुन बालको के बहते सैलाब को विद्यालय के बहार जाने से रोकना असम्भव था

कई लकड़ियों के एक जुट हो कर बलवान बन जाने की शिक्षा का सही उपयोग बालक घंटी की आवाज को सुन बेहद ईमानदारी और भाई चारे से करते है


अगले दिन पता चला के उसने दिवाली के गोला बम को एक टीन के ढबे मे फोड़ कर सभी अध्यापक को बहार एकत्रित कर दिया और खुद दबे पाव प्रधानचार्य के कक्ष मे जा कर घटी को बजा दिया
अब आप ही सोचे जहाँ कोई अकेला विद्यालय सीमा पार कर अपार सामान का पात्र बनता था वहाँ पुरे विद्यालय के विद्यार्थीयों को एक दिन का अवकाश प्रदान करने वाले महान बालक का क्या स्थान बना होगा