अनुराधा - 1 Sarat Chandra Chattopadhyay द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अनुराधा - 1

अनुराधा

शरतचंन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 1

लड़की के विवाह योग्य आयु होने के सम्बन्ध में जितना भी झूठ बोला जा सकता है, उतना झूठ बोलने के बाद भी उसकी सीमा का अतिक्रमण किया जा चुका है और अब तो विवाह होने की आशा भी समाप्त हो चुकी है। ‘मैया री मैया! यह कैसी बात है?’ से आरम्भ करके, आंखें मिचकाकर लड़की के लड़के-बच्चों की गिनती पूछने तक में अब किसी को रस नहीं मिलता। समाज में अब यह मजाक भी निरर्थक समझा जाने लगा है। ऐसी ही दशा है बेचारी अनुराधा की। और दिलचस्प बात यह है कि घटना किसी प्राचीन युग की नहीं बल्कि एकदम आधुनिक युग की है। इस आधुनिक युग में भी केवल दान-दहेज, पंचाग, जन्म-कुंड़ली और कुल-शील की जांच-पड़ताल करते-करते एसा हुआ कि अनुराधा की उम्र तेईस को पार कर गई, फिर भी उसके लिए वर नहीं मिला। हालाकिं इस बात पर सहज ही विश्वास नहीं होता फिर भी धटना बिल्कुल सच है। आज सुबह भी गांव के जमींदार कि कचहरी में इस बात की चर्चा हो रही थी. नए जमींदार का नाम है, हरिहर धोषाल। कलकत्ता के निवासी हैं। उनका छोटा बेटा विजय गांव देखने आया है।

विजय ने मुंह निकालकर चुरुट नीचे रखते हुए पूछा, ‘क्या कहा गगन चटर्जी की बहन ने? मकान नहीं छोड़ेगी?’

जो आदमी खबर लेकर आया था, बोला, ‘कहा कि जो कुछ कहना है, सो जब छोटे बाबू आएंगे तब उन्हीं से कहूंगी।’

विजय ने क्रोधित होकर कहा, ‘उसे कहना क्या है? इसका अर्थ तो यह हुआ कि उन लोगों को मकान से निकाल बाहर करने के लिए मुझे स्वयं जाना पड़ेगा, आदमियों से काम नहीं होगा?’

उस आदमी ने कोई उत्तर नहीं दिया।

‘कहने-सुनने की इसमें कोई बात नहीं है विनोद! मैं कुछ भी सुनने वाला नहीं हूं। फिर भी इसके लिए मुझे ही जाना पड़गा उसके पास? क्या वह खुद यहां आकर अपनी कठिनाई नहीं बता सकती?’ विजय ने कहा।

विनोद बोला, ‘मैंने यही बात कही थी। लेकिन अनुराधा कहने लगी-में भी भद्र परिवार की लड़की हूं विनोंद भैया! घर छोड़कर अगर निकलना ही है तो उन्हें बताने के बाद एक बार ही निकल जाऊंगी। मैं बार-बार बाहर नहीं आ-जा सकती।’

‘क्या नाम बताया तुमने?-अनुराधा नाम तो बढ़िया है। शायद इसीलिए अब तक अहंकार मिटा नहीं है।’

‘जी नहीं।’

विनोद गांव का आदमी है। अनुराधा कि दर्दशा का इतिहास बता रहा था। पतन के इतिहास का भी एक गौरवशाली प्राचीन इतिहास है। वही अब बताया जा रहा है।

गांव का नाम है गणेशपुरा। किसी जमाने में यह गांव अनुराधा के पुरखों का ही था। पांच-छः वर्ष हुए, दूसरों के हाथ में चला गया। इस जायदाद का सालाना मुनाफा दो हजार से अधिन नहीं है। किन्तु अनुराधा के पिता अमर चेटर्जी का चाल-चलन या रहन-सहन था बीस हजार जैसा, इसलिए कर्ज के कारण रहने के मकान तक की डिग्री हो गई। डिग्री तो हो गई लेकिन जारी न हो सकी। डर के मारे महाजन रुका रहा चटर्जी महाशय जैसे कुलीन थे, वैसी ही उनके जप-तप और क्रिया-कर्म की भी काफी प्रसिद्धि थी। गृहस्थी की फूटी तली वाली नाव फिजूलखर्ची के खारे पानी से मुंह तक भर आई लेकिन डूबी नहीं। हिन्दू धर्म की कट्टरता के फूले हुए पाल में जन साधारण की भक्ति और श्रद्धा की आंधी जैसे हवा ने इस डूबती नाव को धकेलते-धकेलते अमर चटर्जी की आयु की सीमा पार करा दी, इसलिए उनका जीवु काल एक तरह से अच्छा ही बीता। वह मरे भी ठाट-बाट से और उनका श्राद्ध आदि भी ठाट-बाट से हो गया, लेकिन जायदाद का अन्त भी इसी के साथ हो गया। इतने दिनों से जो नाव नाक बाहर निकाले किसी तरह सांस ले रही थी उसे बाबू घराने की सारी मान-मर्यादा लेकिन अथाह जल में डूबने में जरा-सी भी देर नहीं लगी।

पिता के देहान्त के बाद गगन को एक टूटा-फूटा ऐसा मकान मिला जिस पर डिग्री हो चुकी थी। गले तक कर्ज तक जकड़ी हुई गांव की जायदाद मिली। कुछ गाय-बकरी और कुत्ते-बिल्ली आदि जानवर मिले, और सिर पर आ पड़ी, पिता की दूसरी पत्नी की कुआंरी बेटी अनुराधा।

उसके लिए वर भी जुट गया। गांव के ही एक भद्र पुरुष थे। पांच-छः लड़के बच्चे और नाती-पोते छोड़कर उनकी पत्नी स्वर्ग सिधार चुकी थी। अब वह विवाह करना चाहते हैं।

अनुराधा ने कहा, ‘भैया, मेरे भाग्य में राजपुत्र तो बदा नहीं है। तुम उसी के साथ मेरा विवाह कर दो। रुपये वाला आदमी ठहरा, कम-से-कम खाने पहनने को तो मिलता रहेगा।’

गगन न आश्चर्य से कहा, ‘यह क्या कह रही हो? माना की त्रिलोचन के पास पैसा हे लेकिन उसके बाबा ने कुल बिगाड़कर सतीपुर के चक्रवर्तियों के यहां विवाह किया था। जानती हो उन लोगों की इज्जत ही क्या है?’

बहन ने कहा, ‘और कुछ भी न हो, रुपया तो है। कुछ लेकर उपवास करने से मुट्ठी भर दाल-भात मिल जाना कहीं अच्छा है भैया।’

गगन ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘ऐसा नहीं होता-हो ही नहीं सकता।’

‘क्यों नहीं हो सकता, बताओ तो? बाबूजी इन सब बातों को मानते थे, लेकिन तु्म्हारे निकट तो इन बातों का कोई मूल्य ही नहीं है।’

यहां यह बता देना आवश्यक है कि पिता की कट्टरता पुत्र में नहीं है। मद्यपान आदि जैसे कार्यो से भी उसे कोई मोह नहीं है। पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरे गांव की नीच जाति की एक स्त्री आज भी उसका अभाव दूर कर रही है, इस बात को सभी जानते हैं।

गगन बहन के इशारे को समझ गया। गरज कर बोला, ‘मुझमें बेकार की कट्टरता नहीं है लेकिन कन्या के लिए आवश्यक कुल की शस्त्राचार को क्या तेरे लिए तिलांजलि देकर अपनी चौदह पीढ़ियों को नरक में डुबा दुं? हम कृष्ण की संतान है, स्वभाव से कुलीन। गंदी बातें अब कभी मुंह से मत निकालना।’

यह कहकर वह गुस्सा होकर चला गया और त्रिलोचन गंगोपाध्याय का अध्याय वही दब गया।

गगन ने हरिहर घोषाल की शरण ली-‘कुलीन ब्राह्म को ऋण मुक्त करना होगा।’ कलकत्ता में लड़की के व्यापार से हरिहर धन सम्पन्न हो गए हैं। किसी जमाने में उनकी ननिहाल इसी गांव में थी। बचपन में इन बाबुओं के सुदिन उन्होंने अपनी आंखों से देख हैं। बहुत से अवसरों पर भरपेट पूड़ी-मिठाइयां भी खाई हैं। रुपया उनके लिए बड़ी बात नहीं है। इसलिए वह राजी हो गया। चटर्जियों का सारा कर्ज चुकारर उन्होंने गणेशपुरा खरीद लिया और कुंडुओं की डिग्री का रुपया देकर रहने का मकान वापस ले लिया। मौखिक रुप से यह निश्चत हुआ कि कचहरी के लिए बाहर के दो-तीन कमरे छोड़कर अंदर के हिस्से में गगन जिस तरह रह रहा है, उसी तरह रहता रहेगा।

जमींदार तो खरीद ली गई, लेकिन प्रजा ने नए जमींदार की आधीनता स्वीकार नहीं की। जायदाद थोड़ी-सी है। वसूली भी मामूली-सी है, इसलिए बड़े पैमाने पर कोई व्यवस्था नहीं की जा सकती, और फिर गगन ने एसी चाले चलीं कि हरिहर का पक्ष लेने वाला कोई भी गणेशपुरा में नहीं टिक सका। अंत में गगन ही वर्तमान जमींदार का गुमाश्ता बन गया। उसने प्रजा के वश में कर लिया। यह देखकर हरिहर ने इत्मीनान की सांस ली, लेकिन वसूली की दिशा में वही रफ्तार रही जो पहले थी। रोकड़ में एक पैसा भी जमा नहीं हुआ। इस गड़बड़ी में दो वर्ष और बीत गए। उसके बाद एक दिन अचानक खबर मिली कि गुमाश्ता चटर्जी का कहीं कोई पत्ता नहीं लग रहा। शहर से हरिहर के आदमी ने आकर जांच-पड़ताल की तो पता चला कि जो कुछ वसूल हो सकता था, हुआ है और उसे हड़पकर गगन चटर्जी लापता हो गया है। थाने में रिपोर्ट, अदालत में नालिश और घर का खाना तलाशी-जो कुछ भी कार्रवाई होनी चाहिए थी, वह सब की गई, लेकिन गगन के रुपये में से किसी का पता नहीं चला। गगन की बहन अनुराधा और उसके दूर के रिश्ते की बहन का एक बच्चा घर में रहता था। पुलिस वालों ने यथा नियम उन दोनों को खूब धिसा-मांजा, हलाया-डुलाया लेकिन परिणाम कुछ न निकला।

विजय विलायत हो आया है। उसके बार-बार परीक्षा में फेल हो जाने से हरिहर को उसके खाने-पीने और पढ़ाई-लिखाई पर बहुत रुपया खर्च करना पड़ा है, लेकिन वह परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सका। दो साल पहले ही विलायत में प्राप्त ज्ञान के फलस्वरूप बहुत ही गर्म मिजाज लेकर लौटा है। विजय का कहना है कि विलायत में पास-फेल में कोई अन्तर नहीं है। किताबे पढ़कर तो गधा भी पास हो सकता है। अगर वही उद्देश्य होता तो वह यहीं बैठकर किताबें रटा करता, विलायत न जाता। घर लौटकर उसने पिता के लड़की के व्यापार कि कल्पनिक-दुर्व्यवस्था की आशंका प्रकट की और डूबते-डगमगाते व्यापार को सुव्यवस्थित करने में जुट गया। इसी बीच कर्मचारियों पर उसका दबदबा कायम हो गया। मुनीम-गुमाश्ते इस तरह डरने लगे जैसे शेर से ड़रते हैं। जिस काम की वजह से सांस लेने तक की फुर्सत नहीं थी तब गणेशपुरा का विवरण उसके सामने पहुंचा। उसने यह, ‘यह तो जानी हुई बात है। पिताजी जो कुछ करेंगे तो ऐसा ही होगा, लेकिन अब लापरवाही से काम नहीं चल सकता, उसे खुद वहां जाकर सारी व्यवस्था करनी पड़ेगी। इसलिए वह गणेशपुरा आया है।’

लेकिन इस छोटे से काम के लिए अघिक दिन गांव में नहीं रहा जा सकता। जितनी जल्दी हो उसके उसे यहां की व्यवस्था करके कलकत्ता लौट जाना है। सब कुछ उस अकेले के ही सिर पर है। बड़े भाई अजय अटार्नी है। अत्यन्त स्वार्थी-अपने ओफिस और बाल-बच्चों को लेकर व्यसत रहते हैं। गृहस्थी की सभी बातों में अन्धे हैं लेकिन हिस्सा-बांट के बारे में उनकी दस-दस आंखे काम करती हैं। उनकी पत्नी प्रभामयी कलकत्ता विश्व विद्यालय की ग्रेजुएट है। घरवालों की खबर-सुध लेना तो दूर, सास-सकुर जीवित है या मर गए-इतनी खबर लेके की भी फुर्सत नहीं है। पांच-छः कमरे लेकर मकान के जिस हिस्से में वह रहते है, वहां परिवार के लोग आते-जाते सकुचाते हैं। उनके नौकर-चाकर अलग हैं। उड़िया बैरा है, केवल बड़े बाबू के मना कर देने के कारण वह मुसलमान बावर्ची नहीं रख सके है। यह कभी प्रभा को बहुत बुरी तरह अखरती है, लेकिन उस आशा है कि ससुर के मरते ही यह कमी पूरी हो जाएगी। देवर विजय के प्रति हमेशा से उपेक्षा की भावना रहती आई, लेकिन जब से वह विलायत घूम कर लौटा है उनके विचारों में कुछ परिवर्तन आ गया है। दो-चार बार उसे आमंत्रित करके अपने हाथ से पकाकर डिनर खिलाया है। इसी अवसर पर अपनी बहन अनीता से विजय का परिचय भी कराया है। वह इस वर्ष बी.ए. ऑनर्स पाक कर एम.ए. में एडमिशन लेने कि तैयारियां कर रही है।

विजय विधुर है। पत्नी के देहान्त के बाद ही वह विलायत चला गया था। वहां क्या किया, क्या नहीं किया? इसकी खोज करने की आवश्यकता नहीं लेकिन घर लौटने के बाद लोगों ने स्त्रियों के सम्बन्ध में उसके व्यवहार मे रुखापन महसूस किया। मां ने विवाह के लिए कहा तो उसने चीखकर विरोध करते हुए उन्हें ठंडा कर दिया। तबसे आज तक वह मामला दवा पड़ा है।

गणेशपुरा आकर उसने एक प्रजा के मकान के दो बाहरी कमर लेकर नई कचहरी स्थापित कर दी है। जमींदारी के जितने भी कागजात गगन के घर मिल सके, जबर्दस्ती यहां उठाकर लाए गए है, और इस बात की कोशिश की जा रही है कि उसकी बहन अनुराधा और उसके दूर के रिश्ते के बहनौत को घर से निकाल बाहर किया जाए। विनोद धोष के साथ अभी-अभी इसी बात पर विचार-विमर्श कर रहा था।

कलकत्ता से आते समय विजय अपने सात-आठ वर्ष के लड़के कुमार को साथ लेता आया है।

गंवई-गांव में सांप-बिच्छू आदि के डर से मां ने आपत्ति की थी लेकिन विजय ने कह दिया था, ‘तुम्हारी बड़ी बहू के प्रसाद से तुम्हारे लड्डु गोपाल पोते-पोतियों की कमी नहीं है। कम-से-कम इसे वैसा मत बनाओ। इसे आपद-विपद में पड़कर आदमी बनने दो।’

सुनते हैं विलायत के साहब लोग भी ठीक ऐसा ही कहा करते है, लेकिन साहबों की बात के अतिरिक्त यहां जरा कुछ गोपनीय बात भी है। विजय जब विलायत में था तब इस मातृहीन बालक के दिन बिना किसी लाड-प्यार के ही कटे है। कुमार की दीदी अक्सक चारपाई पर पड़ी रहती है, इसलिए पर्याप्त धन, वैभव के होते हुए भी उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था, इसलिए बेचारा कष्टों में ही इतना बड़ा हुआ है। विलायत से वापस आने पर विजय यह बात को मालूम हो गई है।

गणेशपुरा जाते समय विजय कि भाभी ने सहसा हमदर्दी दिखाकर कहा था, ‘लड़के को साथ लेकर जा रहे हो देवर जी! गंवई-गांव की नई जगह ठहरी, जरा सावधानी के रहना लौटोगे कब तक?’

‘जितनी जल्दी सम्भव हो सकेगा।’

‘सुना है वहां अपना एक मकान भी है- बाबूजी ने खरीदा था?’

‘खरीदा जरूर था, लेकिन खरीदने का अर्थ ‘होना’ नहीं है भाभी, उस मकान पर अपना कब्जा नहीं है।’

‘लेकिन अब तो तुम खुद जा रहे हो देवर जी! अब कब्जा होने में देर नहीं लगेगी।’

‘आशा तो यही है।’

‘कब्जा हो जाने पर जरा खबर भिजवा देना।’

‘क्यों भाभी?’

उत्तर में प्रभा ने कहा था, ‘पास ही तो है। गंवई-गांव कभी आंख से देखा नहीं, जाकर देख आऊंगी। अनीता का भी कॉलेज बन्द हो रहा है। वह भी मेरे संग आना चाहेगी।’

इस प्रस्ताव पर प्रसन्ना होकर विजय ने कहा था, ‘कब्जा होते ही मैं तुम्हें खबर भेज दुंगा लेकिन तब इनकार न कर सकोगी। अपनी बहन को भी जरूर लाना।’

अनीता युवती है। देखने में भी सुन्दर है। बी.ए. ऑनर्स है। सामान्य नारी जाति के प्रति विजय की वाहरी उपेक्षा होने पर भी एक विशिष्ट नारी के प्रति-एक साथ इतने गुण होते हुए भी उसकी ऐसी धारणा हो सो बात नहीं है। वहां शान्त ग्राम के निर्जन प्रांत में और कभी प्राचीन वृक्षों की छाया में शीतल संकीर्ण गांव पथ पर एकान्त में सहसा उसके आ जाने की संभावना उसके ह्दय में उस दिन रहकर झूले जैसी रोनक पैदा कर रही थी।

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