अनुराधा
शरतचंन्द्र चट्टोपाध्याय
प्रकरण - 2
विजय शुद्ध विलायती लिबास पहने, सिर पर हैट, मुंह में चुरुट दबाए और जेब में चेरी की घड़ी घुमाता हुआ बाबू परिवार के सदर मकान में पहुंचा। साथ में दो मिर्जापुरी लठैत दरबान, कुछ अनुयायी प्रजा, विनोद घोष और पुत्र कुमार।
जायदाद पर दखल करने में हालाकि झगड़े फसाद का भय है, फिर भी लड़के को लड्डु गोपाल बना देने के बयाज मजबूत और साहसी बनाने के लिए यह बहुत बड़ी शिक्षा होगी, इसलिए वह लड़के को भी साथ लाया है, लेकिन विनोद बराबर भरोसा देता रहा है कि अनुराधा अकेली और अततः नारी ही ठहरी, वह जोर-जबर्दस्ती से हरगिज नहीं जीत सकती। फिर भी जब रिवाल्वर पाक है तो साथ ले लेना ही अच्छा है।
विजन ने कहा, ‘सुना है कि यह लड़की शैतान है। पलक झपकते आदमी फकट्ठे कर लेती है, और यही गगन की सलाहकार थी। उसका स्वभाव और चरित्र भी ठीक नहीं है?’
विनोद ने कहा, ‘जी नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं सुना।’
‘मैंने सुना है।’
वहां कोई नहीं था। विजय सूने आंगन में खड़ा होकर इधर-उधर देखने लगा। हां, है तो बाबुओं जैसा मकान। सामने पूजा का दालान है। अभी तक टूटा-फूटा नहीं है लेकिन जीर्णता की सीमा पर पहूंच चुका है। एक और क्रमानुसार बैठने के कमरे और बैठक खाना है। दशा सबकी एक जैसी है। कबूतरों, चिड़ियों और चमगादड़ो ने स्थायी आश्रय बना रखा है।
दरबान ने आवाज दी, ‘कोई है?’
दरबान के मर्यादा रहित उच्च स्वर के चीत्कार से विनोद घोष और अन्य लोग लाज से शर्मिदा हो उठे। विनोद ने कहा, ‘राधा जीजी को मैं जाकर खबर किए देता हूं साहब!’ यह कहकर वह अन्दर चला गया।
विनोद कि आवाज और बात करने के ढंग से स्पष्ट मालूम हो जाता है कि अब भी इस मकान का असम्मान करने में उसे संकोच होता है।
अनुराधा रसोई बना रही थी। विनोद ने जाकर बड़ी विनम्रता से कहा, ‘जीजी, छोटे बाबू आए हैं। बाहर खड़ा हैं।’
इस अभाग्यपूर्ण घड़ी की उसे रोजाना आशंका बनी रहती थी। हाथ धोकर उठ खड़ी हुई और संतोष को पुकार कर बोली, ‘बाहर एक दरी बिछा आ बेटा, और कहना मौसी अभी आती है।’
फिर विनोद से बोली, ‘मुझे अधिक देर नहीं होगी। बाबू नाराज न हो जाएं विनोद भैया! मेरी ओर से उन्हें जरा देर बैठने को कहा दो।’ विनोद ने लज्जित स्वर से कहा, ‘क्या करुं जीजी, हम लोग गरीब रिआया ठहरे, जमींदार हुक्म देते हैं तो ‘ना’ नहीं कर सकते । इसी से...।’
‘सो मैं जानती हूं विनोद भैया!’
विनोद चला गया। बाहर दरी बिछाई गई लेकिन उस पर कोई बैठा नहीं। विजय धड़ी घुमाता हुआ टहलने और चुरुट फूंकने लगा।
पांच मिनट बाद संतोष ने दरवाजे से बाहर आकर दरवाजे की और इशारा करके ड़रते-ड़रते कहा, ‘मौसीजी आई हैं।’
विजय ठिठककर खड़ा हो गया। सम्भ्रान्त घराने की लड़की ठहरी, उसे क्या कहकर सम्बोधित करना चाहिए, वह इस दुविधा में पड़ गया, लेकिन अपनी कमजोरी प्रकट करने से काम नहीं चलेगा, इसलिए रुखे स्वर में आड़ मे खड़ी अनुराधा को लक्ष्य करके बोला, ‘यह मकान हम लोगों का है, सो तो तुम जानती हो?’
उत्तर आया, ‘जानती हूं।’
‘तो फिर खाली क्यों नहीं कर रही हो?’
अनुराधा ने पहले की तरह संतोष की जुबानी अपनी बात कहलाने की कोशिश की, लेकिन एक तो लड़का चतुर-चालाक नहीं था, दूसरे नए जमींदार के कठोर स्वभाव के बारे में सुन चुका था, इसलिए भयभीत होकर घबरा गया। वह एक शब्द भी साफ-साफ नहीं कह सका। विजय ने पांच-सात मिनट धीरज रखकर समझने की कोशिश की। फिर सहसा डपटकर बोला, ‘तुम्हारी मौसी को जो कुछ कहना हो सामने आकर कहे। बर्बाद करने के लिए मेरे पास समय नहीं है। मैं कोई भालू चीता नहीं हूं जो उसे खा जाऊंगा। मकान क्यों नहीं छोड़ती यह बताओ।’
अनुराधा बाहर नहीं आई। उसने वहीं से बात की। संतोष के माध्यम से नहीं, स्वयं स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘मकान छोड़ने की बात नहीं हुई थी। आपके पिता ने हरिहर बाबू ने कहा था, इसके भीतर हिस्से में हम लोग रह सकेंगे।’
‘कोई लिखा-पढ़ी है?’
‘नहीं, लिखा-पढ़ी कुछ नहीं हैं, लेकिन वह तो अभी मौजूद हैं। उनसे पूछने पर मालूम हो जाएगा।’
‘मुझे पूछने को कोई जरूरत नहीं। यह शर्त उनसे लिखवा क्यो नहीं ली?’
‘भैया ने इसकी जरूरत नहीं समझी। यह शतैं उनसे लिखवा क्यो नहीं की?’
‘भैया ने इसकी जरूरत नहीं समझी। आपके पिताजी के मुंह की बात से लिखा-पढ़ी बड़ी हो सकती है, यह बात शायद भैया को मालूम नहीं होगी।’
इस बात का कोई उचित उत्तर न सूझने के कारण विजय चुप रह गया, लेकिन दूसरे ही पल अंदर से उत्तर आया। अनुराधा ने कहा, ‘लेकिन खुद भैया की और से शर्त टूट जाने के कारण सारी शर्ते टूट गई। इस मकान में रहने का अधिकार अब हमें नहीं रहा, लेकिन मैं अकेली स्त्री ठहरी और यह बच्चा अनाथ है। इसके माता-पिता नहीं हैं। मैंने ही इस पाल-पोस कर इजना बड़ा किया है। हमारी इस दुर्दशा पर दया करके अगर आप दो-चार दिन यहां न रहने देंगे तो मैं अकेली कहां जाऊं, यही सोच रही हूं।’
विजय ने कहा, ‘इस बात का उत्तर क्या मुझको देना होगा? तुम्हारे भाई साहब कहां हैं?’
‘मैं नहीं जानती कहां है।’ अनुराधा ने उत्तर दिया, ‘और आपसे में अब तक भेंट नहीं कर सकी सो केवल इस डर से कि कहीं आप नाराज न हो जाएं।’ इतना कहकर वह पल भर के लिए चुप हो गई। इसी बीच शायद उसने अपने आपको संभाल लिया। कहने लगी, ‘आप मालिक हैं। आप से कुछ भी छिपाऊंगी नहींष अपनी विपत्ति की बात आपसे साफ-साफ कह दी हैं। वरना एक दि भी इस मकान में जबर्दस्ती रहने का दावा मैं नहीं रखती। कुछ दिन बाद खुद ही चली चाऊंगी।’
उसके कंठ स्वर से बाहर से ही समझ में आ गया कि उसकी आंखें छलक उठी हैं। विजय को दुःख हुआ और साथ ही प्रसन्नता भी हुई। उसने सोचा था। कि इस बेदखल करने में न जाने कितना समय लगेगा और कितना परेशानियां उठानी पड़ेगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उसने तो केवल आंसुओं के द्वारा भिक्षा मांग ली। उसकी जेब में पड़ी पिस्तौल और दरबानों की लाठियां अदर-ही-अंदर उसी को लानत देने लगीं, लेकिन अपनी दर्बलता भी तो प्रकट नहीं की जा सकती। उसने कहा, ‘रहने देने में मुझे आपत्ति नहीं थी। लेकिन मकान मुझे अपने लिए चाहिए। जहां हुं, वहां बड़ी परेशानी होती है। इसके अलावा हमारे घर की स्त्रियां भी एक बार देखने के लिए आना चाहती हैं।’
अनुराधा ने कहा, ‘अच्छी बात है, चली आएं न। बाहर के कमरों मे आप आराम से रह सकते हैं। कोई तकलीफ नहीं होगी। फिर परदेश में उन्हें भी तो कोई जानकार आदमी चाहिए। सो मैं उनको बहुत कुछ सहारा पहुंचा सकती हूं।’
अबकी बार विजय शर्मिदा होकर आपत्ति प्रकट करते हुए बोला, ‘नहीं, नहीं, ऐसा भी नहीं होगा। उनके साथ आदमी वगैरह सभी आएंगे। तुम्हें कुछ नहीं करना होगा, लेकिन अंदर के कमरे क्या मैं एक बार देख सकता हूं?’
उत्तम मिला, ‘क्यों नहीं देख सकते है। है तो आप का ही मकान, अंदर घुसकर विजय ने पलभर के लिए उसका चहेरा देख लिया। माथे पर पल्ला है लेकिन घूंघट नहीं। अधमैली मामूली धोती पहने है। जेवर एक भी नहीं। केवल दोनों हाथों में सोने की दो चुडियां पड़ी है। पुराने जमाने की आड़ में से जिसकी आंसू भरी आवाज विजय को अत्यन्त मधुर मालूम हुई थी, उसने सोचा था कि शायद वह भी वैसी ही होगी। विशेष रुप से निर्धन होने पर भी वह बड़े घर की लड़की ठहरी, लेकिन देखने पर उसकी आशा के अनुरूप उसमें उसे कुछ भी नहीं मिला। रंग गोरा नहीं, मंजा हुआ सांवला, बल्कि जरा कालपेन की ओर झुका हुआ ही समझिए। गांव की सामान्य लड़कियां देखने में जैसी होती है, वैसी ही है। शरीर दुर्बल, इकहरा, लेकिन काफी सुगठित मालूम होता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके दिन बैठे-बैठे या सोए-सोए नहीं बीते हैं। केवल उसमें एक विशेषता दिखाई दी-उसके माथे का गठन आश्चर्यजनक रूप से निर्दोष और सुन्दर है।
लड़की ने कहा, ‘विनोद भैया, बाबू साहब को सब दिखा दो। मैं रसोई घर में हूं।’
‘तुम साथ नहीं रहोगी राधा जीजी?’
‘नहीं।’
ऊपर पहुंचकर विजय ने घूम-फिरकर सब कुछ देखा भला। बहुत से कमरे हैं, पुराने जमाने का ढेरों सामन अब भी हर कमरे में कुछ-न-कुछ पड़ा हुआ है। कुछ टूट-फूट गया है और कुछ टूचने-फूटने की प्रतिक्षा कर रहा है। इस समय उसकी कीमति मामूली-सी थी लेकिने किसी दिन बहुत अच्छी खासी रही होगी। बाहर से कमरों की तरह यह कमरे भी जीर्ण हो चुके हैं। हडि्डयां निकल आई हो-निर्धनता का छाप सभी चीचों पर गरहाई से पड़ी हुई है।
विजय के नीचे उतर आने पर अनुराधा रसोई के द्वार पर आकर खड़ी हो गई। निर्धन और बुरी हालत होने पर भी वह भले घर की लड़की ठहरी, इसलिए विजय को अब ‘तुम’ कहकर सम्बोधित करने में झिझाक महसूस हुई। उसने पूछा, ‘आप इस मकान में और कितने दिन रहना चाहती है?’
‘ठीक-ठीक चो अभी बता नहीं सकती। जितने दिन आप दया करके रहने दें।’
‘कुछ दिन तो रहने दे सकता हूं लेकिन अधिक दिन नहीं। फिर आप कहां जाएंगी?’
‘यही तो रात-दिन सोचा करती हूं।’
लोग कहते हैं कि आप गगन का पता जानती है?’
‘वह और क्या-क्या कहते है?’
विजय इस प्रश्न का कोई उत्तर न दे सका।
अनुराधा कहने लगी, ‘मैं नहीं जानती, यह तो मैं आपसे पहले ही कह चुकी हूं, लेकिन अगर जानती भी हूं तो क्या भाई को पकड़वा दूं? यही आपकी आज्ञा है?’
उसके स्वर में तिरस्कार की झलक थी, विजय बहुत शर्मिदा हुआ। समझा गया की अभिजात्य की छाप इसके मन पर से अभी तक मिटी नहीं है। बोला, ‘नहीं, इस काम के लिए मैं आपसे नहीं कहूंगा। हो सका तो मैं खेद ही उसे खोज निकालूंगा। भागने नहीं दूंगा, लेकिन इजने दिनों से वह तो जो हमारा सत्यानाश कर रहा था। उसके बारे में कग्या आप कहना चाहती हैं कि आपको मालूम नहीं था?’
कोई उत्तर नहीं आया। विजय कहने लगा, ‘संसार में कृतज्ञता नाम की भी कोई चीज होती है? क्या आप किसी भी दिन अपने भाई को ईस बात की सलाह नहीं दे सकीं। मेरे पिता बहुत ही सीधे-सादे हैं। आपके परिवार के प्रति उनके मन में स्नेह और ममता है। विश्वास भी बहुत था, इसीलिए उन्होंने गगन को सब कुछ सौंप रखा था। इसका क्या यही बदला है? लेकिन आप निश्चित समझा लीजिए कि अगर मैं देश में रहता तो ऐसा हरगिंगज न होने देता।’
अनुराधा चुप थी। चु ही रही। किसी बात का उत्तर न पाकर विजय मन-ही-मन गर्म हो उठा। उसके मन में जो कुछ थोड़ी बहुत दया पैदा हुई थी, सब उड़ गई। कठोर स्वर में बोला, ‘इस बात को सभी जानते हैं कि मैं कठोर हूं। व्यर्थ की दया-माया मैं नहीं जानता। अपराध करके मेरे हाथ कोई बच नहीं सकता। अपने भाई से भेंट होने पर आप उनसे कम-से-कम इतना जरूर कह दीजिएगा।’
अनुराधा पूर्ववत् मौन रही। विजय कहने लगा, ‘आज से सारा मकान मेरे दखल में आ गया। बाहर के कमरे की सफाई हो जाने पर दो-तीन दिन बाद मैं यहां आ जाऊंगा। स्त्रियां उसके बाद आएंगी। आप नीचे के कमरे में तब तक रहिए-जब तक कि आप कहीं और न सकें, लेकिन किसी भी चीज को हटाने की कोशिश मत कीजिएगा।’
तभी कुमार बोला उठा, ‘बाबूजी, प्यास लगी है। पानी पाऊंगा।’ ‘यहां पानी कहां है?’
अनुराधा ने हाथ के इशारे से उसे अपने पास बुला लिया और रसोई के अंदर ले जाकर बोली, ‘जाम है, पियोगे बेटा?’
‘हा पीऊंगा।’
संतोष के बना देने पर उसने भर पेट डाम का पानी पिया। कच्ची गरी निकालकर खाई। बाहर आकर बोला, ‘बाबूजी, तुम भी पियोगे? बहुत मीठा है।’
‘नहीं।’
‘पियो न बाबूजी, बहूत है। अपने ही तो हैं सब।’
बात कोई ऐसी नहीं थी, लेकिन इतने आदमियों के बीच लड़के के मुंह से ऐसी बात सुनकर वह सहसा शर्मिदा-सा हो गया, ‘नहीं, नहीं पीऊंगा। तू चल।’
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