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वैज्ञानिक साहित्य

शैलेन्द्र चौहान

यथार्थ का चित्रण, वैज्ञानिक साहित्य का एक महत्वपूर्ण पक्ष है और उसका वैचारिक प्रतिफलन हमें रिपोर्ताज, डायरी, लेख, राजनीतिक आलेख इत्यादि में देखने को मिलता है। हिन्दी के आधुनिक साहित्य में यह सब विविध आयम आज परिलक्षित होते हैं। स्व. रघुवीर सहाय एक अच्छे कवि रचनाकार तो थे ही वह एक अच्छे सम्पादक तथा अखबारनवीस भी थे। उनके रिपोर्ताज शैली में कुछ लघु निबंध संकलित हैं 'भँवर, लहरें और तरंग' नाम से उसका अन्तिम निबंध है, 'रोटी का हक'। वैज्ञानिक विचार मंथन की एक साहित्यिक प्रस्तुति यह भी है - "पिछले कुछ वर्षों में कुछ एक झूठ चारों तरफ फैले हैं उनमें से एक हैं कि जनता को सबसे पहले रोटी चाहिए। यह कथन झूठ इसलिए है कि यह रोटी को पहले रखकर बाकी चीजों को बाद में रखता है। बताता नहीं कि बाकी चीजें क्या है। भ्रम पैदा करता है कि जब पहले रोटी आ जायेगी तो बाकी चीजें भी अपने आप पैदा हो जायेंगी। माने रोटी और बाकी चीजें अलग-अलग दो बातें हैं और कुल मिलाकर यह सिद्धांत फैलता है कि रोटी पैदा करने के साधन पर जनता का अधिकार आवश्यक नहीं। उसे रोटी दे दी जाती है यही लोकतंत्र है। यह लोकतंत्र नहीं है रोटी और रोटी पैदा करने का अधिकार दो अलग अलग चीजें नहीं है। रोटी पैदा करने के साधनों पर अधिकार जीवन में पूरा हिस्सा लेने का राजनैतिक अधिकार है। और लोकतंत्र उस अधिकार पर अधिकार रखने की आजादी का नाम है। रोटी देने की धारणा सामंती और लोकतंत्र विरोधी धारणा है क्योंकि वह साधनों पर अधिकार मुठ्ठी भर लोगों का ही रखना चाहती है।" (३ दिस. १९७४)
इस निबंध की भाषा थोड़ी अटपटी है परंतु इसके तर्क और मंतव्य निश्चित रूप से विज्ञान सम्मत है। विश्लेषण और उदाहरण दोनों यहाँ हैं अत: यह विज्ञान का ही साहित्य पर प्रभाव प्रमाणित करता है। तमाम विश्लेषण और सोच विचार के बाद रचनाकार का सोच और उसके मनोभाव एक ऐसी आधारभूमि को तलाश लेते हैं जो उसे सही और श्रेष्ठ प्रतीत होती है। यहाँ रचनाकार एक निस्संग और निष्प्राण दृष्टा की तरह चुप नहीं बैठा रहता बल्कि वह अपनी भूमिका तय कर लेता है और वह पक्षधरता के साथ सृजन करता है। विचार और वैचारिक पक्षधरता, विश्लेषण और निष्कर्ष की वैज्ञानिक विधि का अनुसरण करते हैं यथा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'धूल' का उदाहरण लें :-
तुम धूल हो/पैरों से रौंदी हुई धूल/बेचैन हवा के साथ उठो/आँधी बन उनकी आँखों में पड़ो/जिनके पैरों के नीचे हो।
‘नई कविता’ और ‘अकविता’ स्वातंत्रयोत्तर भारत में उभरते और विकसित होते मध्य वर्ग की आशा-निराशा, कुंठा-संत्रास और अकेलेपन की कविताएं है। महानगरीय बोध की अधिकता के कारण किसान-मजदूर कविता के हाशिये पर भेज दिए गए। इसकी एक वजह किसानों और मजदूरों के आंदोलन में आया ठहराव भी था। इन कवियों ने ग्राम्य जीवन के चित्र भी उकेरे हैं किन्तु उनमें वस्तुस्थिति के रेखांकन के बजाए उसके प्रति रोमानीपन का भाव ही ज्यादा झलकता है। नक्सलबाड़ी आंदोलन ने जिस प्रकार किसानों और मजदूरों को राजनीति के केद्र में पुनर्स्थापित किया, उनको क्रांति की मूलधारा की शक्ति माना, उसी प्रकार हिन्दी कविता की तीसरी धारा के कवियों ने कविता में उनकी रचनात्मक वापसी की। किसानों के जीवन की कटु सच्चाईयां अपने तमाम सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक संदर्भों के साथ इन कवियों की कविताओं देखने को मिलती हैं। मसलन भूमि सुधारों के ज़रिये पूँजीवादी शासक वर्ग ने अपने फ़ायदे के लिए सामंतवादी शक्तियों को एक हद तक कमजोर करके अपने साथ सत्ता में भागीदार बना लिया। किसानों को जमीन नहीं मिली और उनका शोषण बदस्तूर जारी रहा। यह स्वातंत्र्योत्तर भारत के किसानों की जो नेहरू के समाजवादी नमूने का समाज बनाने के नारे की असलियत को सामने लाती है और भारतीय किसान का वास्तविक कारूणिक चित्र भी।
खूंटे कहाँ तोड़े गए? रस्सी कहाँ काटी गई? खूँटे की जमीन भी खूँटेवाले की है/रस्सी भी उसी की बाँटी हुई है/रस्सी खोल देने के लिए सिर्फ़ कह दिया गया है/
जमीन कहाँ दी गई है ?
गोरख पांडेय की एक छोटी सी कविता इसी चेतना और स्वप्न बोध को बड़े ही आशापूर्ण ढंग से खोलती है :
हमारी यादों में/कारीगर के कटे हाथ/सच पर कटी जुबानें चीखती हैं हमारी यादों में/हमारी यादों में तड़पता है/दीवारों में चिना हुआ/प्यार/अत्याचारी के साथ लगातार/होने वाली मुठभेड़ों से भरे हैं/हमारे अनुभव।
सत्ता और व्यवस्था की क्रूरता के चित्र हिन्दी कविता में काफी पहले से मिलने लगते हैं। भारतेन्दु और उनके सहयोगी लेखकों ने अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों और कार्यवाहियों का खुल कर विरोध किया था। प्रगतिवादी आंदोलन से सम्बद्ध कवियों ने भी सामंतवादी और साम्राज्यवादी शक्तियों के विरोध को कविता का मुख्य स्वर बनाया था। आठवें दशक की कविता में व्यवस्था द्वारा नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह को कुचलने के लिए किए गए भयानक जुल्मों और अत्याचारों के खिलाफ विद्रोह कम ही देखने को मिलता है। सत्ता और व्यवस्था का यह भयावह और आतंकपूर्ण समय वहां एक असहनीय चुप्पी के साथ अनुपस्थित है। जो है वह भी इतना प्रतीकात्मक और बिम्बात्मक है कि अपनी प्रासंगिकता भी जाहिर नहीं कर पाता। किन्तु तीसरी धारा के कवियों को यह भयानक समय और सत्ता का आतंक एक दु:स्वप्न की तरह झकझोरता है। कुमार विकल और गोरख पांडेय की अनेक कविताएं इस संदर्भ में गौर करने लायक हैं। कुमार विकल की कविताओं में ‘खूनी नदी’बार-बार आती है और नागार्जुन उन्हें बार-बार-कलकत्ता बुलाते हैं जहां नौजवानों की एक समूची पीढ़ी मार डाली गई है। गोरख कलकत्ता हत्याकांड पर ‘कलकत्ता 71’ लिखकर हज़ारों ‘हज़ार चुरासीर मां’ जैसी खामोश मॉओं की चीखें सुनते हैं। भूख दमन और आतंक का मिला जुला रूप उनकी कविताओं में अपने भयावह समय की वास्तविकता बन कर आता है। हर तरफ चल रही गिरफ्तारियों, कत्ले-आम और कर्फ़्यू के डरावने शोर के बीच लोकतंत्र की ताबूत से झांकते तानाशाह के चेहरे की सच्चाई इन कवियों के यहां निर्भीकता और साहस के साथ प्रकट होती है।
यह पक्षधरता दलित और शोषित के प्रति ही क्यूं है? क्योंकि समाज में मनुष्य और मनुष्य के बीच एक बहुत बड़ी दूरी है। एक शोषित है दूसरा शोषक। वैज्ञानिक साहित्य मानव की बराबरी की वकालत करता है। वह आँख बन्द करके रूढ़ियों का अनुसरण नहीं करने देता वह चेतना को जागृत करता है। और कवि धूल को आँधी के साथ उड़ने की स्वाभाविक क्रिया और उसकी परिणति से आगाह कराता है। पक्षधरता के बाद प्रतिबद्धता भी वैज्ञानिक विचारधारा की अनुगामिनी हुई है। यह प्रतिबद्धता किसी द्रोणाचार्य की कौरवों के साथ प्रतिबद्धता नहीं है। न ही सत्ता की इजोरदार, अपराधी तत्वों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और खुले बाजार के लिए प्रतिबद्धता है क्योंकि विनाश और विकास दोनों ही विज्ञान ने आसान बनाए हैं। आज भारतीय राजनीतिक सत्ता विनाश की प्रतिबद्धता से संचालित है परंतु एक रचनाकार की प्रतिबद्धता मानव के अस्तित्व, बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय तथा सृष्टि के कल्याण की प्रतिबद्धता है। मूल्यहीनता, दृष्टिहीनता और स्वार्थलिप्सा के प्रति नहीं। जनकवि 'शील' की प्रार्थना के साथ कि ' हे दिशा सर्वहारा विवेक' वैज्ञानिक चिंतन और साहित्यिक सरोकारों की कुंद पड़ी चेतना को झंकृत करने की आवश्यकता है :-
पद-दलित देश कुचला जन-बल, दल-बदलू शासक, पतन प्रबल,चर्चित कानूनी सन्निपात, बढ़ रही भेड़ियों की जमात,सोचो! यह किसकी राजनीति ?
विज्ञान और साहित्य का अंर्तसम्बन्ध शरीर और आत्मा का अंर्तसम्बन्ध है। वह मन और शरीर के सम्बन्ध से भिन्न है वहीं आत्मा और परमात्मा के रहस्यवादी सम्बन्धों से भी इसका कोई मेल नहीं। आज जब विज्ञान ने मनुष्य की प्रवृत्ति पर विजय के रूप में अपनी ध्वजा लहराई है यहीं वह कई तरह से-अभिशाप बनकर भी उभर रहा है। परमाणु अस्त्र, रासायनिक एवं जैविक अस्त्र तथा बहुत सी अन्य आपदाओं का जनक भी है विज्ञान। साहित्य विज्ञान की इस अच्छाई बुराई को आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित कर मानव की सौन्दर्यदृष्टि को निरंतर निखारने का यत्न करते रहने की जिम्मेदारी से निश्चित ही नहीं बच सकता। स्वस्थ मूल्य, स्वस्थ वातावरण और स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए स्वस्थ वैज्ञानिक साहित्य आवश्यक है।
संपर्क : 34/242, सेक्टर-3, प्रतापनगर, जयपुर-302033
मो. 7838897877

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