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कविताएं

- शैलेन्द्र चौहान

दया : दलित संदर्भ में

सोचता रहा हूँ सारी रात

औरों के द्वारा की गई दया के बारे में

किस किस पिजन होल में

रखी है कितनी और किस तरह की दया

न जाने कितने दयालु देखे हैं

मैने जीवन में

और उनका कैसा-कैसा दान

यह दया उन्होंने किसके लिए और क्यों की

यह क्यों नहीं बताते साफ़-साफ़

टाटा समर्थ है

देश और शासकों पर दया करने के लिए

बिड़ला लक्ष्मी नारायण पर

भारत के प्रधानमंत्री

वणिकों, दलालों, अपराधियों पर

प्रशानिक अफसर, पुलिस

चोरों, लुटेरों, हत्यारों पर

वल्र्डबैंक, आई एम एफ, ए डी बी,

अमेरिका

दया कर रहें हैं

तीसरी दुनिया के गरीब देशों पर

उस दिन एक हत्यारे ने मुझ पर दया की

जान से नहीं मारा दोनों हाथ काट दिए

डाकू ने दया की सब लूट लिया

जान बख़्श दी

गुंडे ने दया की फिरौती ली

बेइज़्ज़त नहीं किया

सवणाã ने बड़ी दया की

रात भर दलित प्रश्न हल किया

सामूहिक नरसंहार हुआ

उन्होंने खेद प्रकट किया

पग पग पर लोगों ने

मुझ पर दया की

हर दया चस्पा है

मेरे मन पर

मेरा हर घाव रिस रहा है

मवाद बनकर

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ख़ंजर

वह शीशम या सेम के फल सा

नीम की पत्ती जैसी शक्ल में

ए लुहार !

क्या बनाया है ये तुमने ?

सच कहो, क्या ये तुम्हारी

जरूरत का है कोई औजार ?

अभी-अभी किसीने इसे

मांस के लोथड़े में

इस तरह घुसेड़ा

कि चीख निकलते-निकलते

निर्जीव हो गया वह

किसी भी जाति, वर्ण, वर्ग

संप्रदाय और धर्म की है

चरम विभाजक रेखा यह

विद्वेष और वहशत की है

क्रियात्मक अभिव्यक्ति

मुझे याद करने दो

उस छरहरी,साँवली

किशोरी की चीख

जिसने मैट्रिक की परीक्षा

मेरे पास वाली डेस्क पर बैठकर दी थी

उसकी काली-काली आँखों में

इस लोहे के औजार से

कम धार तो नहीं थी !

सांप्रदायिक दंगे में बलात्कृत वह स्त्री

तुम्हारी माँ, बहन, बेटी की

शक्ल में नहीं कौंधी

तुम्हारी वहशी आँखों में,

क्यों ?

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प्रक्रिया

वक्त भरता नहीं घाव

लगाता नहीं मरहम

हाँ, गिरा देता है

जिंदगी का ज्वार

फीके पड़ते हैं उमंग उल्लास

खुरदुरेपन से भर देता है

सीधे सुंदर जीवन को

करता है मंद

चमकते हुए भित्तिचित्रों को

धुंधले कर देता है रंग

आँखों में भर जाते जो

ख़त्म होता है अध्याय

नहीं ख़त्म होती कहानी दुःखांत

चलती है अनवरत एक प्रक्रिया

प्रकाश को धुंधलके से

भर देने की

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अगले चुनाव में

आप डर क्यों रहे हैं

दंगा आपके शहर में ही तो नहीं हुआ

सोचिए

आप भाग भी खड़े हों

तो भी

आप सुरक्षित तो हैं नहीं

आप के शहर के अलावा

और जगहों पर भी तो लोग सांप्रदायिक हैं

यदि आप बचना ही चाहते हैं

तो बड़ा सस्ता नुस्ख़ा है

पहन लीजिए चोला

किसी धर्माचार्य का

आप सुरक्षित भी रहेंगे

और जीत भी जाएँगे

अगले चुनाव में

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ये गुलाबी नगर

डरे हुए पीले निस्तेज चेहरे

चहारदीवारी के भीतर

बदल गए हैं रंग

घरों और आदमियों के

सड़कों पर हैं खून के धब्बे

दिलों में जलने लगी है आग

नफरत की

सौहार्द की मिसालें

नहीं दे पाएँगे अब शहर-वासी

यकायक कैसे बदल गया

शहर का रंग,

लोगों के मन

कैसे बदले ऐतिहासिक प्रमाण

गुलाबी शहर

कैसे हो गया काला

इमारतें हुर्इं पीली

सड़कें लाल

इन सवालों के जवाब

हैं राजनीति में समाहित

बदलना इसे सोचकर

मिट जाएँ

खून के धब्बे

गुलाबी नगर की गरिमा

हो फिर से कायम

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मारे गए हैं वे

एक

कबूतर की तरह

तड़पता - फड़फड़ाता

गिरा वह गली में

छत से ठाँय - - -

बेधती हुई सीना

थ्री-नॉट-थ्री रायफल से

निकली गोली

वह दंगाई नहीं

तमाशबीन था

भरा-पूरा जिस्म , कद्दावर काठी

आँखों में तैरते सपने लिए

चला गया , यद्यपि

नहीं जाना चाहता था वह

दो

हस्पताल आने तक

यकीन था उसे

नहीं मरेगा

बच जाएगा क्योंकि वह

नहीं था कुसूरवार

भतीजी की चिंता में परेशान

चल पड़ा था

विद्या मंदिर की तरफ

नहीं पहुँच सका

घंटे भर लहू बहने के बाद

पहुँचाया गया हस्पताल

सांप्रदायिक नहीं था वह

फिर भी मरा

पुलिस की गोली से

तीन

उमंग और खुशी से

जीवन में चाहता था

भरना चमकदार,

आकर्षक रंग

प्रियतमा सुंदर उसकी

छिड़कती रही उस पर

अपनी जान

ब्याह दी गई

सजातीय, उच्च वर्ग के

वर के साथ

सपनों को साकार

करने के लिए

कर दिए एक दिन-रात

बेफिक्र था इस

कार्य-व्यापार से वह

तड़पता-छटपटाता रह गया

पाकर सूचना शुभ !

सपने टूटने की

अनगिनत घटनाएँ

किस्से, पुराकथाएँ

गवाह है इतिहास

गवाह हैं चाँद-सितारे

गवाह हैं धर्मग्रन्थ

गवाह हैं कवि

हादसे यूँ ही

घटते रहे हैं अक्सर

निर्दोष, भोले-भाले

अव्यवहारिक

व्यक्तियों के साथ

मारे गए हैं सदैव वे

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समय सांप्रदायिक

बड़ी उर्वर ज़मीन थी वह

युगों तक

तब आज रेगिस्तान यह

रेंगता सा

कहाँ से आया ?

समय सांप्रदायिक

मॉब लिंचिंग और

नारे नफ़रत भरे

कुएँ का पानी

नालियों में बहता

पहुँचता खेत गेहूँ के,

होली के रंग

पकी बालियों के संग

महक भुने दानों की

होरी आई, होरी आई, होरी आई रे

खचाखच भर गई चौपाल

मन का मृदंग बजता मद भरा

कबिरा ने छेड़ी फागुन में

बिरहा की तान

झूम उठा विहान

कितना विस्तृत मन का मान

भूल गए सब

मेहनत, मार और लगान

दूर हुआ शैतान

पर आज हर घर में

हाँडी के चावल

फुदक-फुदक फैले

मन भी रेगिस्तान हुआ

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संपर्क : 34/242, सेक्टर-3, प्रतापनगर, जयपुर-302033

मो. 7838897877

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